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विपणन दर्शन क्या है? (Marketing Philosophy)
विपणन दर्शन क्या है? | Marketing Philosophy in Hindi- रिचर्ड पी० केल्हून के अनुसार, “एक सुस्थापित दर्शन प्रशासन के चिन्तन और व्यवहार की रूपरेखा प्रदान करने के लिए आवश्यक होता है। दर्शन किसी कार्य के निर्धारण तथा क्रियान्वयन हेतु आधारभूत मापदण्डों की स्थापना करता है।” विपणन दर्शन द्वारा ग्राहकों की असंतुष्ट इच्छाओं का पता लगाया जाता है और इस जानकारी के आधार पर लाभ पर उत्पादों या सेवाओं का निर्माण किया जाता है। विपणन दर्शन के अन्तर्गत एक उत्पाद को ‘मनोवैज्ञानिक संतुष्टि या समूह’ (Cluster of Psychological Satisfaction) के रूप में परिभाषित किया जाता है। वास्तव में देखा जाए तो विपणन के अर्थ के बारे में विद्वानों में काफी भिन्नता मिलती है और साथ ही साथ व्यवसाय में होने वाले क्रान्तिकारी परिवर्तनों के कारण ग्राहकों पर ध्यान देने वाली व्यावसायिक क्रिया के सम्बन्ध में प्रयुक्त शब्दों में निरन्तरपरिवर्तन हो रहे हैं। आज से लगभग कुछ दशक पूर्व ‘विक्रय’ (Sales) शब्द का प्रयोग किया जाता था जिसका स्थान बाद में चलकर ‘वितरण’ (Distribution) ने ले लिया और आज इसके स्थान पर ‘विपणन’ (Marketing) शब्द अधिक लोकप्रिय है।
यह सोचना शायद सही नहीं है कि विपणन और ग्राहक अभिमुखीकरण (Customer- orientation) की विचारधारा सर्वथा नवीन है। वास्तव में विपणन दर्शन विचारधारा काफी प्राचीन है। काफी समय पूर्व जबकि वर्तमान अर्थव्यवस्था का विकास नहीं हुआ था, उस समय भी ‘ग्राहक – अभिमुखीकरण’ व्यावसायिक उपक्रमण की एक प्रमुख विशेषता थी। वृहत उत्पादन तथा राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों के प्रादुर्भाव से पूर्व भी व्यवसायी अपने ग्राहकों और बाजारों के प्रति सजग व सचेत थे। वे अपने ग्राहकों से परिचित थे और ये व्यक्तिगत ग्राहक (Individual Customer) ही अपने सामूहिक बाजार का निर्माण करते थे। हमारे इन पूर्वजों ने व्यक्तिगत सम्पर्क द्वारा ग्राहकों से सम्बन्ध स्थापित किये और ग्राहकों की इच्छाओं तथा आवश्यकताओं के बार में जानकारी प्राप्त की। वे स्वयं अपने बाजार के अनुसंधानकर्ता, विश्लेषणकर्ता, विक्रेता, उत्पाद नियोजनकर्ता, विज्ञापनकर्ता और संवर्द्धनकर्ता थे। निः संदेह उनका व्यावसाय ग्राहक-अभिमुखी था क्योंकि वे जानते थे कि केवल इसी तरीके से व्यवसाय को सफलतापूर्वक चलाया जा सकता है।
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