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प्रबन्ध लेखांकन के सिद्धान्त (Principles of management Accounting)
एम. स्टेफकोर्ड स्मिथ प्रबन्ध लेखांकन के जिन सिद्धान्तों का उल्लेख किया है, वे इस प्रकार हैं-
1. क्षेत्र का सिद्धान्त (Principle of Scope)- प्रबन्ध लेखांकन सम्बधी आँकड़ों का. क्षेत्र, उन्हें प्राप्त करने वाले व्यक्तियों के अधिकार क्षेत्र से बाहर नहीं होना चाहिए। विभिन्न स्तरों पर कार्यरत प्रबन्धकों को केवल वे ही आँकड़े भेजे जाने चाहिए अथवा वे ही सूचनायें मांगी जानी चाहिए जो उनके अधिकार क्षेत्र में हों जिससे वह अपने कार्य का निष्पादन सही ढंग से कर सकें।
2. परिशुद्धता एवं समय का सिद्धान्त (Principle of Accuracy and Time) – प्रबन्धकीय लेखांकन में प्रयुक्त किये जाने वाले आँकड़ों (सूचनाओं) का तो शुद्ध होना आवश्यक है ही, साथ ही उनका समुचित समय पर उपलब्ध होना कम महत्वपूर्ण नहीं है।
3. नियमितता का सिद्धान्त (Principle of Puntuallity) – निर्णय लेने वाले अधिकारियों को संस्था में होने वाली प्रगति एवं कार्य-कलापों के सम्बन्ध में नियमित सूचना की आवश्यकता पड़ती है, अतः सम्बन्धित अधिकारियों के पास सूचना का प्रेषण नियमित रूप से किया जाना चाहिए। जिन प्रबन्धकों के पास प्रबन्ध सम्बन्धी जो आँकड़े प्रतिदिन भेजे जाते हैं, उन्हें अगले दिन के प्रथम घण्टे में प्राप्त हो जाना चाहिए। जिन प्रबन्धकों के पास आँकड़े प्रति सप्ताह भेज जाते हैं, उन्हें वे आँकड़े अगले सप्ताह के प्रथम दिन प्राप्त होने चाहिए। जिन प्रन्धकों के पास मासिक आँकड़े भेजे जाते हैं, उन्हें वे आँकड़े माह के प्रथम सप्ताह में प्राप्त हो जाने चाहिए तथा वार्षिक आँकड़ों के प्राप्तकर्ताओं के पास अगले वर्ष के प्रथम माह में पहुँच जाने चाहिए।
4. औचित्य का सिद्धान्त (Principle of Fairness)- चूँकि प्रबन्धकों के लिए आवश्यक आँकड़े काफी महत्वपूर्ण होते हैं, अतः आँकड़े उपलब्ध कराने वाले व्यक्ति को निष्पक्ष होना चाहिए, साथ ही किसी प्रकार के पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होना चाहिए क्योंकि आँकड़ों को किसी विशेष दृष्टि से प्रभावित कर प्रस्तुत करना तो आसान है किन्तु ऐसा कररने से प्राप्त निष्कर्ष भ्रामक हो 6 जायेंगे।
5. परिभाषा की परिशुद्धता का सिद्धान्त (The principle of Precision of Definition) – प्रबन्ध लेखांकन सम्बन्धी प्रत्येक विवरण शुद्धता परिभाषित होना चाहिए। प्रबन्ध लेखापाल को प्रत्येक विवरण इस प्रकार तैयार करना चाहिए, ताकि उन्हें अध्ययन करने वाला व्यक्ति उनके आँकड़ों से ही निष्कर्ष निकाल सके। इसके लिए यदि किसी अपवादात्मक पद को छोड़ा गया है तो सम्मिलित किया गया है तो उसके लिए नीचे टिप्पणी दे देनी चाहिए।
6. प्रभावशीलता का सिद्धान्त (Principle of Effectivenesss)- प्रबन्ध लेखांकन की सूचना तभी महत्वपूर्ण होगी जब उसका समुचित उपयोग हो। दूसरें शब्दों में, उपलब्ध सूचनाओं का जितने योग्य व्यक्तियों द्वारा जितनी अधिक वैज्ञानिक रीतियों का प्रयोग करते हुए मनुष्य व्यवहार का ध्यान रखकर उपयोग किया जायेगा, उतना ही अधिक प्रभावी होगा तथा उतने ही कम प्रयास से उतने ही अधिक परिणाम प्राप्त हो सकेंगे। अनेक संस्थाओं में औसत से कम प्रयासों द्वारा औसत से अधिक परिणाम प्राप्त कर लिये जाते है।
7. तुलना का सिद्धान्त (Principle of Comparison) – किसी भी एक सूचना से उपयुक्त निर्णय नहीं लिया जा सकता है। इसका महत्व या उपयोग जानने के लिए अन्य तुलनात्मक संमकों की आवश्यकता होती है। ये तुलनात्मक समंक उसी उद्देश्य परिस्थिति तथा विभिन्न समयों पर उसी प्रकार का होना चाहिए, ताकि सही निर्णय लिया जा सके। यह तुलना बजट से या उसी प्रकार का कार्य करने वाली अन्य संस्था से या उसी संस्था की गत अवधि से हो सकती है।
8. प्रमापों की सहमति का सिद्धान्त (Principle of Concordance of Standards) – समुचित नियोजन के उद्देश्य से प्रमापों एवं वास्तविक निष्पादकों की तुलना आवश्यक होती है किन्तु ये प्रभाव तभी उचित माने जा सकते है जब उन्हें कार्यरत व्यक्तियों की स्वीकृति मिल गई हो। संस्था में प्रत्येक स्तर पर कर्मचारियों द्वारा अपने लिए उचित मानक निर्धारित कर लिये जाते हैं जिन्हें उचित तथा तर्कसंगत समझा जाता है।
9. समय अवधि का सिद्धान्त (Principle of Time Span) – प्रबन्धकों के बीच जिस व्यक्ति की स्थिति जितनी ऊँची होती है, उसके समक्ष प्रस्तुत किये जाने वाले विवरणों की समय अवधि उतनी ही अधिक होती है। उदाहरण के लिए, उच्च प्रबन्ध को मासिक या त्रैमासिक सूचनाओं की आवश्यकता होती है, जबकि मशीनों पर कार्यरत व्यक्तियों के लिए साप्ताहिक या मासिक परिणामों की अपेक्षा प्रति घण्टा या प्रति मिनट के परिणाम (सूचना) अधिक उपयोगी होते है।
10. माप का सिद्धान्त (Principle of Scale) – प्रबन्धकों की श्रृंखला में प्रबन्ध सूचना को प्राप्त करने वाले अधिकारी की स्थिति जितनी ही नीची होती है, उसके कार्य का लेखांकन माप उतना ही प्रत्यक्ष होना चाहिए। प्रत्यक्ष रूप से कार्य करने वाले कर्मचारी अपने कार्य तथा उससे सम्बन्धित क्रियाओं को प्रत्यक्ष मापों में ही ठीक प्रकार से समझ पाता है।
प्रबन्धकीय लेखांकन के कार्य (Function of Mangement Accounting)
प्रबन्धकीय लेखाविधि का विकास प्रबन्ध के कार्यों को कुशलतापूर्वक निष्पादन में सहायता प्रदान करने हेतु हुआ। मुख्य तौर पर यह प्रबन्धकीय समस्याओं को हल करने में वित्तीय लेखाविधि का प्रयोग है। इसमें वित्तीय लेखाविधि से प्राप्त सूचनाओं की व्याख्या एवं विश्लेषित कर प्रबन्ध के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है जिससे वे अपने कार्यों का सम्पादन सफलतापूर्वक कर सकें। इसके प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-
1. संगठित करना (Organising)- प्रबन्ध, लेखांकन द्वारा स्वीकृत योजनाओं के कार्यान्वयन हेतु आवश्यक संगठन करता है। विभिन्न मानवीय एवं भौतिक साधनों का उचित प्रयोग तब ही सम्भव है जब व्यवसाय की विशिष्टताओं के आधार पर कर्मचारियों के दायित्वों का निर्धारण किया जाय। वस्तुतः किसी व्यावसायिक संस्था के उपलब्ध विभिन्न साधनों के सर्वोत्तम प्रयोग के लिए कार्यविधि तैयार करना प्रबन्धकीय लेखाविधि का महत्वपूर्ण कार्य है। इसके लिए प्रबन्ध लेखापाल विभिन्न कर्मचारियों को संगठित करता है एवं उनका दायित्व निर्धारण तथा अधिकार रेखांकन करता
2. समन्वय (Co-Ordinating)- प्रबन्धकीय लेखाविधि विभिन्न व्यावसायिक क्रियाओं में समन्वय स्थापित करती है। इसके लिए बजट प्रणाली प्रयोग में लायी जाती है। व्यावसायिक क्रियाओं में समन्वय पैदा करने से संस्था की कुशलता बढ़ती है जिससे लाभ की मात्रा भी बढ़ती है। प्रबन्ध लेखापाल प्रबन्धकों को व्यावसायिक क्रियाओं में समन्वय स्थापित करने के उद्देश्य से समय- समय पर विभिन्न प्रतिवेदन एवं सुझाव देता रहता है।
3. अभिप्रेरित करना (Motivating)- किसी भी व्यावसायिक संस्था में नियन्त्रण की कार्यवाही के लिए प्रोत्साहन अनिवार्य है। प्रबन्धकों द्वारा जो भी योजनाएँ बनायी जाती है, उन पर नियन्त्रण आवश्यक होता है। नियन्त्रण के लिए प्रबन्धकों को यह देखने रहना पड़ता है कि कार्य का सम्पादन योजनानुसार हो रहा है अथवा नहीं। यदि कार्य का सम्पादन सनतोषजनक नहीं हो पाता है तो वैसी स्थिति में वे कर्मचारियों को प्रोत्साहित करते है। प्रबन्धकीय लेखांकन से प्रबन्धकों को समय- समय पर विविध लेखांकन सूचनाएँ प्राप्त होती रहती है जिसे आधार बनाकर वे सनतोषप्रद कार्य- संचालन हेतु कर्मचारियों को प्रोत्साहित करते रहते हैं। दूसरे शब्दों में, कर्मचारियों को अभिप्रेरित करने के लिए प्रबन्धकीय लेखाविधि के अन्तर्गत योजनाएँ बनायी जाती हैं एवं उस योजना को प्रबन्ध के समक्ष प्रस्ततु किया जाता है।
4. वित्तीय विश्लेषण और व्याख्या (Financial Analysis and Interpretation)- आँकड़ों की सत्यता को परखने के साथ-ही-साथ प्रबन्धकीय लेखांकन उनके विश्लेषण (Analysis) – एवं व्याख्या (Interpretation) के भी कार्य करता है। आँकड़ों के मूल रूप से प्रबन्ध को बहुत अधिक मदद नहीं मिल सकती है। प्रबन्धक उन आँकड़ों से तब ही कोई निश्चित निष्कर्ष निकाल सकते हैं, जबकि उन्हें संक्षिप्त एवं उचित रूप में उनके समक्ष प्रस्तुत किया जाय अर्थात् प्रबन्धकीय लेखाविधि वित्तीय समंकों का विश्लेषण एवं व्याख्या करके सरलतम रूप में बदलकर प्रबन्ध के समक्ष प्रस्तुत करती है। वित्तीय विश्लेषण के लिए व्यावसायिक (तकनीकी) ज्ञान का होना आवश्यक है। साधारणतया प्रबन्धकों में इन गुणों की कमी पायी जाती है। अतः उनकी इस कमी को प्रबन्ध लेखापाल दूर करते हैं।
5. संवहन (Communication)- यहाँ संवहन का तात्पर्य संस्था के आन्तरिक व्यक्तियों (प्रबन्धक एवं कर्मचारी इत्यादि) एवं बाह्य व्यक्तियों (लेनदार, बैकं, ग्राहक एवं ऋण- पत्रधारियों) को सूचना भेजना है। संस्था के कर्मचारियों पर प्रभावशाली नियन्त्रण रखना तथा श्रेष्ठ निर्णय लेने के लिए प्रबन्ध को संस्था के बारे में ताज़ा ज्ञान होना आवश्यक है। वस्तुतः किसी संस्था की संवहन प्रक्रिया में प्रबन्धकीय लेखाविधि का महत्वपूर्ण स्थान होता है। आँकड़े तब ही लाभप्रद हो सकते हैं, जबकि उचित समय पर उचित व्यक्ति के पास पहुँच जायें। प्रबन्धकीय लेखांकन द्वारा आँकड़ों को समय रहते उचित व्यक्ति के पास उचित रूप में पहुँचाने का कार्य किया जाता है, इसके लिए विभिन्न ग्राफों, चार्टो, तालिकाओं प्रतिदर्शों आदि का भी प्रयोग किया जाता है।
6. विशेष लागत और आर्थिक अध्ययन (Special Cost and Economic Studies)- संस्था के लाभ को बढ़ाने के लिए प्रबन्धकीय लेखाविधि में विभिन्न आर्थिक अध्ययन कार्य चलते – रहते हैं। उदाहरणतः उत्पादन संवद्धर्न के लिए, लागत लाभ मात्रा विश्लेषण, समय-विच्छेद चार्ट आदि तकनीके महत्वपूर्ण होती है। इन अध्ययनों का उद्देश्य निर्णय कार्य में प्रबन्ध की मदद करना एवं व्यवसाय के लाभ को अधिकतम करना होता है।
7. पूर्वानुमान तथा आयोजन (Forcasting and Planning)- संस्था के लक्ष्य निर्धारित करना एवं उसके अनुसार नियोजन करना प्रबन्धकीय लेखाविधि का प्रमुख कार्य होता है। इसके अन्तर्गत लागत, विक्रय, उत्पादन, नकद प्राप्ति, नकद भुगतान इत्यादि का पूर्वानुमान किया जाता है एवं उसके आधार पर भावी नियोजन तैयार किया जाता है। इसके लिए सम्भाव्यता, सह- सम्बन्ध, कोष-प्रवाह विवरण, बजटन, सीमान्त परिवव्ययन आदि तकनीके प्रयोग में लायी जाती है।
8. निष्पादन एवं नियन्त्रण (Controling and Performance)- इसके अन्तर्गत यह देखा जाता है कि कार्य का निष्पादन योजनानुसार हुआ है या नहीं। यदि कार्य निष्पादन योजनानसार नहीं हुआ है तो महत्वपूर्ण सुधारात्मक कार्यवाही की जाती है।
निष्पादन नियन्त्रण के लिए परिमाप परिव्ययन व बजटरी नियन्त्रण तकनीकें अपनायी जाती हैं। प्रबन्ध लेखापाल अन्तरिम प्रतिवेदन तथा कार्यकारण विवरण प्रस्तुत करता है। प्रबन्ध लेखापाल अपनी विविध रिपोटों एवं विवरणों में उन सभी बातों की ओर प्रबन्ध का ध्यान आकर्षित करता है जिस पर समय रहते नियन्त्रण की आवश्यकता होती है।
9. मापन (Measuring) – प्रबन्धकीय लेखाविधि के अन्तर्गत लेखापाल विभिन्न क्षेत्रों में प्रबन्ध की कार्यकुशलता का मापन करता है। प्रबन्ध को कार्य निष्पादन में सहायता करने के उद्देश्य से प्रबन्ध लेखापाल भूतकालीन तथा वर्तमान घटनाओं का भविष्य के सन्दर्भ में मापन करता है। प्रमाप परिव्ययन व बजटरी नियन्त्रण के अन्तर्गत वास्तविक परिणामों व प्रमाणित लक्ष्यों में कर प्रबन्धकीय प्रभावशीलता एवं कुशलता का मापन किया जाता है। तुलना
10. लेखन (Recording)- लेखन किसी भी लेखाविधि का आधारभूत कार्य माना जाता है। उत्पादन, विक्रय, श्रम, वित्त, अनुसन्धान एवं विकास आदि क्रियाओं के सम्बनध में प्रतिदिन लेन-देन होते रहते हैं। प्रारम्भ में इनका लेखा वित्तीय लेखांकन में किया जाता है। ये पुसतकें प्रबन्धकीय लेखाविधि के अंग मात्र होती है। प्रबन्धकीय लेखाविधि के अन्तर्गत विभिन्न वित्तीय लागत सम्बन्धी तथा अन्य आँकड़ों का इस प्रकार अभिलेखन किया जाता है, ताकि प्रबन्धकों की नीति निर्धारण, निणर्य एवं नियोजन करने के कुछ समय पूर्व ही आँकड़े उपलब्ध हो सकें। प्रबन्ध लेखापाल ऐसे अभिलेखन की व्यवस्था करता है ताकि ताजे-से-ताजे आँकड़े प्रबन्ध के समक्ष प्रस्तुत किये जा सकें।
11. प्रतिवेदन (Reporting) – प्रबन्धकीय लेखाविधि के अन्तर्गत प्रतिवेदन का तात्पर्य लेखापाल द्वारा सृजित सूचना को प्रबन्ध तक पहुँचाने से हैं, ताकि वे व्यावसायिक निर्णय लेने में उनका समुचित उपयोग कर सकें। प्रबन्धकीय लेखाविधि के अन्तर्गत दो प्रकार के प्रतिवेदन तैयार किये जाते हैं।
(a) नियमित प्रतिवेदन (Regular Report) – ये प्रतिवेदन नियमित रूप से तैयार किये जाते है तथा इनका सम्बन्ध प्रबन्ध के कुछ विशिष्ट व्यक्तियों से होता हैं ऐसे प्रतिवेदन व्यवसाय के प्रबन्ध को परिचालन गतिविधियों एवं कार्य क्षेत्र पर उचित नियन्त्रण बनाये रखने में खासकर सहायक होते है। ये प्रतिवेदन वर्तमान तथा भविष्य में संचालन एवं नियन्त्रण सम्बन्धी त्रुटियाँ दूर करने तथा नीतियाँ निर्धारित करने में पर्याप्त सहायक सिद्ध होते हैं।
(b) विशेष प्रतिवेदन (Special Report) – ऐसे प्रतिवेदन किसी प्रबन्ध या विभाग की प्रार्थना पर किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति हेतु तैयार किये जाते हैं।
उच्चस्तरीय प्रबन्धकों को समय-समय पर ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जिनके समाधान के लिए नियमित प्रतिवेदनों में उपलब्ध सूचनाएँ पर्याप्त नहीं होती बल्कि अतिरिक्त सूचनाओं की आवश्यकता होती हैं। इन अतिरिक्त सूचनाओं में कुछ तो ऐसी होती है जो लेखा- पुस्तकों में उपलब्ध होती है लेकिन नियमित तौर पर इनकी आवश्यकता नहीं होने के कारण इन्हें नियमित प्रतिवेदनों में सम्मिलित नहीं किया जाता है। आवश्यकता पड़ने पर इन सूचनाओं को संकलित कर संक्षिप्त रूप में प्रबन्धकों के समक्ष विशेष प्रतिवेदनों में प्रस्तुत किया जा सकता है। साधारणतया विशेष प्रतिवेदनो के लिए जिन सूचनओं की आवश्यकता होती है, वे सब की सब लेखा-पुस्तकों में उपलब्ध नहीं रहती है, उसके लिए स्वतन्त्र अनुमान एवं परिकल्पना की आवश्यकता होती है। उदाहरणार्थ, यदि प्रबन्धकों को यह निर्णय लेने हों कि किसी वस्तु का उत्पादन किया जाये या बाजार से क्रय किया जाय, किसी पुरानी मशीन का प्रतिस्थापन किया जाय या नहीं, उत्पादन की सभी प्रक्रियाएँ चालू रखी जायें या कुछ को बन्द कर दिया जाय, परियोजना में विनियोग किया जाय या नहीं, ऐसे श्रेष्ठाम निर्णय के लिए विभिन्न विकल्पों का तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक है। अतः इस प्रकार के निर्णय लेने में भविष्य से सम्बन्धित तथ्यों का अनुामन लगाने के लिए प्रबन्ध लेखापाल को विभिन्न स्रोतों से सूचनाएँ एकत्र कर ऐसे प्रतिवेदनों का निर्माण करना होता है जो प्रबन्धकों को श्रेष्ठतम निर्णय लेने में सहायक साबित हो सकें।
प्रबन्धकीय लेखाविधि का महत्व व आवश्यकता (Need and Importance of Management Accounting)
वर्तमान जटिल औद्योगिक परिवेश में प्रबन्धकीय लेखाविधि प्रबन्ध का अभिन्न अंग बन गयी है। प्रबन्ध लेखापाल प्रबन्ध का प्रत्येक कदम पर पथ प्रर्दशन करता है। इन दिनों संस्थागत क्रियाओं में अत्यधिक वृति हो जाने के कारण प्रबन्धकीय लेखाविधि का महत्व और भी बढ़ गया है। प्रबन्धकीय लेखाविधि न केवल प्रबन्ध को कार्यक्षमता बढ़ती है बल्कि कर्मचारियों की कार्यक्षमता भी विकसित होती है। इसके महत्व निम्नलिखित हैं-
1. कार्यक्षमता में वृद्धि (Incrcease in Efficiency)- प्रबन्धकीय लेखाविधि संस्था की कार्यक्षमता बढ़ती है चूँकि पूर्वानुमान के आधार पर प्रत्येक विभाग का टारगेट तैयार कर लिया जाता है और बाद में प्राप्त परिणामों से तुलना की व्यवस्था की जाती है। ऐसी स्थिति में कार्यक्षमता में वृद्धि होना स्वाभाविक है वर्तमान युग योजना का युग है। वहीं उत्पादक अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर पाता है जो योजनाबद्ध ढंग से उत्पादन करता है। प्रबन्धकीय लेखांकन व्यवसाय के समस्त भूतकालिक आँकडों को प्रतुत करता है जिनके आधार पर प्रबन्ध वर्तमान परिस्थितियों के सन्दर्भ में भावी योजनाओं का निर्माण करता है।
भविष्य के सन्दर्भ में यह निर्णय लेना कि ‘क्या करना है’ तथा इस निर्णय को कार्यान्वित करने के लिए नीतियाँ निर्धारित करने एवं योजना बनाने के कार्य को नियोजन में सम्मिलित किया जाता है। नियोजन प्रबन्ध का शुद्ध मौलिक कार्य माना जाता है। प्रत्येक नियोजन के पीछे कुछ-न- कुछ उद्देश्य अवश्य छिपा रहता है। सही अर्थों में व्यवसाय में नियोजन का उद्देश्य अधिकतमक लाभ उपार्जित करना होता है किन्तु वर्तमान समय में नियोजन का उद्देश्य समाज कल्याण भी हो गया है। प्रबन्ध लेखांकन में प्रयुक्त प्रमाप परिव्यय विधि, सीमान्त लागत विधि, लागत मात्रा एवं लाभ विश्लेषण तकनीकों के नियोजन के लिए, प्रबन्ध यन्त्र के रूप में प्रयोग किया जाता है।
2. उचित नियोजन (Proper Planning)- लेखांकन सूचना के आधार पर प्रबन्ध अनेक नियोजन करता है। बजटन की विधि क्रियाओं का अनुमान लगाया जा सकता है। चूँकि सबसे पहले बजट विभागीय स्तर पर बनाया जाता है जो सम्पूर्ण संगठन के लिए होता है। संस्थाओं की क्रियाओं का नियोजन वैज्ञानिक तौर-तरीके से किया जाता है।
3. निष्पादन का प्रबन्ध (Manageent of Performance)- बजटरी नियन्त्रण एवं प्रमाप परिव्ययन ऐसी तकनीकें हैं, जिनकी सहायता से कार्य निष्पादन का मूल्यांकन किया जाता है। प्रमाप परिव्ययन के अन्तर्गत पहले प्रमाप निर्धारित कर दिये जाते हैं और तब वास्तविक लागत से उसकी तुलना की जाती है। यह प्रबन्ध को यह बताती है कि प्रमाप परिव्ययन एवं वास्तविक लागत के बीच क्या सम्बन्ध है ? यदि वास्तविक लागत प्रमाप परिव्ययन से कम होती है तो निष्पादन अच्छा माना जाता है। बजटरी नियन्त्रण से सभी कर्मचारियों की कार्यक्षमता को मापा जाता है।
4. लाभ को अधिकतम करना (Maximising Profit) – विभिन्न प्रबन्ध तकनीकों की प्यास (Thirst) उत्पादन लागत को नियन्त्रित करने एवं संस्था के प्रत्येक कर्मचारी की कार्य क्षमता बढ़ाने की होती है। लागत नियन्त्रण के लिए प्रयुक्त कदम उत्पादन लागत को घटाते हैं। प्रबन्धकीय लेखाविधि की सहायता से उद्योग के लाभ को अधिकतम करना सम्भव हो पाता है अर्थात् उसमें इसकी अपेक्षित भूमिका रहती है।
5. ग्राहकों की सेवा (Service to the Customers) – प्रबन्धकीय लेखाविधि के विभिन्न कार्यों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि यह लागत को कम करने के लिए हर सम्भव प्रयास करती है, परिणामतः ग्राहकों को कम कीमत पर वस्तुएँ उपलब्ध होती है इतना ही नहीं यह केवल कीमत को ही नहीं कम करती है बल्कि वस्तुओं की क्वालिटी को भी बढ़ाती है। इसके अलावा नियोजन के आधार पर वस्तुओं का उत्पादन होने से वस्तुओं पूर्ति भी आवश्यकतानुसार होती है।
6. प्रभावपूर्ण प्रबन्ध नियन्त्रण (Effective Management Control)- किसी संस्था कार्य का सम्पादन योजना के अनुरूप हो रहा है या नहीं तथा किसी प्रकार की विषमता होने पर अवांछनीय प्रवृत्तियों में सुधार करने के लिए अपनायी जाने वाली व्यवस्था को नियन्त्रित प्रणाली कहते हैं। इस प्रकार किसी भी संस्था में नियन्त्रण के सर्वप्रथम उपयुक्त कार्य-मान (Standards of Performace) तैयार किये जाते हैं। वास्तविक कार्य परिणामों की कार्य-मानों से तुलना की जाती है। तथा वास्तविक कार्य परिणाम कार्य-मानों से भिन्न हैं तो इसके कारणों की जाँच करके आवश्यक सुधार की व्यवस्था की जाती है। प्रबन्धकीय लेखाविधि के यन्त्र एवं तकनीक संस्था के कार्यों का नियोजनों करने उनके बीच सामंजस्य पैदा करने में सहायक होते हैं। प्रभावपूर्ण नियन्त्रण के कारण प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य के प्रति जागरूक रहता है। ऐसा नहीं होने की स्थिति में उन पर शीघ्र कार्यवाही की जाती है।
7. संगठन (Organisation)- संगठन एक ऐसी व्यवस्था है, जिससे किसी संस्था में विभिन्न मदों एवं विभागों में कार्यरत कर्मचारियों का उत्तरदायित्व निश्चित किया जाता है तथा उनकी अधिकार-रेखाएँ स्पष्ट की जाती है। वर्तमान औद्योगिक व्यवस्था ने प्रबन्ध के अनेक स्तरों को जन्म दिया; जैसे- उच्चस्तरीय प्रबन्ध (संचालक मण्डल), मध्यस्तरीय प्रबन्ध (वित्त प्रबन्धक, उत्पादन प्रबन्धक) एवं निम्नस्तरीय प्रबन्ध (फोरमैन, सुपरवाइजर्स इत्यादि)। इस व्यवस्था का ही परिणाम है। कि तीनों स्तर के प्रबन्धक अपनी र्कायकुशलता के सम्बन्ध में जानना चाहते है । इसके आलावा वे अपने अधीनस्थ कार्यरत कर्मचारियों की भी कार्यकुशलता के सम्बन्ध में जानना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में वित्तीय लेखांकन से कोई मदद नहीं मिल सकती है। इस उद्देश्य की पूर्ति मात्रा प्रबन्धकीय लेखाविधि से ही सम्भव है क्योंकि प्रबन्ध लेखांकन में बजट नियन्त्रण प्रणाली एवं लागत केन्द्रों की स्थापना से तथा उत्तरदायित्व के निश्चयन एवं लागतों के नियन्त्रण पर अत्यधिक मात्रा में आग्रह होने से श्रेष्ठ संगठन व्यवस्था का निर्माण सम्भव हो सकता है। प्रबन्धकीय लेखाविधि के अन्तर्गत संस्था को अनेक उप-विभागों में कार्यानुसार या उत्पादनानुसार विभाजित कर प्रत्येक उप-विभाग के लिए विस्तृत सूचना तैयार की जाती है जिससे संगठन की प्रभावशीलता की जानकारी आसानी से हो सके।
8. नियुक्तियां (Staffing)- नियुक्त का तात्पर्य किसी संगठन व्यवस्था में विभाजित पदों पर व्यक्तियों को कार्य भार सौंपने से है साथ ही विभिन्न पदाधिकारियों की योग्यताओं में निरन्तर सन्तुलन कायम रखने से है। प्रबन्धकीय लेखाविधि से प्रबन्धकों को पर्याप्त सहायता मिलती है। किसी भी संस्था में नियुक्त के लिए योग्यता मूल्यांकन (Merit Rating ) एवं कर्मचारियों के वेतन व श्रमिकों की मजदूरी निर्धारण के लिए कार्य मूल्यांकन (Job-evaluation) आवश्यक होता है। कर्मचारियों की नियुक्ति के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उनके द्वारा किये गये कार्य का मूल्य उनकी नियुक्ति के मूल्य से अधिक होना चाहिए। नियुक्ति के बाद कर्मचारियों का प्रशिक्षण आवश्यक होता है किन्तु यहाँ महत्वपूर्ण बात यह भी है कि प्रशिक्षण से होने वाला लाभ प्रशिक्षण की लागत से अधिक होना चाहिए। अतः लागत-लाभ तुलना कर प्रबन्ध लेखापाल प्रबन्धकों की नियुक्तियों में सहायता करता है।
9. निदेर्शन (Direction)- निर्देशन का तात्पर्य अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से अधिकतम कार्यकुशलता के साथ कार्य करने के लिए उन्हें मार्गदर्शन करने से है। निर्देशन के लिए पर्यवेक्षण (Supervision), नेतृत्व (Leadership), सम्प्रेषण (Communication) तथा प्रेरणा (Motivation) की आवश्यकता होती है। इसमें प्रबन्धकीय लेखांकन से काफी सहायता मिलती है।
इस मामले में प्रमाप परिव्ययन एवं बजटिंग से प्रबन्धकों को बहुत हद तक मदद मिलती है। वित्तीय एवं गैर-वित्तीय प्रेरणाओं के विश्लेषण के माध्यम से प्रबन्ध लेखाकार प्रबन्ध की श्रेष्ठ प्रेरणा योजना के बारे में सुझाव दे सकता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रेरणात्मक मजदूरी भुगतान की योजनाओं का सहारा लिया जाता है, जैसे- हैल्से प्रीहिमयम योजना, रोवन योजना, टेलर विभेदक खण्ड-योजना, इमर्सन कार्यक्षमता योजना इत्यादि ।
प्रबन्धकीय लेखाविधि एवं निर्णयन (Management Accounting and Decision-Making)
वर्तमान प्रतिस्पर्द्धात्मक युग में किसी उपक्रम के प्रबन्धकों के समक्ष विभिन्न प्रकार की समस्याएँ होती है जिनके सम्बन्ध में उन्हें उपयुक्त समय पर ठोस निर्णय लेने होते है तथा नीति- निर्धारण की आवश्यकता पड़ती है, ताकि संस्था के पूर्वनिर्धारित उद्देश्ययों का प्राप्त किया जा सके। प्रबन्धक अपनी समस्याओं का हल उसी स्थिति में ढूँढ़ सकते है जबकि लेखाविधि को इस प्रकार निर्धारित किया जाये, ताकि उन्हें समस्या से सम्बन्धित आँकड़े उपलब्ध हो सकें। वस्तुतः प्रबन्धकीय लेखाविधि प्रबन्धकों को सूचना प्रदान करने में अत्यन्त उपयोगी होती है जिससे व्यावसायिक निर्णयन में सहायता मिलती है। अतएव यह कहा जा सकता है कि प्रबन्धकीय लेखाविधि, निर्णयन प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। प्रबन्धकीय निर्णयन में प्रबन्धकीय लेखाविधि के महत्व को संक्षेप में निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता हैं-
1. महत्वपूर्ण सूचनाओं का संकलन (Collection of Important Informations)- प्रबन्धकीय लेखाविधि, संस्था को विभिन्न स्रोतों से वित्तीय एवं गैर-वित्तीय क्रियाकलापों से सम्बन्धित सूचना प्रदान करती है। यह प्रबन्धकों को वैसी सूचनाओं से अवगत कराती हैं जो ठोस निर्णयन के लिए आवश्यक होती हैं। सरल शब्दों में प्रबन्धकीय लेखापाल वित्तीय लेखों व लागत लेखों से आवश्यक सूचनाओं का संकलन कर प्रबन्धकीय निर्णयन हेतु प्रस्तुत करता है।
2. विनियोगों के सुअवसरों को प्राप्ति (Collection of Important Informations) – प्रबन्धकीय लेखाविधि, विनियोग के विभिन्न अवसरों को उपलब्ध कराती है। इस सम्बन्ध में विभिन्न विनियोग प्रस्तावो व विकल्पों का तुलनात्मक अध्ययन कर सर्वोत्तम विकल्प का चयन किया जाता है जिससे संस्था को विनियोग पर अधिकतम दर से प्रत्याय (Return) प्राप्त हो सके।
3. सूचनाओं का गहन अध्ययन (Detail Study of Informations) – प्रबन्ध नियन्त्रक विभिन्न स्रोतों जैसे वित्तीय लेखांकन, लागत लेखांकन, कारारोपण से सम्बन्धित सूचनाओं को एक करता है तथा उनका गहन अध्ययन कर निर्णय लेता है। ठोस निर्णयों से प्रबन्धकीय दक्षता एवं कार्यक्षमता में वृद्धि होती है। दूसरे शब्दों में प्रबन्धकीय लेखाविधि सम्बन्धित विषयों की गहन जाँच करती है, इसके उपरान्त प्रक्रिया का निर्वचन (Interpretation) कर उसे निर्णय योग्य बनाती है।
4. सूचनाओं का विश्वसनीयता एवं शुद्धता की जाँच (Testing Reliability and Accuracy of Informations) – प्रबन्धकीय लेखाविधि की विभिन्न तकनीकों द्वारा वित्तीय लेखों व लागत लेखों से विभिन्न सूचनाएँ प्राप्त की जाती हैं। इसके उपरान्त प्राप्त सूचनाओं की विश्वसनीयता एवं शुद्धता की जाँच का स्तर निर्धारित किया जाता है ताकि प्राप्त सूचनाएँ प्रामाणिक व विश्वसनीय हो सकें। यदि संकलित सूचनाएँ प्रमाणिक नहीं होती है तो प्रबन्धकों द्वारा लिए गए निर्णय गलत भी हो सकते हैं जिनका संस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
5. कार्यशील पूँजी का उपयुक्त प्रयोग (Appropriate Application of Working Capital) – कार्यशील पूँजी के निर्धारण एवं उसके सर्वोत्तम प्रयोग से सम्बन्धित निर्णयों में प्रबन्धकीय लेखाविधि की तकनीके काफी उपयोगी होती है। स्टॉक नियन्त्रण, रोकड़ प्रबन्ध, प्राप्यों का प्रबन्ध, कोषों की प्राप्ति व उनका प्रयोग आदि हेतु प्रबन्धकीय लेखांकन की तकनीकें निर्णयन हेतु काफी सार्थक साबित होती है।
6. वित्तीय अनुसंधान (Financial Investigations) – प्रबन्धकीय लेखाविधि वित्तीय अनुसंधान की प्रक्रिया का संचालन इस प्रकार करती है जिससे सम्बन्धित पक्षकारों को इसका लाभ मिल सके। एकीकरण, संविलियन व पुनर्निर्माण की दशा में सम्बन्धित पक्षकारों का उचित मूल्यों का लाभ मिलता है, साथ ही उनके हितों की रक्षा होती है। ‘खरीदों या बनाओं’ (Make or Buy ) निर्णयन की दशा में प्रबन्धकीय लेखाविधि की तकनीके काफी उपयोगी साबित होती है। वित्तीय अनुसंधान के द्वारा वित्त का सदुपयोग भी सुनिश्चित होता है।
7. व्यवसाय का विस्तार (Expansion of Business) – व्यवसाय के विस्तार की दशा में अंशों व ऋणपत्रों के निर्गमन व आवंटन एवं पूँजी के समुचित उपयोग में प्रबन्धकीय लेखाविधि काफी सहायक सिद्ध होती है। उधार ली गई पूँजी का सर्वोत्तम प्रयोग किस प्रकार किया जाए जिससे अधिकतम प्रत्याय व पूँजी की वापसी हो सकें, इससे सम्बन्धित निर्णयन में प्रबन्धकीय लेखाविधि की तकनीके अहम् भूमिका निभाती है।
8. विचरण विश्लेषण (Variance Analysis) – प्रबन्धकीय लेखाविधि विचरणों का विश्लेषण कर लक्ष्य पूर्ति को सुनिश्चित कर देती है। इसके लिए पूर्व में ही प्रमाणों का निर्धारण कर दिया जाता है तथा वास्तविक परिणामों से इसकी तुलना कर यदि विचरण हो, कारणों को ढूंढा जाता है, तत्पश्चात् सुधारात्मक कदम उठाये जाते हैं, ताकि ऐसे विचरणों की पुनारवृत्ति नहीं हो सके। यह समस्त विचरण विश्लेषण, बजटरी नियन्त्रण व प्रमाप लागत लेखों की तकनीक से ही सम्भव हो पाता है। दूसरे शब्दों, प्रबन्धकीय लेखाविधि की तकनीके विचरण विश्लेषण में काफी सहायक सिद्ध होती है।
उपरोक्त विश्लेष के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रबनधकीय लेखाविधि प्रबन्धकीय निर्णयन के सम्बन्ध में एक महान युक्ति है। वास्तव में वर्तमान प्रतिस्पर्द्धात्मक युग में प्रबन्धकीय लेखाविधि की उपयोगिता प्रत्येक फर्म के लिए आवश्यक सी प्रतीत होती है जिससे व्यवसाय के विभिन्न स्तरों पर सही निर्णयों का लेना सम्भव हो सके।
प्रबन्धकीय लेखाविधि की सीमाएँ (Limitations of Management Accouting)
‘यद्यपि प्रबन्धकीय लेखाविधि नियोजन के लिए पथ-प्रदर्शन एवं अनेक महत्वपूर्ण कार्यों का सम्पादन करती है, फिर भी इनकी कुछ सीमाएँ हैं जो इस प्रकार है-
1. ज्ञान की कमी (Lack of Knowledge) – प्रबन्धकीय लेखाविधि के प्रयोग के लिए विभिन्न विषयों की जानकारी आवश्यक होती है, जैसे- सांख्यिकी की जानकारी, अर्थशास्त्र की जानकारी, लेखांकन सिद्धान्तों की जानकारी, इन्जीनियरिंग इत्यादि । इन समस्त विषयों की सही जानकारी होने पर ही प्रबन्धकीय लेखाविधि का सही प्रयोग किया जा सकता है जोकि व्यवहार में सम्भव नहीं हो पाता।
2. वित्तीय और लागत लेखों पर आधारित (Based on Financial and Cost Accounts)- इसके अन्तर्गत व्यवहार में आने वाली सूचनाएँ या तो वित्तीय लेखांकन से प्राप्त की जाती है या लागत लेखांकन से। अतः प्रबन्धकीय निर्णयों की शुद्धता ऊपर वर्णित लेखांकन से प्राप्त सूचनाओं की शुद्धता पर निर्भर करती है। इसके अलावा वित्तीय व लागत लेखांकन के आँकड़ों भूतकालिक होते हैं जिनके आधार पर निकाले गये निष्कर्ष भविष्य के लिए सुदृढ़ आधार नहीं बनते।
3. क्रियान्वयन में समन्वयन का अभाव (Lack of Co-ordination in Operation)- प्रबन्ध लेखाकार के द्वारा निकाले गये निष्कर्ष तब तक महवहीन होते हैं जब तक इनके क्रियान्वयन के लिए प्रयास नहीं किये जायें। वस्तुतः इसके अभाव में प्रबन्धकीय लेखाविधि का महत्व समाप्त हो जाता है।
4. प्रशासन का विकल्प नहीं (No Substitute of Administration) – प्रबन्धकीय लेखाविधि प्रबन्ध या प्रशासन का विकल्प नहीं होती है। वस्तुतः यह प्रशासन की सहायता के लिए एक यन्त्र मात्र है। जैसे- हम लोग देख चुके हैं कि यह प्रबन्ध को आवश्यक सूचनाएँ प्रदान करती है किन्तु निर्णय लेने का कार्य व क्रियान्वयन का कार्य यह नहीं बल्कि प्रशासन करता है।
5. विषयपरकता का अभाव (Lack of Objectivity)- प्रबन्ध लेखापाल द्वारा प्रदान की गयी सूचनाओं में मानव निर्णय का तत्व विद्यमान रहता है, अतः इसमें पक्षपात और हेर-फेर की सम्भवना बढ़ जाती है।
6. विस्तृत क्षेत्र (Wide Scope)- चूँकि प्रबन्धकीय लेखाविधि के कार्य-क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत हो जाते हैं जिससे कार्य करने में चंद तरह की समस्याएँ सामने आने लागती है।
7. वैकासिक अवस्था (Evolutionary Stage)- प्रबन्धकीय लेखाविधि अभी पूर्णतया विकसित नहीं हो पायी है बल्कि विकासशील अवस्था में है। अतः इनकी तकनीकों का सही विकास नहीं हो पाया है।
8. भारी संरचना (Heavy Structure)- किसी संस्था में प्रबन्धकीय लेखाविधि के प्रयोग में बड़ी मात्रा में नियमों व व्यवस्थाओं की आवश्यकता पड़ती है जिससे सारा कार्य बहुत खर्चीला हो जाता है। अतः इसका प्रयोग बड़े-बड़े व्यवसाय द्वारा ही सम्भव हो सकता है।
9. मनोवैज्ञानिक विरोध (Psychological Resistance)- चूँकि प्रबन्धकीय लेखाविधि अपनाने से कार्य-प्रणाली में बुनियादी परिवर्तन आता है जिससे शुरू में प्रबन्ध लोगों द्वारा ही इसका विरोध किया जाता है।
10. सतत् प्रयत्न का अभाव (Lack of Continuity in efforcts) – प्रबन्धकीय लेखापाल द्वारा जो भी निष्कर्ष निकाले जाते हैं, तब तक सफल नहीं हो पाते जब तक कि प्रबन्ध के प्रत्येक स्तर पर निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयास नहीं किये जायें। सतत् प्रयास एवं दक्षता एवं विभिन्न योजनओं में भाग लेना आदि ऐसी शर्तें हैं जिनके आधार पर ही प्रबन्धकीय लेखांकन सफल हो सकता है।
11. समय तत्व का प्रभाव (Effect of Time Factor) – प्रबन्धकीय लेखांकन से जो भी सूचनाएँ प्राप्त होती है, वे सब भतकालिक होती है। जब किसी योजना के सम्बन्ध में पूर्वानुमान किया जाता है, तब वर्तमान परिस्थितियाँ बदल चुकी होती हैं, जो प्रबनधकों को परेशानी में डाल देती
12. व्यापक संगठन (Heavy Organisation)- प्रबन्धकीय लेखाविधि की स्थापना के लिए व्यापक संगठन एवं कर्मचारियों की आवश्यकता होती है जिससे यह कार्य अत्यन्त खर्चीला बन जाता है।
13. मानव तत्व का प्रभाव (Effect of Human Factor) – प्रबन्ध लेखांकन के अन्तर्गत संकलित सूचनाएँ मानव तत्व से प्रभावित होती हैं। सूचनाओं के संग्रहण से लेकर निर्वचन तक जिन व्यक्तियों की सहायता ली जाती है, उनके व्यक्तिगत चरित्र, भावना, आचार-विचार का थोड़ा बहुत प्रभाव इनके द्वारा प्रदत्त सूचनाओं पर आवश्यक पड़ता है। चूँकि प्रबन्ध लेखांकन भविष्य से सम्बन्धित होता है जिससे कदम-कदम पर अनुमानों का सहारा लेना होता है। ये निर्णय पर्याप्त सीमा तक व्यक्तिगत सीमाओं से प्रभावित होते हैं।
प्रबन्ध लेखांकन की विशेषताएँ (Characteristics of Management Accounting)
1- प्रबन्धक लेखांकन की निम्न विशेषताएँ है-
(1) प्रबंध लेखांकन की चयनात्मक प्रकृति (Management Accounting is of a Selective Nature)- प्रबन्ध लेखाविधि में विभिन्न वैकल्पिक व समान प्रकृति की योजनाओं का विशलेषण व तुलनात्मक अध्ययन करके सर्वाधिक लाभप्रद एवं सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चुनाव किया जाता है। इसी प्रकार सूचनाओं के प्रस्तुतीकरण में प्रबंध के समक्ष केवल महत्वपूर्ण सूचनाएँ ही प्रस्तुत की जाती है।
(2) अनिश्चित प्रकृति के नियम (Law of Uncertain nature)- प्रबंध लेखापाल का कार्य प्रबंधकीय कुशलता में वृद्धि करना होता है, इसके लिए वह सामान्य स्वीकृत नियमों से भिन्न अपने पृथक नियम बना सकता है तथा सूचनाओं के प्रस्तुतीकरण में अपने अनुभव, ज्ञान, तर्क- बृद्धि एवं कल्पना शक्ति से ऐसी सूचना सृजित कर सकता है जो प्रंबधकीय कुशलता में वृद्धि करें।
(3) तथ्य प्रस्तुतीकरण तथा निर्णय नहीं (Furnishes Facts and not the Decisions)- प्रबंध लेखापाल प्रभावपूर्ण निर्णय के लिए आवश्यक तथ्य जुटाता है तथा उनका विश्लेषण व प्रस्तुतीकरण प्रबंध के समक्ष करता है, स्वयं निर्णय नहीं लेता। वस्तुतः निर्णय लेना तो प्रबन्ध का कार्य होता है। प्रबंध लेखापाल प्रबन्धों को निर्णय लेने के कार्य में सहायता पहुँचाने के लिए आवश्यक सूचनाएँ प्रदान करता है।
(4) प्रबंध लेखांकन भविष्य से सम्बन्धित (Management Accounting is related with furture)- प्रबंध लेखांकन के अंतर्गत भविष्य से सम्बन्धित पूर्वानुमान तैयार किये जाते हैं। इन पूर्वानुमानों की वास्तविक परिणामें से तुलना की जाती है। इससे प्रबंध को प्रभावी नियंत्रण में सहायता मिलती है। प्रबन्धकीय लेखाविधि में बजटरी नियंत्रण प्रणाली, प्रमाप लागत लेखांकन आदि को सम्मिलित किया जाता है।
(5) लागत तत्वों की प्रकृति व विश्लेषण पर बल (Emphasis is placed on the Study and Analysis of the nature of elements of cost)- प्रबन्ध लेखांकन में लागत तत्वों के अध्ययन का विशेष महत्व है। संपूर्ण लागत को कई तत्वों जैसे स्थायी, परिवर्तनशील व अर्द्धस्थायी इत्यादि में बाँटा जाता है। प्रबंधकीय निर्णयों में यह वर्गीकरण विशेष स्थान रखता है।
(6) कारण परिणाम विश्लेषण (Cause and its Effects Analysis) – प्रबंध लेखांकन में केवल यह नहीं देखा जाता कि क्या हुआ ? वरन् यह ज्ञात किया जाता है कि परिणाम विशेष किन-किन कारणों से प्रभावित है तथा इसमें सुधार किस प्रकार संभव है। उदाहरणार्थ, वित्तीय लेखांकन में केवल यह ज्ञात कर लिया जाता है कि कितना लाभ हुआ। लेकिन प्रबंध लेखांकन में इस लाभ के कारणों व उसके प्रभावों का भी अध्ययन किया जाता है।
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