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समन्वय का अर्थ एवं परिभाषा (MEANING OF DEFINITION OF CO-ORDINATION)
समन्वय का अर्थ एवं परिभाषा- जहां कुछ प्रबन्धशास्त्री समन्वय को प्रबन्ध का कार्य मानते हैं, वहीं कुछ अन्य इसे प्रबन्ध का सार कहते हैं परन्तु कहा कैसे भी जाय, यह निश्चित है कि समन्वय प्रबन्ध का अति महत्वपूर्ण भाग है। वास्तव में समन्वय एक संस्था की अन्तर- आश्रित क्रियाओं में कार्य की एकजुटता लाने की प्रक्रिया है। विभिन्न विद्वानों ने समन्वय को निम्न प्रकार परिभाषित किया है:
1. ई. एफ. एल. बेच के अनुसार, “समन्वय से आशय विभिन्न सदस्यों के मध्य कार्यों का औचित्यपूर्ण आवण्टन सुनिश्चित करके तथा यह निश्चित करके कि सदस्य स्वयं पूर्ण सामंजस्य के साथ कार्य निष्पादन में लगे हैं, संगठन में संतुलन एवं समूह एकजुटता उत्पन्न करने से है।”
2. कूण्ट्ज एवं ओ’ डोनेल के अनुसार, “समन्वय प्रबन्ध का सार है जो निर्धारित समूह लक्ष्य को पूरा करने के लिए व्यक्तिगत प्रयासों में सामंजस्य पैदा करता है।”
3. हेनरी फेयोल के अनुसार, “समन्वय एक संस्था की सभी क्रियाओं में सामंजस्य स्थापित करता है ताकि संस्था का कार्य सुविधाजनक ढंग से एवं सफलतापूर्वक चलता रहे।”
समन्वय के उद्देश्य (PURPOSE OF CO-ORDINATION)
जब कभी दो या दो से अधिक व्यक्ति, समूह या विभाग किसी सामान्य उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रयास करते हैं तो समन्वय की आवश्यकता उत्पन्न हो जाती है। उदाहरण के लिए, यदि दो व्यक्ति लकड़ी के किसी लट्ठे (log) को उठाना चाहते हैं तो उनकी क्रियाएं अन्तर- आश्रित हो जात हैं क्योंकि एक व्यक्ति अकेला लट्ठे को नहीं उठा सकता और उन दोनों को एक साथ लट्ठे को उठाने का प्रयास करना होगा। यहां दोनों की क्रियाओं में समन्वय उत्पन्न करने के लिए यह तय किया जा सकता है कि वे दोनों लट्ठे के दोनों सिरों पर खड़े होकर एक से पांच तक गिनती गिनेंगे और उसके तुरंत बाद लट्ठा उठायेंगे। इसी प्रकार एक रेस्टारेण्ट में रसोइया, वेटर तथा रोकड़िया का कार्य अन्तर- आश्रित है; चूंकि ग्राहक संतुष्टि में प्रत्येक का अपना-अपना विशिष्ट योगदान होता है, अतः इन तीनों के कार्यों में समन्वय की आवश्यकता उत्पन्न होती है।
समन्वय की आवश्यकता का स्तर भिन्न-भिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न होता है; जैसे एक निर्माणी उपक्रम में उत्पादन, विक्रय एवं वित्त विभाग में उच्च स्तर की अन्तर – आश्रितता होती है, परन्तु यदि पृथक् उत्पाद का पृथक् प्रभाग (division) है तो ऐसे विभिन्न प्रभाग स्वतंत्र रूप में संचालित होते हैं और उनमें अन्तर आश्रितता निम्न स्तर की पाई जाती है। उच्च स्तर की अन्तर- आश्रितता वाली स्थिति में समन्वय की आवश्यकता भी अधिक होती है।
समन्वय की प्रकृति या लक्षण (NATURE OR CHARACTERISTICS OF CO-ORDINATION)
समन्वय के निम्न प्रमुख लक्षण कहे जा सकते हैं जो उसकी प्रकृति का निरूपण करते हैं:
(1) प्रबन्ध का सार (Essence of Management) – समन्वय प्रबन्ध का एक विशिष्ट कार्य न होकर उसका ‘सार’ है। यह प्रबन्ध के सभी कार्यों में व्याप्त है।
(2) प्रबन्ध का उत्तरदायित्व (Responsibility of Management) – समन्वय प्रबन्ध का आधारभूत उत्तरदायित्व है जो प्रबन्धकीय कार्यों द्वारा प्राप्त किया जाता है। प्रबन्धक सामान्यतया इस उत्तरदायित्व का निर्वहन करना चाहते हैं।
(3) स्वैच्छिक कार्य (Willing Function) – समन्वय प्रबन्ध की स्वेच्छा का परिणाम है। यह अचानक या दबाव द्वारा सृजित नहीं किया जा सकता।
(4) उद्देश्य की एकता (Unity of Purpose) – जब संस्था तथा कर्मचारियों का उद्देश्य एक हो तो विभिन्न विभागों तथा क्रियाओं में समन्वय बनाना आसान हो जाता है।
(5) सतत प्रक्रिया (Continuous Process) – समन्वय कार्य एक सतत प्रक्रिया है जो सम्पूर्ण उपक्रम में निरंतर चलती रहती है।
(6) प्रणाली विचारधारा (System Concept) – समन्वय एक प्रणाली विचारधारा है. जो एक उपक्रम को सामूहिक प्रयासों के समन्दय की प्रणाली मानता है तथा संगठन संरचना में विभिन्न क्रियाओं के बीच अन्तर आश्रितता तथा समूह प्रयासों के सामंजस्य को सुनिश्चित करता है।
समन्वय का महत्व (SIGNIFICANCE OF CO-ORDINATION)
समन्वय का महत्व निम्न है-
(1) अनेकता में एकता (Unity in Diversity) – प्रबन्धकीय कार्यों में समन्वय का स्थान सर्वोपरि है। इसीलिए इसे प्रबन्ध का सार कहा जाता है। प्रत्येक संगठन या संस्था में विविध योग्यताओं, इच्छाओं, दृष्टिकोणों तथा क्रियाओं वाले व्यक्ति कार्य करते हैं। यदि इस विविधता को उद्देश्य की एकता में परिवर्तित न किया जाए तो परिणाम घातक होंगे। समन्वय ही है जो अनेकता को एकता में बदलता है और संगठन को कार्यकुशल बनाता है।
(2) एकजुट कार्य (Team Work)- बिना समन्वय के एक संस्था के कर्मचारी विभिन्न दिशाओं में जा सकते हैं; समन्वय समूह के सदस्यों में सामान्य उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए एकजुट हो जाने का आह्वान करता है।
(3) विरोधाभासी लक्ष्य (Conflicting Goals) – सामान्यतया यह देखा गया है कि एक ही संगठन के विभागीय लक्ष्य तथा वैयक्तिक लक्ष्य परस्पर विरोधी होते हैं और इससे संसाधनों का दुरुपयोग होने लगता है। समन्वय ऐसे विरोध को दूर कर संसाधनों का सदुपयोग सम्भव बनाता है।
(4) विभागीय अन्तर-आश्रितता (Departmental Inter-dependence)- निर्माणी तथा सेवा उपक्रमों में उच्च स्तर की विभागीय आश्रितता पाई जाती है; जैसे एक निर्माणी उपक्रम में विपणन विभाग, उत्पादन विभाग, सेविवर्गीय विभाग तथा वित्त विभाग में अन्तर सम्बन्धित तथा अन्तर-आश्रित होते हैं तथा एक विभाग की अक्षमता सम्पूर्ण उपक्रम पर कुप्रभाव डाल देती है। इन विभागों में समन्वय बनाए रखकर ही वांछित परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं।
(5) बढ़ते हुए आकार की समस्या (Problem of Large Size)- जैसे-जैसे उदारीकरण और भूमण्डलीय पर जोर दिया गया है, उपक्रमों के आकार में बेतहाशा वृद्धि होने लगी है। उपक्रमों का बढ़ता हुआ आकार जटिल संगठन संरचना तथा दोषपूर्ण सम्प्रेषण को जन्म देता है और ऐसी दशा में उपक्रम के प्रवाहपूर्ण कार्यप्रणाली के लिए समन्वय की आवश्यकता और बढ़ जाती है।
(6) सिनर्जी प्रभाव (Synergy Effect)- जब समूह का मिला-जुला योगदान समूह के प्रत्येक सदस्य के पृथक्-पृथक् किए जा सकने वाले योगदान के योग से अधिक हो तो इसे सिनर्जी लाभ कहा जाता है। समन्वय द्वारा एक संगठन को सिनर्जी लाभ प्राप्त होना संभव होता है क्योंकि समन्वय द्वारा वैयक्तिक प्रयास समूह प्रयास में बदल दिए जाते हैं और संगठन की बढ़ जाती है। ‘कुल कार्यक्षमता
समन्वय की तकनीकें अथवा विधियां (TECHNIQUES OR METHODS OF CO-ORDINATION)
एक उपक्रम में समन्वय प्राप्त करने के लिए प्रबन्धकों को विभिन्न तकनीकों का प्रयोग करना पड़ता है। इनमें निम्न प्रमुख हैं:
(1) लक्ष्य के आधार पर समन्वय (Co-ordination by Target or Goals) – अधिकांश प्रबन्धक अपने अधीनस्थों के लिए लक्ष्य निर्धारित कर देते हैं। जब सभी प्रबन्धक अपने- अपने लक्ष्य प्राप्त करने हेतु प्रयास में लग जाते हैं तो स्वयं ही समन्वय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। उदाहरण के लिए, यदि विक्रय प्रबन्धक का लक्ष्य वर्ष में 1 लाख इकाई विक्रय करना रखा गया है तो उत्पादन प्रबन्धक का लक्ष्य 1 लाख इकाई उत्पादन करना तथा वित्त प्रबन्धक का लक्ष्य आवश्यक संसाधन जुटाना है; तीनों प्रबन्धकों द्वारा लक्ष्य प्राप्ति का ध्येय उनमें समन्वय उत्पन्न करना है।
(2) नियम व क्रियाविधि द्वारा समन्वय (Co-ordination by Rules and Procedure)- नैत्यिक (routine) कार्यों के समन्वय हेतु नियम व क्रियाविधि भी उपयोग में लाई जाती है; जैसे एक विद्यालय में प्रत्येक शिक्षक को कक्षा की समय-सारणी के अनुसार पढ़ाना होता है, उससे विभिन्न अध्यापकों के शिक्षण कार्य का समन्वय स्वयमेव हो जाता है। समय सारणी विद्यालय की क्रियाविधि का ही एक अंग है।
(3) प्रबन्धकीय उत्तराधिकार द्वारा समन्वय (Co-ordination through Managerial Hierachy)- आदेश श्रृंखला का सिद्धांत भी समन्वय उत्पन्न करता है। एक बॉस के अन्तर्गत कार्यरत दो या अधिक अधीनस्थ बॉस के आदेशानुसार कार्य करते हैं तो उनके कार्यों में समन्वय बना रहता है। इसमें समन्वय करने में समस्या तब उत्पन्न होती है जब अधीनस्थों की संख्या अधिक हो और उनमें आपसी टकराव की स्थिति बन गई हो।
(4) विभागीकरण द्वारा समन्वय (Co-ordination by Departmentalization)- यदि कम्पनी में कार्यात्मक विभागीकरण प्रणाली अपनाई गई है तो विपणन, उत्पादन, वित्त आदि विभाग होंगे जो पूर्णतया अन्तर-आश्रित हैं और उनमें समन्वय बनाए रखना आवश्यक है जो मुख्य प्रबन्धक करेगा।
(5) समिति द्वारा समन्वय (Co-ordination through Committee)- बहुत-सी कम्पनियों में अन्तर विभागीय समिति बनाकर समन्वय का कार्य किया जाता है। इस समिति में सभी विभागों के प्रतिनिधि होते हैं जो समय-समय पर मीटिंग करते हैं और समन्वय हेतु निर्णय लेते हैं।
(6) विशिष्ट व्यक्ति द्वारा समन्वय (Co-ordination by Special Person)- जब दो या अधिक विभागों के मध्य संविदा की मात्रा अधिक हो जाती है तो एक विशिष्ट व्यक्ति को समन्वय कार्य सौंप दिया जाता है; जैसे विपणन और उत्पादन विभाग में अत्यधिक समन्वय की आवश्यकता है तो ऐसा व्यक्ति निरंतर उत्पादन विभाग से सम्पर्क रखेगा तथा विपणन आवश्यकतानुसार उत्पादन तालिका तैयार कराएगा।
समन्वय के सिद्धांत (PRINCIPLES OF CO-ORDINATION)
समन्वय के सिद्धांत निम्न हैं:
(1) नियम, लक्ष्य तथा उत्तराधिकार का सिद्धांत (Principle of Rules, Targets and Hierarchy)- इस सिद्धांत के अनुसार प्रबन्धक को समन्वय की प्रथम तकनीक के रूप में नियमों, लक्ष्यों तथा सोपान पर जोर देना चाहिए। ये समन्वय के आधारभूत तत्व हैं। जब ये तकनीकें समन्वय प्राप्त करने में प्रभावपूर्ण न हो सकें तभी अन्य तरीकों को अपनाना चाहिए।
(2) विभागीय अन्तर- आश्रितता का सिद्धांत (Principle of Inter-dependance of Departmentalisation)– यह सिद्धांत यह बताता है कि संगठनात्मक ढांचे में विभागीय अन्तर- आश्रितता जितनी अधिक होगी उतना ही समन्वय कार्य कठिन होगा। इसीलिए कार्यात्मक विभागीकरण की तुलना में प्रभागीय ढांचा या उत्पाद विभागीकरण में समन्वय करना आसान होता है बशर्ते कि आप प्रत्येक प्रभाग या उत्पाद का स्वतंत्र प्रबन्धक नियुक्त कर दें।
(3) विभागीय मूल्यों तथा लक्ष्यों की विविधता का सिद्धांत (Principle of deversity of Departmental Values and Targets) – यह सिद्धांत यह इंगित करता है कि विभागीय मूल्यों तथा लक्ष्यों में जितनी अधिक विविधता होगी उतना ही समन्वय कार्य कठिन हो जाएगा; जैसे उत्पादन विभाग तथा शोध विभाग में समन्वय करना कठिन होता है क्योंकि उत्पादन विभाग अल्पकालीन लक्ष्यों पर जोर देता है। इसके विपरीत उत्पादन तथा विपणन विभाग में समन्वय करना आसान है क्योंकि दोनों ही अल्पकालीन लक्ष्यों पर जोर देते हैं।
(4) निरंतरता का सिद्धांत (Principle of Continuity) – समन्वय कभी समाप्त न होने वाली प्रक्रिया है, अतः प्रबन्धकों को समन्वय के सतत प्रयास चालू रखने चाहिए और ये प्रबन्ध के सभी कार्यो-नियोजन से नियंत्रण तक दिखाई देने चाहिए।
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