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अधिकार अन्तरण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, सिद्धांत, प्रकार, लाभ, समस्याएं अथवा कठिनाइयां

अधिकार अन्तरण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, सिद्धांत, प्रकार, लाभ, समस्याएं अथवा कठिनाइयां
अधिकार अन्तरण का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, सिद्धांत, प्रकार, लाभ, समस्याएं अथवा कठिनाइयां

अधिकार अन्तरण का अर्थ एवं परिभाषाएं (Meaning and Definitions Delegation of Authority)

अधिकार-अन्तरण का आशय एक प्रबन्धक द्वारा अपने अधीनस्थ को उन अधिकारों का हस्तान्तरण करने से लगाया जाता है जो कि उसको सुपुर्द किए गए कार्य या दायित्वों को पूरा करने के लिए आवश्यक समझे जाते हैं। वैसे अधिकार-अन्तरण की विभिन्न विद्वानों ने निम्न परिभाषाएं दी है:

(1) प्रो. थियो हैमन के अनुसार, “अधिकार-अन्तरण से आशय अधीनस्थों को निर्दिष्ट सीमाओं के अन्तर्गत कार्य करने का अधिकार प्रदान किए जाने से है।”

(2) ई. एफ. एल. ब्रेच के अनुसार, “संक्षेप में अधिकार-अन्तरण से आशय है, प्रबन्ध प्रक्रिया के चार तत्वों में से प्रत्येक का एक अंश दूसरों को हस्तान्तरित करना।”

(यहाँ प्रबन्ध प्रक्रिया के चार तत्वों से आशय प्रबन्ध के कार्यों अर्थात नियोजन, संगठन, निदेशन व नियन्त्रण से है।)

(3) लुइस ए. एलन के अनुसार, “अधिकार अन्तरण प्रबन्ध की शक्ति है, यह एक प्रक्रिया है जिसे अपनाकर प्रबन्धक अपने कार्यों का विभाजन करता है, जिससे कि वह सम्पूर्ण कार्य के उस भाग का निष्पादन करे, जिसे केवल वह स्वयं ही, संगठन में अपनी विशिष्ट स्थिति के कारण प्रभावशाली ढंग से कर सकता है और इस प्रकार वह शेष कार्य की पूर्ति के लिए अन्य लोगों की सहायता प्राप्त कर सकता है।”

(4) जार्ज आर. टेरी के अनुसार, “अधिकार अन्तरण का अभिप्राय किसी निर्दिष्ट कार्य को पूरा करने के लिए एक अधिकारी या संगठन की एक इकाई से दूसरे को अधिकार प्रदान करने से है।”

(5) कूण्ट्ज एवं ओ’ डोनैल के अनुसार, “भारार्पण की सम्पूर्ण प्रक्रिया में आशानुकूल परिणामों का निर्धारण, कार्यों का बंटन, कार्य को पूरा करने के लिए सत्ता का अन्तरण तथा दायित्वों का ग्रहणीकरण सम्मिलित होता है। “

अधिकार अन्तरण के मूल तत्व अथवा विशेषताएं (ESSENTIAL FEATURES OF PROCEESS OF DELEGATION)

अधिकार-अन्तरण को उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने पर इसके निम्न प्रमुख तत्व या विशेषताएं दृष्टिगत होती हैं :

(1) एक प्रक्रिया (A Process)- अधिकार-अन्तरण एक प्रक्रिया है जिसमें कि एक प्रबन्धक सर्वप्रथम अपने अधीनस्थों को कार्य सुपुर्द करता है, फिर उसके अनुरूप अधिकार प्रदान करता है, तब अधीनस्थ सौंपे गए कार्य को पूरा करने का उत्तरदायित्व ग्रहण करता है।

(2) कर्तव्य या कार्य निर्दिष्ट करना (Assignment of Duties)- कोई भी प्रबन्धक वह सारा कार्य पूरा नहीं कर सकता जो उसके पास उसके पद के कारण है। अतः वह कार्य का एक भाग अपने अधीनस्थों को सौंप देता है। यहां यह भी तथ्य ध्यान रखने योग्य है कि प्रबन्धक अपने सारे कार्य अधीनस्थों को नहीं सौंपता क्योंकि ऐसी दशा में तो उसके पद का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। वह वास्तव में विशिष्टीकरण के आधार पर सम्पूर्ण कार्य का कुछ अंश ही अधीनस्थों को सौंपता है और शेष कार्य वह स्वयं पूरा करता है विशेषकर ऐसा कार्य जिसे अपनी विशिष्ट स्थिति के कारण केवल वही पूरा कर सकता है।

उदाहरण के लिए, एक संस्था का मुख्य प्रबन्धक लेखा एवं वित्त का कार्य लेखाकार को, उत्पादन कार्य उत्पादन प्रबन्धक को, विपणन कार्य विपणन प्रबन्धक को सौंप सकता है, परन्तु उच्च सरकारी अधिकारियों तथा महत्वपूर्ण आगन्तुकों से मिलने का कार्य अपने लिए रख सकता है। यहां यह तथ्य भी ध्यान में रखना होगा कि अधीनस्थों को कार्य सौंप देने से प्रबन्धक के कार्यपूर्ति सम्बन्धी दायित्व में कोई कमी नहीं होती।

(3) अधिकार प्रदान करना ( Delegation of Authority)- जब एक प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को कार्य सौंपता है तो उसके साथ उसे कार्य पूर्ति हेतु आवश्यक अधिकार भी प्रदान करने होते हैं। ये अधिकार कार्य के सम्बन्ध में कच्चा माल, मशीनें तथा अन्य सुविधाएं प्राप्त करने के लिए प्रदान किए जाते हैं ताकि अधीनस्थ को, यदि वह कार्य पूरा करने के लिए दिल से इच्छुक हैं, तो उसे कार्य पूरा करने में कोई कठिनाई न आए।

ये अधिकार कुछ तो विशेष रूप से प्रदान किए जाते हैं और कुछ गर्भित (Implied) होते. हैं। जैसे एक उत्पादन प्रबन्धक के पास विलम्ब से आने वाले या अक्षम श्रमिकों को निकाल देने या उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही करने का गर्भित अधिकार होता है अन्यथा श्रमिकों से कार्य लेना मुश्किल हो जाएगा, परन्तु यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी प्रबन्धक एक अधीनस्थ को ऐसे अधिकार प्रदान नहीं कर सकता जिन पर उसका स्वयं का अधिकार नहीं है या जो कम्पनी की नीतियों के विरुद्ध है।

(4) जवाबदेही सुनिश्चित करना (Creation of Accountability)– यद्यपि कार्य को पूरा करने का अन्तिम दायित्व प्रबन्धक (Delegation) पर ही रहता है, परन्तु जब उसने निर्दिष्ट कार्य के सम्बन्ध में अधिकार किसी अधीनस्थ को प्रदान कर दिए हैं तो वह अधीनस्थ कार्य पूर्ति के सम्बन्ध में प्रबन्धक के प्रति जवाबदेह होता है।

यहां यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि यदि अधीनस्थ अपनी लापरवाही या अन्य कारण से कार्य पूरा करने में असफल रहता है तो प्रबन्धक अपने दायित्व से यह कहकर नहीं बच सकता कि अधीनस्थ कार्य करने में असफल रहा। वास्तव में, कार्य को पूरा करने का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व प्रबन्धक (Delegator) का है। अतः उसे अधीनस्थ का चुनाव करने, उसे कार्य सौंपने तथा अधिकारों के अन्तरण में पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए और समय-समय पर अधीनस्थों द्वारा किए जा रहे कार्य की प्रगति का जायजा लेते रहना चाहिए।

अधिकार-अन्तरण के सिद्धांत (PRINCIPLES OF DELEGATION OFAUTHORITY)

प्रो. कूण्ट्ज एवं ओ’ डोनैल ने अधिकार-अन्तरण के निम्न प्रमुख सिद्धांत बताए हैं:

(1) प्रत्याशित परिणामों द्वारा अन्तरण का सिद्धांत (Principle of Delegation by Results Expected)- प्रत्येक अधीनस्थ को कार्य सौंपे जाने के बाद उसे इतने अधिकार अन्तरित किए जाने चाहिए कि वह वांछित परिणाम प्राप्त कर पाने योग्य हो जाए। कभी-कभी प्रबन्धक लक्ष्य या उद्देश्यों को बगैर सोचे मनमाने ढंग से अधिकारों का अन्तरण करते हैं, यह उचित नहीं माना जाता।

(2) विभागीकरण का सिद्धांत (Principle of Departmentation)- जितना ही एक विभाग को प्राप्त किए जाने वाले परिणामों की स्पष्टता, किए जाने वाले कार्यों की प्रकृति, तथा उपक्रम के अन्य विभागों के साथ सम्बन्धों का ज्ञान होगा, उतना ही एक अधीनस्थ उपक्रम के लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में योगदान दे सकेगा। इस सिद्धांत का आशय यह है कि अधीनस्थों को उपक्रमों के लक्ष्यों, उनको सौंपे गए कार्यों, उनको अन्तरित किए गए अधिकारों तथा उनका अन्य व्यक्तियों से सम्बन्ध का भली प्रकार ज्ञान कराया जाना चाहिए।

(3) स्केलर सिद्धांत (Scalar Principle)- स्केलर सिद्धांत एक संस्था में सर्वोच्च प्रबन्ध से नीचे तक सत्ता सम्बन्धों की शृंखला से सम्बन्ध रखता है। यह श्रृंखला एक संस्था में जितनी अधिक स्पष्ट होगी, उतना ही निर्णयन तथा संगठन सम्प्रेषण (Communication) प्रभावी होगा। अधीनस्थों को ठीक तरह स्पष्ट होना चाहिए कि उन्हें अधिकार अन्तरण किसके द्वारा किया गया है और वे किसके प्रति उत्तरदायी हैं।

(4) अधिकार स्तर का सिद्धांत (Principle of Authority-Level)- यह सिद्धांत यह बताता है कि प्रत्येक अधीनस्थ को अपने अधिकार स्तर का स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए ताकि वे कार्य के सम्बन्ध में विभिन्न निर्णय लेते समय बॉस (Boss) की ओर न ताकें बल्कि स्वयं निर्णय ले सकें। वे केवल उन्हीं निर्णयों को बॉस को सौंपे जो उनकी अधिकार सीमा से बाहर हों । प्रबन्धकों को भी चाहिए कि वे अधीनस्थों की अधिकार सीमा में आने वाले निर्णयों में कोई हस्तक्षेप न करें।

(5) आदेश की एकात्मकता का सिद्धांत (Principle of Unity of Command)-  यह सिद्धांत यह बताता है कि अधीनस्थ को आदेश देने वाला कोई एक व्यक्ति ही होना चाहिए तभी अधीनस्थ परिणामों को प्राप्त करने के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि एक कम्पनी में विपणन विभाग का कार्य एक व्यक्ति को न देकर, चार सदस्यों की एक समिति को दे दिया जाता है तो विपणन विभाग के अधीनस्थ लोग चारों समिति सदस्यों के प्रति उत्तरदायी होंगे और चारों के आदेशों का पालन करने को बाध्य होंगे। यह स्थिति भ्रमात्मक हो जाती है और अधीनस्थ अपनी जिम्मेदारी से बच निकलने में समर्थ हो जाता है।

(6) निरपेक्ष उत्तरदायित्व का सिद्धांत (Principle of Absoluteness of Responsibility)- यह सिद्धांत यह बताता है कि जब अधीनस्थ किसी कार्य को पूरा करने की स्वीकृति दे देता है और उससे सम्बन्धित अधिकार भी प्राप्त कर लेता है तो वह प्रबन्धक के प्रति कार्य के लिए उत्तरदायी होता है, परन्तु इससे प्रबन्धक का उत्तरदायित्व कम नहीं होता। वह स्वयं अपने अधीनस्थों के लिए संगठन के प्रति दायी होता है।

(7) अधिकार एवं दायित्वों की समता का सिद्धांत (Principle of Parity of Authority and Responsibility)- चूंकि अधिकार कार्य पूरा करने के लिए दिए जाते हैं और दायित्व कार्य पूरा करने की जिम्मेदारी से सम्बन्ध रखते हैं, अतः अधिकार एवं दायित्वों में समता होनी चाहिए। इसका आशय यह है कि कोई प्रबन्धक अपने अधीनस्थ को उस सीमा से अधिक उत्तरदायी नहीं ठहरा सकता, जिस सीमा तक प्रबन्धक ने उसे अधिकार प्रदान किए हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी कार्य के सम्बन्ध में प्रबन्धक ने अधीनस्थ को कच्चा माल व मशीन खरीदने तथा श्रमिकों की नियुक्ति करने जैसे कर्तव्य सौंपे हैं तो उन्हीं के बराबर अधीनस्थ को निर्णयन अधिकार भी दिए जाने चाहिए तभी उसे कार्य के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।

अधिकार अन्तरण के प्रकार (Kinds of Delegation of Authority)

अधिकार अन्तरण के कई प्रकार होते हैं जिनमें निम्न प्रमुख हैं :

(1) सामान्य अथवा विशिष्ट अन्तरण (General or Specific Delegation) – जब एक अधीनस्थ प्रबन्धक को सभी प्रबन्धकीय कार्य-नियोजन, संगठन, निदेशन व नियंत्रण करने का अधिकार प्रदान कर दिया जाता है तो यह सामान्य अन्तरण कहा जाएगा और जब एक अधीनस्थ प्रबन्धक को केवल विशिष्ट कार्य करने को ही कहा जाए तो वह विशिष्ट अन्तरण कहा जाएगा; जैसे क्रय कार्य, विक्रय कार्य, प्रशिक्षण कार्य आदि।

(2) लिखित एवं मौखिक अन्तरण (Written or Verbal Delegation)- लिखित आदेशों व निर्देशों द्वारा किया गया अन्तरण लिखित अन्तरण कहलाता है। मौखिक अन्तरण में अधीनस्थ को मौखिक रूप से अधिकार व कर्तव्य सौंपे जाते हैं और कुछ अधिकार वह परम्पराओं तथा मान्यताओं के आधार पर प्राप्त करता है।

(3) औपचारिक अथवा अनौपचारिक अन्तरण (Formal or Informal Delegation)- औपचारिक अन्तरण एक उपक्रम की संगठन संरचना में स्पष्ट दिया होता है; जैसे विक्रय प्रबन्धक विक्रय सम्वर्धन हेतु सभी कार्य करेगा और इस सम्बन्ध में उसे अमुक अधिकार होंगे जबकि अनौपचारिक अन्तरण में अधीनस्थ ऐसे कर्तव्य और अधिकार स्वतः ही प्राप्त कर लेता है जो उसके कार्य में सहायक सिद्ध होंगे।

(4) अधोगामी, ऊर्ध्वगामी तथा पाश्विक अन्तरण (Downward Upward and Side- ward Delegation)- अधोगामी अन्तरण में वरिष्ठ प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को कार्य व अधिकार सौंपता है, ऊर्ध्वगामी अन्तरण में अधीनस्थ अपने बॉस को कर्तव्यों का अन्तरण करता है (यह व्यवहार में बहुत कम दिखाई देता है) तथा पाश्विक अन्तरण में एक अधीनस्थ अपने समान पद वाले साथी को कुछ कार्य व अधिकार हस्तान्तरित करता है।

अधिकार अन्तरण के लाभ (Advantages of Delegation of Authority)

(1) प्रबन्धकों के कार्यभार में कमी (Reduction in Manager’s Work-load)- चूंकि अधिकार अन्तरण प्रक्रिया के द्वारा सर्वोच्च प्रबन्ध, मध्य प्रबन्ध को और मध्य प्रबन्ध प्रथम श्रेणी प्रबन्ध को विभिन्न कार्यों को पूरा करने सम्बन्धी कर्तव्य और अधिकार अन्तरित कर देते हैं और इससे अधीनस्थ कार्य पूरा करने का उत्तरदायित्व ले लेते हैं, अतः इससे अत्यधिक व्यस्त वरिष्ठ प्रबन्धकों का कार्यभार कम हो जाता है और वे उपक्रम के महत्वपूर्ण कार्यों पर ध्यान केन्द्रित कर पाते हैं।

(2) व्यवसाय विस्तार में सहायक (Helpful in Business Expansion)- एक कम्पनी या फर्म के मुख्य या वरिष्ठ प्रबन्धकों की क्षमता की भी सीमा होती है। अधिकार अन्तरण द्वारा इन प्रबन्धकों की कार्यक्षमता की सीमा में वृद्धि करना सम्भव हो जाता है, क्योंकि ये वरिष्ठ प्रबन्धक बहुत सारे कम महत्वपूर्ण कार्यों को अपने अधीनस्थों को सौंप देते हैं और वे स्वयं अधिक महत्वपूर्ण कार्यों जैसे व्यवसाय का विस्तार व विविधीकरण की ओर ध्यान केन्द्रित कर पाते हैं। अधिकार-अन्तरण के कारण ही आज अत्यन्त वृहत् आकार वाले उपक्रम तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियां अस्तित्व में आ सकी हैं।

(3) विशिष्टीकृत सेवाओं की उपलब्धता (Availability of Specialised Services) – अधिकार-अन्तरण की प्रक्रिया द्वारा विभिन्न विशिष्ट प्रकृति के कार्य उस विषय में विशिष्ट रूप से प्रशिक्षित व पारंगत लोगों को सौंपे जाते हैं; जैसे कच्चे माल का क्रय, क्रय-प्रबन्धक को, विज्ञापन कार्य विज्ञापन प्रबन्धक को, लेखा कार्य लेखाकार को, लागत नियंत्रण का कार्य लागत लेखाकार को सौंपा जाता है। यह निश्चित है कि एक विशेषज्ञ अपने कार्य को सामान्य व्यक्ति की तुलना में अच्छा कर सकता है। और इस प्रकार कुल मिलाकर संस्था के कार्य संचालन में सुधार होता है।

(4) कर्मचारियों के विकास में सहायक (Aid to Employee Development) – अधिकार- अन्तरण प्रक्रिया के द्वारा अधीनस्थ अधिकारियों को वरिष्ठ प्रबन्धकों के निर्देशन में कार्य सौंपे जाते हैं जिन्हें सफलतापूर्वक पूर्ण करना अधीनस्थ अधिकारी अपना उत्तरदायित्व मानते हैं। इस प्रकार अधीनस्थ अधिकारियों की प्रतिभा तथा अनुभव का विकास होता है और वे धीरे-धीरे कम्पनी के महत्वपूर्ण दायित्वों को संभालने के योग्य बन जाते हैं।

(5) उच्च कर्मचारी मनोबल (High Employee Morale)- अधिकार- अन्तरण द्वारा अधीनस्थों को बहुत से महत्वपूर्ण कार्य भी सौंपे जाते हैं, जिनको करने से उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती है और कार्य संतुष्टि प्राप्त होती है। इससे उपक्रम के कर्मचारियों का मनोबल ऊंचा उठता है और उपक्रम की कार्यक्षमता एवं उत्पादकता में सुधार होता है।

अधिकार अन्तरण की समस्याएं अथवा कठिनाइयां (PROBLEMS OR DIFFICULTIES OF DELEGATION OF AUTHORITY)

यद्यपि अधिकार अन्तरण उपक्रमों के लिए लाभकारी एवं उपयोगी है और सभी उपक्रम इसे अपनाते हैं, परन्तु अधिकारों के अन्तरण में कभी-कभी उपक्रमों के सामने निम्न कठिनाइयां उत्पन्न हो जाती हैं:

(1) प्रबन्धकों की रूढ़िवादिता (Non-receptiveness of the Managers) – कुछ प्रबन्धक अपने स्वभाव के कारण, दूसरों के अच्छे विचारों को भी पसन्द नहीं करते। ऐसे प्रबन्धक अधिकार-अन्तरण में बाधक होते हैं, क्योंकि उन्हें अधीनस्थों के महत्वपूर्ण विचार भी अपनों से तुच्छ दिखाई देते हैं।

(2) अनावश्यक हस्तक्षेप (Undue Interference)- कुछ प्रबन्धक जो एक ही उपक्रम में छोटे पदों से प्रोन्नत होकर महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हुए हैं या ऐसे उद्योगपति जो बिलकुल छोटे उपक्रम (मशीन गैराज) से जीवन प्रारम्भ कर आज बड़े उपक्रम के स्वामी बन गए हैं वे अपनी पिछली आदतों को नहीं भुला पाते और अधीनस्थों के निर्णयों में हस्तक्षेप करते रहते हैं जिससे अधीनस्थों का मनोबल गिरता है।

(3) निरंतर जांच करना (To make a Continual Checking) – कृण्ट्ज एवं ओ’ डोनैल के अनुसार कुछ प्रबन्धक अधीनस्थों के कार्य की निरंतर जांच करते रहते हैं ताकि गलती न होने पावे। यद्यपि यह जांच उपक्रम की दृष्टि से लाभदायक होती है, परन्तु यह वास्तविक अधिकार- अन्तरण में बाधक मानी जाती है, क्योंकि इससे अधीनस्थों के व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता और वे निर्णय लेने में संकोच करते हैं।

(4) विश्वसनीयता का अभाव (Lack of Trust)- कुछ प्रबन्धक ऐसे होते हैं जिन्हें अपने अधीनस्थों की योग्यता पर पूर्ण विश्वास नहीं होता। उन्हें अधिकार अन्तरण में हमेशा यह भय . बना रहता है कि अधीनस्थ गलत निर्णय ले सकता है, अथवा अधीनस्थ कर्मचारियों से ठीक ढंग से कार्य नहीं ले सकेगा अथवा अधीनस्थ कार्य के सम्बन्ध में सभी तथ्यों पर ध्यान नहीं दे सकेगा। परिणामस्वरूप ऐसे प्रबन्धक या तो अधिकार अन्तरण करने में हिचकिचाते हैं या अधीनस्थों को कार्य के अनुरूप पूर्ण अधिकार प्रदान नहीं करते जिससे अधीनस्थों द्वारा कार्य पूरा करने में कठिनाई उपस्थित होती है।

(5) नियंत्रण खोने का भय (Fear of loosing Control) – कुछ प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को इसलिए पूरे अधिकार नहीं सौंपते कि उन्हें डर लगा रहता है कि कहीं अधीनस्थों पर से उनका नियंत्रण ही न समाप्त हो जाए। वे अधीनस्थों को अपने पर आश्रित बनाए रखना चाहते हैं।

(6) पोल खुलने का भय (Fear of Exposure)- कुछ कम कार्यकुशल प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को अधिकार अन्तरण इसलिए भी नहीं करना चाहते कि उन्हें यह भय रहता है कि यदि अधीनस्थ ने कोई कार्य उनसे बेहतर ढंग से कर दिया तो उनकी स्वयं की अक्षमता स्पष्ट हो जाएगी। वास्तव में ऐसे प्रबन्धकों में आत्म-विश्वास का अभाव होता है।

(7) अधीनस्थों की आशंकाएं (Doubs of Subordinates)– कभी-कभी अधिकार- अन्तरण में अधीनस्थों की शंकाएं भी बाधक बन जाती हैं। यदि अधीनस्थ किसी कार्य के बारे में यह मानता है कि उससे सम्बन्धित सभी सूचनाएं तथा सुविधाएं उपक्रम में नहीं मिल सकेंगी अथवा वह यह सोचता है कि अन्तरण के द्वारा अतिरिक्त कार्य भार उठाने का उसे कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं है। तो वह प्रबन्धक द्वारा दिए जाने वाले कार्य को सहर्ष स्वीकार नहीं करता ।

अधिकार अन्तरण को प्रभावी बनाने के सुझाव (SUGGESTIONS TO MAKE DELEGATION OF AUTHORITY EFFECTIVE)

एक उपक्रम में अधिकार-अन्तरण को प्रभावी बनाने हेतु निम्न सुझाव प्रस्तुत किए गए हैं:

(1) प्रबन्धकों को चाहिए कि वे अधीनस्थों के रचनात्मक एवं अच्छे विचारों की प्रशंसा करें और उन्हें अच्छे कार्य के लिए प्रेरित करें।

(2) प्रबन्धकों को चाहिए कि वे कार्य सौंप देने के बाद अधीनस्थों के कार्य करने के ढंग तथा निर्णयन में तब तक हस्तक्षेप न करें जब तक कि अधीनस्थ स्वयं उनसे मार्गदर्शन करने को न कहें। यह सम्भव है कि अधीनस्थ अपने कुछ निर्णयों में गलत सिद्ध हों, परन्तु इसी गलती के कारण उपक्रम को होने वाली हानि की क्षतिपूर्ति अधीनस्थों को मिलने वाले प्रशिक्षण एवं अनुभव के लाभों से हो जाएगी।

(3) प्रबन्धकों को चाहिए कि वे पूर्ण सद्भाव के साथ ही अधिकार अन्तरण करें। उन्हें अधीनस्थों का चुनाव करते समय उनकी योग्यता तथा कर्तव्य-परायणता की जांच कर लेनी चाहिए, परन्तु इसके बाद उन पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिए और गलती हो जाने पर भी उनके प्रति अत्यधिक कठोर रुख नहीं अपनाना चाहिए बल्कि सुधारात्मक कदम उठाने चाहिए।

(4) उपर्युक्त के अतिरिक्त प्रो. कूण्ट्ज एवं ओ’ डोनैल ने अधिकार-अन्तरण को प्रभावी बनाने के सम्बन्ध में निम्न बहुमूल्य सुझाव दिए हैं :

(a) प्रबन्धकों को चाहिए कि वे सौंपे गए कार्य की आवश्यकताओं के अनुरूप पूर्ण अधिकारों का अन्तरण करें।

(b) कार्य की प्रकृति एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उपयुक्त अधीनस्थों का चुनाव किया जाए।

(c) प्रबन्धक तथा अधीनस्थ के मध्य सम्प्रेषण का मार्ग (Line of Communication) खुला रखा जाए ताकि कार्य में कठिनाई आने पर अधीनस्थ प्रबन्धक से परामर्श प्राप्त कर सकें और कार्य सम्बन्धी दशाओं में परिवर्तन होने या अन्य सूचनाएं प्राप्त होने पर प्रबन्धक इन्हें अधीनस्थ तक पहुंचा सके।

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About the author

Anjali Yadav

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