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संगठन का अर्थ, परिभाषा, प्रकृति अथवा विशेषताएं, प्रक्रिया, मुख्य तत्व, अवधारणा, संरचना एवं प्रकार, उद्देश्य तथा महत्व

संगठन का अर्थ, परिभाषा, प्रकृति अथवा विशेषताएं, प्रक्रिया, मुख्य तत्व, अवधारणा, संरचना एवं प्रकार, उद्देश्य तथा महत्व
संगठन का अर्थ, परिभाषा, प्रकृति अथवा विशेषताएं, प्रक्रिया, मुख्य तत्व, अवधारणा, संरचना एवं प्रकार, उद्देश्य तथा महत्व

संगठन का अर्थ (MEANING OF ORGANISATION)

आंग्ल भाषा के शब्द Organisation की उत्पत्ति Organism से हुई है जिसका आशय विभिन्न अवयवों वाली ऐसी संरचना से है जिसके सभी अवयवों में पारस्परिक सम्बन्ध पाया जाता हो और यह सम्बन्ध सम्पूर्ण संरचना द्वारा शासित होता हो । उदाहरण के लिए मानवीय शरीर एक संरचना है जिसमें नाक, कान, हाथ, पैर आदि विभिन्न अवयव हैं जिनके पृथक्-पृथक् कार्य होते हुए भी वे अन्तर्सम्बन्धित हैं और वे मिलकर कार्य करते हैं।

मानव शरीर की भांति व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में भी उनके कार्यकलापों को विभिन्न भागों में बांटा जाता है; जैसे कच्चे माल का क्रय, वस्तुओं का निर्माण, वस्तुओं का विक्रय, वित्त व्यवस्था आदि। इन विभिन्न विभागों की क्रियाओं में ऐसा समन्वय कि प्रतिष्ठान अपने लक्ष्य प्राप्ति की ओर बगैर किसी कठिनाई के आगे बढ़ता रहे, संगठन कहलाएगा। वास्तव में, संगठन प्रबन्ध का वह तंत्र है जिसके माध्यम से प्रबन्ध, प्रबन्ध के कार्यों को सुचारु रूप से सम्पन्न करता है।

संगठन की परिभाषाएं (Definitions)

विभिन्न विद्वानों ने संगठन को विभिन्न रूपों में परिभाषित किया है अतः इसकी अनेक परिभाषाएं दृष्टिगत होती हैं परन्तु इनमें निम्नांकित परिभाषाएं महत्वपूर्ण मानी जाती हैं:

(1) मैक फरलैण्ड के अनुसार, “लक्ष्य प्राप्ति की ओर प्रयासरत एक निश्चित व्यक्ति समूह ही संगठन कहलाता है।”

(2) आर.सी. डेविस के अनुसार, “संगठन व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जो सामान्य उद्देश्य की पूर्ति हेतु के निर्देशन के अन्तर्गत सहयोग करते हैं।”

(3) हैने के अनुसार, “किसी सामान्य उद्देश्य या उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु विशिष्ट अंगों का मैत्रीपूर्ण संयोजन ही संगठन कहलाता है।”

(4) मूने एवं रेले के अनुसार, “सामान्य उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बनाया गया प्रत्येक मानव समुदाय संगठन कहलाता है।”

(5) जी.आर. टैरी के अनुसार, “संगठन से आशय कुछ चुने हुए कार्य, व्यक्तियों तथा कार्यस्थलों के मध्य ऐसे प्रभावपूर्ण अधिकृत सम्बन्ध स्थापित करने से है जिससे समूह द्वारा कार्य दक्षतापूर्वक सम्पादित किया जा सके।”

(6) लुइस ऐलन के अनुसार, “संगठन किसी कार्य को पहचानने व समूहबद्ध करने, अधिकार व दायित्वों को परिभाषित व अन्तरित करने, उद्देश्य प्राप्ति के लिए व्यक्तियों द्वारा प्रभावपूर्ण कार्य किए जाने हेतु उनके पारस्परिक सम्बन्धों की स्थापना करने वाली एक प्रक्रिया है।”

(7) ओलिवर शेल्डन के अनुसार, “संगठन से आशय एक ऐसी संरचना तथा प्रविधि से लगाया जाता है जिसके द्वारा व्यक्तियों का एक सहकारी समूह अपने सदस्यों में कार्यों का आवण्टन करता है, सम्बन्धों को सुनिश्चित करता है तथा सामान्य उद्देश्य की ओर क्रियाओं को एकीकृत करता है।”

(8) जोसेफ एल. मैसी के अनुसार, “संगठन से आशय एक ऐसी संरचना तथा प्रविधि से लगाया जाता है जिसके द्वारा व्यक्तियों का एक सहकारी समूह अपने सदस्यों में कार्यों का आवण्टन करता है, सम्बन्धों को सुनिश्चित करता है तथा सामान्य उद्देश्य की ओर क्रियाओं को एकीकृत करता है।”

संगठन की प्रकृति अथवा विशेषताएं (NATURE OR CHARACTERISTIC OF ORGANISATION)

संगठन की निम्नांकित विशेषताएं दृष्टिगत होती हैं :

(1) लक्ष्य का होना (Existence of Objectives) – लक्ष्य और संगठन एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं क्योंकि लक्ष्य के अनुसार ही संगठन की संरचना की जाती है। यदि लक्ष्य स्पष्ट नहीं है तो संगठन भी प्रभावपूर्ण सिद्ध नहीं होगा। उदाहरण के लिए, यदि किसी कम्पनी का लक्ष्य गुणवत्ता में सुधार द्वारा अगले वर्ष के विक्रय में 20% की वृद्धि करना है तो कम्पनी को एक नया विभाग (गुणवत्ता निरीक्षण विभाग) स्थापित करना होगा तथा साथ ही बढ़ी हुई मांग के लिए उत्पादन व विक्रय विभाग में भी कुछ अतिरिक्त स्टाफ रखना पड़ सकता है या व्यक्तियों के कार्यों में परिवर्तन करना पड़ सकता है। इस प्रकार लक्ष्य के अनुसार ही संगठन का निर्माण किया जाता है।

(2) व्यक्ति समूह का होना (Existence of a Group of Human Beings) – संगठन की दूसरी विशेषता यह है कि इसमें दो या दो से अधिक व्यक्तियों के समूह होते हैं जिनमें उपक्रम के कार्यों को बांटा जाता तथा उनके आपसी सम्बन्धों को परिभाषित किया जाता है। मात्र एक व्यक्ति का होना संगठन नहीं कहा जाता।

(3) मानवीय व भौतिक संसाधनों में समन्वय (Co-ordination betweer. Man and Material) – मानव तथा भौतिक संसाधन मिलकर ही उत्पादन या सेवा कार्य करते हैं। श्रमिक एवं कर्मचारी कच्चे माल, मशीन व वित्त की सहायता से माल का उत्पादन व विक्रय करते हैं। अच्छा संगठन, वही कहलाएगा जिसमें मानवीय व भौतिक संसाधनों में ऐसा सामंजस्य हो कि उनका सर्वोत्तम उपयोग सम्भव हो सके।

(4) संगठन एक प्रविधि के रूप में (Organisation as a Process)- संगठन कार्य एक प्रविधि या प्रक्रिया है क्योंकि संगठन संरचना में क्रमानुसार निम्न कदम उठाने होते हैं:

(i) प्रकृति के अनुसार कार्यों का विभाजन जैसे क्रय कार्य, विक्रय कार्य,

(ii) प्रत्येक कार्य को छोटी-छोटी क्रियाओं में समूहबद्ध करना;

(iii) क्रियाओं के प्रत्येक समूह को उपयुक्त व्यक्ति को सौंपना, तथा

(iv) अधीनस्थों को अधिकांश कार्यों का अन्तरण करना।

(5) औपचारिक सम्बन्धों की स्थापना (Establishing formal Relationship)-  एक अच्छी संगठन यह है कि प्रत्येक अधिकारी के अधिकार एवं दायित्व स्पष्ट हों। उनके अपने बॉस, अधीनस्थों एवं अन्य अधिकारियों से क्या सम्बन्ध होंगे, कौन किसके आदेश का पालन करेगा, कौन किसको आदेश दे सकता है, कौन किसके प्रति उत्तरदायी होगा आदि की स्पष्ट व्याख्या दी गई हो।

(6) नेतृत्व एवं निर्देशन का होना (Leadership and Direction)- प्रत्येक संगठन में नेतृत्व व निर्देशन का होना अनिवार्य है। नेतृत्व के निर्देशन में ही लोग कार्य करते हैं।

संगठन की प्रक्रिया (PROCESS OF ORGANISATION)

संगठन कार्य उपक्रम का महत्वपूर्ण कार्य है। फर्म की सफलता बहुत कुछ संगठन की उपयुक्त संरचना पर ही निर्भर करती है क्योंकि संगठन संरचना मानवीय एवं भौतिक संसाधनों के समन्वय व सदुपयोग को सम्भव बनाती है। संगठन संरचना पर बाह्य वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। संगठन संरचना को विद्वानों ने एक प्रक्रिया कहकर पुकारा है क्योंकि संगठन संरचना में क्रमिक रूप में एक बाद एक कदम उठाने होते हैं। ये कदम निम्न हैं:

(1) उद्देश्यों की स्थापना (Establishing Objectives)- संगठन संरचना को व्यावहारिक रूप उद्देश्यों के आधार पर ही दिया जाता है। उद्देश्य या लक्ष्य ही उपक्रम के कार्यों तथा व्यूह-रचना का निर्धारण करते हैं जिसके अनुसार संगठन संरचना की जाती है।

(2) कार्यों का निर्धारण एवं विभाजन (Determination and Division of Activities)- उद्देश्य एवं लक्ष्यों की स्थापना के बाद व्यूह-रचना के आधार पर उन कार्यों का निर्धारण किया जाता है जो लक्ष्य प्राप्ति के लिए करने होंगे। इसके बाद इन सम्पूर्ण कार्यों को उनकी प्रकृति के अनुसार विभाजित किया जाता है, जैसे क्रय कार्य, विक्रय कार्य, लेखा कार्य, उत्पादन कार्य, श्रमिकों का प्रशिक्षण, श्रम सुरक्षा कार्य आदि।

(3) क्रियाओं का समूहीकरण (Grouping of Activities) – कार्य का विभाजन व सरलीकरण करने के बाद उन्हें विभागीय रूप में समूहबद्ध किया जाता है; जैसे श्रम सुरक्षा, श्रम कल्याण, श्रम सम्बन्ध, मजदूरी भुगतान, कर्मचारियों का चुनाव व प्रशिक्षण पृथक्-पृथक् क्रियाएं हैं परन्तु इन्हें सेविवर्गीय विभाग में समूहबद्ध किया जा सकता है।

(4) कर्मचारी एवं भौतिक आवश्यकताओं का अनुमान (Assessment of Personel and Physical Requirements) – इसके बाद उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए निर्धारित कार्यों के अनुरूप कर्मचारी व भौतिक आवश्यकताओं का अनुमान लगाया जाता है।

(5) प्रबन्धकीय स्तरों की रचना (Creation of Managerial Hierarchy) – जब कार्यों या क्रियाओं के लिए प्रबन्धकीय व्यक्ति तथा भौतिक संसाधनों का बण्टन कर दिया जाता है। अर्थात् को विभिन्न प्रबन्धकों में बांट दिया जाता है तथा उन्हें सम्बन्धित अधिकार व दायित्व भी सौंप दिए जाते हैं; जैसे सेविवर्गीय विभाग से सम्बन्धित सभी संसाधन, अधिकार तथा दायित्व सेविवर्गीय प्रबन्धक को सौंप दिए जाएंगे परन्तु उसके अधीन प्रत्येक उपकार्य के लिए पृथक्-पृथक् अधीनस्थ अधिकारी होंगे; जैसे श्रम कल्याण अधिकारी, प्रशिक्षण अधिकारी आदि।

(6) अधिकार (Delegation of Authority)- कार्य को सुचारु रूप से तथा क्षमतापूर्ण तरीके से पूरा करने के लिए अधिकार अन्तरण किया जाता है; जैसे सेविवर्गीय प्रबन्धक श्रम कल्याण अधिकारी को यह अधिकार दे सकता है कि 12,000 रुपए तक वार्षिक बजट वाली श्रम कल्याण योजनाएं वह बगैर किसी स्वीकृति के लागू कर सकता है।

(7) उत्तरदायित्व वहन करना (Accountability) – एक बार कार्य को सम्पन्न करने के लिए जब अधीनस्थ अधिकारियों को पर्याप्त अधिकार अन्तरित कर दिए जाते हैं तो वे अधिकारी परिणामों के लिए भी उत्तरदायी माने जाते हैं। उत्तरदायित्व का आशय प्रत्येक प्रबन्धक को भली-भांति स्पष्ट होना चाहिए कि वह केवल स्वयं द्वारा किए गए कार्यों के लिए ही उत्तरदायी नहीं होगा बल्कि अपने अधीनस्थों के कार्य के लिए भी उत्तरदायी माना जाएगा।

संगठन प्रक्रिया के मुख्य तत्व (KEY ELEMENTS OF ORGANISATION PROCESS)

एक संगठन प्रक्रिया के आधारभूत तत्व निम्न हैं:

(1) विभागीकरण (Departmentation) – विभागीकरण से आशय एक उपक्रम के विभिन्न कार्यों को उनकी प्रकृति के अनुसार इस प्रकार समूहबद्ध करना है जिससे कि सभी विभागों में समन्वय स्थापित हो सके और संगठन संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग सम्भव हो सके। ये विभाग क्रय विक्रय, उत्पादन, वित्त आदि रूपों में हो सकते हैं। कभी-कभी विभागीकरण भौगोलिक या उत्पादन के आधार पर भी किया जाता है।

(2) अधिकार अन्तरण व विकेन्द्रीकरण (Delegation and Decentralisation)- कार्यों के विभागीकरण के साथ-साथ इस बात की आवश्यकता होती है कि विभागीय कार्यों का दायित्व उपयुक्त व्यक्तियों को सौंपा जाए जो उच्च प्रबन्ध के निर्देशों के अन्तर्गत दक्षतापूर्ण तरीके से अपने दायित्वों का निर्वहन करें। दायित्वों के साथ-साथ उन्हें अधिकारों का अन्तरण (delegation of authority) भी किया जाना चाहिए। अधिकार व दायित्वों का अन्तरण करते समय भी देखा जाना चाहिए कि प्रत्येक प्रबन्धक का नियंत्रण विस्तार (span of control) सीमा से अधिक न हो. जाए अन्यथा वह अपने अधीनस्थों पर प्रभावपूर्ण नियंत्रण नहीं रख सकेगा।

(3) औपचारिक सम्बन्धों की स्थापना (Set formal Relations)- संगठन का कार्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मानवीय एवं भौतिक संसाधनों को समन्वित करना है। इस कार्य में विभिन्न विभागों या प्रबन्धकों के मध्य अधिकार, कर्तव्य व उत्तरदायित्वों के अनुसार पारस्परिक औपचारिक सम्बन्धों की स्थापना करनी होती है कि कौन किसका अधीनस्थ है अथवा किसके प्रति जवाबदेय है। इन सम्बन्धों को मूर्तरूप देने के कई प्रारूप (pattern) हो सकते हैं और इन प्रारूपों को ही संगठन संरचना के नाम से जाना जाता है जैसे रेखा संगठन (line organisation); रेखा एवं स्टाफ संगठन (line and staff organisation); कार्यात्मक संगठन (functional organisation) आदि।

संगठन की अवधारणा (CONCEPT OF ORGANISATION)

एक कम्पनी या संस्था के लक्ष्य व नीतियां निर्धारित कर लिए जाने के बाद आवश्यकता होती है उपलब्ध मानवीय एवं भौतिक संसाधनों को सुव्यवस्थित तरीके से लक्ष्य प्राप्ति की ओर प्रवाहित करने की। इस प्रक्रिया को ‘संगठन’ के नाम से जाना जाता है। यह नियोजन के बाद प्रबन्ध का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य है जिसमें वह कम्पनी के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए विभिन्न व्यक्तियों के कार्यों को एकीकृत करता है। चाहे व्यक्तियों की संख्या दो हो या हजारों में हो, उनमें प्रभावपूर्ण सहयोग के लिए संगठन की आवश्यकता होती है।

संगठन की आवश्यकता केवल व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को ही नहीं होती बल्कि गैर- व्यावसायिक प्रतिष्ठानों; जैसे विश्वविद्यालय, अस्पताल, क्लब, स्पोर्ट्स सभी में संगठन का विशेष महत्व है। खेल का मैदान संगठन संरचना का एक सामान्य उदाहरण है जहां कप्तान अपने खिलाड़ियों को भिन्न-भिन्न स्थानों पर आवश्यकतानुसार खड़ा करके खेल में समन्वय और सहयोग पैदा करता है ताकि उसकी टीम मैच (Match) जीत सके।

संगठन संरचना एवं प्रकार (ORGANISATIONAL STRUCTURE AND TYPES)

संगठन संरचना से आशय ऐसे ढांचे से है जिसमें संगठनात्मक लक्ष्य के लिए कार्यरत ‘व्यक्तियों के मध्य कार्यों का बंटवारा, उनके कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों का निर्धारण तथा उनके आपसी औपचारिक सम्बन्धों की व्याख्या दी गई होती है। यह संगठन संरचना प्रबन्धकों को तथा अन्य कर्मचारियों को यह इंगित करती है कि उन्हें संगठन में क्या कार्य करने हैं, उनके अधीनस्थ कौन हैं तथा उनका वरिष्ठ अधिकारी कौन है। उन्हें अपने वरिष्ठ अधिकारी से क्या अधिकार प्राप्त हैं और उन्हें अधीनस्थों को कितने अधिकार अन्तरित करने हैं। उनके क्या उत्तरदायित्व हैं और उन उत्तरदायित्वों का निर्वाह कैसे किया जा सकता है।

इस संगठन संरचना के दो प्रमुख प्रकार होते हैं :

(1) क्षैतिज या समतल संरचना (Horizontal structure)

(2) शीर्ष या लम्बरूप संरचना (Vertical structure)

1. क्षैतिज या समतल संरचना- विभिन्न क्रियाओं के विभागीकरण पर आधारित होती है। इसमें कार्यों को प्रकृति के आधार पर समूहबद्ध करके विभागों में बांट दिया जाता है; जैसे एक विश्वविद्यालय की संगठित संरचना में परीक्षा विभाग, कालिज सम्बद्ध विभाग, गोपनीय विभाग, वित्त विभाग, सामान्य विभाग आदि हो सकते हैं। इसी प्रकार एक निर्माणी उपक्रम में विक्रय, क्रय, उत्पादन, वित्त एवं लेखा, सेविवर्गीय आदि विभागों की रचना की जा सकती है, जैसा कि निम्न चार्ट से स्पष्ट है:

क्षैतिज या समतल संरचना

क्षैतिज या समतल संरचना

2. शीर्ष या लम्बरूप संरचना- प्रबन्धकीय स्तर तथा प्रबन्धकीय पारस्परिक सम्बन्धों पर आधारित होती है। इसमें प्रत्येक प्रबन्धक को अपने वरिष्ठ प्रबन्धकों तथा अधीनस्थ प्रबन्धकों के साथ औपचारिक सम्बन्धों का ज्ञान करा दिया जाता है। यह संगठन संरचना सर्वोच्च प्रबन्ध से प्रारम्भ होकर अधीनस्थ प्रबन्ध की ओर चलती है। चूंकि उच्च-स्तरीय प्रबन्धकों की तुलना में मध्य-स्तरीय प्रबन्धकों की संख्या अधिक होती है अतः यह संरचना पिरामिड के आकार की बन जाती है जैसा कि निम्न चार्ट से स्पष्ट है:

शीर्ष संगठन संरचना (एक सूती वस्त्र मिल की)

शीर्ष संगठन संरचना

यदि ठीक तरह से देखा जाए तो क्षैतिज तथा शीर्ष संगठन संरचना अन्तर्सम्बन्धित है। क्योंकि विभागों के निर्माण के बाद ही प्रबन्धकों के पद सृजित किए जाते हैं।

संगठन संरचना को निर्धारित करने वाले घटक (FACTORS DETERMINING ORGANISATIONAL STRUCTURE)

एक उपक्रम की संगठन संरचना करते समय प्रबन्ध को बहुत सारी बातों को ध्यान में रखना होता है जो निम्न हैं:

(1) लक्ष्य एवं रणनीतियां (Goals and Strategies) – आलफर्ड केन्डलर, जॉश एवं ग्लूक आदि विद्वानों द्वारा किए गए अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि आधुनिक प्रबन्ध में संगठन संरचना संगठन के लिए निर्धारित लक्ष्य व रणनीतियों के अनुरूप की जाती है। इस प्रकार लक्ष्य व रणनीति संगठन संरचना के निर्धारित घटक माने जाते हैं।

(2) बाह्य वातावरण (External Environment) – आधुनिक समय में उपक्रमों के लिए बाह्य वातावरण प्रभुत्वपूर्ण हो गया है। अतः प्रबन्धकों को वातावरण के अनुसार अपने आन्तरिक संगठन को समायोजित करना होता है ताकि उपक्रम बदलते हुए बाह्य वातावरण के प्रभाव को वहन कर सके और उपक्रम का संचालन समुचित तरीके से होता रहे। इसके लिए संगठन संरचना में पर्याप्त लोच तथा अनुकूलता ( adaptability) रखी जाती है।

(3) उत्पादन प्रणाली (Production System) – एक उपक्रम की उत्पादन प्रणाली भी.. संगठन संरचना को प्रभावित करती है। संगठन के तत्व; जैसे प्रबन्ध का विस्तार, विभागों की संख्या, प्रबन्धकीय व गैर-प्रबन्धकीय व्यक्तियों का अनुपात आदि उत्पादन प्रणाली व टेक्नोलॉजी द्वारा प्रभावी होते हैं। उदाहरण के लिए, आधुनिक टेक्नोलॉजी में गैर-प्रबन्धकीय व्यक्तियों की कम तथा प्रबन्धकीय व्यक्तियों की अधिक आवश्यकता होती है तथा प्रबन्ध का विस्तार भी छोटा होता है।

(4) कर्मचारी (Employees)– एक उपक्रम के कर्मचारियों (प्रबन्धक व गैर-प्रबन्धक) की आवश्यकताएं, आकांक्षाएं, योग्यताएं तथा मनोभावनाएं भी संगठन संरचना को प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए, ऐसे उपक्रम जिनमें अधिकांशतः शिक्षित व प्रशिक्षित कर्मचारी ही काम करते हैं, वे कार्य में अधिक स्वतंत्रता तथा चुनौती (challenge) चाहते हैं। ऐसी दशा में बड़े पिरामिड आकार की संरचना उपयुक्त नहीं मानी जाती।

संगठन के उद्देश्य तथा महत्व (PURPOSE AND IMPORTANCE OF ORGANISATION)

आधुनिक समाज में व्यक्तियों की पारस्परिक निर्भरता में वृद्धि होने तथा संस्थाओं में कार्यरत व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि होने के कारण संगठन का महत्व बढ़ा है। अभी भी छोटे व्यावसायिक उपक्रमों में एकाकी व्यवसायी स्वयं या उसकी ओर से नियुक्त प्रबन्धक व्यवसाय के सारे कार्यों की देखभाल कर लेता है, परन्तु बड़ी-बड़ी कम्पनियों में, जहां बहुत सारे विभाग व उप- विभाग हैं तथा हजारों कर्मचारी कार्य करते हैं, संगठन का कार्य जटिल हो जाता है क्योंकि विभिन्न कार्यों का विभागों और उप-विभागों में आवण्टन तथा उनकी क्रियाओं में समन्वय उत्पन्न करना आसान काम नहीं है। इसीलिए आधुनिक युग में वृहत् उपक्रमों के कुशलतापूर्वक संचालन में उपयुक्त संगठन की महत्ता काफी बढ़ गई है। आधुनिक युग में संगठन के निम्न उद्देश्य या लाभ कहे जा सकते हैं:

(1) विशिष्टीकरण को प्रोत्साहन (Encouragement to Specialisation)- संगठन श्रम विभाजन पर आधारित है। फर्म के सभी कार्यों को पहचान कर उनकी प्रकृति के अनुसार उन्हें समूहबद्ध किया जाता है और तब उस कार्य को उपयुक्त व्यक्ति को सौंपा जाता है। यह श्रम विभाजन का ही रूप है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य में विशिष्टता प्राप्त कर लेता है और फर्म की उत्पादकता में वृद्धि करता है।

(2) प्रबन्धकीय क्षमता में वृद्धि (Increase in Managerial Efficiency) – संगठन संरचना का उद्देश्य न केवल कार्य का विभाजन करना ही है बल्कि कर्मचारियों के पारस्परिक सम्बन्धों, अधिकार एवं दायित्वों आदि का निर्धारण करना भी है ताकि सभी विभागों व उप-विभागों के कार्यों में समन्वय बना रहे और कार्य के संचालन में आने वाली रुकावटें हट जाएं। इन सबका परिणाम यह होता है कि कुल मिलकर प्रबन्धकीय क्षमता तथा प्रभावशीलता बढ़ जाती है।

(3) मानवीय प्रयासों का अनुकूलतम उपयोग (Optimum Use of Human Efforts)- चूंकि एक उपयुक्त संगठन संरचना के अन्तर्गत प्रत्येक कर्मचारी का कार्य, उसके अधिकार एवं दायित्व सुनिश्चित होते हैं, इस बात की सम्भावना समाप्त हो जाती है कि किसी कार्य के लिए कोई व्यक्ति उपलब्ध नहीं है और किसी कार्य को करने के लिए बहुत सारे लोगों को कह दिया गया हो । इस प्रकार संस्था के मानवीय प्रयासों का सर्वोत्तम उपयोग सम्भव होता है।

(4) कार्य की आवश्यकतानुसार साधनों का आवण्टन (Allocation of Resources as per Need)- संगठन संरचना के अन्तर्गत कार्यों का विभागों, उप-विभागों तथा जांच के रूप में आवण्टन द्वारा प्रत्येक कार्य का महत्व व उपयोगिता प्रबन्ध की नजर में आ जाती है, अतः प्रबन्ध महत्वपूर्ण कार्यों के लिए अधिक संसाधन प्रदान कर सकते हैं और गैर महत्त्वपूर्ण कार्यों को नैत्यिक कार्य (routine job) के रूप में चलने दे सकते हैं।

(5) प्रबन्धकों के प्रशिक्षण व विकास में सहायक (Helpful in Training and Development of Managers) – कोई भी कम्पनी अपनी संगठन नीतियों के अनुसार विशिष्टीकरण के साथ जॉब परिवर्तन (Job rotation) का सिद्धांत भी अपना सकती है जिससे प्रबन्धक विभिन्न कार्यों का अनुभव प्राप्त कर लेते हैं और उच्च पदभार संभालने के लिए योग्य बन जाते हैं। इस प्रकार संगठन संरचना का प्रबन्धकों के प्रशिक्षण और विकास से सीधा सम्बन्ध है जो कम्पनी को कम्पनी के कर्मचारियों में से ही दीर्घकाल तक योग्य एवं अनुभवी प्रबन्धक उपलब्ध करा सकती है।

(6) उपक्रम के विस्तार में सहायक (Helpful in the Expansion of Enterprise)- आधुनिक युग में संगठन सिद्धांतों के कारण ही यह सम्भव हो सका है कि कुछ उपक्रमों का स्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय हो गया है, उनके आकार में कई गुनी वृद्धि हो जाने के बाद भी कार्यों में समन्वय बनाए रखना सम्भव हो सका है और कार्यकुशलता में कोई ह्रास नहीं हुआ है। वास्तव में, आधुनिक संगठन सिद्धांत उपक्रमों के विस्तार में सहायक है।

(7) आधुनिक टेक्नोलोजी का सर्वोत्तम उपयोग (Best Utilisation of Modern Technology)- आधुनिक टेक्नोलॉजी बेहद महंगी तथा जटिल है, परन्तु उसके उपयोग द्वारा उपक्रम की उत्पादकता में वृद्धि की अपार सम्भावनाएं उत्पन्न हो जाती हैं। इस टेक्नोलॉजी को आत्मसात करने के लिए भी एक अच्छे संगठन की आवश्यकता होती है।

(8) भ्रष्टाचार एवं अक्षमताओं पर रोक (Prevention of Corruption and Inefficiencies)- अच्छे संगठन के अभाव में कच्चे माल की चोरी व बरबादी, श्रमिकों की अनुपस्थिति तथा विलम्ब से काम पर आने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है तथा कर्मचारी मनोबल का स्तर नीचा हो जाता है। एक प्रभावपूर्ण संगठन द्वारा आन्तरिक जांच की व्यवस्था करके इस प्रकार के भ्रष्टाचार व अक्षमताओं को रोकना सम्भव होता है।

(9) वातावरण से सामंजस्य (Adjustment with the Environment)– प्रत्येक उपक्रम के अस्तित्व व विकास के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने को बाह्य वातावरण (औद्योगिक कानून, श्रम संघों की मांगें, सरकार व समाज की अपेक्षाएं आदि) के अनुरूप ढाली रहे लेकिन यह तभी सम्भव है जब उपक्रम का संगठन अच्छा व लोचपूर्ण हो।

(10) कम्प्यूटर्स का प्रयोग सम्भव (Use of Computers Possible)- आधुनिक युग में बड़े उपक्रमों में कम्प्यूटर्स का प्रयोग अपरिहार्य हो गया है, परन्तु कम्प्यूटर प्रबन्ध के केन्द्रीकरण पर जोर देता है जहां एक ही स्थान पर सभी सूचनाएं एकत्रित होती हैं। अच्छा संगठन ही कम्प्यूटर का सर्वोत्तम उपयोग सम्भव बना सकता है।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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