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नियोजन का अर्थ एवं परिभाषाएं (MEANING OF PLANNING)
नियोजन का अर्थ- प्रत्येक प्रकार के संगठन या संस्था में लक्ष्यों का निर्धारण तथा लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उठाएं जाने वाले कदमों की निर्धारण प्रक्रिया ही नियोजन कहलाती है। वास्तव में, जब एक प्रबन्धक या व्यक्ति को लक्ष्य स्पष्ट है तो वह भावी अनिश्चितताओं तथा मार्ग में आने वाली कठिनाइयों का पूर्वानुमान कर लक्ष्य पर पहुंचने के लिए ऐसी प्रभावी योजना बना सकता है। जिसमें सफलता प्राप्त करने की सम्भावना अधिक हो। इस प्रकार नियोजन भविष्य के बारे में सोचने तथा निर्णय लेने से सम्बन्ध रखता। इसीलिए यह कहा जाता है कि “कल के कार्य का आज निर्धारण करना ही नियोजन है।”
निम्न परिभाषाएं नियोजन की अवधारणा को स्पष्ट करती हैं:
1. प्रो. कुण्ट्ज एवं ओ डोनैल के अनुसार, “नियोजन द्वारा पहले ही यह निश्चय कर दिया जाता है कि क्या कार्य किया जाएगा, कैसे किया जाएगा, कब किया जाएगा तथा इसे कौन करेगा। हम जिस स्थान पर हैं और जिस स्थान पर पहुंचना चाहते हैं, उसके बीच की खाई (gap) को पाटने का कार्य नियोजन द्वारा किया जाता है।”
2. बिली ई. गोज के अनुसार, “नियोजन मूल रूप में चयन कार्य है और नियोजन की समस्या तभी पैदा होती है जब कार्य के वैकल्पिक ढंगों का पता होता है।”
3. हेयन्स एवं मैसी के अनुसार, “नियोजन प्रबन्ध का वह कार्य है जिसमें वह पहले से ही निश्चय कर लेता है कि भविष्य में उसे क्या करना है। यह एक विशिष्ट प्रकार की निर्णय प्रक्रिया है—यह एक ऐसी बौद्धिक प्रक्रिया है जिसमें सृजनात्मक विचारधारा तथा कल्पनाशक्ति आवश्यक होती है।”
4. जार्ज आर. टैरी के अनुसार, “वांछित परिणाम को प्राप्त करने के लिए आवश्यक समझी जाने वाली प्रस्तावित क्रियाओं में झांकने तथा उन्हें औपचारिक बनाने हेतु भविष्य के सन्दर्भ में तथ्यों का चयन एवं सम्बन्धों की रचना तथा मान्यताओं का निर्माण एवं उनका प्रयोग करना ही नियोजन है। “
उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन यह ज्ञात होता है कि नियोजन के अन्तर्गतः
(i) भविष्य का आकलन तथा वांछित लक्ष्यों या उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है;
(ii) भावी अनिश्चितताओं का पूर्वानुमान कर लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु सम्भावित विकल्प या मार्ग खोजे जाते हैं;
(iii) इन विकल्पों में से न्यूनतम जोखिम वाले विकल्प का चुनाव किया जाता है; इसे सर्वोत्तम विकल्प मानते हैं; तथा
(iv) सर्वोत्तम विकल्प के अनुसार कदम उठाने के लिए आवश्यक नीतियां (policies) कार्य-विधियां (procdures) तथा कार्यक्रम (programmes) तैयार किए जाते हैं।
नियोजन की प्रकृति या तत्व या विशेषताएं (NATURE OR ELEMENTS OR CHARACTERISTICS OF PLANNING)
नियोजन की प्रकृति अथवा विशेषताएं निम्न हैं:
(1) लक्ष्य या उद्देश्यों पर जोर- नियोजन के लिए उद्देश्यों का निर्धारण अति आवश्यक है। यद्यपि कुछ उद्देश्य अधिक महत्वपूर्ण हो सकते हैं, परन्तु योजना बनाते समय अधिक महत्वपूर्ण उद्देश्यों को सम्मुख रखना तो आवश्यक है ही। वास्तव में, नियोजन करते समय महत्वपूर्ण उद्देश्यों पर ध्यान केन्द्रित करके ही उन क्रियाओं या कदमों का पूर्वानुमान किया जा सकता है जो उद्देश्यों की प्राप्ति को सम्भव बनाएंगे।
(2) भावी अनिश्चितताओं का पूर्वानुमान – ड्रकर के अनुसार नियोजन के अन्तर्गत प्रबन्ध भविष्य में झांकने का प्रयास करता है जिससे उसे यह पता चलता है कि निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने में क्या कठिनाइयां या अनिश्चितताएं उत्पन्न हो सकती हैं। इसके लिए प्रबन्ध को आन्तरिक संसाधनों तथा बाह्य वातावरण का भी विश्लेषण करना होता है।
(3) सर्वोत्तम विकल्प का चयन- निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के मार्ग में आ सकने वाली कठिनाइयों को ध्यान में रखकर ही प्रबन्ध उनके समाधान के उपाय सोचता है। सामान्यतया समाधान के उपाय या विकल्प दो या दो से अधिक हो सकते हैं, अतः ऐसी दशा में नियोजन के अन्तर्गत ऐसे विकल्प का चयन किया जाता है जो सर्वोत्तम हो फिर उसी के अनुरूप नीतियां, कार्यविधियां तथा कार्यक्रम बनाए जाते हैं।
(4) सर्वव्यापकता – नियोजन प्रबन्ध के सभी स्तरों पर पाया जाता है। नियोजन कार्य सम्पूर्ण उपक्रम के लिए तथा उपक्रम के सभी विभागों के लिए किया जाता है। कभी-कभी भ्रमवश यह माना जाता है कि नियोजन का उत्तरदायित्व सर्वोच्च प्रबन्ध का है परन्तु वास्तव में नियोजन का उत्तरदायित्व अपने-अपने कार्य क्षेत्र में विभागीय प्रबन्धकों तथा पर्यवेक्षकों सहित सभी का है, अन्तर केवल इतना है कि सर्वोच्च प्रबन्ध नियोजन करते समय समग्र उपक्रम को ध्यान में रखता है और “इसको प्रभावित कर सकने वाले बाह्य वातावरण से सम्बन्ध स्थापित करता है जबकि नीचे के स्तर पर प्रबन्ध मात्र आन्तरिक नियोजन पर ध्यान देता है।
(5) समन्वय – नियोजन का कार्य उपक्रम के स्तर पर और फिर विभागीय स्तर पर भी होता है। विभिन्न विभागों की योजना उपक्रम की योजना के ही भाग हैं परन्तु नियोजन की सफलता के लिए उनमें समन्वय रखना आवश्यक है अन्यथा योजना प्रभावी नहीं रहेगी।
(6) लोच – योजना इस प्रकार बनाई जानी चाहिए ताकि उसमें पर्याप्त लोच बनी रहे। यदि आज प्रबन्धक अगले तीन वर्ष की योजना बनाते हैं तो कुछ समय बाद ही परिस्थितियों में परिवर्तन हो जाने पर योजना में संशोधन करना आवश्यक जाता है। अतः योजना ऐसी होनी चाहिए जिसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जा सके।
(7) साधनों की सीमितता- नियोजन के अन्तर्गत लक्ष्य या उद्देश्य फर्म के संसाधनों को ध्यान में रखकर ही निर्धारित किए जायें और उन्हीं के अनुरूप नीतियां, कार्यविधियां तय की जायें। नियोजन करते समय फर्म की वित्तीय प्रबन्धकीय, मानवीय तथा तकनीकी क्षमताओं की सीमितता पर दृष्टिपात कर लेना उपयोगी होता है।
(8) नियोजन प्रबन्ध का प्राथमिक कार्य है- वैसे तो सभी प्रबन्धकीय कार्य एक-दूसरे से जुड़े होते हैं और वे प्रक्रिया के रूप में एक के बाद एक किए जाते रहते हैं परन्तु उस प्रक्रिया में भी नियोजन प्रथम तथा मूल कार्य माना जाता है। नियोजन प्रबन्ध के अन्य कार्यों जैसे संगठन, निर्देशन व नियंत्रण को प्रभावित करता है।
(9) नियोजन प्रबन्ध का एक सतत (Continuous) कार्य है- नियोजन प्रक्रिया कभी समाप्त नहीं होती बल्कि निरंतर इसकी पुनरावृत्ति होती रहती है। चूंकि योजना बदलते हुए वातावरण के अनुरूप समायोजित करनी होती है और वातावरण बदलता ही रहता है, अतः नियोजन एक सतत कार्य का रूप ले लेता है।
(10) नियोजन नियंत्रण से पूर्व की स्थिति – एक उपक्रम में नियंत्रण रखने के लिए नियोजन आवश्यक है। नियंत्रण के अन्तर्गत कार्य निष्पादन का मूल्यांकन नियोजन द्वारा स्थापित लक्ष्यों के सन्दर्भ में ही किया जाता है। यद्यपि नियोजन प्रबन्ध के अन्य सभी कार्यों को प्रभावित करता है, परन्तु नियंत्रण कार्य तो वगैर नियोजन के सम्भव ही नहीं है।
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