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19वीं शताब्दी के सुधार आंदोलनों की समीक्षा कीजिये।

19वीं शताब्दी के सुधार आंदोलनों की समीक्षा कीजिये।
19वीं शताब्दी के सुधार आंदोलनों की समीक्षा कीजिये।

19वीं शताब्दी के सुधार आंदोलनों की समीक्षा कीजिये।

डॉ. एम. एच. जैन के अनुसार – “19वीं शताब्दी का सुधार आन्दोलन वास्तव में पुरानी व्यवस्था के विरुद्ध व्यक्तिगत विद्रोह था। इसका लक्ष्य समाज के ढाँचे में परिवर्तन करना नहीं था बल्कि स्थापित ढाँचें में रहन-सहन की नई प्रणाली का समावेश करना था।” ज्यादातर आन्दोलनों ने तर्क बुद्धि एवं मानवतावाद को अपनाया। फिर भी अनेक धर्मसुधार आंदोलन का मुख्य उद्देश्य प्राचीन गौरव की पुनर्स्थापना या उनका पुनरुथान करना ही था। इन सुधारकों का प्रभाव समाज के एक सीमित वर्ग शहरी मध्यम वर्ग एवं उच्चवर्ग तक ही रहा, जनसाधारण तक इनका प्रभाव व्यापक रूप में नहीं पड़ सका। मुसलमानों एवं अन्य जातियों में हुये सुधार आंदोलनों की भी यही अवस्था रही। सिर्फ समाज में पढ़े लिखे एवं प्रबुद्ध वर्ग को ही इन आंदोलनकारियों ने प्रभावित किया। सुधार आंदोलनों का एक महत्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि इसने भारतीयों में अधिक आत्मसम्मान, आत्मविश्वास और देशाभिमान की भावना भर दी।

(क) ब्रह्म समाज –

हिन्दू समाज के दोषों के उन्मूलन हेतु बंगाल के महान सुधारवादी नेता राजा राममोहन राय ने ब्रह्म समाज की स्थापना की। ब्रह्म समाज के माध्यम से उन्होंने बाल विवाह, सती प्रथा, बहु विवाह प्रथा को रोकने के महत्वपूर्ण कार्य किये। इतना ही नहीं ब्रह्म समाज ने बंगाल में सामाजिक, मानवतावादी तथा सांस्कृतिक कार्य करके देश के पुनर्जागरण में महत्वपूर्ण योग दिया। इस संस्था के अन्तर्गत राजा राममोहन राय, श्री देवेन्द्रनाथ ठाकुर तथा श्री केशव चन्द्र सेन ने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा तथा बाल हत्या का प्रबल विरोध किया। इस संस्था के महत्व का अनुमान इस बात से भली-भांति लगाया जा सकता है कि इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध उपयोगितावादी विचारक जरमी बेन्थम भी ब्रह्म समाज में सम्मिलित हुए। इस संस्था का गठन बुद्धिवाद और जटिल एकेश्वरवाद के आधार पर किया गया। था। कालान्तर में इस संस्था ने भारत में श्री जगदीश चन्द्र बसु, रवीन्द्रनाथ टैगोर, ब्रजेन्द्रनाथ शील तथा विपिन चन्द्र पाल जैसे महान नेताओं को जन्म दिया।

(ख) आर्य समाज –

सन् 1875 ई. में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की। यद्यपि आर्य समाज मूल रूप से एक धार्मिक आन्दोलन था किन्तु देश के सामाजिक पुनर्जागरण में महत्वपूर्ण कार्य किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती के बचपन का नाम मूलशंकर था। वे जन्म से शैव धर्म के अनुयायी थे। एक दिन उन्होंने भगवान शंकर की मूर्ति पर एक चूहे को उछल-कूद मचाते हुए देखा। । उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि भगवान शंकर एक निरीह चूहे से अपनी रक्षा करने में असमर्थ हैं, इससे उनके हृदय में हिन्दू धर्म की संकीर्णता एवं मूर्ति पूजा के विरुद्ध चुनौती का भाव उत्पन्न हुआ। उन्होंने विद्याध्ययन कर अपनी समस्या का समाधान कर लिया और अपने गुरु बिरजानन्द सरस्वती से गहन प्रेरणा प्राप्त की। अब उन्होंने हिन्दू समाज में व्याप्त रूढ़ियों और दोषों को दूर करने का निश्चय कर लिया। वे पूर्णतया कट्टर हिन्दू और वेदों के पूर्ण ज्ञाना थे। उन्होंने कुशल तर्कशास्त्री के रूप में हिन्दू धर्म में व्याप्त दोषों पर गहरा आघात किया और एक विशुद्ध वैदिक नवीन हिन्दू धर्म की स्थापना की। उन्होंने आर्य समाज के माध्यम से एकेश्वरवाद का प्रचार किया। उन्होंने वेदों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन कर सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन का प्रयास किया। उन्होंने ऊँच-नीच, छुआछूत, ब्राह्मणवाद का खण्डन कर यज्ञ की महत्ता पर बल दिया। उन्होंने सभी जातियों को वेदों के अध्ययन का अधिकार देकर ब्राह्मणों के धार्मिक एकाधिकार का खण्डन किया।

सामाजिक पुनर्जागरण में आर्य समाज ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। ब्रह्म समाज की भांति आर्य समाज ने भी सती प्रथा, पर्दा प्रथा तथा बाल विवाह का विरोध किया और स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह तथा अछूतोद्धार का समर्थन किया। राजा राममोहन राय ने बंगाल में अनेक सुधारवादी कार्य किये तथा स्वामी दयानन्द सरस्वती ने उत्तरी भारत में समाज सुधारों का संचालन किया।

शिक्षा के प्रसार में आर्य समाज ने महत्वपूर्ण कार्य किया। उसने प्राचीन शिक्षा प्रणाली को पुनर्जीवित करने के लिए गुरुकुलों की स्थापना की और अनेक आर्य समाजी स्कूलों तथा कालेजों की स्थापना कर शिक्षा के प्रसार में महत्वपूर्ण योग दिया। स्वामी ब्रह्मानन्द, लाला हंसराज तथा लाला लाजपत राय जैसी महान विभूतियों को इसी संस्था ने जन्म दिया। उन्होंने भारत में डी. ए. वी. कालेज, लाहौर, गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार आदि की स्थापना की|

(ग) रामकृष्ण मिशन –

जिस समय ब्रह्म समाज और आर्य समाज भारत में सामाजिक पुनर्जागरण कर रहे थे उसी समय हिन्दू समाज में एक महान नेता का प्रादुर्भाव हुआ जिसने उक्त दोनों संस्थाओं की मूर्तिपूजा विरोधी धारणा पर गहरा आघात किया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने बंगाल में मूर्तिपूजा द्वारा ईश्वर से साक्षात्कार कर विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया। वे काली माता परम भक्त थे। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना कर मूर्तिपूजा को हिन्दू धर्म का आधारभूत अंग घोषित किया। उनके परम शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने न केवल भारत में अपितु सम्पूर्ण विश्व में हिन्दू धर्म और संस्कृति की धाक जमा दी।

(द) थियोसोफिकल सोसायटी –

थियोसोफी शब्द ग्रीक भाषा के Theas अर्थात् ईश्वर तथा Sophic अर्थात् ज्ञान से मिलकर बना है। थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना मैडम हेलन पेट्रोवना ब्लावस्की तथा कर्नल एच.एस. अल्काट ने 1875 ई. में संयुक्त राज्य अमेरिका में की। 1876 ई0 में दोनों लोग भारत आये तथा उन्होंने सोसायटी का मुख्य कार्यालय 1886 ई0 में मद्रास के निकट ‘अड्यार’ में स्थापित किया। उन्होंने सोसायटी के उद्देश्य को निम्न शब्दों में बताया – “भारतीय कार्य में सबसे महत्वपूर्ण जरथुस्ट्र धर्म- इन प्राचीन धर्मों का तथा लंका और बर्मा में बौद्ध धर्म का पुनरुद्धार, पुष्टि तथा विकास करना है। इससे एक नया आत्मसम्मान अतीत में एक गर्व की भावना तथा भविष्य में विश्वास जागृत होगा।”

(य) मुस्लिम धार्मिक आन्दोलन –

मुसलमानों के बीच धार्मिक सुधार के आन्दोलन कुछ देर से प्रारम्भ हुए। 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के पूर्व मुसलमानों में ‘बहावी आन्दोलन’ विकसित हुआ जिसका लक्ष्य भारत में मुस्लिम सम्प्रदाय के लिए उचित वातावरण तैयार करना था। ‘फरीदी ‘आन्दोलन’ तथा ‘देवबन्द आन्दोलन’ भी प्रारम्भ किए गये किन्तु ये सभी आन्दोलन लोकप्रिय न हो सके। मुस्लिम सम्प्रदाय के लगभग सर्वाधिक महत्वपूर्ण सुधारक सर सैयद अहमद खां (1817-68) थे। सैयद अहमद खां पाश्चात्य शिक्षा तथा आधुनिक वैज्ञानिक चिन्तन से बहुत अधिक प्रभावित हुए। उन्होंने इस्लाम के साथ इनका सामंजस्य स्थापित करने के लिए सर्वप्रथम कुरान को इस्लाम का एकमात्र अधिकृत ग्रन्थ घोषित किया तथा अन्य सब ग्रन्थों को गौण माना। कुरान की व्याख्या उन्होंने मानवीय तर्क बुद्धि तथा विज्ञान के प्रकाश में की। उन्होंने कुरान तथा अरस्तू की विचारधारा में अनेक समानतायें स्थापित कर उन्हें मुस्लिम जनता में प्रचारित किया। उन्होंने मुस्लिम सम्प्रदाय में व्याप्त अज्ञान, अविवेकशीलता, कठमुल्लयन तथा अंधानुकरण का डटकर विरोध किया।

(र) सिखों में धार्मिक सुधार –

सिखों पर भी देश में होने वाले परिवर्तनों का प्रभाव पड़ा किन्तु सिख काफी देर में प्रभावित हुए। 19वीं शताब्दी के अंत में अमृतसर में ‘खालसा कालेज’ की स्थापना से सिखों में धार्मिक सुधार की दिशा में विचार-विमर्श प्रारम्भ हुआ। इस कालेज ने सिखों में बौद्धिक एवं सांस्कृतिक जागरण का संचार किया। गुरूद्वारों को महन्तों के भ्रष्ट प्रबन्ध से मुक्त किए जाने की चर्चा होने लगी किन्तु 19वीं शताब्दी में सिखों में संगठित प्रयास न होने से उपलब्धि भी नगण्य रही। सीधी हिंसात्मक कार्यवाही द्वारा गुरुद्वारों को भ्रष्ट महन्तों से मुक्त किया गया। गुरुद्वारों के प्रबन्ध हेतु शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी की स्थापना की गयी।

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Anjali Yadav

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