प्रकृतिवाद एवं पाठ्यचर्या (Naturalism and Curriculum)
प्रकृतिवाद बालक के व्यक्तित्त्व पर बल देता है। इस विचारधारा के अनुसार बालक के व्यक्तित्त्व के स्वतन्त्र विकास को शिक्षा का ध्येय माना गया है। इसके लिए वे बालक को आत्म प्रकाशन के लिए अनियन्त्रित स्वतन्त्रता देने के पक्षपाती है। यह बालक को बालक मानकर चलता है। इसलिए प्रकृतिवादी पाठ्यचर्या में उन क्रियाओं का समावेश चाहते हैं जिनके द्वारा बालक की स्वाभाविक शक्तियों का विकास हो सके। प्रकृतिवाद के अनुसार पाठ्यचर्या में व्यायाम, खेलकूद, तैरना, भूगोल, प्राकृतिक विज्ञान आदि को स्थान मिलना चाहिए।
प्रकृतिवादियों के अनुसार पाठ्यचर्या के निम्नलिखित आधार होते हैं-
- बालक की शैक्षिक समस्याओं पर आधारित।
- बालक की व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर आधारित।
- बालक की प्राकृतिक क्रियाओं पर आधारित ।
- बालक की प्राकृतिक रुचियों पर आधारित ।
- बालक की मूल प्रवृत्तियों पर आधारित।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर पाठ्यचर्या का निर्माण होना आवश्यक है जिससे बालक क्रियाशील रहकर स्वतन्त्रतापूर्वक जीवन के प्रत्येक पक्ष का विकास कर सकता है। प्रकृ -तिवादी शिक्षा के लिए दार्शनिक हरबर्ट स्पेन्सर ने जीवन में शिक्षा के मुख्य उद्देश्य के अन्तर्गत पाठ्यचर्या में शरीर विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, गणित, रसायन विज्ञान, गृह-विज्ञान, जीव विज्ञान आदि वैज्ञानिक विषयों को महत्त्व तथा साहित्यिक, सांस्कृतिक विषयों को शून्य स्थान दिया है।
प्रकृतिवादी विचारधारा में बालक की वैयक्तिकता पर बल दिया गया है। शिक्षा के क्षेत्र में प्रकृतिवाद के मुख्य प्रवर्तक रूसो हैं। रूसों के द्वारा यह कहा गया है कि मुझे लम्बी-लम्बी व्याख्याओं से घृणा है। लम्बी व्याख्याओं में छोटे बालकों का आकर्षण नहीं होता है साथ ही वे उन्हें ग्रहण करने में भी असमर्थ होते हैं। यदि बालक स्वयं प्रकृति के द्वारा ग्रहण करे तो वे उसे शीघ्र ग्रहण करने में समर्थ हो पाएंगे।
रूसो के अनुसार, “मुझे पुस्तकों से घृणा है, क्योंकि ये बालकों के लिए अभिशाप है।”
I hate books, they are a curse to education, they teach us to talk only which we do not know.
इस प्रकार प्रकृतिवादी पाठ्यचर्या में प्रचलित विषयों का विरोध किया गया है एवं पुस्तकीय शिक्षा को बालकों के लिए पूर्णतया अनावश्यक बताया गया है। इसका कारण इन्होंने पुस्तकीय ज्ञान का व्यावहारिक न होना बताया। बालकों को व्यावहारिक ज्ञान अनुभव, निरीक्षण तथा स्वयं करके सीखने से ही प्राप्त होता है। इसलिए इन्द्रिय प्रशिक्षण को अनिवार्य माना गया है साथ ही यह भी बताया गया है कि प्रकृति ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शिक्षक है जो उत्तम कार्यों को करने पर प्रोत्साहित करती है तथा गलत कार्य करने पर दण्ड भी प्रदान करती है। अतः पाठ्यचर्या बालक के स्वाभाविक विकास में सहायक होनी चाहिए।
हरबर्ट स्पेन्सर ने पाठ्यचर्या के विषय में अपने विचार सुव्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत किए हैं। इनके अनुसार जीवन की समस्त क्रियाओं का उनके महत्त्व के अनुरूप विभाजन होना चाहिए एवं उन क्रियाओं के अनुसार विषय का निर्धारण पाठ्यचर्या में होना चाहिए। स्पेन्सर ने जीवन सम्बन्धी सभी क्रियाओं व उनके अनुसार विषयों का इस प्रकार विभाजन किया है-
1) आत्म संरक्षण सम्बन्धी क्रियाएँ प्रथम वर्ग में आती हैं। अतः पाठ्यचर्या में इनसे सम्बन्धित विषय स्वास्थ्य विज्ञान एवं शरीर विज्ञान आदि को स्थान देना चाहिए।
2) मानवीय क्रियाएँ द्वितीय वर्ग में आती है जो अप्रत्यक्ष रूप से आत्म संरक्षण में सहायक होती हैं, जैसे- भोजन, कपड़ा और मकान। इन क्रियाओं की पूर्ति के लिए पाठ्यचर्या में भौतिक विज्ञान, गणित एवं भूगोल आदि विषय रखे जाने चाहिए।
3) जो क्रियाएँ मानव को सन्तान के पालन-पोषण में सहायक होती हैं वे क्रियाएँ तृतीय वर्ग में सम्मिलित होती हैं। इन क्रियाओं पर दक्षता प्राप्त करने हेतु गृह विज्ञान, शरीर विज्ञान एवं बाल-मनोविज्ञान आदि विषय पाठ्यचर्या में होने चाहिए।
4) चतुर्थ वर्ग में उन मानवीय क्रियाओं को शामिल किया जाता है जो व्यक्ति के सामाजिक, राजनैतिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिए आवश्यक होती है। इन क्रियाओं के परिणामस्वरूप व्यक्ति योग्य नागरिक तथा अच्छा पड़ोसी बनता है। इतिहास, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र एवं राजनीतिशास्त्र इन क्रियाओं में मुख्य सहायक विषय होते हैं, अतः इन विषयों को पाठ्यचर्या में प्रमुख स्थान दिया जाना चाहिए।
5) जो क्रियाएँ मनोरंजक होती हैं, वे पंचम वर्ग में आती हैं। ये क्रियाएँ मानव की रुचि एवं भावनाओं को सन्तुष्ट करती हैं। इन क्रियाओं से सम्बन्धित विषय, भाषा, कला, साहित्य एवं संगीत हैं जिन्हें पाठ्यचर्या में शामिल किया जाना चाहिए।
अतः स्पेन्सर के अनुसार शिक्षा की पाठ्यचर्या में विभिन्न आवश्यक विषयों का समावेश होना चाहिए।
रूसो ने बालक की नैसर्गिक प्रवृत्तियों को विकास का आधार बनाकर बालक के जीवनकाल के आधार पर शिक्षा का निर्धारण किया है-
1) बाल्यावस्था (5-12 वर्ष तक) के लिए रूसो ने बालकों हेतु ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण एवं शारीरिक शिक्षा को आवश्यक बताते हुए पाठ्यचर्या में मात्र दौड़ने, भागने, यात्रा करने, कूदने एवं संगीत आदि विषयों को स्थान प्रदान किया है।
2) पूर्व किशोरावस्था (12-15 वर्ष तक) में शारीरिक विज्ञान व ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण हेतु एवं तर्कपूर्ण सामाजिक एवं बौद्धिक शिक्षा हेतु पाठ्यचर्या में विज्ञान, गृह-विज्ञान, बैंकिंग और कला आदि विषयों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है।
3) किशोरावस्था (15-25 वर्ष तक) में नैतिक व सामाजिक शिक्षा का विशेष महत्त्व है। साथ ही साथ पाठ्यचर्या में समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र, इतिहास, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, साहित्य एवं कलात्मक विषयों का समावेश किया गया है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रकृतिवादी शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा के पाठ्यचर्या में सभी आवश्यक क्रियाओं हेतु आवश्यक विषय रखे हैं एवं पाठ्यचर्या में आध्यात्मिकता को कोई स्थान नहीं दिया है।
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