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निरीक्षण (Observation)
प्रेक्षण में शोधकर्ता बालक के व्यवहार एवं आचरण का विभिन्न वातावरण में अवलोकन करता है तथा प्रयोज्य को इस बात की जानकारी नहीं होती है। इसमें प्रयोज्य के बौद्धिक, संवेगात्मक, रुचि एवं आदतें आदि का निरीक्षण किया जाता है। अपने निरीक्षण के आधार पर निरीक्षणकर्ता एक विशेष रिपोर्ट तैयार करता है और उसका विश्लेषण कर छात्र के व्यवहार के बारे में एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचता है। निरीक्षण को वस्तुनिष्ठ बनाने हेतु छात्रों के व्यवहार का विभिन्न समय एवं परिस्थितियों में निरीक्षण किया जाता है साथ ही उसके व्यवहार का निरीक्षण कई निरीक्षकों द्वारा एक साथ मिलकर भी किया जाता है इसलिए इस विधि को वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि (Objective Observational Method) भी कहा जाता है।
इस विधि से सम्बन्धित कई विद्वानों ने परिभाषाएँ दी हैं जिसमें से कुछ विद्वानों की परिभाषाएँ निम्न हैं-
चार्ल्स गिडे के अनुसार, “निरीक्षण विधि उस मार्ग को दर्शाती है, जिस पर चलकर सत्य की खोज की जाती है।“
According to Charles Gide, “In the scientific language, the term method is used to designate the road that must be followed to lead to discovery of truth.“
ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार, “घटनाओं को जैसे कि वे प्रकृति में होती हैं, कार्य और कारण अथवा परस्पर सम्बन्ध की दृष्टि से देखना यथार्थ निरीक्षण के अन्तर्गत आता है।“
According to Oxford Concise Dictionary, “Accurate watching is nothing of phenomena as they occur in nature with regard to cause and effect or mutual relation.“
पी. वी यंग के अनुसार, “निरीक्षण सावधानी से किए गए अध्ययन को सामूहिक व्यवहार, जटिल सामाजिक संस्थाओं और पूर्णता के लिए हुए घटक की पृथक इकाइयों का निरीक्षण करने के लिए एक विधि के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।“
According to P.V. Young (Scientific Social Survey and Research, 1964), “Observation is deliberate study through the eye may be used as one of the methods for scrutinising collective behaviour and complex institution as well as the separate units composing a totality.”
गुड तथा हाट के अनुसार, “विज्ञान निरीक्षण से प्रारम्भ होता है और अपने तथ्यों की पुष्टि के लिए अन्त में निरीक्षण का ही सहारा लेता है।”
According to Goode and Hatt (Method in Social Research, 1964), “Science begin with observation and must ultimately return to observation for its final validation.”
मोसर के अनुसार, “निरीक्षण को उचित रूप से वैज्ञानिक पूछताछ की श्रेष्ठ विधि कहा जा सकता है। ठोस अर्थ में- निरीक्षण में कानों और वाणी की अपेक्षा नेत्रों का उपयोग होता है।”
According to C.A. Moser (Survey Methods in Social Investigation 1958), “Observation can fairly be called the classic method of scientific enquiry in the strict sense, observation implies the use of the eyes rather than of the ears and the voice.”
उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि निरीक्षण विधि का अध्ययन करने हेतु अत्यन्त सावधानी की आवश्यकता है। अवलोकन सावधानीपूर्वक करने हेतु हर वक्त निरीक्षणकर्ता को चेतन रहना पड़ता है। इस विधि के माध्यम से मानव के साथ-साथ पशु के व्यवहार का अवलोकन तथा उनके बारे में अन्य जानकारी को अच्छी तरह से प्राप्त किया जा सकता है।
निरीक्षण के प्रकार (Types of Observation)
निरीक्षण के अन्तर्गत छात्रों के व्यवहारों का निरीक्षण दो प्रकार की परिस्थितियों में किया जाता है, वे परिस्थितियाँ निम्न हैं-
1) नियन्त्रित निरीक्षण (Controlled Observation)- इसके अन्तर्गत छात्र के व्यवहारों का अध्ययन व्यवस्थित एवं नियन्त्रित परिस्थितियों में किया जाता है। इसका सर्वप्रथम प्रयोग जर्मनी में नवजात बालकों की ज्ञानात्मक प्रतिक्रियाओं के अध्ययन हेतु किया गया था। इसमें निरीक्षक प्रायः उन कारकों को नियन्त्रित करता है जो उसके अध्ययन के केन्द्रबिन्दु (Focus) से बाहर होते हैं लेकिन उन कारकों का प्रभाव भी निरीक्षण हेतु चयनित व्यवहार पर पड़ता है। अतः उनका नियंत्रण आवश्यक होता है क्योंकि तभी, व्यवहार घटना के वास्तविक कारणों के साथ के सम्बन्ध को परिशुद्ध रूप से सुनिश्चित किया जा सकता है।
2) स्वाभाविक निरीक्षण (Natural Observation) – इस विधि के अन्तर्गत बालकों द्वारा किए गए व्यवहारों का स्वाभाविक परिस्थिति में निरीक्षण अथवा अवलोकन किया जाता है। क्रो एवं क्रो के अनुसार, “स्वाभाविक निरीक्षण से तात्पर्य माता-पिता तथा अन्य प्रौढ़ व्यक्तियों द्वारा बालक की प्रतिदिन की चेष्टाओं एवं क्रियाओं पर ध्यान देना है जिसमें बालक द्वारा किए जाने वाले व्यवहार, यथा-परिवार, पास-पड़ोस, उठना-बैठना, हाथ-पैर हिलाना-डुलाना आदि क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं। इस विधि में निरीक्षक बालक के व्यवहार को जिस रूप में देखता है अपनी रिपोर्ट उसी के अनुरूप तैयार करता है। वह बालक की क्रियाओं में कोई हस्तक्षेप नहीं करता है।” उदाहरणार्थ- कक्षा में छात्रों के व्यवहारों का निरीक्षण करना स्वाभाविक निरीक्षण का उदाहरण है।
उपर्युक्त के अतिरिक्त विद्वानों ने निरीक्षण विधि में अध्ययन की सरलता व सुविधा के लिए निम्न दो प्रकार की परिस्थितियों का वर्णन किया गया है-
1) सहभागी निरीक्षण (Participative Observation) – इस विधि में निरीक्षणकर्ता न्यूनाधिक रूप में स्वयं उस समूह का सदस्य बन जाता है जिसके सदस्यों के व्यवहारों का वह अवलोकन करता है। उदाहरणार्थ – यदि निरीक्षक किसी दफ्तर में भ्रष्टाचार का अध्ययन करना चाहता है तो वह स्वयं उस दफ्तर में एक कर्मचारी के रूप में नियोजित होकर दूसरे भ्रष्ट कर्मचारियों या अधिकारियों की भ्रष्टाचार सम्बन्धी कार्य व्यापार का भागीदार बनता है। इस प्रकार के निरीक्षण का उपयोग प्रायः बच्चों की खेल सम्बन्धी क्रियाओं का अध्ययन करने, समूह चिकित्सा, सी.आई.डी. या सी.बी.आई. द्वारा किया जाता है। इस निरीक्षण में अन्य सदस्य निरीक्षणकर्ता के उद्देश्य से अनभिज्ञ रहते हैं कि कोई उनका निरीक्षण कर रहा है। इसके लिए वीडियो कैमरा एवं अन्य रिकॉर्डिंग उपकरणों का प्रयोग किया जाता है।
2) असहभागी निरीक्षण (Non-Participative Observation) – यह निरीक्षण, सहभागी निरीक्षण के ठीक विपरीत होता है। इस प्रकार के प्रेक्षण में निरीक्षणकर्ता समूह से बाहर रहकर समूह के सदस्यों के व्यवहार का अवलोकन करता है किन्तु इसमें भी निरीक्षणकर्ता इस बात का ध्यान रखता है कि समूह के अन्य सदस्यों को उसके उद्देश्य के बारे में पता न चले।
निरीक्षणकर्ता तटस्थ रहकर बड़े समूह के सदस्यों के व्यवहार का अवलोकन सरलता से कर सकता है। जैसे- कोई अध्ययनकर्ता किसी विद्यालय के छात्रों का कक्षागत व्यवहारों का निरीक्षण करना चाहता है तो वह चुपचाप पीछे के दरवाजे से कक्षा की पिछली पंक्ति में जाकर बैठ जाता है और छात्रों की अन्तःक्रिया पारस्परिक क्रियाकलापों का अवलोकन कर लिखता रहता है। इस प्रकार का अवलोकन बहुत प्रचलित है। इसका सर्वाधिक प्रयोग औद्योगिक, नैदानिक, सामाजिक आदि क्षेत्रों की व्यावहारिक घटनाओं का अध्ययन करने हेतु किया जाता है। इस विधि में सहभागी निरीक्षण से सम्बन्धी त्रुटियाँ इसमें नहीं पाई जाती हैं तथा निरीक्षक निष्पक्ष होकर अध्ययन करता है साथ ही साथ इस विधि में समय की भी बचत होती है अर्थात् यह विधि मितव्ययी (Economical) है। सटीक परिणाम प्राप्त करने हेतु टेप रिकॉर्डर, माइक्रोफोन, कैमरा आदि का प्रयोग भी किया जाता है जिससे परिणामों में वस्तुनिष्ठता रहे।
निरीक्षण विधि की विशेषताएँ (Characteristics of Observation Method)
निरीक्षण विधि की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1) इस विधि से छात्रों में गम्भीर चिन्तन, तर्क एवं निर्णय करने की शक्ति का विकास होता है।
2) ज्ञानेन्द्रियों की सक्रियता बढ़ती है।
3) छात्रों में तुलनात्मक, विश्लेषणात्मक एवं संश्लेषणात्मक क्षमता का विकास होता है।
4) इससे छात्र विषय सम्बन्धित प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते हैं।
5) इसके प्रयोग से छात्रों को विषय-वस्तु सम्बन्धित प्राथमिक जानकारी आसानी से प्राप्त होती है।
6) छात्रों में अन्वेषण प्रवृत्ति का विकास होता है।
निरीक्षण के चरण (Steps of Observation)
निरीक्षण के चरण निम्नलिखित हैं-
1) योजना (Planning) – निरीक्षण करने से पूर्व निरीक्षणकर्ता को एक योजना का निर्माण कर लेना चाहिए। निरीक्षणकर्ता को योजना बनाते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-
- निरीक्षण का उद्देश्य क्या है?
- निरीक्षण का क्या समय है?
- किस प्रकार के व्यवहार का निरीक्षण करना है?
- निरीक्षण का क्षेत्र क्या है?
- निरीक्षण हेतु किन उपकरणों का प्रयोग किया जा रहा है?
2) व्यवहार का निरीक्षण (Observation of Behavior) – इस चरण के अन्तर्गत प्रत्यक्ष रूप से तथा पूर्व नियोजित उपकरणों एवं प्रविधियों के माध्यम से छात्रों के व्यवहारों का निरीक्षण किया जाता है। निरीक्षण करते समय यह अवश्य ध्यान रखें कि निरीक्षण किस उद्देश्य की पूर्ति हेतु किया जा रहा है।
3) व्यवहार लेखन (Noting Down the Behavior) – निरीक्षण का कार्य करते हुए निरीक्षित व्यवहारों को लिखते रहना चाहिए। व्यवहार को लिखने हेतु टेपरिकॉर्डर, कैमरा, पेन, डायरी तथा पेन्सिल का प्रयोग किया जाता है।
4) विश्लेषण (Analysis) – छात्रों के व्यवहार से सम्बन्धित व्यवहार के निरीक्षण को लिखने के पश्चात् उसका विश्लेषण किया जाता है। यह विश्लेषण मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों प्रकार का हो सकता है।
5) व्याख्या और सारांश (Explanation and Summary) – निरीक्षण किए गए व्यवहार का विश्लेषण करने के पश्चात् उसकी व्याख्या की जाती है। विश्लेषण के दौरान विभिन्न सिद्धान्तों, कारणों आदि पर प्रकाश डाला जाता है तथा प्राप्त किए गए परिणाम के आधार पर छात्रों के व्यवहार के उद्देश्य का सामान्यीकरण किया जाता है और सारांश लिखा जाता है।
निरीक्षण की सीमाएँ (Limitations of Observation)
निरीक्षण की सीमाएँ निम्नलिखित हैं-
1) समस्त प्रकार के व्यवहारों के अध्ययन में कठिनाई – निरीक्षण विधि द्वारा प्रत्येक प्रकार के व्यवहारों का अध्ययन नहीं किया जा सकता है। जैसे- अपराधी व्यक्तियों के वास्तविक अपराधी व्यवहारों, व्यक्तियों के वैवाहिक जीवन सम्बन्धी निजी व्यवहार आदि के अध्ययन की अनुमति निरीक्षण द्वारा नहीं होती है।
2) सीमित वैधता एवं विश्वसनीयता- निरीक्षण करते समय निरीक्षक की अपनी पूर्वाग्रह, आवश्यकताएँ आदि का प्रभाव उसके निरीक्षण पर पड़ता है जिससे उसके द्वारा किया गया निरीक्षण वस्तुनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ हो जाता है। ऐसी स्थिति में प्राप्त निष्कर्ष बहुत अधिक विश्वसनीय तथा वैध नहीं रह जाता है।
3) निरीक्षण परिसीमाओं से सीमित अध्ययन – निरीक्षण द्वारा अध्ययन का स्वरूप प्रायः निरीक्षक की योग्यताओं एवं क्षमताओं पर आधारित रहता है। निरीक्षक की कुछ परिसीमाएँ अध्ययन के स्वरूप को सीमित कर देती हैं तथा अध्ययन में विभिन्न दोष आ जाते हैं। निरीक्षक की ये परिसीमाएँ निम्नलिखित हैं- प्रेक्षक में वैज्ञानिक अभिवृत्ति का अभाव, निरीक्षक के व्यवहार में पूर्वाग्रह तथा अभिवृत्ति, निरीक्षित घटनाओं के लेखन में त्रुटियाँ आदि।
4) निरीक्षण घटना के घटित होने पर सम्भव- निरीक्षण किसी घटना के घटित होने पर किया जा सकता है। अतः जिन स्थितियों का हम अध्ययन करना चाहते हैं उनके घटित होने तक ही प्रतीक्षा करनी पड़ती है। जैसे- यदि हम किसी जनजाति के विवाह अथवा मृत्यु के समय के रीति-रिवाजों का अध्ययन करना चाहते हैं तो जब तक उन जनजाति में विवाह अथवा मृत्यु की घटना नहीं घटित होगी, तब तक निरीक्षण सम्भव नहीं होगा।
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