शिक्षण की प्रविधि से आपका क्या अभिप्राय है ? शिक्षण की विभिन्न विधियों एवं रणनीतियों की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
विभिन्न प्रकार के पाठों को विभिन्न स्तर के विद्यार्थियों को पढ़ाने के क्रम में अध्यापक पाठ्य-सामग्री को विद्यार्थियों के समक्ष जिन-जिन ढंगों से प्रस्तुत करते हैं, उन ढंगों को ही शिक्षण युक्तियाँ कहते हैं। शिक्षण-युक्ति उक्त क्रमबद्ध पाठ्य सामग्री को विद्यार्थियों के समक्ष उपस्थित करने की अध्यापक की कला का ज्ञान कराती हैं। प्रमुख शिक्षण युक्तियों की चर्चा यहाँ की जा रही है-
(1) व्याख्या प्रणाली ( Explanation Method) – व्याख्या का प्रयोग कठिन विषय को सरल बनाने के लिये किया जाता है। भाषा के शिक्षण में इस युक्ति का प्रयोग कठिन शब्दों, वाक्यांशों, वाक्यों अथवा विचारों को स्पष्ट करने के लिए किया जाता है। इसी आधार पर व्याख्या—(अ) शब्दगत, (ब) वाक्यगत, (स) विचारगत तथा (द) भावगत, चार प्रकार की होती हैं। इनके लिये पर्याप्त कथन आदि प्रणालियाँ प्रयुक्त होती हैं। इस साधन का अधिक से अधिक लाभ उठाने के लिये शिक्षक को निम्नांकित बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए-
- व्याख्या शुद्ध तथा स्पष्ट होनी चाहिए। भाव क्रमबद्ध होने चाहिए।
- व्याख्या बालकों के मानसिक स्तर, अवस्था तथा चिंतन-शक्ति को दृष्टि पथ में रखकर होनी चाहिए।
- व्याख्या छोटी, प्रासंगिक और सजीव होनी चाहिए।
- व्याख्या से भाषा की सरलता में बोधगम्यता प्रगट होती है।
- व्याख्या के बीच में यथासम्भव छात्रों को प्रश्न करने का अवसर देना चाहिए।
- व्याख्या उसी समय करनी चाहिए जब उसकी आवश्यकता हो, विद्यार्थी उसके लिए उत्सुक हों और उनका ध्यान पाठ में केन्द्रित हो।
- व्याख्या में छात्रों को भी शंका-समाधान का अवसर देना चाहिए।
- व्याख्या तथ्यपरक किन्तु सरल होनी चाहिए। उसे उपदेशात्मकता से बचना चाहिए।
(2) निदर्शन उद्घाटन प्रणाली (Exposition Method) – निदर्शन शब्द का तात्पर्य पाठ्य-वस्तु को स्पष्ट तथा बोधनीय रूप से प्रकट करने से है, जिससे कि बालक उसे भली-भाँति सरलतापूर्वक समझ सकें। निदर्शन द्वारा एक पाठ के समस्त तथ्यों को तार्किक क्रम से रखने का प्रयत्न किया जाता है। यह प्रणाली व्याख्या प्रणाली की पूरक है। इसे उद्घाटन भी कहते हैं। यों तो इसका भी प्रयोग विभिन्न विषयों के शिक्षण में यथा समय किया जाता है, किन्तु व्याख्या की भाँति, भाषा के शिक्षण में प्रमुख रूप से किया जाता है। इस प्रणाली का प्रयोग करते समय अध्यापकों को निम्न सावधानियाँ बरतनी चाहिये ।
- पाठ का उद्देश्य स्पष्ट रूप से छात्र के सम्मुख उपस्थित किया जाना चाहिए।
- निदर्शन स्पष्ट तथा प्रासंगिक होना चाहिये और केवल उन्हीं तथ्यों पर प्रकाश डालना चाहिए जो पाठ से सम्बन्धित हों।
- भाषा सरल और बच्चों के मानसिक स्तरानुकूल होनी चाहिए।
- पाठ की मुख्य मुख्य बातों को श्यानपट पर भी लिख देना चाहिए।
- पाठ को सरल, रोचक और बोधगम्य बनाने के लिये यथास्थल उदाहरण तथा दृष्टान्तों का भी प्रयोग निस्संकोच करना चाहिए।
- पाठ सोपान में बँटे होने चाहिये और पढ़ाई जाने वाली सामग्री समय को ध्यान में रखकर निश्चित की जानी चाहिए।
- पुनरावृत्ति के समय प्रश्नों के माध्यम से छात्रों की परीक्षा कर लेनी चाहिए। के
(3) विवरण प्रणाली (Description Method) – विवरण का अभिप्राय किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा घटना का शाब्दिक चित्र खींचने से है, उसे ज्यों का त्यों उपस्थित कर देने से है। यह मौखिक विधि का एक पहलू है। कक्षा शिक्षण में इसका प्रयोग अधिकता से होता है, क्योंकि इसमें सरलता होती है। बालक निष्क्रिय श्रोतों की भाँति सुनता जाता है और अध्यापक विवरण प्रस्तुत करता जाता है, किन्तु इसकी यह व्यावहारिक विधि गलत है। इसकी सही विधि इस प्रकार है कि शिक्षक बालकों को स्वयं मानसिक चित्र बनाने में सहायता पहुँचाये। विवरण द्वारा वस्तुओं, घटनाओं, रहन-सहन के ढंगों तथा जीवन की अन्य क्रियाओं की कल्पना करने में बालकों का पथ-प्रदर्शन किया जा सकता है। इस प्रणाली से पढ़ने वाले अध्यापक को निम्न सावधानियाँ बरतने की आवश्यकता होती है-
- उपस्थित किये जाने वाले चित्रों की रूपरेखा सर्वप्रथम अध्यापक के स्वयं अपने मस्तिष्क में स्पष्ट होनी चाहिये।
- विवरण सरल, शुद्ध तथा उपयुक्त भाषा में किया जाना चाहिए अन्यथा मानस पटल पर चित्र न उभर सकेंगे।
- विवरण की गति बहुत तेज अथवा बहुत धीमी न होनी चाहिए।
- विवरण अधिक लम्बा नहीं होना चाहिये। उसी वस्तु का विवरण देना चाहिये जो अनुकूल वातावरण बनाने में सहायक हो।
- इस विधि में ज्ञात अज्ञात की ओर का सहारा लेना चाहिये।
- शब्द-चित्रों को उभारने में यथावसर नमूने चित्र तथा सहायक सामग्री का भी प्रयोग किया जाना चाहिये
- विवरण को साध्य नहीं बनाना चाहिये। ध्यान रखना चाहिये कि विवरण साध्य की प्राप्ति का साधन है।
- विवरण बहुत ही क्रमबद्ध, रोचक, स्तरानुकूल होना चाहिये। विवरण हास्य मिश्रित स्वर में दिया जाय।
(4) वर्णनात्मक प्रणाली (Narration Method) ) – यह प्रणाली उपर्युक्त प्रणाली की पूरक है। कक्षा में जब न प्रश्न पूछने से काम चलता है और न व्याख्या देने से, तब वर्णन ही हमारा सहायक होता है। छात्रों को इसके द्वारा पाठ्य-वस्तु को ग्रहण करने में सुगमता होती हैं। इसका प्रयोग सामाजिक विषयों के शिक्षण में तथा भाषा के रहानुभूति के पाठों में किया जाना श्रेयस्कर होता है। इस प्रणाली से शिक्षण देने में निम्नांकित बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिये-
- वर्ण्य-विषय क्रमबद्ध और विविध सोपानों में बँटा होना चाहिए।
- बालकों की रुचि और उनके स्तर के अनुकूल होनी चाहिये।
- भाषा सरल, सहज तथा प्रभावमयी होनी चाहिये तभी रोचकता आ सकेगी।
- वर्णन छात्रों के सम्मुख इस रूप में उपस्थित किया जाना चाहिये कि उनमें सहज ही कौतूहल जाग्रत हो जाय।
- बीच-बीच में बालकों से यथावसर प्रश्न भी पूछते जाना चाहिए।
- अनावश्यक बातों तथा घटनाओं का वर्णन नहीं करना चाहिए।
- वर्णन पर अध्यापक की वाणी और उसकी उच्चारण कला का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है।
- वर्णन सजीव और प्रभावोत्पादक बनाने के लिये आवश्यकतानुसार दृष्टान्तों, रेखाचित्रों, नक्शों तथा चार्टों और विभिन्न चित्रों का भी प्रयोग किया जा सकता है।
- श्यामपट का प्रयोग यथावसर अवश्य करना चाहिये।
(5) कहानी कहना (Story telling Method) – कहानी कहने अथवा सुनाने का उद्देश्य सूक्ष्म बातों तथा विचारों को बालकों के लिए सरल और सुबोध बनाना है। विद्यार्थियों के मस्तिष्क इतने विकसित नहीं होते कि वे सूक्ष्म बातों अथवा विचारों को सरलतापूर्वक ग्रहण कर सकें, परन्तु उनमें कौतूहल की भावना अधिक होती है और वे स्वभाव से ही कहानी सुनना अधिक पसन्द करते हैं। अतः उन्हें जो ज्ञान कहानी के रूप में दिया जाता उसे वे शीघ्रता एवं सरलतापूर्वक आत्मसात कर लेते हैं। दूसरे कहानी द्वारा बालकों की रुचि को पाठ्य-विषय में जाग्रत किया जाता है। रुचि उत्पन्न हो जाने के उपरान्त मन इधर-उधर नहीं भटकता और वे दत्तचित्त होकर कहानी सुनते रहते हैं। तीसरे कहानियों के द्वारा बालक की स्मरण शक्ति तथा कल्पना शक्ति का विकास होता है। उन्हें अपनी विचार शक्ति प्रयोग में लाने का अवसर मिलता है। इससे उनके विचार व्यवस्थित होते हैं। चौथे कहानियाँ सुनाकर बालकों का मनोरंजन किया जाता है। शिक्षक यह प्रयास करता है कि बालक वास्तविक शिक्षण में आनन्द ले सके। पाँचवें कहानी द्वारा बालकों की उमंगों तथा रुझान को जाग्रत किया जाता है। कभी-कभी अच्छी कहानियाँ सुनते-सुनते बालक स्वयं अच्छी कहानियों की रचना करने लगते हैं। छोटी कहानियों द्वारा बालकों को नैतिक शिक्षा मिलती है। कहानियों द्वारा उनमें नैतिक तथा सामाजिक गुणों का विकास किया जा सकता है। कहानी कहना अथवा सुनना शिक्षण का एक मनोवैज्ञानिक ढंग है। इस युक्ति से पाठ्यक्रम के लगभग सभी विषय और विशेषतः सामाजिक विषय बड़ी सुगमता तथा सरलतापूर्वक पढ़ाये जा सकते हैं। इस प्रकार की कहानी के सम्बन्ध में निम्नलिखित तथ्य आवश्यक हैं-
- कहानी अध्यापक को आत्मसात होनी चाहिये। वह मात्र वर्णन न हो अपितु आद्यान्त उत्सुकता से भरी हुई सरल कथा हो ।
- कहानी का पूरा स्वरूप अध्यापक को पहले से ज्ञात होना चाहिये।
- कहानी अपने शब्दों में कही जानी चाहिये।
- कहानी सुनायी जाती है, पढ़ाई नहीं जाती।
- कहानी सुनाने का ढंग रुचिकर, लालित्यपूर्ण, सजीव तथा स्वाभाविक होना चाहिये।
- शब्द और वाक्य छोटे-छोटे तथा अत्यन्त सरल होने चाहिये।
- ध्यान रहे, कि कहानी दुरूह या विचारप्रधान नहीं होनी चाहिए।
- कहानी कहने में इस तरह नहीं निमग्न होना चाहिए कि मूल उद्देश्य ही ओट में पड़ जाय। हाँ, कहानी की मार्मिकता में व्यवधान न उत्पन्न होने पावे, इसके लिए सतर्क रहना चाहिए।
- कहानी की उत्सुकता क्रमशः बढ़ानी चाहिये
- कहानी में हास्य का पुट नितान्त आवश्यक है।
- कहानी एक ही बैठक में सुनानी चाहिए, उसे कई दिन नहीं चलाना चाहिए।
- कहानी सदैव संक्षिप्त रूप में सुनानी चाहिए।
- कहानी के घटनाक्रमों की सुनियोजना और प्रभावोत्पातकता पर भी शिक्षकों का उपेक्षित ध्यान रहना चाहिए।
- बालकों की अवस्था, रुचियों और अभिरुचियों को दृष्टिपथ में रखकर कहानी सुनानी चाहिए।
(6) व्याख्यान प्रणाली (Lecturing Method)- भाषण के रूप में पाठ्य सामग्री को कक्षा में प्रस्तुत करने की प्रणाली को व्याख्यान प्रणाली कहते हैं। यह प्रणाली छोटी कक्षाओं के बालकों के लिए सर्वथा अनुपयुक्त और अमनोवैज्ञानिक होती है। इससे बच्चों के मानसिक विकास में कोई योग नहीं मिलता और न पाठ में उनकी रुचि ही रह जाती है। वे निष्क्रिय श्रोता के रूप में कक्षा में बैठे रहते हैं। बालकों की पाठ में रुचि न रहने पर कक्षा में अनुशासन सम्बन्धी अनेक समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं, जो कभी-कभी बड़ा उग्र रूप धारण कर लेती हैं। अतः शिक्षकों को चाहिए कि जहाँ तक सम्भव हो सके इस प्रणाली का परित्याग ही करें। हाँ, ऊंची कक्षाओं में जबकि बालकों का मस्तिष्क पर्याप्त विकसित हो चुका होता है, वहाँ इस प्रणाली का प्रयोग किया जा सकता है, परन्तु वहाँ भी पूर्णतः व्याख्यान प्रणाली उपयोगी नहीं सिद्ध होती। बीच-बीच में प्रश्नोत्तर तथा अन्यान्य युक्तियों का भी सहारा लेना पड़ता है।
(7) पुस्तक पाठन प्रणाली (Reading Book Method)- इस प्रणाली में अध्यापक पाठ्य पुस्तक के माध्यम से शिक्षण करता है। यह प्रणाली काम चोर अध्यापकों की हैं, जो घर से पाठ को तैयार करके नहीं जाते और कक्षा में पहुँचते ही बड़े रोब से किसी बच्चे को खड़ा होकर पुस्तक पढ़ने का आदेश देते हैं। यह प्रणाली सर्वथा अमनोवैज्ञानिक है। इसमें बालक की रुचि तथा प्रवृत्ति की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। बालक कैदी की भाँति भयभीत मुद्रा में पाठ को अपेक्षित भाव से सुनते रहते हैं इसमें सभी शैक्षणिक सिद्धान्तों की अवहेलना होती है।
(8) तुलनात्मक प्रणाली – विभिन्न विचार या तथ्यों के साहचर्य में और वैधर्म्य की परीक्षा को तुलना कहते हैं। बालकों को नवीन बात बतलाते समय उसकी उनके द्वारा पहले ही जानी गई बातों से तुलना करना उपयोगी होती है। तुलना करते समय सम्पूर्ण कक्षा का सहयोग लिया जाना चाहिए और इस कार्य में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए। तुलना के बाद जिन नियमों की प्राप्ति हो उनको क्रमबद्ध करना चाहिए। यह प्रणाली एक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से अत्यन्त उपयोगी है और नागरिकशास्त्र, भाषा, भूगोल और गणित के शिक्षण में विशेष उपयोगी सिद्ध होती है।
उपर्युक्त सभी प्रणालियाँ अपने भीतर कुछ न कुछ कमियाँ छिपाए हुए हैं। सच तो यह है कि अध्यापन में दृढ़तापूर्वक किसी एक प्रणाली का अनुसरण नहीं किया जा सकता है। विभिन्न प्रणालियों को समन्वित ढंग से व्यवहार में लाने से ही शिक्षण श्रेष्ठ और सफल बन पाता है।
अच्छे प्रश्नों की विशेषताएँ
प्रश्न तो सामान्यतया उन्हें ही कहते हैं जिनका कुछ उत्तर अपेक्षित हो। इस दृष्टि से सभी प्रकार के प्रश्न एक से हैं, चाहे वे अच्छे हों या बुरे । प्रश्न यह है कि शिक्षा के आधार पर किस प्रश्न को अच्छा कहा जाय या बुरा कहा जाय यह दूसरी बात है। अच्छे और बुरे के आधार पर ही विचारकों ने शिक्षा के अन्तर्गत “ग्राह्य” और “त्याज्य” दो तरह के प्रश्न माने हैं। जिन प्रश्नों का उत्तर पूर्ण, उचित और लाभदायक होता है एवं जिनसे उद्देश्य की पूर्ति होती है, वे ही ग्राह्य प्रश्न होते हैं। उन्हें अच्छे प्रश्न भी कहा जाता है और जो प्रश्न शिक्षा की दृष्टि से लाभदायक नहीं होते हैं उनको ‘बुरे प्रश्न’ या ‘त्याज्य’ प्रश्न भी कहते हैं। अच्छे प्रश्न की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- छात्रों द्वारा कहलाने की योग्यता,
- पाठ के अनुसार उद्देश्य युक्त होना,
- कल्पना विकास में सहायक होना,
- शब्दावली स्पष्ट सरल और संक्षिप्त होना,
- प्रश्नों की की विषयगत सरलता,
- प्रश्नों की भाषा में परस्पर भिन्नता,
- निश्चित उत्तर होना,
- पाठ्य पुस्तक की शब्दावली से भिन्नता,
- नकारात्मक और स्वीकारात्मक मात्र न होना,
- प्रश्नों का आपस में सम्बद्ध होना,
- प्रश्नों के पूछने का स्वर विनम्र होना,
- पूरी कक्षा के प्रति प्रश्न करना ।
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