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विद्यालय प्रधानाध्यापक [SCHOOL PRINCIPAL/HEADMASTER]
शिक्षा प्रशासक की दृष्टि से विद्यालय में प्रधानाध्यापक का स्थान सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। उसकी शैक्षणिक योग्यता, कार्यक्षमता तथा अनुभव का प्रभाव विद्यालय की उन्नति पर अनिवार्य रूप से पड़ता है। उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व यदि श्रेष्ठ एवं उच्च कोटि का हुआ तो विद्यालय का प्रशासन ही क्या सभी पहलू प्रगति की ओर उन्मुख होंगे अन्यथा विद्यालय गर्त में चला जायेगा। प्रधानाध्यापक के कुशल प्रशासन के कारण अनेक विद्यालय शिक्षा का प्रसारण द्रुत गति से करते पाये गये हैं। ऐसे भी कई विद्यालय हैं जहाँ के प्रधानाध्यापक प्रशासक के रूप में विफल सिद्ध हुए हैं और उनकी कमजोरियों के कारण संस्था-विशेष को ही हानि नहीं हो रही हैं वरन् शिक्षा जगत को भी क्षति पहुँच रही है। अतः ऐसे प्रधानाध्यापक को संस्था तथा शिक्षा के हित में अपना कार्यभार तुरन्त किसी योग्य व्यक्ति को सौंप देना चाहिए। प्रधानाध्यापक प्रशासन की धुरी है। विद्यालय का प्रशासन प्रधानाध्यापक के योग्य अथवा अयोग्य होने के कारण बनता अथवा बिगड़ता है। उसका स्थान विद्यालय में वही है जो स्थान जीवन का जीव शरीर में है। वह विद्यालय में प्रधानाध्यापक ही नहीं है वरन् प्रशासक के रूप में वह एक संगठनकर्ता है, संयोजक है, पर्यवेक्षक अथवा निरीक्षक है, निर्देशक अथवा परामर्शदाता है, सभी शिक्षकों का नेता है तथा एक अध्यापक भी है। इस दृष्टि से प्रशासक के रूप में प्रधानाध्यापक के व्यक्तित्व तथा कृतित्व पर विचार करना तर्कसंगत प्रतीत होता है।
प्रधानाध्यापक का विद्यालय में स्थान और उसका महत्त्व (PLACE AND IMPORTANCE OF HEADMASTER IN A SCHOOL)
प्रधानाध्यापक सम्पूर्ण विद्यालय की प्रगति का प्रेरणा स्रोत है। विद्यालय में एकता बनाये रखने, विद्यालयकी विभिन्न गतिविधियों में सन्तुलन बनाये रखने, विद्यालय परम्पराओं को जीवित बनाये रखने तथा विद्यालय को प्रगति के मार्ग पर ले जाने के लिए प्रधानाध्यापक एक प्रमुख शक्ति के रूप में कार्य करता है। वह विद्यालय का ऐसा केन्द्र बिन्दु है जिसके चारों ओर विद्यालय की समस्त क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं। क्या शिक्षक, क्या विद्यालय के कर्मचारी और क्या शिक्षार्थी–सभी उसी की प्रेरणा से तथा उसके व्यक्तित्व के गुणों के आधार पर शैक्षिक क्रियाएँ किया करते हैं। प्रधानाध्यापक प्रशासक के रूप में समाज और विद्यालय के बीच की कड़ी है। समाज की उच्च स्तर की बातों को विद्यालय तक पहुँचाने तथा विद्यालय की गतिविधियों को समाज तक ले जाने का कार्य प्रधानाध्यापक ही किया करता है। इस दृष्टि से विद्यालय तथा समाज में उसका स्थान प्रमुख माना गया है। पी. सी. रेन के शब्दों में, “घड़ी में जो मुख्य स्प्रिंग का काम है तथा मशीन में जो पहिये का स्थान है अथवा पानी के जहाज में जो इंजन का स्थान है, विद्यालय में वही स्थान प्रधानाध्यापक का है।”
(What the main spring at the watch, the fly wheel at the machine or the engine at the steam ship, the headmaster is to the school.)
-P. C. Wren
विद्यालय का कुशल संचालन प्रशासक की प्रबन्ध-पटुता पर निर्भर है। इस दृष्टि से प्रधानाध्यापक का कार्य अत्यन्त कठिन होता है। उसमें प्रशासन क्षमता के साथ समायोजन क्षमता का होना भी अनिवार्य है अन्यथा अधिकांश शैक्षिक योजनाएँ एवं शैक्षिक प्रयास विफल होकर कल्पना विषय बने रह सकते हैं। कुशल प्रधानाध्यापक शिक्षा और समाज के आदर्शों को अपने प्रशासन के माध्यम से विद्यालय में मूर्तिमान करने में समर्थ होते हैं। इस दृष्टि से वह विद्यालय की आत्मा है जिससे सम्पूर्ण विद्यालय में गति बनी रहती है। वह विद्यालय का ऐसा दीपक है जो सम्पूर्ण विद्यालय को प्रकाश प्रदान करता रहता है। वह विद्यालय की रीढ़ की हड्डी है जिस पर विद्यालय के सम्पूर्ण कार्य अवलम्बित हैं। उसे विद्यालय की धुरी भी कहा गया है, जिसके संकेतों पर समस्त कार्यक्रमों का चक्र क्रमित रूप से संचरण होता है। उसका सम्बन्ध विद्यालय के प्रत्येक पहल, क्षेत्र तथा क्रिया से रहता है। उसकी सजगता विद्यालय की सजगता है। वह विद्यालय रूपी नौका का कर्णधार है। प्रशासक के रूप में विद्यालय की समस्त क्रियाओं को शक्ति तथा गति प्रदान करने का वह एकमात्र स्रोत है। रायबर्न ने प्रशासक के रूप में प्रधानाध्यापक का महत्त्व बतलाते हुए कहा है- “विद्यालय में प्रधानाध्यापक का वही स्थान है, जो जलयान में उसके कप्तान का है। प्रधानाध्यापक की विद्यालय में पटुता, प्रतिभा सम्पन्नता तथा उसकी चेतना शिक्षालय के संचालन और शिक्षा की सम्पूर्ण स्थिति को उच्चतम अवस्था तक पहुँचाने में सहायक होती है।” रायबर्न ने एक स्थान पर लिखा है “प्रधानाध्यापक सामंजस्य स्थापित करने वाला साधन है जो सन्तुलन रखता है तथा सम्पूर्ण विद्यालय के सामंजस्यपूर्ण विकास को स्थायी बनाता है। वह विद्यालय की आत्मा का निर्धारण करता है और समय के साथ-साथ विकसित होने वाली परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों को स्वरूप देने वाली मुख्य शक्ति है।” स्पष्ट है कि विद्यालय में प्रधानाध्यापक की प्रशासक के रूप में जो स्थिति है वह अत्यन्त महत्त्व की है। प्रशासक के रूप में जिन गुणों की अपेक्षा हम उसके व्यक्तित्व में करते हैं उसका अध्ययन हम आगे करेंगे।
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