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स्थानीय स्तर पर शिक्षा प्रबन्धन | EDUCATIONAL MANAGEMENT OF LOCAL LEVEL

स्थानीय स्तर पर शिक्षा प्रबन्धन | EDUCATIONAL MANAGEMENT OF LOCAL LEVEL
स्थानीय स्तर पर शिक्षा प्रबन्धन | EDUCATIONAL MANAGEMENT OF LOCAL LEVEL

स्थानीय स्तर पर शिक्षा प्रबन्धन | EDUCATIONAL MANAGEMENT OF LOCAL LEVEL

शैक्षिक दृष्टि से स्थानीय संस्थाओं का विशेष महत्त्व है। ये संस्थाएँ स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ उनका विकास भी करती हैं। स्वतन्त्रता से पूर्व भारत में राजनीतिक जागरूकता और सामाजिक कुशलता का अभाव था, इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में इनके द्वारा अधिक कुशलतापूर्वक कार्य नहीं हो सका है। लेकिन स्वतन्त्रता के बाद भारत में लोकतान्त्रिक प्रणाली प्रारम्भ हुई जिसके फलस्वरूप विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त को स्वीकार कर शैक्षिक विकास को गति प्रदान की गई है। अब स्थानीय संस्थाओं को पर्याप्त अधिकार दिये गये हैं, शक्तियाँ प्रदान की गई हैं और उत्तरदायित्व सौंपे गये हैं। भारत के अधिकतर राज्यों में प्राथमिक शिक्षा हेतु स्थानीय संस्थाओं को पूर्णतः उत्तरदायी स्वीकार किया गया है। भारतीय संविधान के अनुसार राज्य विधानसभा द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार ही ये संस्थाएँ कार्य करती हैं। राज्य सरकार का इन संस्थाओं पर नियन्त्रण होता है। स्वतन्त्रता के बाद इन संस्थाओं के तीन स्तर हैं—(1) ग्रामीण स्तर, (2) ब्लॉक स्तर (3) जिला स्तर स्थानीय संस्थाओं के राष्ट्र प्रेम और शिक्षा के विकास के प्रति राष्ट्रीय घोषणा के फलस्वरूप इन संस्थाओं ने प्राथमिक शिक्षा के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन्होंने शिक्षा को राष्ट्रीय चेतना स्वीकार किया और स्वतन्त्रता को एक संघर्ष के रूप में स्वीकार किया, यही कारण है कि इन संस्थाओं का राष्ट्र के शैक्षिक विकास में विशेष योगदान रहा है।

शैक्षिक प्रबन्ध का विकेन्द्रीकरण करके ग्रामीण क्षेत्रों के लिए जिला परिषद् या जिला बोर्ड की स्थापना की गई। ग्रामीण शिक्षा व्यवस्था को इनके अधीन ब्लॉक अथवा पंचायत समितियों को प्रदान की गई और शिक्षा सम्बन्धी सभी कार्यक्रमों को सुचारू रूप से संचालन के लिए प्रत्येक परिषद् या बोर्ड में एक शिक्षा समिति का गठन किया गया। इस समिति में जिलाधिकारी पदेन सदस्य के रूप में, जिला प्रमुख (पदेन निर्वाचित सदस्य के रूप में, पंचायत समितियों से निर्वाचित एक प्रतिनिधि और शिक्षा विभाग का प्रतिनिधि (उपविद्यालय निरीक्षक) के रूप में कार्य करते हैं। स्थानीय स्तर की संस्थाओं को हम निम्नलिखित रूप में स्पष्ट कर सकते हैं-

1. जिला परिषद्/ जिला बोर्ड- ग्रामीण क्षेत्र के शिक्षा प्रबन्धन की दृष्टि से जिला परिषद् सर्वोच्च स्तर पर है। यह प्राथमिक शिक्षा के लिए उत्तरदायी है। जिला परिषद् के अन्तर्गत कई समितियाँ होती हैं इनमें शिक्षा समिति भी होती है, जो प्राथमिक शिक्षा और कुछ सीमा तक माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था करती है। शिक्षा समिति जिले की शिक्षा के लिए नीति निर्धारित करती है, अध्यापक तथा अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति करती है, सेवा की दशाएँ निर्धारित करती है, वित्तीय सहायता प्रदान करती है और निरीक्षण करती है। जिला परिषद् की सहायता के लिए एक-एक तहसील को एक-एक क्षेत्र (Block) में बाँटा गया है। कुछ राज्यों में प्रत्येक क्षेत्र के लिए एक पंचायत समिति बनाई गई है, जिसके अध्यक्ष को प्रधान कहा जाता है और प्रशासनिक अधिकारी को क्षेत्र विकास अधिकारी (B.D.O.) कहा जाता है। ये पंचायत समितियाँ जिला परिषद् के लिए कार्य करती हैं और अपने क्षेत्र में शिक्षा प्रसार और शिक्षा की व्यवस्था करती हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों की शिक्षा के प्रबन्धन के लिए दो प्रणालियाँ अपनाई गई हैं। कुछ राज्यों में जिला बोर्ड तथा ग्राम पंचायत इनका प्रबन्धन कर रही हैं; जैसे—गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, आदि और कुछ राज्यों में जिला परिषद्, पंचायत समिति और ग्राम पंचायतों के द्वारा शिक्षा की व्यवस्था की जा रही है. जैसे-आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, आदि। लेकिन इस दूसरी प्रणाली में जिला परिषद् और ग्राम पंचायत के बीच एक संस्था और बनाई गई है जिसे कुछ राज्यों में पंचायत समिति कहा जाता है और कुछ राज्यों में क्षेत्र समिति कहा जाता है। जिला परिषद् के प्रधान को चेयरमैन कहते हैं जो जिले की ग्रामीण शिक्षा का सर्वोच्च अधिकारी होता है।

2. ब्लॉक/पंचायत समिति स्तर- इस स्तर पर तीन अधिकृतियाँ-1 पंचायत समिति, 2. ब्लॉक अधिकारी और 3. वरिष्ठ उपशिक्षा अधिकारी (शिक्षा विभाग से प्रतिनियुक्ति) होता है। प्रधान पंचायत समिति के विकास के प्रति उत्तरदायी होता है। ब्लॉक अधिकारी राजकीय सेवा का सदस्य होता है। यह राज्य की नीतियों व नियमों के अनुरूप समिति का विकास करने में सहायता करता है। शिक्षा विभाग में सहायक उपशिक्षा अधिकारी समिति के शैक्षिक विकास शिक्षा के विस्तार और पर्यवेक्षण का कार्य करता है।

पंचायत समिति के कार्य- समिति के कार्यों को हम निम्नलिखित रूप में स्पष्ट कर सकते हैं-

(i) नये विद्यालयों की स्थापना एवं भवनों का निर्माण करना।

(ii) प्राथमिक शिक्षा के विकास और अन्य क्रियाओं में जिला बोर्ड की शिक्षा समितियों की सहायता करना।

(iii) विद्यालयों के रख-रखाव व सजावट (साज-सज्जा) उपकरण, आदि का प्रदान करना।

(iv) शिक्षा समिति के आदेशानुसार प्रारम्भिक विद्यालयों का निरीक्षण करना।

(v) ग्राम पंचायतों के शिक्षा सम्बन्धी कार्यों का निरीक्षण करना तथा इनका अनुदान निर्धारित करना ।

3. ग्राम पंचायत स्तर- ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा प्रबन्धन की दृष्टि से ग्राम पंचायतें महत्त्वपूर्ण संस्थाएँ हैं। ये प्राथमिक शिक्षा के विकास, प्रचार और प्रसार के लिए प्रयासरत हैं। कई राज्यों में तो कानून बनाकर प्राथमिक शिक्षा का दायित्व ग्राम पंचायत को सौंप दिया है। उत्तर प्रदेश में स्थानीय स्तर पर शिक्षा प्रशासन में विद्यालय निरीक्षक, बेसिक शिक्षा अधिकारी, विद्यालय उपनिरीक्षक, सहायक विद्यालय उपनिरीक्षक और निरीक्षिका होते हैं। आज ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का विकास ग्राम पंचायतों पर निर्भर करता है।

4. नगर पालिका स्तर – नगर पालिका नगरीय क्षेत्रों में शिक्षा की व्यवस्था करती है। नगर पालिकाएँ दो प्रकार की होती हैं—प्रथम अधिकृत नगर पालिका और द्वितीय अनाधिकृत नगर पालिका।

(i) अधिकृत नगर पालिका- प्राथमिक शिक्षा पर एक लाख रुपये से अधिक वार्षिक व्यय करती है। इन्हें अधिकार होता है कि अपने क्षेत्र में शिक्षा व्यवस्था के लिए शिक्षा समिति या शिक्षा बोर्ड का निर्माण करें और इन्हें अपने विद्यालयों को सुचारू रूप से चलाने के लिए स्वयं के विद्यालय निरीक्षक नियुक्त करने का अधिकार भी होता है।

(ii) अनाधिकृत नगर पालिका– वे नगर पालिकाएँ होती हैं जिनका शिक्षा पर वार्षिक व्यय ₹ 1 लाख रुपये से कम होता है। यहाँ शिक्षा का अन्तिम उत्तरदायित्व जिला परिषद् का होता है, यह तो शिक्षा विकास का कार्य करती है। इन्हें शिक्षा प्रबन्धन में किसी प्रकार का कोई अधिकार प्राप्त नहीं होता है।

नगर पालिका का प्रमुख अधिकारी अध्यक्ष (President) होता है। इसकी सहायता के लिए कार्यकारिणी के प्रधान और उसके सचिव की नियुक्ति भी की जाती है।

अधिकृत नगर पालिकाएँ अनेक विभागों के माध्यम से प्रशासनिक कार्य सम्पन्न करती हैं। शिक्षा विभाग के द्वारा शिक्षा के प्रशासन सम्बन्धी कार्य सम्पन्न किये जाते हैं। इसका प्रमुख अधिकारी शिक्षा सुपरिण्टेण्डेण्ट (Suprintendent) होता है। इसके द्वारा नगर पालिका की शिक्षा सम्बन्धी नीतियाँ, योजनाएँ एवं विभिन्न क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं। इसका प्रमुख कार्य होता है नगरीय प्राथमिक विद्यालयों का निरीक्षण करना, उन पर नियन्त्रण करना, उनका पर्यवेक्षण करना और इन विद्यालयों में निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करना। नगर पालिका का शिक्षा विभाग शिक्षा समिति के अधीन कार्य करता है। शिक्षा विभाग नगर में पुस्तकालयों और वाचनालयों की व्यवस्था भी करता है तथा सभी शैक्षिक कार्यों के लिए उत्तरदायी होता है। अपने क्षेत्र में यह शिक्षा की व्यवस्था हेतु अनेक कार्य करता है, जैसे—विद्यालयों की स्थापना करना और उन्हें राजकीय एवं स्थानीय स्तर पर शिक्षा प्रशासन वित्तीय सहायता देना, अध्यापकों की नियुक्ति करना और उनकी सेवा दशाएँ निर्धारित करना, पाठ्य पुस्तकों को व्यवस्था करना, निरीक्षण की व्यवस्था और अन्य कर्मचारियों की व्यवस्था करना, आदि।

स्थानीय संस्थाओं का कार्य क्षेत्र (WORK MANAGEMENT OF LOCAL BODIES)

राज्य सरकार ने अपने अधीन चार दायित्वों को रखा है। ये चार दायित्व हैं–निरीक्षण, पाठ्यक्रम निर्धारण, वित्तीय व्यवस्था और शिक्षकों का प्रशिक्षण इन चारों दायित्वों के अतिरिक्त शेष दायित्व अर्थात् सम्पूर्ण प्रशासनिक कार्य स्थानीय संस्थाओं के सुपुर्द कर दिए हैं। इन (कार्यो) दायित्वों को हम निम्नलिखित रूप में स्पष्ट कर सकते हैं-

1. शिक्षकों को नियुक्त करने का कार्य- शिक्षकों को नियुक्त करने का कार्य स्थानीय संस्थाओं को प्रदान किया गया है और प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षकों को स्थानीय अभिकरणों के कर्मचारी माना जाएगा। किन्तु यह भी प्रावधान किया गया है कि इनकी नियुक्ति चयन समिति के माध्यम से होगी और इस चयन समिति में राज्य सरकार का प्रतिनिधि होगा।

2. शिक्षकों की सेवा दशाओं का निर्धारण- स्थानीय संस्थाओं को यह अधिकार दिया गया है कि शिक्षकों की सेवा दशाओं का निर्धारण इन संस्थाओं के द्वारा ही होगा। किन्तु इसमें यह शर्त भी लागू रहेगी कि इनकी स्वीकृति राज्य सरकार से प्राप्त करनी होगी।

3. प्राथमिक विद्यालय के अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति- शिक्षकों के अतिरिक्त प्राथमिक विद्यालय के अन्य कर्मचारी–लिपिक, चपरासी, आदि की नियुक्ति, उनके वेतनमान, आदि के सम्बन्ध में स्थानीय संस्थाएँ स्वतन्त्र होंगी अर्थात् इनकी संख्या का निर्धारण, उनके वेतनमान का निर्धारण, उनकी दशाओं का निर्धारण स्थानीय संस्थाएँ करेंगी

4. पाठ्य पुस्तकों का निर्धारण– यद्यपि यह अधिकार सरकार के पास है किन्तु एक से अधिक पाठ्य पुस्तक का निर्धारण यदि सरकार करती है तो स्थानीय संस्थाओं को उनमें से किसी एक पाठ्य पुस्तक को चयन करने का पूर्ण अधिकार होता है और यह अधिकार स्थानीय संस्थाओं को होगा कि प्रस्तावित पाठ्य पुस्तकों में से अपने विद्यालयों के लिए स्वतन्त्रतापूर्वक चयन कर सकेंगे।

5. छुट्टियों और कार्य दिवस का निर्धारण- राज्य सरकार केवल यह निर्धारित करेगी कि वर्ष में कितने दिन विद्यालय खुलेगा। किन्तु स्थानीय संस्थाओं को यह अधिकार होगा कि वे आवश्यकतानुसार छुट्टियों का निर्धारण कर सकते हैं।

स्थानीय शिक्षा प्रबन्धन की समस्याएँ (PROBLEMS OF EDUCATIONAL MANAGEMENT AT LOCAL LEVEL)

स्थानीय शिक्षा संस्थाओं की प्रबन्धन सम्बन्धी अनेक समस्याएँ हैं। इन समस्याओं को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है-

1. वित्तीय सम्बन्धी समस्या- स्थानीय संस्थाओं के समक्ष धनाभाव की समस्या बनी रहती है। इसका कारण केन्द्र सरकार और राज्य सरकार से समुचित सहायता का न मिलना है। फलस्वरूप इनके सामने नित नई छोटी-छोटी समस्याएँ बनी रहती हैं।

2. राजनीतिक हस्तक्षेप की समस्या- स्थानीय संस्थाओं के सामने शैक्षिक समस्याएँ कम होती हैं. जबकि राजनीतिक हस्तक्षेप की समस्याएँ अधिक होती हैं। राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण शैक्षिक विकास की प्रक्रिया प्रभावित होती है और उसमें बाधा उपस्थित हो जाती है।

3. पूर्ण स्वतन्त्रता का अभाव- स्थानीय संस्थाओं को अधिकार दिये गये हैं किन्तु इनमें पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की गई है। केन्द्रीय और राज्य सरकारों का इन पर कठोर नियन्त्रण और हस्तक्षेप निरन्तर बना रहता है, परिणामस्वरूप ये संस्थाएँ उचित ढंग से कार्य नहीं कर पाती हैं।

4. व्यवस्था सम्बन्धी समस्या- इन संस्थाओं के सामने व्यवस्था सम्बन्धी समस्या निरन्तर बनी रहती है। उच्च स्तर तक पहुँचाने का प्रयास किया जाता है। इसके परिणामरूप प्रशासनिक और व्यवस्था सम्बन्धी दोष प्रारम्भ हो जाते हैं।

5. समन्वय स्थापित करने की समस्या- स्थानीय प्रशासन के समक्ष समायोजन की समस्या हमेशा बनी रहती है। इसका कारण शिक्षा प्रशासन में समानता का न होना है। देश के विभिन्न राज्यों में शिक्षा प्रशासन में विभिन्नता है इसलिए समन्वय स्थापित करने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है।

अतः हम कह सकते हैं कि राज्य में शैक्षिक प्रशासन का रूप अत्यन्त व्यवस्थित है। यह राज्य स्तर, स्थानीय स्तर पर विभाजित है। किन्तु कुछ समस्याएँ राज्य स्तर पर हैं तो कुछ समस्याएँ स्थानीय स्तर पर भी हैं। इन समस्याओं का समाधान करना राज्य का दायित्व है। वित्त सम्बन्धी समस्याएँ समन्वय और हस्तक्षेप की समस्याओं का समाधान यदि हो जाए तो शिक्षा की गति और अधिक प्रवाहमान हो सकती है। आवश्यकता है मन में उत्साह और कुछ करने के संकल्प की।

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Anjali Yadav

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