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विद्यालय वित्तीय प्रबन्ध | SCHOOL FINANCIAL MANAGEMENT
वर्तमान युग में सूचना तकनीकी (Information Technology) व विज्ञान जगत् में होने वाले नित नए आविष्कारों के गर्भ में जाने पर पता चलता है कि इन सबके पीछे शिक्षा जगत् में आयी क्रान्ति है। पिछले कुछ वर्षों से शिक्षा का विकास द्रुत गति से हो रहा है तथा शिक्षा के विकास के साथ ही अन्य क्षेत्रों में भी स्वतः ही उन्नति हो रही है। शिक्षा के विकास का प्रमुख कारण अच्छी शिक्षा व्यवस्था, अच्छा प्रबन्धन है तथा यह स्वयं वित्त पर निर्भर है। यदि शिक्षा व्यवस्था हेतु वित्त की उचित व्यवस्था है तो शिक्षा का विकास द्रुत गति से हो सकता है। लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए कि केवल मात्र वित्त की व्यवस्था से ही शिक्षा प्रबन्धन भी हो जाता है। वित्त तो केवल मात्र शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु साधन है, साध्य नहीं।
शिक्षा वित्त की भी अपनी अनेक समस्याएँ हैं। जैसे-जैसे नवीन क्रान्ति आती जा रही है, शैक्षिक आवश्यकताओं में वृद्धि होने के साथ-साथ वित्त सम्बन्धी समस्याएँ भी बढ़ती जा रही हैं। शिक्षा के लिए आधुनिक शैक्षिक उपकरणों व अन्य कार्यों हेतु अधिक धन की आवश्यकता पड़ रही है, अतः धन प्राप्ति के स्रोतों में भी वृद्धि करनी होगी तथा धन प्राप्ति के बाद किन मदों को प्राथमिकता पर रखकर उनकी पूर्ति की जाए, यह स्वयं में एक समस्या है।
शिक्षा वित्त से अभिप्राय शैक्षिक कार्यों में प्रयुक्त धन से है, जिसमें शैक्षिक क्षेत्र में होने वाले आय-व्यय निहित हैं। आय-व्यय का विवरण एक औपचारिक विवरण है जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि एक निर्धारित अवधि में किसी संस्था की आय क्या होगी, यह किन स्रोतों से प्राप्त होगी तथा इसे किन मदों पर प्राथमिकता के आधार पर व्यय किया जायेगा। प्रत्येक विद्यालय या संस्था में आय-व्यय का विवरण एक वर्ष के लिए बनाया जाता है जिसे वित्तीय वर्ष (Financial year) कहते हैं। भारत में वित्तीय वर्ष अंग्रेजों के समय से 1 अप्रैल से अगले वर्ष 31 मार्च तक रहता है।
इस आय-व्ययक विवरण को बजट कहा जाता है जिसका विस्तृत रूप से वर्णन अगले पाठ में दिया गया है। बजट से एक वर्ष में होने वाली समस्त योजनाओं अर्थात् किन स्रोतों से आय होगी तथा किन मदों पर खर्च होगा यह सम्पूर्ण विवरण दिया होता है। शैक्षिक वित्त की उपयोगिता व महत्त्व निम्नलिखित बिन्दुओं से स्पष्ट होती है-
1. नीति निर्धारण में सहायक- शैक्षिक वित्त का निर्धारण होने से सर्वाधिक उपयोग आगामी वर्ष की समस्त नीतियों को निर्धारित करने में होता है। सम्पूर्ण वर्ष के आय-व्यय को रूपरेखा होने से यह पता होता है कि किस मद पर कितना खर्च करना है व किस स्रोत से कितना धन प्राप्त होगा।
2. प्राथमिकतानुसार कार्यक्रम क्रियान्वयन- शैक्षिक वित्त की सहायता से हम विभिन्न वांछित कार्यक्रमों/कार्यों को प्राथमिकतानुसार क्रियान्वित कर सकते हैं तथा ऐसे कार्य जो अत्यन्त आवश्यक नहीं होते उन्हें अगले वर्ष या बाद में करते हैं।
3. विद्यालय की कार्यक्षमता निर्धारण में सहायक- शैक्षिक वित्त से यह ज्ञात होता है कि विद्यालय के पास कितना धन है। इस धन की सहायता से यह ज्ञात होता है कि विद्यालय कितने अध्यापक, कितने उपकरण, कितनी शिक्षण सामग्री या कौन-कौन से संसाधनों को जुटा सकता है, अत: इन संसाधनों व कार्यकर्ताओं द्वारा उसकी कार्यक्षमता का अनुमान भी लग जाता है।
4. अलाभप्रद योजनाओं पर रोक- शैक्षिक वित्त सामने होने पर ऐसी योजनाएँ जो कि लाभप्रद नहीं हैं उनको रोककर उनके स्थान पर लाभप्रद योजनाओं को प्रारम्भ किया जा सकता है।
5. वित्तीय स्थिति के आधार पर आय-व्यय का सन्तुलन- शैक्षिक वित्त के द्वारा जैसी भी स्थिति बनती है उसके आधार पर होने वाली आय तथा व्यय को सन्तुलित कर लिया जाता है।
6. मूल्यांकन में सहायक- शैक्षिक वित्त द्वारा विभिन्न योजनाओं के मूल्यांकन में विविध प्रकार से सहायता मिलती है।
7. धन की बचत के उपायों का ज्ञान- शैक्षिक वित्त में सम्पूर्ण आय-व्यय का विवरण रहता है। अतः हम ये ज्ञात कर सकते हैं कि किन योजनाओं में कम धन लग सकता है तथा किन कार्यों में धन की अधिक आवश्यकता नहीं है।
8. वित्तीय आवश्यकताओं का ज्ञान- सम्पूर्ण वर्ष में किन-किन योजनाओं में धन की आवश्यकता होगी इसका सम्पूर्ण ज्ञान शैक्षिक वित्त द्वारा हो जाता है।
9. लेखा परीक्षण- सम्पूर्ण आय-व्यय का विवरण स्पष्ट होने से लेखा परीक्षण में शैक्षिक वित्त अत्यन्त उपयोगी होता है।
10. भविष्य की योजनाओं में सहायक- शैक्षिक वित्त द्वारा भविष्य की योजनाओं के निर्माण में सहायता मिलती है क्योंकि गतवर्ष के वित्त से यह ज्ञात हो जाता है कि किन-किन योजनाओं में कम धन से अधिक लाभ प्राप्त होता है। इस प्रकार शैक्षिक वित्त किसी भी संस्था के लिए अत्यन्त उपयोगी होता है।
भारतीय शिक्षा वित्त की समस्याएँ (PROBLEMS OF INDIAN EDUCATIONAL FINANCE)
शिक्षा वित्त की समस्याएँ आजादी पूर्व से ही हैं। वर्तमान में शिक्षा वित्त की निम्न समस्याएँ हैं-
1. अनुदान प्रणाली का मुख्य स्त्रोत होना– भारत में अनुदान प्रणाली का मुख्य स्रोत होना शैक्षिक वित्त की प्रमुख समस्या है। इसके लिए वर्तमान में शैक्षिक वित्त हेतु निजी प्रयासों पर अधिक बल दिया जा रहा है।
2. शिक्षा के तीनों स्तरों में शैक्षिक वित्ताभाव के कारण असन्तुलन– शिक्षा वित्त के अपर्याप्त होने के कारण प्राथमिक, माध्यमिक व उच्च शिक्षा में असन्तुलन होने से शैक्षिक गतिविधियों में अवरोध उत्पन्न हो रहा है।
3. शिक्षा वित्त का अपव्यय- शिक्षा वित्त का आवश्यक क्षेत्रों में उपयोग न होने से उसका अपव्यय अधिक हो रहा है, अतः मितव्ययिता की अधिक आवश्यकता है।
4. शैक्षिक प्रशासन के स्तरों में असम्बन्धता– शिक्षा के विभिन्न स्तरों में प्रशासकों या सह-सम्बन्ध का अभाव या तालमेल न हो पाने के कारण भी अपव्यय हो रहा है। में असम्बन्धता
5. केवल केन्द्र व राज्य सरकार पर निर्भरता- शिक्षा वित्त में स्थानीय साधनों द्वारा शिक्षा पर खर्च नहीं किया जा रहा है जिससे केन्द्र व राज्य पर इसके लिए बढ़ती निर्भरता भी एक समस्या है।
6. आर्थिक संकट– वर्तमान में देश व राज्यों में आर्थिक रूप से संकट आने के कारण धन का उचित आगमन नहीं हो पा रहा है जिससे योजनाओं का तो निर्माण हो जाता है लेकिन क्रियान्वयन हेतु पर्याप्त धन के अभाव में ये योजनाएँ क्रियान्वित नहीं हो पाती हैं।
7. लम्बी अवधि की योजनाएँ क्रियान्वित न हो पाना- देश में लम्बी अवधि की अनेक योजनाएँ कीमतों के बढ़ जाने के कारण पूर्ण नहीं हो पा रही हैं।
8. शैक्षिक धन का सही स्थान पर उपयोग न हो पाना- शैक्षिक धन का सही तरीके से सही स्थान पर व्यय न हो पाने से भी मानवीय आवश्यकताओं तथा बढ़ती हुई शिक्षा की माँग की पूर्ति नहीं हो पा रही है।
इस प्रकार भारतीय शिक्षा वित्त मूल रूप से आर्थिक तंगी के कारण व योजनाओं के सही क्रियान्वयन न हो पाने के कारण अनेक समस्याओं से पीडित है।
शैक्षिक वित्त की समस्याओं के निराकरण हेतु सुझाव (SUGGESTIONS FOR REMAINING PROBLEMS OF EDUCATIONAL FINANCING)
शैक्षिक वित्त की समस्याओं के निराकरण हेतु निम्न सुझाव हैं-
(i) शैक्षिक वित्त का उपर्युक्त क्षेत्र में प्रयोग किया जाना चाहिए।
(ii) अनुदान प्रणाली केवल उपेक्षित वर्गों व संस्थाओं के लिए होनी चाहिए, अन्य के लिए निजी उपायों पर बल देने पर जोर दिया जाना चाहिए।
(iii) शिक्षा वित्त हेतु प्राथमिक शिक्षा स्थानीय निकायों को, माध्यमिक शिक्षा राज्य सरकार तथा उच्च व तकनीकी शिक्षा में केन्द्रीय सरकार को व्यय देना चाहिए।
(iv) शिक्षा संस्थाओं को ऋण देकर भी उसकी सहायता की जा सकती है।
(v) उपलब्ध स्थानीय साधनों का सर्वाधिक उपयोग किया जाना चाहिए।
(vi) आशुरचित व कम मूल्य के उपकरणों पर अधिक बल दिया जाना चाहिए।
(vii) राज्यों को उनकी क्षमतानुसार व आवश्यकतानुसार केन्द्र द्वारा सहायता दी जानी चाहिए।
(viii) धार्मिक संस्थाओं से शिक्षा हेतु धन लेना चाहिए।
इस प्रकार शैक्षिक वित्त की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।
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