“माध्यमिक शिक्षा की कठिनाइयों / समस्याओं का वर्णन कीजिए।
माध्यमिक शिक्षा की कठिनाइयां
(1) उद्देश्य माध्यमिक- शिक्षा की सबसे प्रमुख कठिनाई इसके उद्देश्य की समस्या है। माध्यमिक शिक्षा का उद्देश्य स्पष्ट नहीं है। यदि माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों से पूछा जाये कि, शिक्षा ग्रहण करने का उनका उद्देश्य क्या है, तो शायद वह यह नहीं बता पायेंगे।
(2) अनुशासनहीनता- माध्यमिक विद्यालयों में अनुशासनहीनता की जटिल समस्या है। वर्तमान शिक्षा छात्रों में अनुशासन की भावना को जागृत करने में पूर्णत: विफल है। इसी कारण सम्पूर्ण देश की माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर अनुशासनहीनता का बोलबाला है और तरह-तरह की समस्याएँ देखने और सुनने में आती है।
(3) पाठ्यक्रम- जहाँ तक पाठ्यक्रम का प्रश्न है माध्यमिक शिक्षा पाठ्यक्रम बहुत संकीर्ण है। यह एक मार्गी है और इसमें पूर्णता का अभाव है।
(4) शिक्षण का निम्न स्तर- अधिकतर माध्यमिक विद्यालयों के शिक्षण का स्तर बहुत निम्न है। किसी भी विषय को पढ़ाते समय बच्चों की रुचियों, अभिरुचियों और योग्यताओं का ध्यान नहीं रखा जाता और न ही किसी विषय को पढ़ाते समय मनोवैज्ञानिक प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है।
(5) माध्यमिक शिक्षा प्रणाली विदेशी प्रणाली पर आधारित भारत की माध्यमिक शिक्षा विदेशी शिक्षा प्रणाली पर आधारित है। 1854 के घोषणा पत्र में जिस माध्यमिक शिक्षा की परिकल्पना की गयी थी वह सामान्य वर्ग के छात्रों के हेतु नहीं बल्कि संभ्रान्त वर्ग के छात्रों के हेतु थी। इस शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को नौकरी के हेतु तैयार करना था। 1917 ई० में सैंडलर आयोग ने हाई स्कूल और विश्वविद्यालय शिक्षा के मध्य इन्टर के प्रबन्ध एवं प्रशासन के हेतु माध्यमिक शिक्षा परिषदों की स्थापना की थी । स्वतन्त्र भारत में राधाकृष्णन आयोग, आचार्य नरेन्द्र देव समिति, मुदालियर आयोग, कोठारी आयोग, नयी शिक्षा नीति 1986 ई० ने इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण सुझाव दिये। इनमें सबसे अधिक •महत्वपूर्ण सुझाव मुदालियर आयोग के हैं।
(6) अवधि में निरन्तर परिवर्तन- माध्यमिक शिक्षा की दुर्बलता का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण यह है कि इस शिक्षा की अवधि में निरन्तर परिवर्तन होते रहे। 1822 ई० तक सामान्य शिक्षा की अवधि 10 वर्ष थी उसके बाद इन्टर कालेजों की स्थापना के फलस्वरूप यह अवधि 12 वर्ष की कर दी गयी। 1912 ई. के बाद इन्टर कक्षाओं को समाप्त कर दिया गया और माध्यमिक शिक्षा की अवधि 3 वर्ष की मान ली गयी। तत्पश्चात् यह स्पष्ट किया गया कि माध्यमिक शिक्षा के एक वर्ष को विश्वविद्यालय शिक्षा एक साथ जोड़ा जाये। इसका स्तर विश्वविद्यालय शिक्षा का होगा अथवा माध्यमिक शिक्षा का, यह स्पष्ट नहीं किया गया। 1952 ई. की मुदालियर अयोग की सिफारिशें भी उलझनपूर्ण थीं। 1966 ई. के. कोठारी आयोग ने सामान्य शिक्षा की अवधि 10 वर्ष निर्धारित की और माध्यमिक शिक्षा की अवधि 123 वर्ष निर्धारित की। इस तरह माध्यमिक शिक्षा की अवधि में निरन्तर परिवर्तन होने के कारण इसमें किसी तरह की निश्चितता एवं स्पष्टता नहीं आ सकी।
(7) सैद्धान्तिक अस्पष्टता- हमारे देश की माध्यमिक शिक्षा का एक दोष सैद्धान्तिक अस्पष्टता है। अन्य देशों में सामान्य शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को उन प्रविधियों से परिचित कराना होता है जिससे कि उन्हें आगे की शिक्षा प्राप्त करने में आसानी हो एवं छात्र अपने दायित्व को समझने एवं उनका निर्वहन करने के योग्य बन सकें। इसके बाद ही माध्यमिक शिक्षा पूर्ण रूप से विशिष्ट होती है। इसके दो कारण है- पहला यह कि माध्यमिक शिक्षा छात्रों को मध्यम स्तर के व्यवसायों के योग्य बनाती है और दूसरा यह कि माध्यमिक स्तर पर छात्र उन विधियों प्रविधियों एवं उपकरणों को समझ जाते हैं जिनका उपयोग वे उच्च शिक्षा में करते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि सामान्य शिक्षा समाजोन्मुखी होती है और माध्यमिक शिक्षा व्यवसायोन्मुखी । परन्तु हमारे देश में माध्यमिक शिक्षा न तो छात्रों को व्यावसायिक जीवन हेतु तैयार करती है और न ही उच्च शिक्षा हेतु सक्षम बनाती है। माध्यमिक शिक्षा का सामंजस्य उच्च एवं व्यावसायिक शिक्षा से तब तक नहीं हो सकता जब तक कि उसे एक स्वतन्त्र इकाई के रूप में सैद्धान्तिक ही नहीं व्यावहारिक रूप से स्पष्ट नहीं किया जाता।
(8) सैद्धान्तिक प्रवृत्ति माध्यमिक शिक्षा की दुर्बलता का एक अन्य कारण इसकी सैद्धान्तिक प्रवृत्ति है। इसके अन्तर्गत विविधता लाने के प्रयास सदैव निष्फल रहे। माध्यमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम बहुत समय तक सैद्धान्तिक, बौद्धिक एवं साहित्यिक रहा। इस शिक्षा की विषयवस्तु अस्थिर एवं अव्यावहारिक रही जिससे वह भारतीय जन-जीवन की नवीन परिस्थतियों का सामना नहीं कर पायी। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में विविधता लाने का सबसे महत्वपूर्ण प्रयास माध्यमिक शिक्षा आयोग (मुदालियर आयोग) (1952-53) ने किया। उसने माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम को विस्तृत बनाने हेतु विभिन्नीकृत पाठ्यक्रम का सुझाव दिया परन्तु काफी समय तक हमारे देश में आयोग के सुझावों का उपयोग नहीं किया जा सका एवं आज भी अधिकतर विद्यालयों में साहित्यिक एवं अव्यावहारिक पाठ्यक्रम चल रहे हैं। इस तरह हमारी माध्यमिक शिक्षा सैद्धान्तिक एवं अव्यावहारिक बनी हुई है।
(9) गैर सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों की समस्याएँ- स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् नीतियों के तहत गैर सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। इन स्कूलों का संचालन व्यक्तिगत संस्थाओं द्वारा किया जाता है और सहायता के रूप में राशि सरकार द्वारा इन स्कूलों को दी जाती है। इस प्रकार के स्कूलों ने देश का हित कम और अहित ज्यादा किया है। ऐसे स्कूल अधिकतर पूंजीपतियों अथवा राजनीतिक व्यक्तियों द्वारा चलाये जाते हैं जहाँ अध्यापकों का खुलकर शोषण किया जाता है।
(10) निर्देशन- माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र छात्राओं को उचित निर्देशन तथा मार्गदर्शन नहीं मिलता। परिणाम स्वरूप कक्षा में उत्तीर्ण हो जाने के पश्चात् भी उन्हें यह पता नहीं होता कि अब उन्हें क्या करना चाहिए।
(11) प्रशिक्षित शिक्षक- अधिकतर गैर-सरकारी विद्यालयों में अप्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति कर ली जाती है। ऐसे शिक्षकों को न तो मनोविज्ञान का ही कोई ज्ञान होता है और न ही शिक्षण विधियों का।
(12) परीक्षा- माध्यमिक शिक्षा की परीक्षा प्रणाली भी बहुत दोषपूर्ण है। परीक्षा की सम्पूर्ण प्रणाली बहुत संकुचित और एकांगी है। परीक्षा प्रणाली के द्वारा बच्चों के सीमित ज्ञान की ही माप हो पाती है।
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