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प्रबन्ध की अवधारणा की परिभाषा (Definition of Concept of Management)
प्रबन्ध की अवधारणा की परिभाषा- विभिन्न व्यक्तियों ने प्रबन्ध को भिन्न-भिन्न रीतियों से परिभाषित किया है। ये परिभाषाएं मुख्य रूप से उन धारणाओं पर आधारित हैं जिनकी कल्पना प्रत्येक ने अपने विचारों में की है। कुछ दशाओं में तो एक ही व्यक्ति ने ‘प्रबन्ध’ को कई रूपों में प्रस्तुत किया है; जैसे प्रोफेसर थियो हैमन ने प्रबन्ध का तीन प्रचलित अर्थों में उल्लेख किया है— (i) प्रबन्ध, अधिकारियों के अर्थ में, (ii) प्रबन्ध, विज्ञान के अर्थ में, तथा (iii) प्रबन्ध, एक प्रक्रिया के अर्थ में। इसी प्रकार हार्बिसन एवं मायर्स ने प्रबन्ध को तीन रूपों में देखा है— (i) प्रबन्ध, एक आर्थिक संसाधन के रूप में, (ii) प्रबन्ध, एक अधिकारी के रूप में, (iii) प्रबन्ध, एक उच्च वर्ग के रूप में। प्रोफेसर ड्रकर ने भी प्रबन्ध को तीन रूपों में प्रस्तुत किया है- (i) व्यवसाय के प्रबन्ध के रूप में, (ii) प्रबन्धकों के प्रबन्ध के रूप में, तथा (iii) श्रमिकों व श्रम के प्रबन्ध के रूप में।
वास्तव में, प्रबन्धशास्त्रियों ने प्रारम्भ से ही ‘प्रबन्ध’ विषय को निश्चित सीमाओं में बांधने का प्रयास किया है, परन्तु यह विषय इतना व्यापक और जीवन्त है कि बार-बार उन सीमाओं को लांघ जाता है और फिर ‘प्रबन्ध’ की नवीन अवधारणाएं जन्म लेती हैं। इसीलिए आज ‘प्रबन्ध’ विषय सर्वाधिक महत्वपूर्ण व रुचिकर हो गया है। मूल रूप में वर्तमान विश्व में ‘प्रबन्ध’ की निम्न प्रमुख धारायें प्रचलित हैं।
प्रमुख अवधारणाएं
(1) प्रबन्ध लोगों से कार्य कराने से सम्बन्ध रखता है (Managing involves getting things done through people) – प्रारम्भ में प्रबन्ध का आशय उन व्यक्तियों से लगाया जाता था जो दूसरे लोगों अर्थात् श्रमिकों से कार्य सम्पन्न कराते थे। इस प्रकार मुख्य प्रबन्धक, उत्पादन प्रबन्धक, विभागीय प्रबन्धक तथा पर्यवेक्षक प्रबन्ध के भाग माने जाते थे जो श्रमिकों व कारखाने के अन्य कर्मचारियों को कार्य सम्पन्न करने हेतु निर्देश व आदेश प्रदान करते थे। इस अवधारणा में यह तथ्य छिपा है। कि प्रबन्ध श्रमिक व कर्मचारियों को नेतृत्व प्रदान करता है तथा उन्हें सुचारु रूप से कार्य सम्पन्न करने के लिए प्रेरित करता (Motivate) है। वास्तव में, प्रबन्ध की यह अवधारणा मनोविज्ञान पर आधारित है जिसके अन्तर्गत वर्ग श्रमिकों को उनकी भावनाओं के अनुरूप कार्य के लिए प्रेरित करके, कार्य सम्पन्न कराता है।
(2) प्रबन्ध व्यक्ति-समूहों के साथ मिलकर कार्य सम्पन्न कराने की कला है (Management is an art to get the work done through and with the group of people) – प्रबन्ध की उपर्युक्त वर्णित प्रथम अवधारणा का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें तानाशाही की बू आती है कि प्रबन्धक स्वयं काम नहीं करते बल्कि वे दूसरों से काम लेते हैं। इसीलिए इस अवधारणा में संशोधन किया गया तथा प्रबन्ध को व्यक्ति समूहों के साथ मिलकर कार्य सम्पन्न कराने की कला की संज्ञा दी गई। इस अवधारणा में निम्न दो बातें प्रमुख हैं— (i) कार्य एक व्यक्ति द्वारा न किया जाकर व्यक्तियों के समूहों द्वारा किया जाता है, तथा (ii) प्रबन्धक व्यक्ति समूहों के साथ मिलकर कार्य सम्पन्न कराते हैं।
वास्तव में, यह अवधारणा समाजशास्त्रियों (Sociologists) व समाज-मनोवैज्ञानिकों (Social Psychologists) की देन है। इस अवधारणा के अन्तर्गत प्रबन्धक विभिन्न श्रमिक समूहों की जाति, धर्म व संस्कृति (Culture) के आधार पर आपसी टकराहट व मेल-जोल का अध्ययन करते हैं ताकि किसी एक कार्य को सम्पन्न करने के लिए चुने हुए श्रमिक समूह में केवल समान दृष्टिकोण वाले श्रमिक ही सम्मिलित हों। तभी वे कार्य को अधिक प्रभावी व कार्यक्षम ढंग से कर सकेंगे। इसके अतिरिक्त इस अवधारणा के अन्तर्गत प्रबन्ध का कार्य श्रमिकों को मात्र आदेश देना नहीं है बल्कि वे श्रमिकों को कार्य करने का ढंग समझाते हैं, कार्य-प्रणाली में सुधार के लिए श्रमिकों से सुझाव मांगते हैं और उनमें से ठोस सुझावों को कार्यान्वित भी करते हैं। इस प्रकार प्रबन्ध और श्रमिक मिलकर कारखाने की उत्पादकता में वृद्धि करते हैं।
(3) प्रबन्ध एक प्रक्रिया (Management is a process) – प्रो. कूण्ट्ज एवं ओ’ डोनेल का मत है कि मात्र समाजशास्त्र तथा मनोविज्ञान का ज्ञान ही प्रबन्ध के लिए पर्याप्त नहीं है बल्कि उसे व्यवसाय के नियोजन, संगठन, निर्देशन व नियंत्रण तकनीकों का भी ज्ञान होना चाहिए। प्रबन्ध की इस अवधारणा के अनुसार ‘प्रबन्ध’ एक ऐसी सतत् प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत एक निश्चित उद्देश्य या लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक के बाद एक अनेक कदम उठाने पड़ते हैं। सर्वप्रथम प्रबन्ध उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक के बाद वह एक संगठनात्मक ढांचा तैयार करता है जिसमें सम्पूर्ण कार्य का विभाजन विभिन्न व्यक्तियों के मध्य किया जा सके और प्रत्येक व्यक्ति के कार्य पूरा करने सम्बन्धी अधिकारों व उत्तरदायित्वों का निर्धारण किया जा सके। इसके उपरान्त वह इन व्यक्तियों को कार्य सम्बन्धी निर्देश देता है और अन्ततः इन व्यक्तियों के कार्यों को नियंत्रित एवं समन्वित करता है। इस प्रकार प्रबन्ध निरंतर एक के बाद एक लक्ष्य प्राप्त करने या विभिन्न समस्याओं के समाधान करने के लिए उपर्युक्त प्रक्रिया को अपनाता है।
उदाहरण के लिए, किसी कारखाने में जनवरी माह में 10,000 जोड़ी जूते उत्पादन का लक्ष्य है। अब प्रबन्ध इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कच्चे माल, श्रम, वित्त, आदि की आवश्यकताओं का अनुमान लगाएगा तथा तत्सम्बन्धी योजना तैयार करेगा कि उपर्युक्त वस्तुएं कब, कहां से और किस प्रकार प्राप्त होंगी। इसके बाद प्रबन्ध इस उत्पादन कार्य को विभिन्न श्रम समूहों में विभाजित करेगा जैसे अमुक श्रम समूह जूतों के ‘सोल’ तैयार करेगा, तो अमुक श्रम समूह जूतों के ‘अपर’ सिलेगा और अमुक श्रम समूह जूतों की ‘पेस्टिंग’ कर जूते तैयार करेगा। इन श्रम समूहों के विभिन्न विभागों के कार्यों का निर्देशन व समन्वय भी प्रबन्ध करेगा। इस प्रकार प्रबन्ध कोई एक व्यक्ति न होकर विभिन्न विभागों का एक समूह है जिसमें मुख्य प्रबन्धक, कारखाना प्रबन्धक, क्रय प्रबन्धक, वित्त प्रबन्धक, स्टोर्स प्रबन्धक एवं इनके सहायक सभी सम्मिलित होंगे।
(4) प्रबन्ध एक नवीन विचारों वाली शक्ति (Management is an innovative force)- न्यूमैन एवं समर ने आधुनिक प्रबन्ध को एक नवीन विचारों वाली शक्ति कहा है। प्रारम्भ में प्रबन्ध बाह्य शक्तियों तथा परिस्थितियों के नियंत्रण में कार्य करता था तथा स्वयं को उन परिस्थितियों के अनुसार समायोजित कर लेता था जैसे कि यदि उसके उत्पाद की मांग बाजार में घट जाती थी तो वह अपना उत्पादन कम कर देता था, परन्तु आधुनिक प्रबन्ध बाह्य शक्तियों पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करता है और घटनाओं को अपने पक्ष में घटित होने के लिए प्रभावित करता है। जब उसके उत्पादन की मांग बाजार में घटती है तो प्रबन्ध उत्पादन नहीं घटाता बल्कि नए बाजारों में प्रवेश करके अथवा बाजार में नवीन उत्पाद लाकर अपने उत्पादन स्तर को बनाए रखता है। वह अपने उत्पाद की मांग में वृद्धि के लिए उत्पादन लागत व मूल्यों में कमी करता है। इसके लिए वह सस्ते कच्चे माल की खोज करता है, श्रम की उत्पादकता बढ़ाने पर जोर देता है तथा कारखाने में शोध कार्य पर जोर देकर उत्पादन के अपेक्षाकृत सस्ते तरीकों का आविष्कार करता है। इस प्रकार आधुनिक समय में प्रबन्ध नवीन विचारों वाली शक्ति (Innovative) के रूप में उदय हुआ है।
(5) प्रबन्ध निर्णय प्रक्रिया से सम्बन्ध रखता है (Managing involves decision- making progress)- कुछ प्रबन्धशास्त्रियों का मत है कि प्रबन्ध का एकमात्र कार्य यह निर्णय लेना है कि “किसी कार्य के करने के विभिन्न ढंगों में से कौन-सा ढंग सर्वोत्तम रहेगा जिसे चुना जाए। ” इन प्रबन्धशास्त्रियों के अनुसार चूंकि प्रबन्ध का प्रमुख कार्य निर्णय लेना है, अतः प्रबन्ध सिद्धांत का केन्द्र-बिन्दु निर्णयन कार्य है और प्रबन्ध के शेष विचार इससे जुड़े होते हैं।
परन्तु वास्तव में विभिन्न शोध-पत्रों से यह प्रकट हुआ है कि प्रबन्धक अपने समय का अल्प भाग ही निर्णयन में लगाते हैं, क्योंकि यदि फर्म के लक्ष्य स्पष्ट हैं तथा लक्ष्यों की पूर्ति हेतु पर्याप्त सूचना व आंकडे उपलब्ध हैं, तो निर्णय लेने में अधिक समय नहीं लगता। वास्तव में, बन्ध का कार्य मात्र निर्णय लेना नहीं है बल्कि निर्णयों के कार्यान्वयन से सम्बन्धित अन्य सभी पहलू भी प्रबन्ध के ही कार्य हैं।
उदाहरण के लिए, एक फर्म अपनी वस्तुओं के विक्रय माध्यम का चुनाव करना चाहती है कि वह उन वस्तुओं का विक्रय थोक व्यापारियों के माध्यम से करे या फुटकर व्यापारियों के माध्यम से करे या अपनी स्वयं की दुकानें खोले। माना कि प्रबन्ध का निर्णय थोक व्यापारियों द्वारा विक्रयः कराने के पक्ष में रहा, परन्तु प्रबन्ध का कार्य यहीं समाप्त नहीं हो जाता बल्कि विक्रय प्रक्रिया सम्बन्धी समस्त अन्य बातें भी प्रबन्ध के कार्यों की परिधि में ही आती हैं। इस प्रकार प्रबन्ध की उपर्युक्त अवधारणा सम्पूर्ण प्रबन्ध को प्रकट करने में असमर्थ ही मानी जाएगी।
(6) प्रबन्ध एक संगठन में लक्ष्य निर्धारण, लक्ष्य प्राप्ति व मल्यांकन से सम्बन्ध रखता है (Managing involves goal formation, goal accomplishment and evaluation)-
प्रो. डंकन के अनुसार किसी भी संगठन में लक्ष्य निर्धारण प्रबन्ध कार्य का आदर्शात्मक (normative) पहलू है तथा लक्ष्य की पूर्ति व मूल्यांकन वैज्ञानिक (scientific) पहलू हैं। वास्तव में, लक्ष्य निर्धारण के बाद उस लक्ष्य को प्राप्त करना तथा उसका मूल्यांकन करना प्रबन्ध के प्रमुख उद्देश्य हैं। इसीलिए प्रो. डंकन के अनुसार, अधिकांश प्रबन्ध सिद्धांत (management theory) का सम्बन्ध इन लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु निर्देशक सिद्धांतों के विकास से होता है। इस रूप में प्रबन्ध को विज्ञान के रूप में जाना जाता है।
इसके अतिरिक्त इन निर्देशक सिद्धांतों के कार्यान्वयन के उपयुक्त तरीकों व विधियों का विकास भी प्रबन्ध का कार्य है। वास्तव में लक्ष्य निर्धारण एवं पूर्ति सम्बन्धी निर्णयों का समुचित कार्यान्वयन प्रबन्ध का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य है। इसी रूप में प्रबन्ध को कला के नाम से जाना जाता है।
(7) प्रबन्ध एक औद्योगिक समाज का आर्थिक अंग है (Management is an economic organ of an industrial society)- प्रो. डूकन ने प्रबन्ध को औद्योगिक समाज का एक महत्वपूर्ण आर्थिक अंग माना है। अन्य अर्थशास्त्री भी प्रबन्ध को भूमि, श्रम और पूंजी की भांति उत्पादन का एक साधन मानते हैं, परन्तु प्रबन्ध अन्य उत्पादन साधनों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि आधुनिक समय में फर्म का प्रबन्ध ही मुख्य रूप से उस फर्म की उत्पादकता व लाभदायकता का निर्धारक है, उसकी जीवनदायिनी शक्ति है व फर्म के कार्यों व उत्पादों में नवीनता का संचार करके फर्म को ऊंचाइयों पर पहुंचाने वाली शक्ति है।
वास्तव में, प्रबन्ध एक व्यवसाय के मानवीय एवं भौतिक संसाधनों के सदुपयोग से सम्बन्ध रखता है जिससे कि वस्तुओं अथवा सेवाओं का उत्पादन व वितरण न्यूनतम लागत पर अधिकतम उपभोक्ता संतुष्टि के साथ हो सके। इस प्रकार ‘प्रबन्ध’ का कार्य एक उपक्रम के लक्ष्य निर्धारण व नियोजन, उत्पादन संसाधनों के समन्वय, निर्देशन व नियंत्रण, आदि से सम्बन्धित है। यद्यपि इस अवधारणा में प्रबन्ध को मात्र औद्योगिक समाज तक सीमित कर दिया है, परन्तु वर्तमान में प्रबन्ध सिद्धांतों का उपयोग गैर-औद्योगिक समाज में भी तेजी से प्रचलित हो रहा है। अब प्रबन्ध सिद्धांत सार्वजनिक सेवाओं, अस्पतालों तथा नागरिक प्रशासन में भी सफलतापूर्वक लागू किए जाने लगे हैं, परन्तु इनमें भी प्रबन्ध सिद्धांतों का प्रयोग मुख्य रूप से संस्था के संसाधनों के सर्वोत्तम आवण्टन व उपयोग के लिए किया जाता है जो इस तथ्य की पुष्टि करता है कि संस्था के आर्थिक पहलू से सम्बन्ध रखता है चाहे संस्था का स्वरूप कैसा भी हो अर्थात् व्यावसायिक हो, या सेवा सम्बन्धी हो या प्रशासन सम्बन्धी।
प्रबन्ध की परिभाषाएं (Definition of Management)
विभिन्न विद्वानों ने प्रबन्ध को अपने-अपने दृष्टिकोण से देखा है और परिभाषित किया है। इस प्रकार प्रबन्ध की विभिन्न परिभाषाएं हैं जिनमें से प्रमुख विद्वानों तथा प्रबन्धशास्त्रियों द्वारा दी गई कुछ परिभाषाएं निम्नलिखित है-
(1) एफ. डब्ल्यू. टेलर के अनुसार, “प्रबन्ध यह जानने की कला है कि आप क्या करना चाहते हैं और तत्पश्चात् यह देखना कि कार्य सर्वोत्तम एवं सर्वाधिक मितव्ययी विधि से किया जाता है। “
(यह परिभाषा केवल वर्कशाप या प्लाण्ट प्रबन्ध पर प्रकाश डालती है अतः अपूर्ण मानी जाती हैं।)
(2) जोसेफ एल. मैसी के अनुसार, “प्रबन्ध दूसरे व्यक्तियों से कार्य सम्पन्न कराता है।”
(इस परिभाषा में प्रबन्ध द्वारा श्रमिकों एवं कर्मचारियों से कार्य लेने पर प्रकाश डाला गया, है, जबकि प्रबन्ध के अन्य भी बहुत से कार्य हैं। अतः यह परिभाषा भी अपूर्ण ही मानी जाती है।)
(3) पीटरसन तथा प्लाऊमैन के अनुसार, “प्रबन्ध एक ऐसी तकनीक है जिसके द्वारा एक विशिष्ट मानवीय समूह के लक्ष्य एवं उद्देश्य निर्धारित किए जाते हैं, स्पष्ट किए जाते हैं तथा प्रभावी बनाए जाते हैं।”
(इस परिभाषा में भी प्रबन्ध का कार्यक्षेत्र मात्र कर्मचारियों को निर्देशित करने पर सीमित कर दिया गया है। अतः परिभाषा अपूर्ण है।)
(4) कुण्ट्ज तथा ओ’ डोनेल के अनुसार- प्रबन्ध से आशय, “एक उपक्रम में ऐसे आन्तरिक वातावरण के उत्पन्न करने तथा बनाए रखने से लगाया जाता है जहां पर कि समूहों में साथ-साथ कार्य करते हुए व्यक्ति सामूहिक लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु दक्षतापूर्वक तथा प्रभावपूर्ण ढंग से कार्य कर सके। यह औपचारिक संगठित समूहों में विभक्त व्यक्तियों के साथ मिलकर तथा उनके द्वारा कार्य सम्पन्न कराने की कला है।”
(यह परिभाषा अधिक विस्तृत है। इसमें प्रबन्ध के कार्यों में न केवल कर्मचारियों का विकास व अभिप्रेरणा (Motivation) ही सम्मिलित किए गए हैं बल्कि लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए समुचित वातावरण व संगठन संरचना भी प्रबन्ध कार्यों में सम्मिलित कर लिए गए हैं, परन्तु इसमें प्रबन्ध के वैज्ञानिक पहलू पर ध्यान नहीं दिया गया है।)
( 5 ) लारेंस एप्पले के अनुसार, “प्रबन्ध व्यक्तियों का विकास है न कि वस्तुओं का निर्देशन। “
(इस परिभाषा में प्रबन्ध को मात्र कर्मचारी प्रबन्ध (personnel management) के रूप में देखा गया है अतः परिभाषा संकुचित है।)
(6) जेम्स एल. लुण्डी के अनुसार, “प्रबन्ध मुख्य रूप में किसी विशिष्ट उद्देश्य की दिशा में दूसरे लोगों (कर्मचारियों) के प्रयासों को नियोजित, समन्वित, अभिप्रेरित तथा नियंत्रित करने का कार्य है।”
(यह परिभाषा प्रबन्ध के मुख्य कार्यों का बखान करती है, परन्तु प्रबन्ध की प्रकृति व क्षेत्र पर प्रकाश नहीं डालती फिर भी इसे एक उपयुक्त परिभाषा माना जा सकता है।)
(7) थियो हैमन एवं विलियम स्कॉट के अनुसार, “प्रबन्ध एक ऐसी सामाजिक ब तकनीकी प्रक्रिया है जो एक उपक्रम के लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से संसाधनों का सदुपयोग करती है, मानवीय क्रियाओं को प्रभावित करती है तथा परिवर्तनों को सुविधाजनक बनाती है।”
(इस परिभाषा में भी प्रबन्ध को एक प्रक्रिया माना गया है जो उपक्रम के लक्ष्य प्राप्ति से सम्बन्ध रखती है, अतः इसे एक उपयुक्त परिभाषा माना जा सकता है।)
(8) पीटर एफ. ड्रकर के अनुसार, “प्रबन्ध एक बहुउद्देश्यीय तंत्र है जो व्यवसाय का प्रबन्ध करता है, प्रबन्धकों का प्रबन्ध करता है तथा श्रमिकों एवं कार्य का प्रबन्ध करता है। “
(इस परिभाषा में प्रबन्ध के कार्यों को भिन्न तरीके से समूहबद्ध किया गया है और तीन कार्यों में ही प्रबन्ध के समस्त कार्य समावेशित हो गए हैं। इस दृष्टि से यह परिभाषा उपयुक्त है, परन्तु इस परिभाषा के अनुसार प्रबन्ध का कार्यक्षेत्र व्यावसायिक उपक्रमों तक सीमित कर दिया गया है तथा यह परिभाषा भी प्रबन्ध के विज्ञान अथवा कला पक्ष पर प्रकाश नहीं डालती।)
उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि प्रबन्ध का मुख्य उद्देश्य संस्था के निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करना है जो वह संस्था के मानवीय एवं अन्य संसाधनों के सदुपयोग द्वारा प्राप्त करता है। इन मानवीय एवं अन्य आर्थिक संसाधनों के समन्वय तथा समुचित उपयोग के लिए प्रबन्ध को विभिन्न कार्य करने पड़ते हैं जिनमें योजना बनाना, संगठनात्मक ढांचे की रचना करना, कार्यों का निर्देशन, नियंत्रण व मूल्यांकन करना, आदि प्रमुख हैं। प्रबन्ध ये कार्य कुछ निश्चित सिद्धांतों के अन्तर्गत करता है। प्रबन्ध के ये सिद्धांत एवं व्यवहार ही प्रबन्ध शास्त्र को क्रमशः विज्ञान व कला की संज्ञा प्रदान करते हैं। उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर प्रबन्ध की एक पूर्ण परिभाषा निम्न प्रकार दी जा सकती है:
“प्रबन्ध एक उपक्रम के निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु नियोजन, संगठन, निर्देशन व नियंत्रण द्वारा मानवीय व भौतिक संसाधनों के समन्वय व सदुपयोग से सम्बन्ध रखता है। और इस रूप में प्रबन्ध विज्ञान और कला दोनों ही है।”
प्रबन्ध के लक्षण अथवा विशेषताएं (CHARACTERISTICS OF MANAGEMENT)
प्रबन्ध की निम्न विशेषताएं हैं:
(1) प्रबन्ध उद्देश्यपूर्ण है (Management is purposeful) – प्रबन्ध की प्रथम विशेषता इसका उद्देश्यपूर्ण होना है। प्रत्येक संस्था या उपक्रम में उद्देश्य एवं लक्ष्यों के निर्धारण तथा उन्हें प्राप्त करने से प्रबन्ध का प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। उद्देश्य तथा लक्ष्य को सामने रखकर ही उसे प्राप्त करने के लिए आवश्यक व्यूह-रचना (Strategy) की जाती है और उसे लागू किया जाता है यही प्रबन्ध है।
(2) प्रबन्ध सामूहिक प्रयासों का समन्वय है (Management is co-ordination of group activity)- प्रत्येक उपक्रम या संस्था में कार्यों का सम्पादन विभिन्न व्यक्ति समूहों द्वारा किया जाता है। इन व्यक्ति समूहों के कार्यों का समन्वय ही प्रबन्ध है। उदाहरण के लिए, एक मिल में कपड़े की धुलाई का कार्य एक श्रमिक समूह करता है तो उसकी रंगाई का कार्य दूसरा श्रमिक समूह और छपाई का कार्य तीसरा श्रमिक समूह। इन श्रमिक समूहों के कार्यों में इस प्रकार समन्वय करना कि प्रत्येक श्रम समूह को अपने कार्य को समयानुसार पूरा करने में कोई बाधा उत्पन्न न हो, ही प्रबन्ध कहा जाएगा।
(3) प्रबन्ध मानवीय तथा भौतिक संसाधनों के सदुपयोग से सम्बन्ध रखता है (Management is related to the best utilisation of human physical resources)- एक संस्था या उपक्रम के समस्त मानवीय तथा भौतिक (कच्चा माल, मशीनें, आदि) संसाधनों का संस्था एवं उपभोक्ता के हित में सदुपयोग करना ही प्रबन्ध है। इसमें वे सभी तकनीक तथा प्रयास सम्मिलित हैं जो संसाधनों के सदुपयोग द्वारा न्यूनतम लागत पर वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन करके उपभोक्ता को संतुष्टि प्रदान करते हैं और सामाजिक कल्याण में वृद्धि करते हैं।
(4) प्रबन्ध एक विशिष्ट प्रक्रिया है (Management is a distinct process) – प्रबन्ध एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें किसी कार्य को सम्पन्न कराने के लिए योजना निर्माण, संगठन, संरचना, समन्वय, कर्मचारी उत्प्रेरणा, निर्देशन व नियंत्रण का सहारा लिया जाता है अर्थात् किसी कार्य को कैसे किया जाए, क्या संगठन प्रारूप हो, कर्मचारियों को कार्य के लिए कैसे प्रेरित किया जाए तथा किस प्रकार उनके कार्यों का समन्वय व मूल्यांकन किया जाए ये सभी प्रबन्धकीय पहलू हैं। जो एक संस्था के जीवनकाल से निरंतर सोचे जाते हैं और कार्यान्वित किए जाते हैं। यही प्रबन्ध है।
(5) प्रबन्ध सार्वभौमिक है (Management is universal) – प्रारम्भ में प्रबन्धशास्त्र को केवल व्यावसायिक अथवा औद्योगिक उपक्रमों तक ही सीमित रखा गया था, परन्तु अब यह सार्वभौमिक हो गया है। अब प्रबन्ध सिद्धांत गैर-व्यावसायिक उपक्रमों, जैसे अस्पतालों, शिक्षण संस्थाओं, क्लबों, होटलों तथा नागरिक प्रशासन तक में लागू होते हैं। इसी प्रकार प्रबन्ध के सिद्धांत अब विश्व के सभी राष्ट्रों—विकसित व विकासशील, प्रजातांत्रिक व साम्यवादी जैसे यू. एस. ए. व यूरोपीय देश, सोवियत रूस, भारत, चीन, जापान, सिंगापुर, आदि में लागू हो रहे हैं।
(6) प्रबन्ध एक आर्थिक तन्त्र है (Management is an economic organ) – यद्यपि प्रबन्ध सिद्धांत व्यावसायिक एवं गैर व्यावसायिक सभी उपक्रमों में लागू होते हैं तथापि ये मूल रूप में आर्थिक पक्ष पर आधारित हैं। गैर-व्यावसायिक उपक्रमों में भी प्रबन्ध का मुख्य उद्देश्य आर्थिक संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग करना ही होता है।
(7) प्रबन्ध विभिन्न-स्तरीय प्रशासनिक कार्य है (Management is a multi-level executive function)- एक उपक्रम में प्रबन्ध में कई स्तर होते हैं; जैसे सर्वोच्च प्रबन्ध (Top management), मध्य-स्तरीय प्रबन्ध (Middle-level management), तथा प्रथम स्तरीय प्रबन्ध (Lower-level management), परन्तु इन सभी स्तरों पर प्रबन्धक वर्ग समयानुकूल निर्णय लेकर श्रमिक समूहों से कार्य सम्पन्न कराते हैं। वास्तव में वे स्वयं कार्य नहीं करते।
(8) प्रबन्ध साधारणतया स्वामित्व से भिन्न होता है (Management is normally separate form ownership) – संयुक्त स्कन्ध कम्पनियों की दशा में अंशदायी स्वामी होते हैं, परन्तु वे प्रबन्धक नहीं होते। प्रबन्धक वर्ग अंशधारियों की ओर से प्रबन्ध कार्य करता है । साझेदारी फर्मों तथा वैयक्तिक व्यवसायों व गैर-व्यावसायिक संस्थाओं में यद्यपि कुछ प्रबन्धकीय कार्य स्वामी करते हैं, परन्तु विशिष्ट कार्यों के लिए पृथक् प्रबन्धक ही रखे जाते हैं ।
(9) प्रबन्ध कला और विज्ञान दोनों है (Management is an art and science both)- कर्मचारियों से कार्य सम्पन्न कराने सम्बन्धी प्रबन्धकीय व्यवहार एक कला है तथा कार्य सम्पन्न कराने में प्रयुक्तं प्रबन्धकीय सिद्धांत एक विज्ञान का रूप है। अतः प्रबन्ध कला और विज्ञान दोनों ही माना जाता है।
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