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निदेशन की परिभाषा (DEFINITION OF DIRECTION)
कूण्ट्ज एवं ओ’ डोनेल के अनुसार, “अधीनस्थों के पथ-प्रदर्शन तथा पर्यवेक्षण का प्रबन्धकीय कार्य ही निदेशन कहलाता है।” वास्तव में निदेशन के अन्तर्गत अभिप्रेरणा, नेतृत्व तथा सम्प्रेषण तीनों ही तत्व सम्मिलित हो जाते हैं। इसीलिए कुछ प्रबन्धशास्त्री निदेशन को अग्र प्रकार परिभाषित करते हैं:
“निदेशन प्रबन्ध का एक ऐसा कार्य है जो संगठन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए संगठन के कर्मचारियों को निर्देश, पथ-प्रदर्शन तथा अभिप्रेरणा प्रदान करता है। “
“निदेशन कार्य मानवीय संसाधनों को दिशा-निर्देश देने तथा प्रबन्ध करने से सम्बन्ध रखता है। यह व्यक्ति व समूह लक्ष्यों को उपक्रम लक्ष्यों से एकीकृत कर संगठन के सदेश्यों को प्राप्त करने में सहायता करता है। “
“निदेशन प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण कार्य है जिसके अन्तर्गत अधीनस्थों को सूचनाएं सम्प्रेषित की जाती हैं, नेतृत्व प्रदान किया जाता है तथा संगठनात्मक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए उन्हें अधिकतम सामर्थ्य तक कार्य करने के लिए अभिप्रेरित किया जाता है।”
निदेशन के उद्देश्य तथा महत्व (OBJECTIVES AND SIGNIFICANCE OF DIRECTION)
एक उपक्रम में निदेशन की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण मानी जाती है, क्योंकि निदेशन कार्य को सम्पन्न कराने से सम्बन्ध रखता है और इस रूप में उसकी भूमिका रचनात्मक मानी जाती है। सामान्यतया निदेशन के निम्न लाभ कहे जा सकते हैं :
(1) योजनाओं का कार्यान्वयन (Implementation of Plans) – एक उपक्रम के प्रबन्धकीय कार्यों को तीन प्रमुख भागों में बांटा जाता है— (i) नियोजन एवं संगठन, (ii) योजनाओं का कार्यान्वयन, (iii) नियंत्रण। इनमें योजनाओं का कार्यान्वयन ही प्रबन्ध का सार है जो निदेशन में निहित है।
(2) संसाधनों को सक्रिय बनाना (Making Resources Active) – प्रत्येक उपक्रम में मानवीय एवं भौतिक संसाधन मिलकर उत्पादक बनते हैं। इनको उत्पादक या सक्रिय बनाने का कार्य निदेशन करता है। निदेशन ही संस्था के साधनों को संस्था के लक्ष्यों की ओर समग्र रूप में मोड़ता है।
(3) मानवीय प्रयासों में समन्वय पैदा करना (Creating Co-ordination in Hlunane Efforts)- एक उपक्रम में मात्र अच्छे कर्मचारियों की भर्ती कर लेना पर्याप्त नहीं है। बल्कि इससे अधिक महत्वपूर्ण है इन कर्मचारियों के प्रयासों में समन्वय उत्पन्न करना ताकि वे एक साथ मिलकर वांछित दिशा में प्रवाहित हो सकें। इस कार्य को निदेशन द्वारा ही किया जा सकता है। निदेशन ही उन्हें यह बताएगा कि कब, कैसे और क्या करना है।
(4) परिवर्तनों को सम्भव बनाना (Facilitating Changes) – निदेशन ही एक उपक्रम में परिवर्तनों को सम्भव बनाता है। सामान्यतया यह देखा गया है कि कर्मचारी प्रत्येक परिवर्तन का विरोध करते हैं, परन्तु आधुनिक युग में बाह्य वातावरण के साथ सामंजस्य बनाए रखने तथा उपक्रम को आगे बढ़ाने के लिए परिवर्तन अवश्यम्भावी हैं। निदेशन परिवर्तनों को इस गति और ढंग से कार्यान्वित करता है जिससे वे कर्मचारियों को स्वीकार्य हो जाएं।
(5) कार्यक्षमता में सुधार (Improving Efficiency) – एक संस्था में प्रत्येक व्यक्ति सामर्थ्यवान होता है, आवश्यकता है उस सामर्थ्य को जगाना और लक्ष्य प्राप्ति की ओर सक्रिय करना। निदेशन कार्य इसे सम्भव बनाकर, उपक्रम की कार्यक्षमता में सुधार करता है।
निदेशन के सिद्धांत (STATE TECHNIQUES OF DIRECTION)
सामान्यतया निदेशन के निम्न प्रमुख सिद्धांत कहे जाते है:
(1) उद्देश्यों के सामंजस्य का सिद्धांत (Principle of Harmony Objectives)- यह सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि उपक्रम के उद्देश्यों और कर्मचारी के उद्देश्यों में सामंजस्य होना चाहिए। यद्यपि उपक्रम के उद्देश्य कर्मचारी के उद्देश्य से ऊपर रखे जा सकते हैं। जब इन दोनों के उद्देश्य एकीकृत होते हैं तो उपक्रम के उद्देश्यों को प्राप्त करने में कर्मचारियों का अधिकतम योगदान मिलता है और निदेशन कार्य प्रभावी बन जाता है।
(2) निदेशन की दक्षता का सिद्धांत (Principle of Effciency of Direction) – यह सिद्धांत यह इंगित करता है कि निदेशन को प्रभावी बनाने के लिए प्रबन्धकों एवं अधीनस्थों के मध्य उचित सम्प्रेषण (communication) तथा उपयुक्त अभिप्रेरणा एवं नेतृत्व तकनीक अपनाई जानी चाहिए।
(3) आदेश की एकात्मकता का सिद्धांत (Principle of Unity of Command)- प्रभावी निदेशन के लिए यह आवश्यक है कि अधीनस्थों को आदेश व निर्देश एक ही वरिष्ठ अधिकारी’ से प्राप्त हो, नहीं तो भ्रम की अवस्था तथा अनुशासनहीनता पैदा हो जाने का खतरा हो जाता है।
(4) निदेशन की एकात्मकता का सिद्धांत (Principle of Unity of Direction)- निदेशन की एकात्मकता का सिद्धांत यह इंगित करता है कि समान उद्देश्यों वाली क्रियाओं के एक समूह के लिए एक योजना तथा एक बॉस ही होना चाहिए तभी उद्देश्य सही ढंग से प्राप्त हो सकेगा। निदेशन की एकात्मकता का सिद्धांत सुदृढ़ संगठन पर जोर देता है और आदेश की एकात्मकता इसमें सन्निहित मानी जाती है।
(5) प्रत्यक्ष पर्यवेक्षण का सिद्धांत (Principle of Direct Supervision)– यह सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि वरिष्ठ प्रबन्धक को अपने अधीनस्थ के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध रखना चाहिए ताकि आपसी मौखिक संदेशवाहन तथा अनौपचारिक सम्बन्धों की स्थापना हो सके। यह कर्मचारियों में बॉस के प्रति विश्वास जाग्रत करने में सहायक है।
(6) प्रजातांत्रिक नेतृत्व का सिद्धांत (Principle Democratic Leadership)- निदेशन को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए यह आवश्यक है कि नेतृत्व अपने अधीनस्थों के विचारों को सम्मान दे। उनकी कार्य करने की शैली निरंकुश न होकर परामर्शात्मक प्रकृति की हो। अच्छे कार्य को पुरस्कृत करना भी निदेशन को प्रभावपूर्ण बनाता है।
(7) अनुपरीक्षण का सिद्धांत (Principle of Follow-up)- निदेशन एक सतत् प्रबन्धकीय प्रक्रिया है। मात्र आदेश या निर्देश दे देना पर्याप्त नहीं होता बल्कि निर्देशों के बाद अधीनस्थों के काम का निरंतर अनुपरीक्षण किया जाना चाहिए तथा उन्हें कार्य में सुधार हेतु मार्गदर्शन दिया जाना चाहिए।
(8) अनौपचारिक संगठन का रणनीतिक प्रयोग (Strategic use of Informal Organisation)- प्रबन्ध को चाहिए कि वह संस्था में पनपे अनौपचारिक समूहों को समझे तथा औपचारिक सम्बन्धों को सुदृढ़ बनाने में उनका उपयोग करे। इससे निदेशन प्रभावी बनेगा। एक प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को विभिन्न तरीकों से निदेशित करता है। इन्हें तीन भागों में बांटा जाता है।
निदेशन की तकनीकें (TECHNIQUES OF DIRECTION)
(1) अधिकार अन्तरण या भारार्पण द्वारा- इसकी व्याख्या अध्याय 7 में की गई है।
(2) सम्प्रेषण की प्रभावी विधि द्वारा- इसका वर्णन अध्याय 11 में किया गया है।
(3) आदेश व निर्देशों द्वारा- आदेश व निर्देश प्रबन्धक के निर्णय होते हैं जो अधीनस्थों को कार्यरत हेतु दिए जाते हैं। इस तकनीक को अपनाते समय निम्न तथ्य ध्यान में रखने होंगे-
(i) आदेश व निर्देशा न्यायोचित तथा लागू किए जा सकने योग्य हों।
(ii) ये अधीनस्थों के मनोबल को बढ़ाने में सहायक हों।
(iii) ये स्पष्ट तथा पालन किए जाने योग्य हों।
(iv) ये लिखित में हो तो अधिक प्रभावी होंगे।
(v) इनमें अधीनस्थों के हित निहित हों ताकि वे इनके पालन करने में सहयोग करें, इनका विरोध न करें।
(vi) इनमें कार्य तथा पारिश्रमिक का संतुलन बनाए रखा जाए जिससे अधीनस्थ प्रेरित हो सकें।
यहां यह ध्यान दिया जाए कि मात्र आदेश व निर्देश प्रेषित कर देने से कार्य सम्पन्न नहीं हो जाएगा।
इसके तुरंत बाद कार्य तालिका व निष्पादन रिपोर्ट (Performance report) ली जाए तथा फीडबैक औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों तरीकों से लिया जाए। यदि कहीं अधीनस्थों का विरोध हो तो उसकी सुनवाई कर आदेशों में संशोधन किया जा सकता है।
निदेशन की अवधारणा (CONCEPT OF DIRECTION)
निदेशन कार्य एक उपक्रम में मानवीय सम्बन्धों के ऐसे प्रबन्ध तथा सदुपयोग से सम्बन्ध रखता है जिसमें कि व्यक्ति-समूहों के लक्ष्यों तथा उपक्रम के लक्ष्यों में एक सामंजस्य पैदा हो जाए। यह प्रबन्धक का अति महत्वपूर्ण कार्य है। एक बार को प्रबन्धक नियोजन तथा संगठन कार्य में ढिलाई बरत सकता है, परन्तु निदेशन कार्य में नहीं अन्यथा तो उसके अधीनस्थ लक्ष्यविहीन, आलसी तथा अनुत्पादक हो जाएंगे।
विस्तृत अर्थ में, निदेशन अधीनस्थों को परामर्श, प्रोत्साहन, पर्यवेक्षण तथा आदेश देने से सम्बन्ध रखता है ताकि वे अपने कर्तव्यों तथा दायित्वों का भली-भांति पालन कर सकें। निदेशन में व्यक्तियों को केवल यह नहीं बताया जाता है कि उन्हें क्या कार्य करना है, बल्कि उस कार्य को करने का ढंग तथा कार्य के प्रति इच्छा भी जाग्रत करनी होती है। इसके लिए उन्हें प्रेरक (Incentives) भी दिए जा सकते हैं। इस प्रकार अधीनस्थों से उनको आवण्टित कार्य समयबद्ध ‘तरीके से सम्पन्न कराया जाता है। इस प्रकार निदेशन कार्य में निम्न को सम्मिलित किया जाता है।
(i) अधीनस्थों में कार्य का योग्यतानुसार आवण्टन; जाना;
(ii) कार्यविधि, कार्य तकनीक एवं अन्य निदेश दिया
(iii) कार्य दक्षता हेतु उचित प्रोत्साहन देना;
(iv) कार्य के समय उन्हें नेतृत्व प्रदान करना तथा कार्य का पर्यवेक्षण करना आदि। मौटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि निदेशन के अन्तर्गत अभिप्रेरणा, नेतृत्व, सम्प्रेषण व नियंत्रण सभी शामिल हैं।
निदेशन की प्रकृति या तत्व (NATURE OR ELEMENTS OF DIRECTION)
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर निदेशन के निम्न लक्षण कहे जा सकते हैं-
(1) महत्वपूर्ण प्रबन्धकीय कार्य- निदेशन एक महत्वपूर्ण प्रबन्धकीय कार्य है जिसमें वरिष्ठ प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को आदेश तथा निर्देश देते हैं तथा उन्हें कार्य करने का सही ढंग सुझाते हैं, कार्य का निरीक्षण करते हैं तथा यह सुनिश्चित करते हैं कि कार्य योजनानुसार हो रहा हैं।
(2) सम्पूर्ण उपक्रम में फैला हुआ कार्य- निदेशन कार्य एक उपक्रम के सभी विभागों तथा उप-विभागों में लागू रहता है। प्रत्येक प्रबन्धक दोनों रूपों में कार्य करता है- एक स्थान पर अधीनस्थ के रूप में तो दूसरे स्थान पर वरिष्ठ प्रबन्धक या निदेशक के रूप में।
(3) सतत प्रक्रिया – निदेशक एक सतत् प्रक्रिया है जो सम्पूर्ण उपक्रम में वर्षभर निरंतर चालू रहती है। वरिष्ठ प्रबन्धक अपने अधीनस्थों को कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करता है और कार्य पूरा कराता है।
(4) अनुशासन से सम्बन्धित- निदेशक या वरिष्ठ प्रबन्धक अपने अधीनस्थों में अनुशासन बनाए रखने तथा अच्छे परिणामों के लिए पुरस्कृत करने का भी कार्य करते हैं।
(5) सृजनात्मक कार्य- निदेशन योजना को कार्यरूप में परिवर्तित करता है। बगैर निदेशन के उपक्रम में कार्यरत कर्मचारी निष्क्रिय हो जाते हैं तथा भौतिक संसाधनों का उपयोग नहीं हो पाता। वास्तव में निदेशन का अर्थ है- सक्रिय प्रबन्ध।
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