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भावी प्रबन्ध को प्रभावित करने वाली शक्तियां या प्रवृत्तियां (FORCES OR TRENDS AFFECTING FUTURE MANAGEMENT)
भावी प्रबन्ध को प्रभावित करने वाली शक्तियां या प्रवृत्तियां- प्रबन्ध के भविष्य पर दृष्टिपात करने के लिए, हमें उन उभरती हुई शक्तियों या प्रवृत्तियों को समझना होगा जो भविष्य के प्रबन्ध के लिए चुनौतियां प्रस्तुत कर सकती हैं। ये शक्तियां या प्रवृत्तियां निम्न हो सकती हैं-
(1) सेवा क्षेत्र का विकास (Growth of Service Sector) – लगभग सभी अर्थव्यवस्थाओं में विकास की तीन क्रमिक अवस्थाएं पाई जाती हैं। प्रारम्भिक अवस्था कृषि अर्थव्यवस्था का विकास है, इसके बाद उद्योगों, विशेषकर निर्माणी उद्योगों का विकास होता है और तृतीय एवं अन्तिन अवस्था में सेवा क्षेत्र जैसे, बैंक, बीमा, यातायात, संदेशवाहन, थोक एवं फुटकर व्यापार, मरम्मत कार्य, परामर्श सेवाएं तथा पेशेवर सेवाओं का विकास होता है। औद्योगिक रूप से विकसित देश यू.एस.ए. इंग्लैण्ड व यूरोप के देश लगभग 200 वर्षों के औद्योगीकरण के बाद अब सेवा क्षेत्र के विकास की ओर बढ़ चुके हैं तथा भारत एवं अन्य एशियाई विकासशील देश भी अगले कुछ दशकों में सेवा क्षेत्र के तीव्र विकास की ओर उन्मुख हो जाएंगे। इन राष्ट्रों में सेवा क्षेत्र के विकास से निम्न नई स्थितियां उत्पन्न होती हैं:
(अ) तकनीकी ज्ञान वाले कर्मचारियों (Knowledge workers) में वृद्धि – सेवा क्षेत्र के विकास के फलस्वरूप तकनीकी ज्ञान रखने वाले कर्मचारियों की संख्या का अनुपात बढ़ेगा, क्योंकि अब वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान की उत्पादकता में वृद्धि करने वाला प्रमुख घटक होगा। इसकी तुलना में परम्परागत श्रम, अर्थात् शारीरिक श्रम का महत्व घट जाएगा। तकनीकी ज्ञान वाले कर्मचारियों के लिए संगठन में परिवर्तन करना आवश्यक हो जाएगा।
(ब) नई टेक्नोलॉजी का उदय- सेवा क्षेत्र का विकास नई टेक्नोलॉजी विशेषकर कम्प्यूटर्स के विकास को प्रोत्साहन देगा। कम्प्यूटर्स द्वारा ज्ञान (सूचनाओं) का एकत्रीकरण, भण्डारण, विश्लेषण तथा प्रयोग किया जाएगा। अतः संगठन में आवश्यक परिवर्तन करने होंगे।
(स) कारखाना प्रणाली में परिवर्तन- सेवा क्षेत्र के अन्तर्गत श्रमिकों पर आधारित कारखानों का महत्व कम हो जाएगा और इसके स्थान पर ऐसे उपक्रमों या संस्थाओं की संख्या बढ़ेगी जिनमें अकुशल श्रमिक कम, परन्तु कुशल एवं तकनीकी ज्ञान वाले कर्मचारियों की संख्या अधिक होगी।
(द) वितरण समस्या का उदय- सेवा क्षेत्र के अन्तर्गत उत्पादन कार्य मशीनों द्वारा अधिकांशतः किया जाएगा, अतः उत्पादन की समस्या नहीं रहेगी बल्कि उस उत्पादन को सही प्रकार से वितरित करने की समस्या उत्पन्न होगी अर्थात् माल एवं सेवाओं को उपभोक्ता तक पहुँचाने की चुनौती का सामना करना होगा।
(2) उच्च जीवन स्तर की आकांक्षा (Expectation of High Standard of Living)- विश्व की अधिकांश जनसंख्या अभी विकासशील राष्ट्रों में निवास कर रही है। ये सभी लोग यह आकांक्षा रखते हैं कि उनका भी जीवन स्तर यू.एस.ए., इंग्लैण्ड या यूरोपवासियों जैसा ऊंचा हो, परन्तु दूसरी ओर विश्वभर में ऊर्जा संकट, प्रदूषण समस्या, संसाधनों के नष्ट होने की समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है जो उच्च जीवन-स्तर की आकांक्षाओं को पूरा करने में बाधक होगी। ऐसी दशा में प्रबन्ध को इस नई चुनौती का सामना करना होगा।
(3) बहुराष्ट्रीय निगमों का फैलाव (Spread over of Multinations)- अगले दशकों में उदार आर्थिक नीतियों के अन्तर्गत विकासशील राष्ट्रों में विकसित देशों के बहुराष्ट्रीय निगमों का तीव्र फैलाव अवश्यम्भावी है। इनका आकार विशालतम होगा जिसको दक्षतापूर्ण तरीके से प्रबंधित करना एक चुनौती होगी। साथ ही इन निगमों की प्रबन्धकीय तकनीकें आमंत्रित राष्ट्र (Host Country) में कार्यरत स्थानीय उपक्रमों के प्रबन्ध को चुनौती देंगी।
(4) मानवतावादी समाज का उदय (Emergence of Humanistic Society) – भविष्य में ज्ञानवान कर्मचारियों की वृद्धि, सेवा उपक्रमों का विकास तथा उच्च जीवन स्तर की आकांक्षा अधिक मानवतावादी समाज को जन्म देगी जिनमें कर्मचारी अधिक स्वायत्तता तथा प्रबन्ध में सहभागिता चाहेंगे, उपभोक्ता अच्छी किस्म का माल, विक्रयोपरान्त सेवा तथा अच्छा व्यवहार चाहेंगे तथा जनसमुदाय के लोग प्रदूषण से मुक्ति चाहेंगे। इन सभी चुनौतियों का सामना प्रबन्ध को करना होगा और प्रबन्ध को सामाजिक दृष्टि से अधिक उत्तरदायी बनना पड़ेगा।
(5) परिवर्तन का विरोध (Resistance to Change)- भावी दशकों में औद्योगिक उपक्रमों में नई टेक्नोलॉजी तथा बढ़ती हुई प्रतिस्पर्द्धा तीव्र परिवर्तन पैदा करेंगे। जो कर्मचारियों की सेवा सुरक्षा, कार्य करने के ढंग पर प्रभाव डालेंगे और कर्मचारी इनका विरोध करेंगे। उदाहरण के लिए, भारत में बैकों या बीमा कम्पनियों में कम्प्यूटर्स का प्रयोग कर्मचारियों की छंटनी या भावी नियुक्तियों पर रोक लगाने को प्रोत्साहित करता है। ऐसे परिवर्तन यद्यपि उत्पादकता में वृद्धि के लिए आवश्यक हैं, परन्तु इनका तीव्र स्वर में विरोध होगा। अतः भविष्य में प्रबन्ध को इस विरोध को चुनौती के रूप में लेकर इसका समाधान खोजना होगा।
(6) विदेशी सांस्कृतिक ज्ञान (Foreign Cultural Knowledge)- चूंकि भूमण्डलीकरण तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगमन से प्रबन्धकों की नियुक्तियां विदेशों में कर दी जाती हैं। अतः यह आवश्यक हो गया कि प्रबन्धक विदेशी संस्कृति व रीति-रिवाजों को समझें अन्यथा उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार विस्तार करने तथा विदेशी कम्पनियों में सफलतापूर्वक प्रबन्ध कर पाने में कठिनाई उत्पन्न होगी। उदाहरण के लिए, कुछेक यूरोप के देशों में एक दर्जन से कम फूल सम संख्या (Even number) में दिया जाना अशुभ माना जाता है तथा यह केवल दाह संस्कार (funerals) के लिए ही उपयुक्त होता है, उपहारस्वरूप नहीं। इसी प्रकार व्यावसायिक दावतों में चीन में प्लेट का खाना पूरा खा लेना, रूस में मेज पर खाली बोतल रखे रहना गैर-सांस्कृतिक माना जाता है। जापान में व्यावसायिक कार्ड को केवल एक हाथ में पकड़ना तथा बिना पढ़े जेब में रख लेना असभ्यता का परिचायक माना जाता है।
(7) सामाजिक उत्तरदायित्व पर जोर (Emphasis on Social Responsibility)- गत कुछ दशकों में विश्व भर में व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व पर तीक्ष्ण बहस हुई है. और अब यह सर्वमान्य तथ्य बन गया है कि कम्पनियों का समाज के प्रति जो दायित्व है उसका सद्भावनापूर्ण ढंग से निर्वहन किया जाए। प्रबन्धकों के सामने इससे एक समस्या उत्पन्न होती है कि कम्पनी के लाभों को समाज पर व्यय करने पर अंशधारी विरोध करेंगे। ऐसी दशा में प्रबन्धकों को सामाजिक उत्तरदायित्व की ऐसी योजनाओं का आविष्कार करना होगा जो न केवल कम्पनी की रणनीति में ही समावेशित की जा सकें बल्कि दीर्घकाल तक आर्थिक एवं उपयोगिता की दृष्टि से सुदृढ़ बनी रहें। आई.टी.सी. कम्पनी की ई. चौपाल योजना इसका एक अच्छा उदाहरण है जो कम्पनी तथा समाज दोनों के लिए लाभप्रद है। इसमें आई.टी.सी. आन्ध्र प्रदेश के किसानों से तम्बाकू क्रय करती है तथा उन्हें उपभोक्ता वस्तुएं तथा कम्प्यूटर द्वारा मौसम एवं अन्य कृषि सूचनाएं केन्द्रीकृत रूप में प्रदान करती है। इस योजना द्वारा तम्बाकू से किसानों के जीवन स्तर में तीव्र वृद्धि हुई है। इसी प्रकार भारतीय स्टेट बैंक ने एशिया के सबसे बड़े वेश्या क्षेत्र “सोनागाची” में अधिकांश वेश्याओं को बचत खाते खुलवाने के लिए प्रेरित कर उनकी बचत आदतों में बदलाव पैदा किया है। यह ऐसी समाज सेवा है जिसमें व्यावसायिक लक्ष्य अन्तर्निहित है।
(8) नैतिक मूल्यों पर जोर (Emphasis on Business Ethics) – हाल के वर्षों में न केवल भारत में बल्कि यू.एस.ए. व अन्य विकसित राष्ट्रों में भी इस बात की पुरजोर वकालत की गई है कि कम्पनी प्रबन्धक व्यावसायिक हितों के साथ-साथ नैतिक मानदण्डों का पूर्ण निष्ठा के साथ पालन करें। अंशधारियों, उपभोक्ताओं, विनियोक्ताओं तथा समाज के अन्य वर्गों को धोखा देना, गलत सूचनाओं द्वारा भ्रमित करना, कम्पनी के कोषों का दुरुपयोग करना, लेखापुस्तकों में कपटपूर्ण तथ्य दर्शाना अनैतिक कार्य है। यह प्रबन्धकों के लिए एक चुनौती है कि वे जन-सामान्य को कम्पनी के क्रिया-कलापों, लाभप्रदता, वित्तीय स्थिति की सही जानकारी उपलब्ध कराने का साहस जुटायें अन्यथा एनरॉन पावर कं., सिटी बैंक जैसे अन्तर्राष्ट्रीय संस्थान के दिवालिया हो जाने जैसी निकृष्ट घटनाएं होती रहेंगी।
(9) सूचना क्रांति (Information Revolution) – गत दो दशकों में भारत सहित विश्व के सभी राष्ट्रों में सूचना क्षेत्र में एक क्रांति आ गई है जिसने सम्प्रेषण को तीव्रगामी बना दिया है। परिणामस्वरूप कम्पनियों में प्रबन्ध कतारें (management layers) घटकर लगभग आधी रह गई हैं। श्रमिक या कर्मचारी अधिक शिक्षित तथा जागरूक हो गया है और वह आधुनिक सूचना तंत्र का उपयोग कर पाने में सक्षम है। ऐसे कर्मचारियों को भूतकाल की तरह आदेश देने तथा नियंत्रण में रखने की आवश्यकता नहीं रह गई है। ऐसे में प्रबन्धकों के सामने यह चुनौती पैदा हो गई है कि वे सूचना तंत्र का सदुपयोग कर सकें जिसके लिए कम्पनी संगठन में आवश्यक समायोजन करना होगा। कम्प्यूटर पर आधारित सूचना तंत्र में स्व-अनुशासन तथा नियमित फीडबैक की महती आवश्यकता है।
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