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वित्तीय विवरणों के विश्लेषण एवं निर्वचन से आशय, उद्देश्य, कार्य विधि, उपयोगिता व महत्व, सीमाएँ

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वित्तीय विवरणों के विश्लेषण एवं निर्वचन से आशय, उद्देश्य, कार्य विधि, उपयोगिता व महत्व, सीमाएँ

वित्तीय विवरणों के विश्लेषण एवं निर्वचन से आशय (Meaning of Analysis and Intgerpretation of Financial Statements)

वित्तीय विवरणों के विश्लेषण एवं निर्वचन का अर्थ- इन विवरणों में दिये गये तथ्यों को किसी वैज्ञानिक रीति से सुविधाजनक भागों में वर्गीकृत तथा विन्यासित करने से है ताकि इससे महत्वपूर्ण. निष्कर्ष निकाले जा सकें।

फिने तथा मिलर के अनुसार, “ वित्तीय विश्लेषण में कुछ निश्चित योजनाओं के आधार पर तथ्यों का विभाजन करना, निश्चित परिस्थितियों के अनुसार उन्हें वर्गों में विभाजित करना तथा सुविधाजनक एवं आसान समझने योग्य रूप में प्रस्तुत करना शामिल है।”

विश्लेषण का अगला कदम निर्वचन होता है। निर्वचन से आशय एक निश्चित अवधि के अन्तर्गत विश्लेषित वित्तीय व्यवहारों के आलोचनात्मक परीक्षण तथा निष्कर्ष निकालने से है। इस प्रकार विश्लेषण व निर्वचन दो पृथक क्रियायें है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि विश्लेषण से आशय तथ्य ज्ञात करने तथा जटिल अंको को सरल भागों में विभाजित करने की प्रक्रिया से है जबकि निर्वचन से आशय इन सरलीकृत भागों की वास्तविक महत्ता के निर्वचन से है। दोनों क्रियाओं का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है। एक के बिना दूसरी व्यर्थ है। विश्लेषण के अभाव में निर्वचन नहीं किया जा सकता तथा निर्वचन के बिना विश्लेषण का कोई अर्थ नहीं है।

अतः वित्तीय विवरणों के विश्लेषण व निर्वचन के अन्तर्गत तथ्यों का विश्लेषण तथ्यों के मध्य सम्बन्ध स्थापन व उसके आधार पर निष्कर्ष निकालना आदि क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है।

विश्लेषण व निर्वचन के उद्देश्य (Objects of Analysis and Interpretation)

(1) समकक्ष उद्योग में कार्यरत अन्य इकाइयों के साथ संचालन सम्बन्धी अध्ययन करना।

(2) आय सम्बन्धी विवरणों की सहायता से विभिन्न व्यावसायिक क्रियाओं की क्षमता व अर्जन शक्ति की जाँच करना।

(3) संस्था की भावी सम्भावनाओं का अन्वेषण करना।

(4) व्यवसाय की भावी प्रगति व लाभार्जन शक्ति का निर्धारण करना।

(5) ऋण लेने वाली व्यावसायिक संस्था की वित्तीय स्थिति व देय क्षमता के विषय में ज्ञात प्राप्त करना।

(6) स्थिति विवरण की सहायता से व्यवसाय की अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन शोधन क्षमता का निर्धारण करना।

(7) एक व्यावसायिक संस्था के प्रबन्ध द्वारा निजी कार्यक्षमता और निष्पादन क्षमता का निर्धारण करना।

(8) स्कन्ध तथा स्थायी सम्पत्तियों के विनियोग की समीक्षा करना।

निष्कर्षः इस प्रकार वित्तीय विश्लेषण व निर्वचन के अनेक उद्देश्य होते है जो विश्लेषण के दृष्टिकोण, कम्पनी के हित, विश्लेषण में वांछनीय गहनता, उपलब्ध वित्तीय संमंको तथा सूचनाओं की मात्रा, गुणों आदि तत्वों पर निर्भर करते है। प्रबन्ध के लिए यह स्वयं मूल्यांकन का एक साधन है क्योंकि यह उसकी प्रबन्धकीय चतुरता तथा सामर्थ्य पर एक प्रतिवेदन स्वरूप है।

वित्तीय विवरणों के विश्लेषण व निर्वचन की कार्य विधि (Procedure of Analysis and Interpretation of Financial Statements)

वित्तीय विवरणों का निर्वचन भले ही कोई भी व्यक्ति करे, इसके लिये निम्न कार्य-विधि अपनायी जाती है:-

(1) विश्लेषण व निर्वचन का उद्देश्य व सीमा निर्धारित करना- उद्देश्य व सीमा पर ही निर्वचन की विधियों का चुनाव आधारित होता है। विश्लेषण की सीमा का निर्धारण उसके उद्देश्यो पर निर्भर करता है। यदि किसी विश्लेषण को कम्पनी की आर्थिक स्थिति का अध्ययन करना है तो उसके लिए केवल आर्थिक चिट्ठे का अध्ययन ही पर्याप्त नहीं होगा वरन् उसे लाभ-हानि खाते का भी पूर्ण अध्ययन करना होगा। इसी प्रकार यदि वह कम्पनी की भावी सम्भावनाओं के बारे में ज्ञान प्राप्त करना चाहता है तो उसे दोनों विवरणों का अध्ययन करना होगा।

(2) वित्तीय समंको का पुनर्विन्यास करना- पुनर्विन्यास से आशय समंको की दूर करके उन्हें सरल बनाना होता है। विश्लेषण हेतु वित्तीय विवरणों में प्रकाशित मदों जटिलता को को उचित व स्पष्ट वर्गों में विभाजित किया जाता है ताकि विश्लेषण हेतु अधिकतम सूचनाएँ प्राप्त की जा सके। वित्तीय विवरण के मौलिक अंको का सन्निकटता के आधार पर पूर्णांक बना लिया जाता है।

(3) वित्तीय विवरणों का अध्ययन करना- दोनों वित्तीय विवरणों में सूचनाओं तथा उनके महत्व का आंकलन करने हेतु वित्तीय विवरणों का सामान्य अध्ययन करना अनिवार्य होता है।

(4) उपयोगी सूचनाओं का एकत्रीकरण- विश्लेषण करने हेतु ऐसी अन्य उपयोगी सूचनाएँ जो कि उन विवरणों से स्पष्ट नहीं हो रही प्रबन्धकों से पहले ही प्राप्त कर लेनी चाहिए।

(5) समंको का तुलनात्मक अध्ययन- वित्तीय विवरणों के ऊपरी तौर पर तथा निरपेक्ष परीक्षण से ही उचित निष्कर्षो की आशा नहीं की जा सकती। वित्तीय विवरणों की मदों का विभिन्न भागों व उपभागों में वर्गीकरण करने के उपरान्त उनकी सापेक्षिकता का माप अनिवार्य हो जाता है।

(6) रिपोर्ट के रूप में प्रस्तुतीकरण- वित्तीय विवरण के निर्वचन से ज्ञात निष्कर्षों को प्रतिवेदन के रूप में प्रबन्ध के समक्ष प्रस्तुत करना ही प्रस्तुतीकरण कहलाता है। प्रबन्ध को सूचित करना भी कहते हैं।

(7) एक संस्था के वित्तीय विवरण सदैव दूसरी संस्था से तुलना योग्य नहीं- एक संस्था के वित्तीय विवरणों के समंक सदैव दूसरी संस्था के समंकों के पूर्णरूप से तुल्य नहीं होते। क्योंकि विभिन्न व्यावसायिक संस्थाओं की कार्य-पद्धति, वस्तु या सेवा की प्रकृति, संयन्त्र की लागत, अर्थ प्रबन्धन पद्धति आदि में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। चालू सम्पत्तियों व दायित्वों की परिभाषा के सम्बन्ध में भी दो कम्पनियों में भिन्नता पायी जाती है।

वित्तीय विवरणों के विश्लेषण तथा निर्वचन की उपयोगिता व महत्व (Utility and Significance of the Analysis and Interpretation of Financial Statements)

वित्तीय विवरणों का विश्लेषण व व्यख्या एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसकी सहायता से प्रबन्धक, बैंक, ऋणता तथा विनियोक्ता उपयोगी निष्कर्ष निकालते हैं। केवल सैद्धान्तिक ज्ञान के आधार पर लिये गये निर्णयों की तुलना में समुचित विश्लेषण व निर्वचन पर आधारित निर्णयों अधिक तर्कपूर्ण, बोधगम्य, पक्षपात रहित व वैज्ञानिक होते है। विभिन्न पक्षों के लिए इनका उपयोग निम्न प्रकार है-

(1) प्रबन्ध के लिये प्रयोग (Uses to Management)

प्रबन्ध इस तकनीक का प्रयोग कार्यों को सम्पन्न करने हेतु कर सकता है-

(i) व्यवसाय की उत्पादन, विक्रय एवं मूल्य नीतियों की सफलता का मूल्यांकन करने के लिये,

(ii) विभिन्न व्यावसायिक क्रियाओं के तुलनात्मक अध्ययन तथा पूर्वानुमान के लिये

(iii) सम्पूर्ण व्यावसायिक क्रियाओं की सफलता अथवा असफलता की माप करने के लिये,

(iv) व्यावसायिक क्रियाओं पर नियन्त्रण करने व अपव्ययों को रोकने के लिये,

(v) व्यावसायिक क्रियाओं से सम्बन्धित सुदृढ़ निर्णय लेने के लिये,

(vi) संस्था के उत्तरदायी अधिकारियों के निष्पादन के मूल्यांकन के लिये,

(vii) विभागों, प्रक्रियाओं आदि की सापेक्षित कुशलता निर्धारित करने के लिये

(II) बाह्य पक्षों के लिये प्रयोग (Uses to Outsiders)

वित्तीय विवरणों के विश्लेषण व निर्वचन का प्रयोग केवल प्रबन्धक वर्ग के लिये ही नहीं वरन् व्यवसाय के बाह्य पक्षों लेनदार, विनियोजक, अंकेक्षक, सरकार, अर्थशास्त्री आदि के लिये भी होती है। इसका वर्णन निम्न प्रकार है-

(i) व्यवसाय के लेनदार, बैंकर्स आदि इस तकनीक के प्रयोग से संस्था की वित्तीय स्थिति तथा ऋण शोधन क्षमता का मूल्यांकन करते हैं। वास्तव में यह तकनीक ही उनके साख प्रदान करने का आधार होती है।

(ii) ऋणपत्रधारी अपने ऋण की सुरक्षा, संस्था की ब्याज भुगतान क्षमता तथा ऋण शोधन क्षमता का अनुमान भी वित्तीय विवरणों के विश्लेषण से ही लगाते है।

(iii) व्यवसाय के वर्तमान व सम्भावी अंशधारी कम्पनी के अंशो के क्रय करने विक्रय करने या उन्हें रखने के सम्बन्ध में निर्णय वित्तीय विवरणों का विश्लेषण करके ही करते हैं। यह विश्लेषण उन्हें वर्तमान लाभांश दर, अंशो के वर्तमान मूल्य, भावी लाभांश दर, विनियोग की सुरक्षा आदि के सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी प्राप्त करने में सहायक होता है।

(iv) सरकार वित्तीय विवरणों के समंको का प्रयोग कम्पनी के नियमन तथा प्रशासन हेतु करती है।

(v) अर्थशास्त्री इन्हीं समंको से वर्तमान व्यावसायिक दशाओं की समीक्षा करते हैं तथा व्यावसायिक पूर्वानुमान लगाते हैं।

(vi) व्यावसायिक संघ विभिन्न कम्पनियों के वित्तीय विवरणों का विश्लेषण करके अपने संदस्यों के समक्ष उद्योग की प्रगति की प्रवृति के समंक प्रस्तुत करते हैं ताकि उनका व्यवसायिक ज्ञ बढ़ सके।

(viii) कम्पनी के अंकेक्षक इस तकनीक का प्रयोग करके अंकेक्षण कार्यक्रम तथा योजना तैयार करते है।

इस प्रकार वित्तीय विवरण विश्लेषण का प्रयोग व्यावसायिक क्रियाओं में रूचि रखने वाले सभी पक्षों द्वारा किया जाता है। अतः आवश्यक हो जाता है कि वित्तीय विवरणों का जिनमें उक्त तथ्य सुषुप्त होते हैं, बुद्धिमतापूर्ण निर्वचन किया जाये।

वित्तीय विवरणों के विश्लेषण व निर्वचन की सीमाएँ (Limitations of Analysis and Interpretation of Financial Statements)

वित्तीय विवरणों का विश्लेषण व निर्वचन उसकी सीमाओं को ध्यान में रखकर ही करना चाहिए। इसकी प्रमुख सीमाएँ निम्न प्रकार है:-

(1) एक वर्षीय विवरणों का अध्ययन नहीं- केवल एक वर्ष के वित्तीय विवरणों से ज्ञात किये गये अंको का अत्यन्त सीमित महत्व रह जाता है। इन अंको के विश्लेषण से कोई विश्वसनीय निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते। दो या दो से अधिक अवधि के अंको के विश्लेषण की तुलना करके ही संस्था की वित्तीय स्थिति के सम्बन्ध में अधिक विश्वसनीय परिणाम ज्ञात किये जा सकते है।

(2) निष्कर्ष निकालते समय अन्य तथ्यों की जाँच करना आवश्यक – वित्तीय विवरण विश्लेषण के सभी परिणाम प्रबन्धकीय कार्यकुशलता के प्रमाण के रूप में प्रयोग नहीं किये जा सकते। ये तो केवल सम्भावनाओं को बताते हैं जिनकी विस्तृत जाँच आवश्यक है। उदाहरणार्थ, स्कन्ध अवर्त से कमी सामान्यत अवांछनीय प्रवृति मानी जाती है, परन्तु यदि यह कमी दुर्लभ कच्चे माल की बड़ी मात्रा में संग्रह के कारण हुई है तो यह बुरी नहीं मानी जायेगी। अतः विश्लेषण के परिणामों से निष्कर्ष निकालते समय अन्य सम्बन्धित तथ्यों की जाँच करना आवश्यक है।

(3) परिस्थितियों की पृष्टभूमि में ही परिणामें की व्याख्या- भूतकाल को हमेंशा भविष्य का सूचक नहीं माना जा सकता। व्यावसायिक क्रियाओं के परिणाम देश की सामान्य आर्थिक दशाओं उद्योग के अन्तर्गत अच्छा वातावरण आदि कारकों तथा प्रबंन्ध के निर्णयों नीतियों से प्रभावित होते है। अतः इन परिस्थितियों की पृष्ठभूमि में ही व्यवसाय के परिणामों की व्याख्या करनी चाहिए।

(4) विवरणों की ऊपरी दिखावट से सजग रहना चाहिए- वित्तीय विवरण के विश्लेषण में विश्लेषक को वित्तीय विवरण में ऊपरी दिखावट से सजग रहना चाहिए। आर्थिक चिट्ठे में ऊपरी दिखावट होने पर भ्रमात्मक निष्कर्ष निकाले जा सकते है। वित्तीय वर्ष के अन्तिम दिनों में देनदारों की वसूली में तत्परता लाकर, क्रय को कुछ दिनों के लिए स्थगित करके व अन्य तरीकों को अपनाकर कोई भी कम्पनी चिठ्ठे में अच्छी रोकड़ की स्थिति दिखा सकती है।

(5) समंको में किये जाने वाले परिवर्तनों को ध्यान में रखना- समंको के थोड़े से परिवर्तनो से ही वित्तीय विवरणों के समंको की तुलनात्मकता समाप्त हो जाती है। विश्लेषक को ऐसे परिवर्तनों से सतर्क रहना चाहिए। स्थायी सम्पत्तियों के पुनर्मूल्यांकन किये जाने पर इन सम्पत्तियों के मूल्यों में आने वाली वृद्धि या कमी के कारण इनकी पिछले वर्षों के अंको से कोई अर्थपूर्ण तुलना नहीं की जा सकती है।

(6) मुद्रा के मुद्रा के मूल्य में परिवर्तन- मूल्य में तेजी से परिवर्तन की स्थिति में वित्तीय विवरणों के विश्लेषण की वैधता कम हो जाती है तथा उनसे कोई विश्वसनीय निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते, क्योंकि इस स्थिति में वर्तमान अवधि के वित्तीय समंको की भूतकालीन समंको से तुलना महत्वहीन हो जाती है।

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Anjali Yadav

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