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नेहरू और महात्मा गांधी के विचार

नेहरू और महात्मा गांधी के विचार
नेहरू और महात्मा गांधी के विचार

जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी के विचारों की तुलना कीजिए।

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नेहरू और महात्मा गांधी के विचार

नेहरू जी और गांधीवाद- जवाहरलाल नेहरू के विचारों में भारत की स्वतंत्रता के बाद क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। मार्क्सवाद और साम्यवाद के सिद्धांतो को एक स्थान पर रखकर उन्होंने एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना में अपना पूरा समय लगा दिया। पूँजीवादी के उन्होंने लाभ देखे और उसे अपने पिछड़े देश के लिए उपयोग में लाने का प्रयत्न किया। 1955 में भारत में एक समाजवादी समाज की रचना का विचार उन्होंने किया पर उनका समाजवाद लोकतन्त्रीय समाजवाद था। पं. नेहरू कभी भी साम्यवादी नहीं बने। उन्होंने स्वीकार किया है कि “मैं एक साम्यवादी नहीं हूँ क्योंकि मैं साम्यवादियों के साम्यवाद को एक पवित्र धर्म मानने की प्रवृत्ति का विरोधी हूँ। मैं यह पसंद नहीं करता कि मुझे को इस बात का आदेश दे कि मुझे क्या सोचना और करना चाहिए। मैं यह भी महसूस करता हूँ कि साम्यवादी कार्य-प्रणाली में अत्यधिक हिंसा का महत्व है।” यद्यपि पं. नेहरू साम्यवादी कभी नहीं बने परन्तु मार्क्स की “इतिहास की भैतिकवादी व्याख्या” तथा “सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं का अध्ययन करने की वैज्ञानिक पद्धति का समाज के सामने रखने का ढंग” उन्होंने बहुत पसंद किया। वे मार्क्स की इस धारणा को भी मान्यता देते थे कि पूँजीवाद में कभी लोकतन्त्र सफल नहीं हो सकता तथा पूँजीवाद का पतन हो रहा है क्योंकि यह बीसवीं शताब्दी की परिस्थितियों के विपरीत है पर आगे चलकर पं. नेहरू ने मार्क्सवाद को 19वीं शताब्दी का शिशु मानकर छोड़ दिया। मार्क्स के वाक्य नेहरू जी के लिए ईश्वरीय वाक्य न बन सके। उन्होंने उसका अन्धानुकरण नहीं किया। मार्क्सवाद की खराब बातें उन्हें रूस की क्रान्ति में दिखाई दीं।

पं. नेहरू यह बात कभी न मान सके कि “साध्य ऊँचा होना चाहिए चाहे साधन कितना नही कलुषित क्यों न हो।” साध्य और साधन दोनों का ही पवित्र होना उनके लिए आवश्यक था। यद्यपि वे अहिंसा के घोर पक्षपाती होते हुए भी हिंसा को आवश्यकता पड़ने पर प्रयोग कर सकते थे पर साम्यवादियों की हिंसा के वे पक्षपाती न थे वे तो साम्यवादियों की हिंसा पद्धति से आन्तरिक रूप से घृणा करते थे। पं. नेहरू न पूँजीवादी थे और न ही साम्यवादी, वे तो मानवतावादी थे। फ्रेंक मॉरस का कहना था कि “बीसवीं शताब्दी के चतुर्थ दशक में नेहरू एक मार्क्सवादी सिद्धांतवेत्ता थे जिनकी आस्था लोकतान्त्रिक व्यवहारों में थी, पर द्वितीय महायुद्ध के बाद मार्क्सवाद व साम्यवाद का प्रभाव क्षीण होने लगा। पूँजीवाद के प्रति भी उनके दृष्टिकोण में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आया।” पं. नेहरू ने देखा कि “पूँजीबाद अपने में बड़े तेजी से सुधार कर रहा है। उससे वास्तविक लोकतन्त्र के लक्षण प्रकट हो रहे हैं। वह अधिकाधिक साम्य बनता जा रहा है। उसकी उच्छृंखलता और शोषण प्रवृत्ति संयत और सीमित हो गयी है। अनेक पूँजीवादी देशों की अर्थव्यवस्था में समाजवाद का गहरा प्रभाव है तथा औद्योगिक क्षेत्र में सरकार का नियंत्रण बढ़ रहा है।” इन बातों को देखकर पूँजीवाद के प्रति उनकी घृणा कुछ घट गयी। इसी कारण उन्होंने अर्थव्यवस्था मिश्रित रखी। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि राज्य का उद्देश्य जनता को अधिक से अधिक सुविधाएँ पहुँचाना है तथा इन सुविधाओं के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करना है। इस दृष्टि से उन्होंने साम्यवाद को रूढ़िवाद बताया। वह मार्क्स के शब्दों को ईश्वर वाक्य समझकर अन्धविश्वासी हो गया है। उसकी कट्टरता उसे गतिहीन बना रही है। नेहरू यह भी कहते थे कि आज के आणविक युग में मार्क्स के आर्थिक विचार अपना महत्त्व खो बैठे हैं।

इन सबका प्रभाव यह था कि नेहरू जी पर गांधीवाद की अहिंसा, मानवतावाद, नैतिकता एवं लोकतंत्र की भावना का विशेष प्रभाव था। इतना होने पर भी गांधी जी की कल्पना का रामराज्य, अहिंसक राज्य अथवा लोकतंत्र (सच्चा) वे स्थापित न कर सके। उन्होंने देश की अन्तिम समय तक सेवा की और उस सेवा से वे कभी ऊबे नहीं। देश एवं देशवासियों से उनका प्रेम लगातार बढ़ा ही, घटा नहीं। उन्होंने पूर्व और पश्चिम को मिलाने का प्रयास किया। टैगोर उन्हें मानवता का सागर कहते थे। उनका कहना था कि “भारत की सेवा का अर्थ करोड़ों दुःखियों की सेवा है। “अपनी मातृभूमि से उन्हें बहुत प्रेम था। उन्होंने अपनी अन्तिम आकांक्षा व्यक्त करते हुए बताया है कि “मुझे भारतीय जनता से इतना प्रेम तथा स्नेह मिला है कि मैं उसके एक अंश का भी प्रतिदान नहीं कर सकता। वस्तुतः स्नेह जैसी अमूल्य वस्तु का मूल्य चुकाना सर्वथा असम्भव है। संसार में अनगिनत व्यक्तियों ने प्रशसा पायी, अनेक के सम्मान में परन्तु मुझे भारत के समस्त वर्गों की ममता इतनी प्रचुर मात्रा में मिली है कि मैं उससे पूर्णतया अभिभूत हो गया हूँ। मेरी केवल यही इच्छा है कि जीवन के शेष वर्षों में अपनी ममता तथा उसकी ममता के योग्य बना रहे।”

भारत में जितनी लोकप्रियता गांधी को मिली उतनी तो पं. नेहरू न पा सके पर उनके बाद लोकप्रियता का दूसरा स्थान पं. नेहरू को ही मिला है। नेहरू जी ही भारत के हृदय सम्राट रहे भारतीय जनता इन जननायक को कभी न भूल सकेगी इतिहास में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है।

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Anjali Yadav

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