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निर्णयन की परिभाषा, विशेषताएं, महत्व, प्रकार, प्रक्रिया, सिद्धांत, विधियां

निर्णयन की परिभाषा, विशेषताएं, महत्व, प्रकार, प्रक्रिया, सिद्धांत, विधियां
निर्णयन की परिभाषा, विशेषताएं, महत्व, प्रकार, प्रक्रिया, सिद्धांत, विधियां

निर्णयन की परिभाषा (DEFINITIONS OF DECISION MAKING)

निर्णयन की प्रमुख परिभाषाएं निम्नांकित हैं:

(1) ऐलन के अनुसार, “निर्णयन ऐसा कार्य है जिसे एक प्रबन्धक निष्कर्ष और फैसले पर पहुंचने के लिए करता है।”

(2) जार्ज आर. टेरी के अनुसार, “निर्णयन दो या अधिक सम्भावित विकल्पों में से कुछ सिद्धांतों के आधार पर एक का चयन करना हो। “

(3) कूण्ट्ज एवं ओ’ डोनेल के अनुसार, “निर्णयन एक कार्य को करने के विभिन्न विकल्पों में से किसी एक का वास्तविक चयन है, यह नियोजन का अन्तःकरण है।”

(4) प्रो. आर. वायने मोंडी के अनुसार, “निर्णयन को एक ऐसी प्रक्रिया कहा जा सकता है जिसके द्वारा हम विकल्पों का मूल्यांकन करते हैं तथा उनमें से किसी एक का चुनाव करते हैं।” उपर्युक्त परिभाषाओं से निर्णयन की विशेषताएं दृष्टिगोचर होती हैं।

निर्णयन की विशेषताएं (CHARACTERISTIC OF DECISION MAKING)

(1) निर्णयन प्रबन्ध का प्रमुख कार्य है। ड्रकर ने कहा है कि प्रबन्धक जो भी करता है वह निर्णयों द्वारा ही करता है।

(2) निर्णयन एक प्रक्रिया (Process) है। निर्णयन के अन्तर्गत प्रबन्धक को सर्वप्रथम समस्या का निदान करना होता है तब वह समाधान के लिए विभिन्न विकल्पों की खोज करता है और फिर उनमें से बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से किसी एक का चुनाव कर समस्या का निराकरण करता है।

(3) निर्णयन प्रबन्ध के सभी कार्यों में लागू होता है। कुछ लोग निर्णयन को मात्र नियोजन का ही अंग मानते हैं, परन्तु वास्तविकता यह है कि निर्णयन कार्य नियोजन के अतिरिक्त संगठन- संरचना, अभिप्रेरणा, निर्देशन, समन्वय व नियंत्रण सभी में समान रूप से उपयोगी है।

(4) निर्णयन प्रबन्ध के सभी स्तरों पर किया जाता है। निर्णयन केवल उच्च प्रबन्ध का ही कार्य नहीं है बल्कि विभिन्न दशाओं में मध्यम तथा प्रथम श्रेणी प्रबन्धकों (Lower level managers) को भी तरीके से निर्णय लेने होते हैं।

(5) निर्णयन के ढंग भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। प्रत्येक प्रबन्धक निर्णयन का भिन्न ढंग अपना है। कुछ प्रबन्धक स्वविवेक से शीघ्र निर्णय लेना चाहते हैं तो कुछ अन्य वैज्ञानिक पद्धति से सकता निर्णय लेना पसन्द करते हैं, परन्तु प्रत्येक प्रबन्धक निर्णय बुद्धिमत्तापूर्ण तरीके से लेना चाहता है और उसमें सफलता के दर्शन करना चाहता है।

निर्णयन का महत्व (IMPORTANCE OF DECISION MAKING)

मेल्बिन टी. कोपलैण्ड ने कहा है कि “प्रत्येक व्यवसाय में चाहे वह छोटा हो या बड़ा, व्यवसाय की परिस्थितियों या दशाओं में निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं, कर्मचारियों में भी परिवर्तन होते हैं और आकस्मिक घटनाएं घटती हैं, व्यवसाय के पहिए को चलाने और उसे चालू रखने के लिए निर्णय लेने होते हैं। वास्तव में, निर्णयन कार्य प्रबन्ध प्रक्रिया से बंधा हुआ है और सभी प्रबन्धकीय कार्यों और उपक्रम के प्रत्येक क्षेत्र में निर्णयों का अपना महत्व है। प्रत्येक स्थान पर निर्णय और प्रबन्ध साथ-साथ चलते हैं।

इसीलिए पीटर ड्रकर ने कहा है कि “प्रबन्धक जो भी करता है, निर्णयन के द्वारा ही करता है। “

सामान्यतया एक उपक्रम में निर्णयन निम्न रूपों में उपयोगी है :

(1) नियोजन में उपयोगी- चूंकि निर्णय भविष्य में किए जाने वाले कार्यों के लिए, लिए जाते हैं और नियोजन भी उपक्रम की भावी योजना से ही सम्बन्ध रखता है, नियोजन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण माने जाते हैं। यदि सही रूप में देखा जाए तो नियोजन के अन्तर्गत उद्देश्यों, नीतियों व कार्यक्रमों का निर्धारण भी प्रबन्धकीय निर्णय ही है।

(2) अन्य प्रबन्धकीय कार्यों में उपयोगी- नियोजन के अतिरिक्त संगठन संरचना, अभिप्रेरणा, संदेशवाहन, निर्देशन व नियंत्रण जैसे प्रबन्धकीय कार्यों में भी बार-बार निर्णय लेने की आवश्यकता होती है। जैसे कि श्रमिकों को अभिप्रेरित करने के लिए कौन-सी भृत्ति भुगतान पद्धति (wage payment system) अपनाई जाए, उपक्रम की संगठनात्मक संरचना क्या हो—रेखीय एवं कर्मचारी या कार्यात्मक किन रेखीय प्रबन्धकों को विशेषज्ञों की परामर्श सेवाएं प्रदान की जाएं आदि ।

(3) विभागीय प्रबन्ध में उपयोगी- उपक्रम के प्रत्येक विभाग में चाहे वह उत्पादन विभाग हो या विक्रय विभाग या वित्त विभाग, प्रत्येक में निर्णयों की आवश्यकता होती है। जैसे कि कर्मचारियों की उत्पादकता में कैसे वृद्धि की जाए, संस्था के कोषों का विनियोजन किन परियोजनाओं में किया जाए, उत्पादन लागतों पर कैसे नियंत्रण रखा जाए आदि।

(4) प्रबन्धकीय क्षमता में वृद्धि- निर्णय एक उपक्रम की प्रबन्धकीय क्षमता में वृद्धि करने में सहायक होते हैं। इसके दो प्रमुख कारण हैं- प्रथम, जब प्रबन्ध को अनिश्चित वातावरण में निर्णय लेना होता है तो आगे आने वाली कंठिनाइयों को सोचना पड़ता है जिससे प्रबन्धकों में दूरदर्शिता उत्पन्न हो जाती है तथा द्वितीय, चूंकि भविष्य के सम्बन्ध में निर्णय वर्तमान में कर लिए जाते हैं, प्रबन्ध कार्य सही दिशा में प्रवाहित होता है।

निष्कर्षः – निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि एक उपक्रम में उच्च प्रबन्धकों, मध्य प्रबन्धकों तथा प्रथम श्रेणी प्रबन्धकों सभी को दिन-प्रतिदिन के कार्यों में निर्णय लेने की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार एक उपक्रम के संचालन में निर्णयों का महत्व तो है ही परन्तु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि लिए गए निर्णय सही हों। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि प्रबन्धकों के शत प्रतिशत निर्णय सही हों; यह तो असम्भव परन्तु एक सफल प्रबन्धक वही माना जाएगा जो औसतन अधिकांश दशाओं में सही निर्णय लेने में समर्थ है। निर्णयों के परिणामों के आधार पर ही प्रबन्धकों का मूल्यांकन किया जा सकता है।

निर्णयों के प्रकार (Types of Decisions)

निर्णय विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं जिनमें से प्रमुख निम्न हैं।

(1) व्यक्तिगत एवं पेशेवर निर्णय (Personal and Professional Decisions)- व्यक्तिगत स्तर पर लिए गए विभिन्न प्रकार के निर्णय व्यक्तिगत निर्णय कहलाते हैं, जैसे कि आज सिनेमा जाया जाए या आराम किया जाए, एम्बेसडर कार खरीदी जाए या मारुति खरीदी जाए आदि । परन्तु एक प्रबन्धक को श्रमिकों की व्यक्तिगत समस्याओं को समझने और सुलझाने में भी समय देना होता है, नहीं तो उन श्रमिकों की कार्यक्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

पेशेवर निर्णय वे हैं जो एक प्रबन्धक या कम्पनी अधिकारी उपक्रम के विभिन्न कार्यों के सम्बन्ध में लेता है। ये निर्णय उपक्रम की नीतियों से सम्बन्ध रखते हैं और दूसरे पक्षों (ग्राहक, अंशधारी, कर्मचारी तथा जनसामान्य) को प्रभावित करते हैं। इन निर्णयों द्वारा प्रबन्धक की पेशेवर कुशलता का मूल्यांकन जाता है।

(2) नैत्यिक एवं अनैत्यिक निर्णय (Routine and Non-routine Decisions)- अधिकांश प्रबन्धक दिन-प्रतिदिन अपने कार्यों को पूरा करने में लगभग समान प्रकृति की समस्याओं का सामना करते हैं, जिनके समाधान के लिए, लिए गए निर्णय नैत्यिक (routine) निर्णय कहलाते हैं। सामान्यतया ये निर्णय उपक्रम की नीतियों, कार्यक्रमों तथा निर्णय के अन्तर्गत ही लिए जाते हैं। जैसे कि बहुधा विलम्ब से आने वाले कर्मचारी के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही का निर्णय, अथवा नए श्रमिक को भुगतान की जाने वाली मजदूरी का निर्णय आदि। इसीलिए प्रबन्धकों के लिए ये निर्णय लेना आसान हो जाता है।

इसके विपरीत अनैत्यिक (non-routine) निर्णय वे हैं जो किन्हीं विशिष्ट या अद्भुत समस्याओं या परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर लिए जाते हैं जैसे कि विदेशी बाजारों पर आधिपत्य जमाना अथवा आधुनिकतम कम्प्यूटर लगाना आदि। ये निर्णय जटिल प्रकृति के तथा भारी जोखिमपूर्ण होते हैं और सामान्यतया उच्च प्रबन्ध से सम्बन्ध रखते हैं।

(3) सामान्य एवं महत्वपूर्ण निर्णय (Ordinary and Strategic Decisions)- साधारण निर्णय वे हैं जो मध्य एवं प्रथम श्रेणी प्रबन्धकों द्वारा विद्यमान परिस्थितियां में लिए जाते हैं। ये निर्णय उन समस्याओं के समाधान के लिए होते हैं जो बार-बार घटित होने वाली प्रकृति की हैं तथा जिनका समाधान संस्था की सामान्य परम्पराओं एवं नियमों के अधीन ही होना होता है।

इसके विपरीत महत्वपूर्ण निर्णय वे निर्णय हैं जो सामरिक महत्व के हैं तथा उपक्रम की व्यूह-रचना (strategy) से सम्बन्ध रखते हैं; जैसे उत्पाद विविधीकरण, नवीन परियोजना का चुनाव आदि । वास्तव में, ये निर्णय भारी जोखिमपूर्ण होते हैं तथा गलत निर्णय कभी-कभी संस्था के अस्तित्व को ही खतरा पैदा कर सकते हैं।

(4) कार्यक्रमिक एवं अकार्यक्रमिक निर्णय (Programmed and Non-programmed Decisions ) – प्रो. हरबर्ट ए. साइमन ने निर्णयों को कार्यक्रमिक व अकार्यक्रमिक दो भागों में विभक्त किया है। कार्यक्रमिक निर्णय नैत्यिक एवं पुनरावृत्ति प्रकृति के होते हैं और इस प्रकार के निर्णयों को लेने के लिए एक निश्चित प्रणाली का निर्धारण कर दिया जाता है, जो परिचालन कार्यविधियों एवं नीतियों में सन्निहित होती है।

इसके विपरीत अकार्यक्रमिक निर्णय विशिष्ट उद्देश्यों के लिए किए गए निर्णय होते हैं। इन निर्णयों में अत्यधिक विवेक, रचनात्मकता (creativity) तथा तर्कशक्ति की आवश्यकता होती है। ये निर्णय उच्च प्रबन्ध द्वारा लिए जाते हैं तथा इन निर्णयों के लेने में परिमाणात्मक तकनीकों व कम्प्यूटर प्रणाली का प्रयोग करना हितकर होता है।

(5) नीति, प्रशासकीय एवं कार्यकारी निर्णय (Policy, Administrative and Executive Decision) – अर्नेस्ट डेल (Ernest Dale) के अनुसार, “नीति निर्णय भावी लक्ष्य एवं क्रियाविधि निर्धारित करते हैं, प्रशासकीय निर्णय प्रयोग में लाए जाने वाले साधनों का निर्धारण करते हैं और कार्यकारी निर्णय दिन-प्रतिदिन विशिष्ट अवसर आने पर लिए जाते हैं। “

नीति निर्णय उच्च प्रबन्ध द्वारा लिए जाते हैं और इनमें उपक्रम की भावी परियोजनाओं का चुनाव, संगठनात्मक संरचना, उत्पाद मूल्य व उत्पाद विविधीकरण, कर्मचारियों की नियुक्ति व पदोन्नति नीति आदि का निर्धारण किया जाता है।

प्रशासकीय निर्णय वे निर्णय होते हैं जो नीति निर्णयों से कम महत्व के होते हैं और सामान्यतया मध्यस्तरीय प्रबन्धकों द्वारा लिए जाते हैं। डेल के अनुसार, किसी उपक्रम का विज्ञापन बजट सम्बन्धी निर्णय नीति निर्णय है जबकि विज्ञापन के माध्यम तथा विज्ञापन प्रति का चुनाव सम्बन्धी निर्णय प्रशासकीय निर्णय माना जाएगा।

(5) कार्यकारी निर्णय (Executive Decisions)- वे निर्णय हैं जो कार्य करने वाले व्यक्तियों द्वारा कार्य करते समय ही लिए जाते हैं। ये निर्णय सामान्यतया प्रथम श्रेणी प्रबन्ध (lower level management) या परिचालन प्रबन्ध (operating management) से सम्बन्ध रखते हैं।

(6) एकाकी एवं सामूहिक निर्णय (Individual and Group Decisions)- एकाकी निर्णय वे निर्णय हैं जो सामान्यतया एक व्यक्ति द्वारा अकेले ही लिए जाते हैं; जैसे एक लघु औद्योगिक फर्म में स्वामी द्वारा लिया गया निर्णय या प्रबन्ध संचालक द्वारा किसी विशेष रूप से गुप्त रखे जाने वाले कार्य के सम्बन्ध में निर्णय। इसके अतिरिक्त परिचालन कार्यों में विभागीय प्रबन्धक द्वारा लिए गए निर्णय भी एकाकी हो सकते हैं।

इसके विपरीत सामूहिक निर्णय वे निर्णय हैं जो व्यक्तियों के एक समूह द्वारा या एक समिति द्वारा पूर्ण विचार-विमर्श के बाद लिए जाते हैं। आधुनिक वृहत् व्यावसायिक उपक्रमों में अधिकांश नीति सम्बन्धी निर्णय सामूहिक निर्णय ही होते हैं। मैक फारलैण्ड के अनुसार, “समूह निर्णय एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक समूह जिसमें अनेक व्यक्ति होते हैं, मिलकर किसी निर्णय पर पहुंचते हैं।”

निर्णयन प्रक्रिया (THE DECISION MAKING PROCESS)

निर्णयन प्रक्रिया में सामान्यतया निम्न कदम आते हैं: (देखिए चित्र )

(1) समस्या का निदान (Diagnosis of the problem),

(2) सम्भावित विकल्पों की खोज (Search for possible alternatives),

(3) विकल्पों का मूल्यांकन (Evaluation of alternative),

(4) एक विकल्प का चुनाव या निर्णय ( Selection of an alternative or Decision making),

(5) निर्णय का क्रियान्वयन तथा मूल्यांकन ( Implementation and evaluation of the decision)।

चित्र निर्णयन प्रक्रिया

चित्र निर्णयन प्रक्रिया

इन कदमों का आवश्यकतानुसार संक्षिप्त विवेचन निम्न है:

I. समस्या का निदान (Diagnosis of the Problem)

निर्णयन प्रक्रिया में प्रथम यह निर्धारित करना होता है कि वास्तविक एवं सही समस्या क्या हैं? अगर प्रारम्भ से ही समस्या के सही स्वरूप का निश्चय नहीं हो पाता तो उसके समाधान के लिए लिया गया निर्णय फलदायक सिद्ध नहीं होगा और उस पर किया गया सम्पूर्ण व्यय तथा परिश्रम व्यर्थ जाएंगे। इसके साथ-साथ यह भी सम्भव है कि इस समस्या के साथ कुछ अन्य नवीन समस्याएं भी उठ खड़ी हों।

समस्या के निदान में उसके समस्त मूल कारणों का पता लगाना चाहिए, समस्या के मात्र दो एक चिन्ह या लक्षणों के प्रकट होने को ही समस्या का सही निदान नहीं समझ लेना चाहिए। कारणों का पता लगाने के लिए समस्या सम्बन्धित विभिन्न तथ्यों व सूचनाओं को एकत्र कर उनका विश्लेषण करना चाहिए। निम्न उदाहरण इस तथ्य को स्पष्ट करने में सहायक सिद्ध होंगे:

(1) माना कि सागर विश्वविद्यालय की बी.कॉम. परीक्षा 1995 में ‘प्रबन्ध के सिद्धांत’ प्रश्न- पत्र में काफी लड़के अनुत्तीर्ण हुए। यह शिक्षा समस्या का एक चिन्ह है, परन्तु कारण नहीं। समस्या के निदान के अन्तर्गत हमें कारणों का पता लगाना होगा जैसे कि अच्छी पुस्तकों का अभाव, विद्यार्थियों का कक्षा में अधिकतर अनुपस्थित रहना, अध्यापक द्वारा प्रबन्ध अवधारणाओं को उदाहरण देकर न समझाना आदि।

(2) माना कि एक कम्पनी के चालू वर्ष के लाभ गत वर्ष से 20% कम हैं, यह कम्पनी में उत्पन्न समस्या का एक चिन्ह है, कारण नहीं। इसके कारणों में अत्यधिक स्टाक बने रहना, कच्चे माल की असाधारण क्षति या चोरी, कर्मचारियों की असाधारण बदली ( turnover), ग्राहक असंतोष या अन्य बातें सम्मिलित हो सकती हैं।

(3) दुग्ध पदार्थ निर्माण करने वाली एक कम्पनी का विक्रय घट रहा था, इस समस्या का चिन्ह था कि फुटकर विक्रेता कम्पनी के पदार्थों का अधिक स्टॉक नहीं रखना चाहते थे और वे यह कहते थे कि उन पदार्थों की उपभोक्ता मांग कम है, परन्तु तथ्यों की जांच करने पर पता लगा कि विक्रय कम होने के कारण फुटकर दुकानों पर हर समय कम्पनी के पदार्थों का उपलब्ध न हो पाना था और ये पदार्थ इसलिए उपलब्ध नहीं हो पाते थे कि इनको रखने के लिए रेफ्रीजरेटर की आवश्यकता होती थी जिसमें कई हजार रुपयों का विनियोग करना फुटकर विक्रेता उचित नहीं समझते थे।

II. सम्भावित विकल्पों की खोज (Search for Possible Alternatives) निर्णयन प्रक्रिया का दूसरा कदम है उन सम्भावित विकल्पों की खोज करना जिनके द्वारा समस्या का समाधान किया जा सकता है।

उदाहरण के लिए, यदि एक कम्पनी के लाभ घट रहे हैं तो लाभों के घटने की इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए दो विकल्प मस्तिष्क में आते हैं- लागतों पर नियंत्रण करना अथवा प्रेरणात्मक मजदूरी पद्धतियों का लागू करना। परन्तु यदि विकल्प की खोज नहीं हो पाती हैं तो समस्या का समाधान सम्भव नहीं होगा। विकल्पों की संख्या भी इस बात पर निर्भर करेगी कि प्रबन्धक के पास निर्णय लेने में कितना समय शेष है तथा निर्णय स्वयं कितना महत्वपूर्ण है।

विकल्प खोजने के ढंग (Means for Searching Alternatives) – किसी समस्या के समाधान के लिए सम्भावित विकल्पों का पता लगाने के लिए सम्बन्धित सूचनाओं तथा आंकड़ों की उपलब्धता निरंतर बनी रहनी चाहिए। इन सूचनाओं के विश्लेषण द्वारा ही समाधान के लिए विकल्प खोजे जा सकते हैं। वास्तव में, प्रबन्धकीय सूचनाएं तथा निर्णयन सह सम्बन्धित हैं, क्योंकि कुशल निर्णय इन सूचना तथा आंकड़ों के संग्रहण, वर्गीकरण तथा विश्लेषण पर ही निर्भर करते हैं। वैसे विकल्प खोजने की कई विधियां हो सकती हैं; जैसे स्वयं के अनुभव पर पुनर्विचार, अन्य फर्मों की विधियों की जांच, ब्रेन स्टोमिंग विधि, सांकेतिक समूहीकरण विधि आदि। इनका विस्तृत विवेचन ‘निर्णयन की तकनीक’ उपशीर्षक में दिया गया है।

III. विकल्पों का मूल्यांकन (Evaluation of Alternative)

किसी समस्या के वैकल्पिक समाधानों का मूल्यांकन किया जाना निर्णय प्रक्रिया का तीसरा चरण है। विभिन्न विकल्पों को खोज लेने के बाद प्रबन्धक इस स्थिति में होता है कि वह गुण- अवगुण या लागत-लाभ विश्लेषण (cost-analysis) के आधार पर सभी विकल्पों का मूल्यांकन करे। चूंकि सभी विकल्पों में कुछ गुण और अवगुण विद्यमान होते हैं, अतः उनका मूल्यांकन अत्यन्त ही निष्पक्ष तथा वैज्ञानिक ढंग से किया जाना चाहिए। विकल्पों के प्रभावों का मूल्यांकन करते समय प्रबन्धक को उन सीमाओं को ध्यान में रखना चाहिए जिनकी परिधि में ही निर्णय लिए जाने हैं, जैसे:

(i) आन्तरिक एवं बाह्य वातावरण, (ii) कम्पनी की पूंजी-सम्बन्धी क्षमता,

(iii) कम्पनी की निर्धारित नीति, (iv) उपलब्ध समय तथा संसाधन।

उदाहरण- प्रो. न्यूमैन व समर ने एक उपयुक्त उदाहरण देकर विकल्पों के मूल्यांकन को निम्न प्रकार स्पष्ट किया है—एक मध्यम आकार वाली निर्माणी फर्म के प्रबन्ध संचालक से उसके क्रय प्रतिनिधि ने यह प्रार्थना की कि उसके वेतन में वृद्धि कर दी जाए। क्रय प्रतिनिधि ने यह संकेत दिया कि श्रम संघ के सदस्यों की मजदूरी में 5% की वृद्धि की गई है अतः उसके वेतन में भी इतनी ही वृद्धि की जानी चाहिए। यह व्यक्ति फर्म में 20 वर्षों से कार्यरत है और गत आठ वर्षों से क्रय प्रतिनिधि के रूप में उत्तम कार्य करता रहा है। वैसे क्रय प्रतिनिधि यह मानता है कि उसे अपनी सेवाओं के लिए उचित वेतन मिल रहा है।

इस समस्या के समाधान के लिए प्रबन्ध संचालक ने दो विकल्प खोजे:

(i) वेतन में वृद्धि कर दी जाए

(ii) जैसी स्थिति है वही बनी रहने दी जाए।

इन विकल्पों के मूल्यांकन के लिए इनके गुणों व अवगुणों की सूची तैयार की गई।

वेतन में वृद्धि कर दी जाए जैसी स्थिति है वही रहने दी जाए

गुण

(i) वह अधिक मेहनत से कार्य करेगा।

(ii) फर्म के प्रति उसकी सहानुभूति उसके अन्य साथियों की सहानुभूति को आकर्षित करेगी।

(iii) वह किसी अन्य कम्पनी में नौकरी करने का प्रयास नहीं करेगा।

(iv) उसमें माल पूर्तिकर्ताओं के साथ सौदा करने में अधिक आत्म-विश्वास पैदा होगा।

अवगुण

“जैसी स्थिति है वही रहने दी जाए” के गुणों का उल्टा।

गुण

(i) “कार्यभार में वृद्धि होने पर ही वेतन वृद्धि की जाए” वाला सिद्धांत लागू हो सकेगा।

(ii) वेतन में अन्य कर्मचारियों के साथ संतुलन बना रह सकेगा।

(iii) फर्म के खर्चे में वृद्धि नहीं होगी।

अवगुण

“वेतन में वृद्धि कर दी जाए” के गुणों का उल्टा।

इन विकल्पों के गुणावगुणों का अध्ययन करने के बाद प्रबन्ध संचालक ने यह निर्णय लिया कि केवल क्रय प्रतिनिधि के वेतन में वृद्धि करने से अन्य अधिकारियों के मनोबल में जो कमी आएगी वह क्रय प्रतिनिधि के मनोबल में होने वाली वृद्धि से कहीं अधिक होगी। अतः क्रय प्रतिनिधि के वेतन में वृद्धि करना फर्म के हित में न होगा। यहां पर प्रबन्ध संचालक ने यह भी निर्णय लिया कि अन्य कम्पनियों के वेतन ढांचे का अध्ययन किया जाए और यदि अन्तर पाया जाए तो सभी अधिकारियों के वेतनमान संशोधित किए जाएं।

iv. एक विकल्प का चुनाव या निर्णयन (Selection of an Alternative or Decision Making)

एक समस्या के समाधान के लिए खोजे गए विभिन्न विकल्पों का मूल्यांकन करने के बाद उनमें से किसी एक विकल्प को चुनने की आवश्यकता होती है जो निर्णयन कहलाता है। यह कार्य ऊपर से आसान दिखाई देता है, परन्तु सर्वाधिक कठिन कार्य है। गलत निर्णय हो जाने की आशंका में कुछ कमजोर प्रबन्धक तो निर्णय ही नहीं ले पाते हैं। जैसे निर्णय लेने से पूर्व निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए :

(i) किस विकल्प द्वारा निर्दिष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति सम्भव है;

(ii) कौन-सा विकल्प आर्थिक प्रभावशीलता की दृष्टि से सर्वोत्तम है; तथा

(iii) कौन-सा विकल्प फर्म के आन्तरिक एवं बाह्य वातावरण के अन्तर्गत क्रियान्वित किया जाना सम्भव है।

विकल्प के चुनाव में कुछेक परिमाणात्मक तकनीकों का भी सहारा लिया जा सकता है। इन परिमाणात्मक तकनीकों में सम्भाव्यता सिद्धांत (Probability Theory), प्रतीक्षा पंक्ति सिद्धांत (Queuing Theory), रेखीय प्रोग्रामिंग (Linear Progamming), खेल का सिद्धांत (Game Theory) आदि प्रमुख हैं।

V. निर्णय का क्रियान्वयन तथा मूल्यांकन (Implementation and Evaluation of the Decision)

यह निर्णयन प्रक्रिया का पांचवां एवं अन्तिम चरण है। एक विकल्प का चुनाव कर लेने के बाद यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि उसका सही प्रकार से क्रिन्यान्वयन हो। वास्तव में यह · प्रभावपूर्ण नियोजन का आधार है।

विकल्प का चुनाव कर लेने के बाद प्रबन्धक को चाहिए कि वह इसके क्रियान्वयन सम्बन्धी विस्तृत रूपरेखा तैयार करे, उसको सम्बन्धित अधिकारियों को सम्प्रेषित करे, उसके लिए समर्थन जुटाए तथा आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराए। निर्णायक का यह दायित्व है कि वह अपने निर्णय के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करे। वह यह सोचकर ही संतुष्ट न हो जाए कि निर्णय हो जाने के बाद तो वह स्वयमेव ही क्रियान्वित हो जाएगा।

निर्णय के क्रियान्वयन के बाद निर्णय का मूल्यांकन भी किया जाना आवश्यक हैं ताकि यह पता लग सके कि निर्णय समस्या के समाधान में कितना सहायक सिद्ध हुआ। वास्तव में, यही वह प्रक्रिया है जिसमें प्रबन्धक अपने अनुभवों से सीखता है और उसमें वृद्धि करता है।

निर्णयन के सिद्धांत (PRINCIPLES OF DECISION MAKING)

एक उपक्रम की सफलता बहुत सीमा तक सही प्रबन्धकीय निर्णयों पर ही निर्भर करती है। चूंकि सामान्यतया प्रबन्धकीय निर्णय जोखिम एवं अनिश्चिततापूर्ण दशाओं में लिए जाते हैं, इन निर्णयों को सही एवं प्रभावी बनाने के लिए निम्न सिद्धांतों का पालन किया जाना अनिवार्य है:

(1) उपर्युक्त परिभाषा का सिद्धांत-निर्णय के लिए यह आवश्यक है कि विचारार्थ समस्या को उपयुक्त ढंग से परिभाषित कर लिया जाए अर्थात् समस्या को ठीक रूप में पहचानने की व्यवस्था की जानी चाहिए। यह कहा भी जाता है कि पूर्णतया परिभाषित समस्या स्वयं ही आधी हल हो जाती है।

(2) ठोस तथ्यों का सिद्धांत- निर्णयन ठोस तथ्यों पर आधारित होना चाहिए। निर्णय लेने में जल्दबाजी हानिकारक होती है। निर्णयन से पूर्व उस समस्या से सम्बन्धित सभी तथ्यों को एकत्रित एवं विश्लेषित किया जाता है और तभी सही निर्णय पर पहुंचा जा सकता है।

(3) पहचान का सिद्धांत – कभी-कभी एक ही उद्देश्य या समस्या का रूप समय के साथ- साथ परिवर्तित हो जाता है और अलग-अलग प्रबन्धक एक ही समस्या को भिन्न तरीके से देखते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि निर्णयन से पूर्व समय चक्र में परिवर्तन तथा अन्य प्रबन्धकों के दृष्टिकोण पर विचार किया जाए।

(4) जोखिम व अनिश्चितता का सिद्धांत- निश्चित दशाओं में निर्णय लेना अपेक्षाकृत आसान होता है परन्तु अनिश्चित दशाओं में निर्णय लेना भविष्य की अनभिज्ञता के कारण कठिन होता है। इसीलिए प्रबन्धशास्त्री अनिश्चित दशाओं में निर्णय लेने में सांख्यिकी विधि ‘सम्भावनाओं के सिद्धांत’ का प्रयोग करना श्रेयस्कर मानते हैं।

निर्णयन की तकनीकें अथवा विधियां (TECHNIQUEES OR METHODS OF DECISION MAKING)

निर्णयन प्रबन्ध का प्राथमिक एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य है। सही निर्णय ले लेना ही
प्रबन्ध की कुशलता को इंगित करता है। इन्हीं निर्णयों पर फर्म की सफलता या विफलता निर्भर करती है। इसीलिए निर्णयन के क्षेत्र में किए गए शोध कार्यों ने विभिन्न निर्णयन तकनीका या विधियों को जन्म दिया है। इनमें निम्न प्रमुख हैं :

(1) स्वयं के अनुभव पर पुनर्विचार (Review of his own Experience)- जब एक प्रबन्धक या अधिकारी के सामने कोई समस्या उत्पन्न होती है तो वह उसके समाधान के लिए विकल्प खोजने में अपने पुराने अनुभव को प्रयोग में ला सकता है। यहां प्रबन्धक को यह अवश्य देखना चाहिए कि पिछली परिस्थितियों और वर्तमान परिस्थितियों में कोई अन्तर तो नहीं है और यदि है तो उसे ध्यान में रखते हुए ही विकल्प निर्धारित करने चाहिए। वास्तव में, कम्पनी नियोजन सम्बन्धी बहुत सारा कार्य पुराने अनुभव पर ही आधारित होता है। यह समस्या तक पहुंचने का सर्वाधिक आसान मार्ग है और अधिकांश दशाओं में यह बहुत ही उपयुक्त सिद्ध होता है।

(2) अन्य फर्मों की विधियों की जांच (Scrutiny of Practices of other Firms)- एक प्रबन्धक अपनी समस्याओं के समाधान के लिए विकल्प खोजने में अन्य फर्मों या अन्य विभागों द्वारा अपनाई गई विधियों पर भी विचार कर सकता है। अमेरिका में यह विधि काफी प्रचलित रही है। क्योंकि वहां के उद्योगपति आपस में अनुभवों के विचार-विमर्श में विश्वास रखते हैं और व्यापार पार्षदों, सम्मेलनों,, पत्रिकाओं के माध्यम से उत्पादन लागतों को कम करने, विक्रय में वृद्धि करने तथा गुणवत्ता में सुधार करने आदि पहलुओं पर विचार-विमर्श करते रहते हैं। अमेरिकन मेनेजमेंट एसोसिएशन वहां की सफल कम्पनियों द्वारा अपनाई गई विधियों को प्रकाशित भी करती है। अन्य राष्ट्रों में भी अब यह प्रथा लोकप्रिय होती जा रही है।

(3) ब्रेन स्टोर्मिंग विधि (Brain Storming System) – एलेक्स एफ. आस्बोर्न द्वारा प्रतिपादित ब्रेन स्टोर्मिंग विधि रचनात्मक विचार उत्पन्न करने की सर्वोत्तम विधि मानी जाती है। इस विधि के अन्तर्गत 6 से 8 व्यक्तियों का समूह जिसमें फर्म के अधिकारी तथा बाह्य विशेषज्ञ भी हो सकते हैं, बनाया जाता है और उनके सामने समस्या प्रस्तुत की जाती है। इस समूह का प्रत्येक व्यक्ति अपनी समझ के आधार पर विकल्प सुझाता है। समूह मीटिंग में निम्न बातों को ध्यान में रखा जाता है:

(अ)जब कोई एक व्यक्ति विकल्प सुझाए तो समूह के अन्य सदस्य उस सुझाव पर कोई प्रतिक्रिया उस समय व्यक्त नहीं करेंगे।

(ब) सदस्यों को अधिक-से-अधिक सुझाव देने के लिए प्रेरित किया जाता है क्योंकि जितने अधिक विकल्प सामने आएंगे, समस्या के समाधान की उतनी ही अधिक सम्भावना बढ़ जाएगी।

(स) समूह सदस्य अपने-अपने विकल्प प्रस्तुत करने के बाद एक-दूसरे के विकल्पों में संशोधन करने तथा दो या अधिक विकल्पों को एक ही विकल्प के रूप में जोड़ देने की प्रक्रिया अपनाते हैं।

ब्रेन स्टोर्मिंग सत्र लगभग आधा घण्टे से एक घण्टे तक चलता है और इस अवधि में 50 से 150 तक विकल्प प्रस्तुत किए जा सकते हैं। यद्यपि इन विकल्पों में अधिकांश अव्यावहारिक पाए जाते हैं तथापि इनमें से कुछ विकल्प ऐसे भी होते हैं जिन पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता होती है।

(4) सांकेतिक समूहीकरण विधि (Nominal Grouping Method) – महत्वपूर्ण समस्याओं के समाधान के लिए विकल्प खोजने की यह एक प्रभावपूर्ण विधि है। चूंकि इस विधि में समूह के सदस्यों के मध्य आपसी मौखिक विचार-विमर्श बहुत कम किया जाता है, इस विधि को सांकेतिक समूहीकरण का नाम दिया गया है अर्थात् समूहीकरण नाममात्र के लिए ही है। इस विधि में निम्न कदम उठाए जाते हैं:

(अ) सात से दस व्यक्ति जो भिन्न-भिन्न प्रकार की योग्यताओं तथा प्रशिक्षण वाले हों, समूहबद्ध किए जाता है।

(ब) प्रत्येक सदस्य को चुपचाप अकेले बैठकर प्रस्तुत समस्या के विकल्प कागज पर लिखने को कहा जाता है।

(स) लगभग 10 या 15 मिनट बाद इन सदस्यों को बारी-बारी से अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए कहा जाता है। इन विचारों को सामने लगे किसी ब्लैकबोर्ड या चार्ट पर इस प्रकार लिखा जाता है कि वे सभी सदस्यों की आंखों के सामने रहें।

(द) इसके बाद समूह के सदस्य खुले रूप में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं और विकल्पों का मूल्यांकन करते हैं तथा विकल्पों में संशोधन भी कर सकते हैं।

(य) अन्त में, प्रत्येक सदस्य लिखित विकल्पों को महत्व के अनुसार क्रम (rank) प्रदान करता है। यह कार्य गुप्त मतदान द्वारा किया जाता है। जिस विकल्प को सर्वाधिक मत (votes) प्राप्त होते हैं वही विकल्प चुना जाता है।

यह सांकेतिक समूहीकरण विधि विकल्प खोजने की सर्वोत्तम विधि मानी जाती है क्योंकि इसमें सामूहिक विचार-विमर्श में आने वाले अवरोधों को न्यूनतम कर दिया जाता है तथा प्रत्येक सदस्य अपने मस्तिष्क से विकल्प सोचने को बाध्य होता है जबकि ब्रेन स्टोर्मिंग विधि में वह दूसरे सदस्यों द्वारा प्रस्तुत विकल्पों में ही थोड़ा संशोधन करके काम चला सकता है।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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