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नियंत्रण की अवधारणा एवं परिभाषाएं (CONCEPT AND DEFINITIONS OF CONTROL)
वैसे तो ‘नियंत्रण’ शब्द नकारात्मक दृष्टिकोण का परिचायक है, परन्तु प्रबन्ध प्रक्रिया में यह एक रचनात्मक शक्ति माना जाता है जो उपक्रम के नियोजित लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक होता है। व्यावसायिक दुनिया अपूर्ण एवं अनिश्चित है जिसमें परिवर्तन और गलतियां होना स्वाभाविक है। इन अनिश्चितताओं, परिवर्तनों तथा गलतियों का पूर्वानुमान करना, आवश्यकतानुसार उपक्रम के लक्ष्यों में संशोधन करना तथा सुधारात्मक कदम उठाना ही नियंत्रण कहलाता है। विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई नियंत्रण की प्रमुख परिभाषाएं निम्न हैं:
(1) हेनरी फेयोल के अनुसार, “नियंत्रण इस बात की जांच करने में निहित है कि प्रत्येक कार्य अपनाई गई योजनाओं, निर्गमित निर्देशों तथा स्थापित सिद्धांतों के अनुरूप होता है। इसका उद्देश्य दुर्बलताओं और त्रुटियों की इंगित कर उन्हें सुधारना और उनकी पुनरावृत्ति रोकना है। यह प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति और कार्यों पर लागू होता है।”
(2) जार्ज आर. टैरी के अनुसार, “नियंत्रण का अर्थ यह निर्धारित करना है कि क्या किया जा रहा है अर्थात् निष्पादन का मूल्यांकन करना और यदि आवश्यक हो तो सुधारात्मक कदम उठाना ताकि निष्पादन योजनाओं के अनुसार होता रहे।”
(3) कूण्ट्ज एवं ओ’ डोनेल के अनुसार, “नियंत्रण का आशय अधीनस्थों की क्रियाओं का मापन और सुधार करना है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उपक्रम के लक्ष्यों और उनको प्राप्त करने के लिए बनाई गई योजनाओं को पूरा किया जा रहा है।”
(4) जोसेफ एल. मैसी के अनुसार, “नियंत्रण एक प्रक्रिया है जो वर्तमान निष्पादन का मापन करती है तथा इसे किसी पूर्व निर्धारित लक्ष्य की ओर निर्देशित करती है। नियंत्रण का सार नियोजन प्रक्रिया में निर्धारित वांछित परिणामों को प्राप्त करने की दृष्टि से वर्तमान कार्यों की जांच “करने में निहित है।”
(5) बिली ई. गोज के अनुसार, “प्रबन्धकीय नियंत्रण घटनाओं को योजनाओं के अनुरूप घटित होने के लिए विवश करने का प्रयास करता है।”
(6) फिलिप कोटलर के अनुसार, “नियंत्रण वास्तविक परिणामों तथा वांछित परिणामों को एक-दूसरे के नजदीक आने के लिए कदम उठाने सम्बन्धी प्रक्रिया है।”
नियंत्रण की प्रकृति अथवा लक्षण (NATURE OR CHARACTERISTICS OF CONTROL)
विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई प्रमुख परिभाषाओं के आधार पर नियंत्रण की प्रकृति या लक्षण निम्न रूपों में समझे जा सकते हैं :
(1) नियंत्रण एक प्रक्रिया (Control is a Process)- नियंत्रण एक प्रक्रिया है जिसके तीन क्रमिक कदम या तत्व हैं:
(i) मानदण्डों (Standards) का निर्धारण, (ii) वास्तविक परिणामों की निर्धारित मानदण्डों से तुलना, तथा
(iii) परिणामों में विचलन होने पर सुधारात्मक उपाय करना।
इस प्रक्रिया का विस्तृत विवेचन अगले ‘शीर्षक’ में किया गया है।
(2) नियंत्रण और नियोजन घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं (Control and Planning are Closely Associated)– प्रबन्धकीय नियोजन में, जैसे कि हम जानते हैं लक्ष्य और उद्देश्य सर्वप्रथम निर्धारित किए जाते हैं, इन लक्ष्यों या उद्देश्यों को निर्धारित कर देना ही पर्याप्त नहीं हैं बल्कि यह भी आवश्यक है कि प्रबन्धक और कर्मचारी उन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पूर्ण प्रयास करें और यहीं पर नियंत्रण की आवश्यकता होती है। इस प्रकार सभी नियंत्रण नियोजन के साथ प्रारम्भ होते हैं और उससे घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित माने जाते हैं।
(3) नियंत्रण आगे की ओर देखता है (Control is Forward Looking)- चूंकि नियंत्रण के अन्तर्गत भूतकाल के परिणामों के आधार पर आगे के लिए सुधारात्मक कदम उठाए जाते हैं, अतः यह कहा जाता है कि नियंत्रण आगे की ओर देखता है अर्थात् यह भूतकाल में गुजरी हुई घटनाओं को प्रभावित नहीं करता। यहां यह आवश्यक है कि भूतकाल की घटनाओं के आधार पर घटित सुधारात्मक कदम उठाए जा सकते है।
(4) नियंत्रण व्यक्ति, वस्तु और कार्यों सभी पर लागू होता है (Control Applied to all People, Things and Actions) – नियंत्रण केवल व्यक्तियों पर ही लागू नहीं होता बल्कि वस्तुओं और कार्यों पर भी लागू होता है। उपक्रम के मानवीय संसाधनों का सदुपयोग करने, वस्तुओं या सामग्री के क्षय (wastage) को रोकने तथा प्रबन्धकीय कार्यों या निर्णयों को लक्ष्यों के अनुरूप बनाने में नियंत्रण की आवश्यकता होती है।
(5) नियंत्रण सभी स्तरों पर लागू होता है (Control Applies at all Levels)- नियंत्रण का उपयोग केवल श्रमिकों के लिए ही नहीं किया जाता बल्कि पर्यवेक्षकों, विभागीय प्रबन्धकों तथा उच्च प्रबन्ध पर भी नियंत्रण लागू होता है।
(6) नियंत्रण प्रक्रिया थर्मोस्टैट की तरह कार्य करती है (Control Process works like a Thermostate)- जिस प्रकार एक रेफ्रीजरेटर या विद्युत प्रेस (electric iron) में लगा थर्मोस्टैट स्वचालित तरीके से विद्युत प्रवाह को चालू करके या काट करके तापक्रम को स्थिर रखता है, उसी प्रकार नियंत्रण भी स्वचालित ढंग से कार्य करता है। जैसे ही यह पता चलता है कि प्रबन्ध कार्य लक्ष्य से भटक रहे हैं, नियंत्रण प्रक्रिया लागू हो जाती है और तब तक लागू रहती है जब तक कि सुधारात्मक उपायों द्वारा पुनः प्रबन्ध कार्यों तथा प्रयासों को लक्ष्यों की दिशा में प्रवाहित नहीं कर दिया जाता।
नियंत्रण की प्रक्रिया (PROCESS OF CONTROL)
एक उपक्रम में नियंत्रण का उद्देश्य निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करना होता है। वास्तविक परिणामों को निर्धारित लक्ष्यों के अत्यधिक निकट तक पहुंचाने के लिए ही नियंत्रण प्रक्रिया अपनाई जाती है जिसमें निम्न तीन क्रमिक कदम उठाए जाते हैं :
1. नियंत्रण मानकों का निर्धारण (Setting Control Standards);
2. वास्तविक निष्पादन (परिणामों) की मानकों से तुलना (Comparison of Actual Performance (Results) to Standards ;
3. सुधारात्मक कदम उठाना (Taking Corrective Action)।
बगैर यह सोचे कि क्या नियंत्रित किया जाना है, नियंत्रण प्रक्रिया सम्बन्धी उपर्युक्त तत्व प्रत्येक परिस्थिति में लागू होते हैं, चाहे खर्चों पर नियंत्रण करना है, चाहे गुणवत्ता पर नियंत्रण करना है और चाहे विनियोग पर नियंत्रण करना है।
यद्यपि ऊपर से देखने में आधारभूत नियंत्रण प्रक्रिया साधारण प्रतीत होती है तथापि इसको लागू करने में तमाम प्रश्न उत्पन्न हो जाते हैं; जैसे मानकों का निर्धारण किस आधार पर किया जाए और कौन करे, निष्पादन का मूल्यांकन करने का तरीका क्या हो, निष्पादन के मूल्यांकन का अधिकार किसे हो, मूल्यांकन के उपरान्त उसकी रिपोर्ट किसे प्रस्तुत की जाए तथा किस प्रकार नियंत्रण प्रक्रिया की लागत न्यूनतम रखी जाए आदि। इन प्रश्नों का जवाब ही वास्तव में प्रक्रिया को प्रभावपूर्ण बनाता है।
(1 ) नियंत्रण मानकों का निर्धारण (Control Standards)
मानकों का निर्धारण उपक्रम में लक्ष्यों या उद्देश्यों के आधार पर किया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि एक मोटर टायर निर्माता कम्पनी का लक्ष्य वर्ष 2018 में बाजार के 10% भाग को प्राप्त करना है और यदि कुछ मोटर टायर बाजार की पूर्व अनुमानित बिक्री 100 करोड़ की है तो कम्पनी का लक्ष्य 10 करोड़ रु. की बिक्री करने का हुआ । यही इस कम्पनी के लिए उस विशेष वर्ष में विक्रय का मूल्य मानक (Standards) माना जाएगा जिसके आधार पर इस कम्पनी के विक्रय निष्पादन का मूल्यांकन किया जा सकता है। इस कुल मानक मूल्य को क्षमता के अनुसार विभिन्न भागों में बांटकर क्षेत्रीय विक्रय प्रबन्धकों के लिए विक्रय मानक निर्धारित किए जा सकते हैं; जैसे उत्तरी, दक्षिणी, पूर्वी तथा पश्चिमी क्षेत्र के विक्रय प्रबन्धकों के लिए क्रमशः 2 करोड़, 3 करोड़, 1 करोड़ तथा 4 करोड़ रु. मूल्य के विक्रय के मानक निर्धारित किए जा सकते हैं। इसी प्रकार इन मानकों का और भी उप-विभाजन किया जाना सम्भव हो सकता है।
न्यूमैन व समर के अनुसार, मानकों (Standards) के निर्धारण में इन दो तत्वों पर ध्यान देना चाहिए : (अ) कार्य की विशेषताएं, (ब) उपलब्धि का स्तर।
(अ) कार्य की विशेषताएं (Work Characteristics) – जैसे उपर्युक्त उदाहरण में मानकों का निर्धारण विक्रय मूल्य के आधार पर किया गया है, वैसे ही मानक निर्धारण के लिए कार्य विशेष की विशिष्टताओं के आधार पर अन्य आधार भी प्रयोग में लाए जा सकते हैं, जिनमें निम्न तीन प्रमुख है-
(i) उत्पादन (Output) – उपक्रम किन कार्य या सेवाओं से सम्बन्ध रखता है। इन कार्य या सेवाओं की मात्रा, किस्म, मूल्य के आधार पर मानक निर्धारित करने के लिए परिभाषित किया जा सकता है; जैसे टन, करोड़ रुपए, मोटा या महीन कपड़ा, मीटरों में आदि।
(ii) व्यय (Expenses)- उपक्रम द्वारा एक निश्चित वस्तु या सेवा का उत्पादन करने में कितना व्यय होगा अर्थात् कितनी लागत आएगी। इस लागत को पुनः सामग्री लागत, मजदूरी लागत, कारखाना लागत या प्रबन्धकीय लागत में विभाजित करके प्रत्येक विभाग के लिए लागत के आधार पर मानक (Standards) निर्धारित किए जा सकते हैं; जैसे उपर्युक्त उदाहरण में वर्णित टायर निर्माता कं. के लिए मानक लागत 8 करोड़ रुपए रखी जा सकती है जिसमें सामग्री की मानक लागत (Standard Material Cost) 2 करोड़ रुपए रखी जा सकती है।
(iii) विनियोग (Investment) – क्या उपक्रम में उत्पादन या सेवा प्रदान करने के लिए स्टॉक, मशीन एवं साज-सज्जा अथवा अन्य सम्पत्तियों के रूप में विनियोग की आवश्यकता है। यदि हां तो रुपयों के रूप में यह कितना होगा। इस विनियोग पर प्रतिशत प्रतिफल (percentage return on capital) के रूप में मानक (standard) निर्धारित किया जा सकता है; जैसे उपर्युक्त उदाहरणा में मोटर टायर निर्माता 20 करोड़ के विनियोग पर 10% शुद्ध प्रतिफल का मानक निर्धारित कर सकता है अर्थात् शुद्ध लाभ के रूप में मानक मूल्य 2 करोड़ रुपए हुआ।
यह आवश्यक नहीं कि मानक सम्पूर्ण उपक्रम के सन्दर्भ में ही निर्धारित किए जाएं, हम उपक्रम के किसी विभाग या उप-विभाग के लिए भी मानक निर्धारित कर सकते हैं, परन्तु हमें वहां उस विभाग या उप-विभाग की विशेषताओं को ही आधार बनाना होगा, जैसे विक्रय विभाग में उधार बिक्री से सम्बन्धित उप-विभाग (Credit Division) के निष्पादन मूल्यांकन के लिए निम्न विशेषताओं के आधार पर मानक निर्धारित कर सकते हैं; जैसे कुछ उधार बिक्री रुपए में उधार बिक्री पर लाभ, डूवत, ऋण वसूलयावी व्यय आदि।
(ब) उपलब्धि का स्तर (Achievement Level)- अच्छे निष्पादन सम्बन्धी कार्य विशेषताओं (Work characteristics) का निर्धारण कर लेने के बाद सही मानकों (standards) के निर्धारण के लिए यह सोचना होगा कि प्रत्येक कार्य विशेषता के लिए उपलब्धि का कौन-सा स्तर वांछित (desirable) या अपेक्षित है। जैसे उपर्युक्त उदाहरण में एक कम्पनी के उधार विक्रय उप- विभाग (Credit Division) में भिन्न-भिन्न विशेषताओं के लिए भिन्न-भिन्न उपलब्धि स्तर के आधार पर मानक निर्धारित किए जा सकते हैं:
कार्य विशेषता | मानक (उपलब्धि स्तर के आधार पर) |
उधार बिक्री | 8 लाख रुपए |
उधार बिक्री पर परिचालन लाभ | 2 लाख नकद |
डूबत ऋण | उधार विक्रय का 2% |
ऋण वसूलयावी व्यय | उधार विक्रय का 4% |
नियंत्रण मानकों के निर्धारण में ध्यान देने योग्य अन्य बातें
नियंत्रण मानकों (Control Standards) के निर्धारण के सम्बन्ध में कार्य विशेषताओं तथा उपलब्धि स्तर, जिनका कि वर्णन ऊपर किया जा चुका है, के अतिरिक्त अग्र बातों का और ध्यान रखा जाना चाहिए :
(1) मानकों के निर्धारण में लोच रहनी चाहिए अर्थात् यदि आवश्यकता पड़े तो मानकों (Standards) में संशोधन किया जाना सम्भव होना चाहिए। उदाहरण के लिए, विक्रय के मानक निर्धारित करने के उपरान्त यदि यह पता चलता है कि बाजार में अभूतपूर्व मांग मन्दी (Recession) की स्थिति है, कुल विक्रय मानक को कम किया जा सकता है अथवा साख-सुविधाओं में वृद्धि की जा सकती है जिससे उधार विक्रय मानक में वृद्धि करनी होगी अथवा विक्रय मूल्य में कमी करनी होगी जिससे लाभ मानक (Profit Standards) प्रभावित होगा।
(2) मानकों का निर्धारण सम्पूर्ण उपक्रम के साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति, पर्यवेक्षक तथा प्रबन्धक के लिए भी होना चाहिए ताकि प्रत्येक के वास्तविक परिणामों की मानकों से ‘तुलना की जा सके और व्यक्तिगत रूप से उन्हें प्रशंसित किया जा सके या दोषी ठहराया जा सके। इससे नियंत्रण प्रभावी बनता है।
(2) वास्तविक निष्पादन (परिणामों) की मानकों से तुलना (Comparison of Actual Performance ( results) to Standards)
मानकों का निर्धारण कर लेने के बाद नियंत्रण प्रक्रिया का दूसरा कदम है वास्तविक निष्पादन या परिणामों की मानकों से तुलना करना। अतः नियंत्रण प्रक्रिया से दूसरे कदम के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि प्राप्त निष्पादन (peformance) या परिणामों (results) का मापन किया जाए। मापन की सुविधा की दृष्टि से कार्यों को निम्न दो भागों में बांटा जा सकता है:
(i) तकनीकी कार्य (Technical Jobs)– यह ऐसे कार्य हैं जिनको मात्रा, आकार, रंग, किस्म, प्रति इकाई, मशीन घण्टे या मानव घण्टे आदि के आधार पर मापा जा सकता है। इन कार्यों के निष्पादन के मापन या मूल्यांकन में कोई कठिनाई नहीं होती यदि सम्बन्धित आंकड़े नियमित रूप से प्राप्त होते रहें। उत्पादन विभाग, क्रय व विक्रय विभाग के कार्य तकनीकी प्रकृति के होते हैं।
(ii) कम तकनीकी कार्य (Less Technical Jobs) – कुछ विभागों के कार्य ऐसे भी होते हैं जिनका तकनीकी कार्यों की तरह परिमाणात्मक मापन (quantitive) सम्भव नहीं होता; जैसे जन-सम्पर्क अधिकारी का कार्य, औद्योगिक सम्बन्ध प्रबन्धक का कार्य, वित्तीय प्रबन्धक का कार्य आदि । अधिकांशतः ऐसे कार्यों का मापन अस्पष्ट प्रमाणों के आधार पर ही करना होता है। जैसे जन- सम्पर्क अधिकारी द्वारा प्रकाशित विज्ञप्तियों की संख्या तथा उनके प्रत्युत्तर में प्राप्त जनता के पत्रों की संख्या के आधार पर जन सम्पर्क अधिकारी के निष्पादन का मापन किया जा सकता है। इसी प्रकार औद्योगिक सम्बन्ध प्रबन्धक के निष्पादन का मापन श्रम संघ के दृष्टिकोण, हड़तालों की संख्या, श्रम अनुपस्थिति तथा बदली दर (Labour absenteism and turnover rate) आदि के आधार पर किया जा सकता है, परन्तु इन कम तकनीकी प्रकृति के निष्पादन मापन में गलती होने तथा पक्षपात बरते जाने की सम्भावना अधिक रहती है, अतः इनके मापन में विशेष सावधानी की आवश्यकता है।
यद्यपि कुछ कार्यों या जॉब के परिणाम पूर्ण शुद्धता एवं स्पष्टता के साथ मापन योग्य नहीं हैं फिर भी इनके मापन की उपयोगिता है । इच्छा तो यह है कि मापन कार्य अग्रगामी (forward looking) हो ताकि निष्पादन तथा मानक (Performance and Standards) में हो सकने वाले विचलनों का पता शीघ्र ही लग सके और कार्य प्रगति के दौरान ही सुधारात्मक कदम उठाए जा सकें।
नियंत्रण प्रतिवेदन तैयार करना (Preparation of Control Reports)
कार्य के वास्तविक निष्पादन या परिणामों का मापन कर लेने के साथ ही इनकी तुलना निर्धारित मानकों से की जाती है और इस तुलनात्मक ब्यौरे के आधार पर मापन करने वाला अधिकारी नियंत्रण प्रतिवेदन (control report) तैयार करता है। इस नियंत्रण प्रतिवेदन में मापन करने का तरीका तथा निष्कर्ष प्रस्तुत किए जाते हैं। इस नियंत्रण प्रतिवेदन को सर्वप्रथम उस व्यक्ति को भेजा जाना चाहिए जिसके कार्य से यह सम्बन्धित है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि यह प्रतिवेदन उत्पादन विभाग के प्रत्येक श्रमिक के पास भेजी जाए बल्कि फोरमैन को भेजी जानी चाहिए ताकि वह तुरंत उस प्रतिवेदन में इंगित की गई कमियों को दूर करने के लिए कदम उठा सके। जैसे यदि उत्पादन कम हुआ है तो अधिसमय (Overtime ) कार्य कराने का प्रबन्ध कर सके। इसके उपरान्त प्रतिवेदन की प्रति विभागीय प्रबन्धक तथा सम्बन्धित विशेषज्ञों को भी भेजी जानी चाहिए ताकि यदि वे इस विशिष्ट कार्य के नियंत्रण हेतु सुझाव देना चाहें तो दे सकें।
(3) सुधारात्मक कदम उठना (Taking Corrective Action)
नियंत्रण प्रक्रिया का यह तीसरा और अन्तिम कदम माना जाता है। नियंत्रण प्रतिवेदन सम्बन्धित व्यक्तियों का ध्यान इस ओर आकर्षित करता है कि अमुक विभाग या जॉब के परिणाम निर्धारित लक्ष्य या मानकों के अनुरूप न होकर उनसे विचलित हो रहे हैं। इस प्रकार नियंत्रण रिपोर्ट खतरे का संकेत मात्र देती है, जिसे रोकने के लिए शीघ्र ही सुधारात्मक कदम उठाए जाने चाहिए।
ये सुधारात्मक कदम निम्न दो प्रकार के हो सकते हैं:
(i) तुरंत उठाए जाने वाले कदम (Immediate Action)- नियंत्रण रिपोर्ट प्राप्त होते ही सम्बन्धित व्यक्ति का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह स्थिति को ठीक करने के लिए तुरंत आवश्यक कार्यवाही करे। उदाहरण के लिए, यदि कोई परियोजना नियोजित समय से एक माह पीछे रह जाती है तो उसकी प्रगति को पुनः समयबद्ध करने के लिए सम्बन्धित अधिकारी निम्न सुधारात्मक कदम उठा सकता है- (i) परियोजना पर अधिसमय (Overtime ) कार्य अधिकृत करायें, (ii) परियोजना पर और अधिक व्यक्ति तथा मशीनें भिजवायें, (iii) परियोजना कार्य में तेजी लाने के लिए विशेषज्ञों का परामर्श ले, या पूर्णकालीन प्रबन्धक नियुक्त करे या वहां कार्यरत कर्मचारियों को प्रेरित करने के लिए मौद्रिक एवं गैर-मौद्रिक प्रोत्साहन (Incentives) दे।
(ii) आधारभूत कदम (Basic Steps)- तुरंत उठाए गए कदमों द्वारा स्थिति को थोड़ा सुधार लेने के बाद ही आधारभूत कदम लागू किए जाते हैं। इन कदमों को उठाने से पूर्व उन घटकों का पता लगाया जाता है जिनके कारण कार्य निष्पादन या परिणामों पर विपरीत प्रभाव पड़ा। इन घटकों का स्पष्ट पता कर लेने के बाद ही स्थायी तौर पर ऐसे सुधारात्मक कदम उठाए जा सकते हैं। जिससे इस तरह की कठिनाइयों की पुनरावृत्ति न हो। इन कदमों को ही आधारभूत कदम कहा जाता है। उपर्युक्त उदाहरण में ही परियोजना के समय से एक माह पीछे चले जाने के कारण, अनुसंधान करने पर यह पाया गया कि कुछ नई मशीनों की स्थापना (Installation) के लिए बुलाए गए तकनीकी व्यक्तियों के समय पर न आने के कारण ऐसा हुआ । आधारभूत सुधारात्मक उपाय के रूप में मशीनों की आपूर्ति करने वाली कम्पनियों से यह अनुबन्ध किया जा सकता है कि वे ही मशीनों की स्थापना का कार्य अपने इंजीनियरों से कराए तभी भुगतान किया जायेगा।
यहां यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि यदि निष्पादन और लक्ष्यों के बीच विचलन ऐसा है जिसे सुधारात्मक कदम उठाकर ठीक किया जा सकता है तो ये कदम उठाए जाने चाहिए, परन्तु यदि कठिनाइयां ऐसी हैं जो हमारी शक्ति के बाहर है और गम्भीर प्रकृति की हैं तो हमें अपने लक्ष्यों, योजनाओं तथा कार्यक्रम पर पुनर्विचार करना चाहिए और उन्हें नए सिरे से पुनः बनाना चाहिए।
नियंत्रण की प्रणालियां अथवा तकनीकें (CONTROL SYSTEM OR TECHNIQUES)
हम यह जानते हैं कि कोई भी उपक्रम या संगठन जिसमें मनुष्य कार्य करते हैं, दोषरहित नहीं हो सकता। मनुष्य तो स्वभावगत चंचल तथा मनमौजी होता है, अतः संगठन की सफलता के लिए उस पर नियंत्रण रखना आवश्यक है। संगठन में नियंत्रण के विभिन्न ढंग काम में लाए जाते – हैं जिन्हें मुख्य रूप से दो भागों में बांटा जा सकता हैं— (1) परम्परागत प्रणालियां, (2) आधुनिक प्रणालियां ।
(1) परम्परागत प्रणालियां (Traditional Systems)
प्रबन्ध विकास की प्रारम्भिक अवस्था में नियंत्रण की जो प्रणालियों या तकनीके अपनाई गईं वे इस विचारधारा पर आधारित थीं कि बिना अनुशासन या नियंत्रण के कर्मचारी आलसी, कामचोर तथा गैर-जिम्मेदार हो जाता है तथा अनुशासन बनाए रखने के लिए उनपर प्रतिबंध लगाना, भय दिखाना, दण्ड देना आवश्यक है। यहां नियंत्रण का तात्पर्य कर्मचारियों की स्वतंत्रता को कम करना रहा है। नियंत्रण के अन्तर्गत कर्मचारी अपने निर्णयों को वरिष्ठ अधिकारी के समक्ष प्रकट नहीं करते बल्कि वे संगठन निर्णयों को ही स्वीकार कर लेते हैं।
इस नियंत्रण प्रणाली के कुछ दुष्परिणाम देखने को मिलते हैं। कर्मचारियों का विकास रुक जाता है, उनकी निर्णय क्षमता मन्द हो जाती है, वे भयभीत होकर कार्य करते हैं, उन्हें जॉब सुरक्षा का खतरा बना रहता है वे कार्य का केवल न्यूनतम स्तर प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, वे अपनी ओर से कोई सुझाव नहीं देते। कुल मिलाकर उनकी कार्यक्षमता तथा मनोबल निम्न स्तर का हो जाता है।
नियंत्रण की परम्परागत प्रणाली के उपर्युक्त दोषों को दूर करने के लिए निम्न सुझाव प्रस्तुत किए जा सकते हैं:
(1) नियंत्रण लक्ष्यों के अनुरूप होने चाहिए। प्रबन्ध को चाहिए कि वह कार्य की क्षमता पर जोर दे न कि कार्य प्रक्रिया पर।
(2) लक्ष्य निर्धारण में कर्मचारियों की सहभागिता उनमें स्वनियंत्रण पैदा करती है। सहभागिता द्वारा कर्मचारी अपने को योग्य व ऊंचा अनुभव करते हैं और लक्ष्य प्राप्ति के लिए स्वयं प्रयत्नशील हो जाते हैं।
(3) कर्मचारियों के साथ सम्प्रेषण प्रभावपूर्ण रहना चाहिए। नियंत्रण तकनीकों की सूचना तथा कार्यमापन के ढंग के बारे में कर्मचारियों को जानकारी दी जानी चाहिए।
(4) नियंत्रणों की संख्या कम होनी चाहिए। केवल कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर ही नियंत्रण स्थापित किया जाना चाहिए तभी वे प्रभावी होंगे।
(5) नियंत्रणों का समय-समय पर पुनरीक्षण किया जाना चाहिए और आवश्यकतानुसार उनमें संशोधन किया जाना चाहिए।
(6) प्रबन्ध को चाहिए कि कर्मचारियों के प्रशिक्षण तथा जॉब संतुष्टि पर ध्यान दे। जॉब संतुष्टि स्वयं ही कर्मचारी को कार्य करने के लिए प्रेरित करती है और वहां नियंत्रण की विशेष आवश्यकता नहीं रह जाती।
(2) आधुनिक प्रणालियां (Modern Systems)
प्रबन्ध विकास की बाद की अवस्थाओं में नियंत्रण की कुछ ऐसी तकनीकों का विकास
किया गया जो आंकड़ों व सूचनाओं पर आधारित हैं तथा ये ऐसी तकनीकें हैं जो न केवल कर्मचारियों पर बल्कि उपक्रम के भौतिक संसाधनों पर भी नियंत्रण रख पाती हैं। ये प्रणालियां मुख्य रूप से निम्न हैं:
(1) बजटरी नियंत्रण तकनीक (Budgetary Control Technique)
बजटरी नियंत्रण एक ऐसी तकनीक है जिसमें ‘बजट’ के माध्यम से संगठन के क्रिया-कलापों पर नियंत्रण रखा जा सकता है। इस तकनीक में सर्वप्रथम कुछ बजट (विक्रय, उत्पाद, क्रय, वित्त, श्रम आदि) तैयार किए जाते हैं जो एक अगली निश्चित अवधि के लिए वित्तीय एवं मात्रात्मक रूप में लक्ष्यों का · निर्धारण करते हैं और बाद में इस बजट संख्याओं की तुलना वास्तविक उपलब्धियों से की जाती हैं। यदि उपलब्धियां बजट लक्ष्यों से दूर हैं तो कारणों का पता लगाकर सुधारात्मक उपाय किए जाते हैं। आधुनिक समय में बजट नियंत्रण तकनीकों में भी परिवर्तन हो गया है। पहले बजट विभागों के आधार पर लेखाशास्त्र के नियमों के अनुसार बनाए जाते थे, परन्तु अब कार्यक्रम योजना तथा बजटिंग (PPB) तकनीक सम्पूर्ण उपक्रम के लक्ष्य और कार्यक्रम निर्धारित करने और उन पर नियंत्रण करने में सक्षम है। बजटरी नियंत्रण तकनीक के निम्न लाभ हैं :
(1) चूंकि बजट मात्रा एवं वित्तीय इकाई के रूप में होता है, अतः प्रत्येक क्रिया का मूल्यांकन बेहतर होना सम्भव होता है।
(2) बजट द्वारा नियोजन में वास्तविकता ला पाना सम्भव हो जाता है और नियंत्रण में व्यावहारिकता आ जाती है।
(3) बजटरी नियंत्रण तकनीक विभिन्न प्रकार की बरबादियों को दूर करके उपक्रम की कार्यक्षमता तथा उत्पादकता में वृद्धि करती है।
(4) बजटरी नियंत्रण के अन्तर्गत सभी व्यावसायिक परिचालन क्रियाएं समय-समय पर पुनरीक्षित की जाती हैं जिससे संगठन की विभिन्न क्रियाओं में उचित प्रबन्धकीय नियंत्रण बना रहता है।
(5) बजटरी नियंत्रण तकनीक के अन्तर्गत वस्तुस्थिति या उपलब्धियों का बजट लक्ष्यों से मिलान किया जाता है और यदि उनमें कोई विचलन पाया जाता है तो उसे ठीक करने के लिए तुरंत सुधारात्मक कदम उठाना सम्भव होता है।
(2) सम-विच्छेद विश्लेषण (Break- Even Analysis)
सम-विच्छेद विश्लेषण एक ऐसी तकनीक है जो नियोजन करने, लागत नियंत्रित करने तथा परिचालन मात्रा का निर्धारण करने में प्रयोग में लायी जाती है। इस तकनीक द्वारा उत्पादन के उस बिन्दु या स्तर का पता लगाया जा सकता है जिस पर उपक्रम केवल विक्रय द्वारा अपनी लागतों को पूरा कर पाता है। उस उत्पादन एवं विक्रय स्तर पर उसे कोई लाभ या हानि नहीं होती। उस बिन्दु या स्तर से अधिक क्षमता पर उत्पादन या विक्रय करने से लाभ होता है तथा कम क्षमता पर हानि होती है। सम-विच्छेद विश्लेषण में निम्न कदम उठाए जाते हैं :
सम-विच्छेद बिन्दु =स्थिर लागत / प्रति इकाई दत्तांश
इसमें दत्तांश से आशय प्रति इकाई मूल्य तथा प्रति इकाई परिवर्तनशील लागत के अन्तर से है। जो सर्वप्रथम स्थिर लागत को पूरा करने के काम में लाया जाता है। जिस बिन्दु पर दत्तांश द्वारा स्थिर लागत पूरी कर दी जाती है वही सम-विच्छेद बिन्दु कहलाता है। इसके उपरान्त यह दत्तांश लाभ को प्रदर्शित करता है।
उदाहरण के लिए, एक जूता कं. की परिवर्तनशील लागत 80रु. प्रति जोड़ी जूता है तथा विक्रय मूल्य 100रु. प्रति जोड़ी जूता है तो यहां प्रति जोड़ी जूता दत्तांश 20रु. हुआ। यदि उस कं. की स्थिर लागत 20 लाख रु. प्रति वर्ष है तो सम-विच्छेद बिन्दु 20 लाख रु. ( स्थिर लागत) में 20रु. (प्रति इकाई दत्तांश) का भाग देने से प्राप्त होता। यहां इस प्रकार सम-विच्छेद बिन्दु 1 लाख जोड़ी जूतों का उत्पादन व बिक्री है। इसके ऊपर बिक्री पर 20रु. प्रति जोड़ी जूते की दर से लाभ होगा और इससे कम बिक्री होने पर 20रु. प्रति जोड़ी की दर से हानि होगी।
सम-विच्छेद बिन्दु विश्लेषण नियंत्रण की आसान तथा लोकप्रिय विधि है। इसमें नई कम्पनियों की दशा में यह पता लगाना भी सम्भव होता है कि क्षमता के किस स्तर पर उसका सम विच्छेद बिन्दु होगा। जिस कम्पनी का सम-विच्छेद बिन्दु नीचे स्तर पर होता है, उनकी लाभ कमाने की क्षमता अधिक मानी जाती है। सम-विच्छेद विश्लेषण के आधार पर विक्रय नियोजन तथा लागत नियंत्रण करना सम्भव होता है।
(3) विनियोग प्रत्याय दर (Return on Investment-ROI)
यह तकनीक सर्वप्रथम यू.एस.ए. की डूपोन्ट कम्पनी द्वारा प्रयोग में लाई गई। इसलिए इसे डूपोन्ट तकनीकी के नाम से भी जाना जाता है। इस तकनीक में निम्न फार्मूला का प्रयोग करके विनियोग पर प्रत्याय दर ज्ञात की जाती है:
अथवा
विक्रय पर लाभ का प्रतिशत x विक्रय सम्पत्ति अनुपात
इस सिद्धांत के अन्तर्गत विनियोग प्रत्याय दर को बढ़ाने के दो रास्ते हैं-प्रथम, विक्रय पर लाभ का प्रतिशत बढ़ाया जाय या विक्रय सम्पत्ति अनुपात में वृद्धि की जाय। विक्रय सम्पत्ति अनुपात में वृद्धि करने के लिए विनियोग की तुलना में विक्रय मात्रा में आनुपातिक रूप से अधिक वृद्धि की जाय अथवा विपरीत विक्रय मात्रा स्थिर रखते हुए विनियोग में कमी की जाए। उदाहरण के लिए, यदि कम्पनी का विक्रय पर शुद्ध लाभ 5% है तथा विक्रय सम्पत्ति अनुपात 4 है तो विनियोग पर प्रत्याय दर 20% हुई। विनियोग प्रत्याय दर तकनीक एक उपक्रम के विभिन्न प्रभागों (divisions) या एक प्रबन्ध के अन्तर्गत कार्यरत कई उपक्रमों के विक्रय निष्पादन का मूल्यांकन करने के लिए एक महत्वपूर्ण तकनीक मानी जाती है। इस तकनीक में जहां विक्रय पर लाभ का प्रतिशत वाला भाग उपक्रम की परिचालक दक्षता (operational efficiency) का मूल्यांकन करता है, वहां विक्रय सम्पत्ति अनुपात उपक्रम के भौतिक संसाधनों के सदुपयोग का मूल्यांकन करता है। इस प्रकार इस तकनीक से सम्पूर्ण संगठन कार्यों का मूल्यांकन करके उन पर उचित नियन्त्रण रखा जाना सम्भव होता है।
(4) लाभ -लागत विश्लेषण (Benfit-Cost Analysis)
लाभ-लागत विश्लेषण तकनीक नई परियोजनाओं के मूल्यांकन तथा उन पर नियंत्रण रखने में प्रयोग की जाती है। इस तकनीक में जब भी कम्पनी कोई नई परियोजना जैसे विद्यमान क्षमता विस्तार या आधुनिकीकरण अथवा नवीन उत्पादन का विकास आदि करना चाहती है तो परियोजना का मूल्यांकन वित्तीय तथा सामाजिक दोनों ही दृष्टियों से किया जाता है। इसमें विभिन्न आंकड़ों व सूचनाओं का संग्रहण व विश्लेषण करके उस परियोजना से सम्बन्धित वस्तु की उत्पादन लागत विक्रय अनुमान तथा लाभप्रदता की स्थिति का अनुमान संख्यात्मक रूप में लगाया जाता है। इसके साथ ही उस परियोजना से सम्बन्धित सामाजिक लाभ व लागतें उसके मूल्यांकन में सम्मिलित कर ली जाती हैं।
जब ऐसी मूल्यांकन रिपोर्ट के आधार पर परियोजना लागू की जाती है तो परियोजना चालू हो जाने पर और उत्पादन का विक्रय होने पर वास्तविक परिणामों की तुलना मूल्यांकन रिपोर्ट से की जाती है। यदि वास्तविक परिणाम अनुमानों की तुलना में असंतोषजनक पाए जाते हैं तो उन कारणों का पता लगाया जाता है और सुधारात्मक कदम उठाए जाते हैं। इस प्रकार परियोजना लागतों पर नियंत्रण रखना तथा संसाधनों का सदुपयोग करना सम्भव होता है। वैसे भी एक उपक्रम के समक्ष जो भी सम्भावित परियोजनाएं होती हैं, उन सभी का मूल्यांकन करते हैं और उनमें से केवल वे ही परियोजना लागू की जाती हैं जो सर्वाधिक लाभप्रद हैं। इस प्रकार उपक्रम के संसाधनों का सर्वोच्च उपयोग सम्भव हो पाता है।
(5) प्रबन्धकीय अंकेक्षण (Management Audit)
प्रबन्धकीय अंकेक्षण तकनीक का प्रयोग अभी तक विकसित देशों में होता रहा है, परन्तु अब भारत में भी इसका प्रचलन नियंत्रण तकनीक के रूप में बढ़ रहा है। यह एक उपक्रम के संगठन एवं प्रबन्ध का रचनात्मक एवं सर्वांगीण मूल्यांकन है जो सर्वोच्च प्रबन्ध द्वारा विशेष रूप से कराया जाता है। यह सामान्यतया बाह्य विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है। अंकेक्षण टीम संगठन के क्रिया-कलापों के बारे में वहां प्राप्त अभिलेखों तथा कार्यरत प्रबन्धकों से विभिन्न जानकारियां तथा साक्ष्य इकट्ठा करती है और उनके आधार पर संगठन के निष्पादन के बारे में आकलन करती है और सुझाव देती है।
यह अंकेक्षण टीम संगठन के उद्देश्यों, नीतियों तथा कार्यक्रमों की रचना तथा उनकी व्यवहारिकता की जांच करती है। इसके साथ ही उपक्रम के मानवीय तथा भौतिक संसाधनों के सदुपयोग के बारे में भी अपनी जांच करती है। इसके उपरान्त बाह्य वातावरण को ध्यान में रखकर विद्यमान लक्ष्यों, नीतियों, आन्तरिक संगठन, संरचना आदि में परिवर्तन हेतु सुझाव भी देती है।
आदर्श नियंत्रण प्रक्रिया या नियंत्रण प्रणाली के सिद्धांत / तत्व (PRINCIPLES/FEATURES OF IDEAL CONTROL PROCESS OR CONTROL SYSTEM)
जोसेफ एल. मैसी तथा कुछ अन्य प्रबन्धशास्त्रियों ने ऐसे सिद्धांत या मूल तत्व प्रस्तुत किए हैं जो एक आदर्श या प्रभावपूर्ण नियंत्रण प्रक्रिया के लिए आवश्यक हैं। ये सिद्धांत निम्न हैं:
(1) महत्वपूर्ण नियंत्रण बिन्दु (Strategic Point Control) – नियंत्रण प्रक्रिया को प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक है कि उपक्रम के केवल आधारभूत तथा महत्वपूर्ण नियंत्रण बिन्दुओं पर ही ध्यान केन्द्रित किया जाए। यदि उपक्रम के सभी बिन्दुओं पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया जाएगा तो न केवल यह अनावश्यक होगा बल्कि महत्वपूर्ण बिन्दु पर पूर्ण नियंत्रण किया जाना सम्भव न हो सकेगा। अच्छे या प्रभावी नियंत्रण का आशय कभी भी अधिकतम नियंत्रण नहीं होता। महत्वपूर्ण बिन्दुओं से आशय उन बिन्दुओं से भी है जिन्हें नियंत्रित करने से कई उद्देश्य पूरे हो जाते हैं; जैसे किस्म नियंत्रण द्वारा उत्पादन और विक्रय दोनों विभागों के नियंत्रण उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है।
(2) फीड बैक (Feed Back) – भूतकाल के परिणामों की सूचना के आधार पर भविष्य के कार्यों से संशोधन करना ‘फीड बैंक’ कहलाता है। वास्तव में, नियंत्रण प्रक्रिया को इस प्रकार बनाया जा सकता है जिसमें पिछली कठिनाइयों से सबक लिया जा सके और उनसे प्राप्त अनुभव के आधार पर आगे आने वाली कठिनाइयों का पूर्वानुमान किया जा सके तथा कार्य बिगड़ने से पूर्व ही उसमें संशोधन या सुधार किया जाना सम्भव हो सके।
(3) लोच (Flexibility)- नियंत्रण प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए जो परिवर्तित परिस्थितियों के अनुरूप संशोधित हो सकने योग्य हो। कभी-कभी सम्पूर्ण योजना जिससे नियंत्रण प्रक्रिया घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है, अव्यावहारिक हो जाती है और उसे पुनः बनाना होता है, परन्तु नियंत्रण प्रक्रिया ऐसी लोचपूर्ण होनी चाहिए जो थोड़े संशोधन के बाद पुननिर्मित योजनाओं के साथ भी सफलतापूर्वक लागू रह सके।
(4) संगठनात्मक उपयुक्तता (Organisational Suitability)- चूंकि उपक्रम की क्रियाएं व्यक्तियों द्वारा संचालित होती हैं, अतः उनका नियंत्रण भी व्यक्तियों द्वारा होना चाहिए अर्थात् कार्य करने और नियंत्रण करने के लिए पृथक् संगठन नहीं बल्कि मूल संगठन संरचना में ही नियंत्रण प्रक्रिया भी निहित होगी। उदाहरण के लिए, उत्पादन प्रबन्धक यदि उत्पादन कार्य सम्पन्न कराता है तो उत्पादन नियंत्रण का कार्य भी उसी के अन्तर्गत कराया जा सकता है।
(5) स्वनियंत्रण (Self-Control)- विभाग या इकाइयां स्वनियंत्रण के सिद्धांत के आधार पर नियोजित की जा सकती हैं। यदि एक विभाग के स्वयं के लक्ष्य और नियंत्रण प्रक्रिया है तो नियंत्रण का बहुत सारा कार्य स्वयं विभागों में ही किया जा सकता है। इसके उपरान्त इस विभागीय नियंत्रण प्रणाली को उपक्रम की नियंत्रण प्रणाली से श्रृंखलित (link ) कर देना चाहिए।
(6) प्रत्यक्ष नियंत्रण (Direct Control) – नियंत्रण प्रक्रिया ऐसी हो जिसमें नियंत्रक (Controller) तथा नियंत्रित (Controlled) का प्रत्यक्ष सम्बन्ध हो। यदि नियंत्रण का कार्य कुछ विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है तो भी नियंत्रण प्रक्रिया में फोरमैन (विभागीय प्रबन्धक) का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि कार्य सम्पन्न करने से उसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। इसीलिए विशेषज्ञों द्वारा नियंत्रण की दिशा में भी नियंत्रण रिपोर्ट सर्वप्रथम फोरमैन को भेजी जानी चाहिए।
(7) मानवीय घटक (Human Factor)- नियंत्रण प्रक्रिया का निर्धारण करने में इस बात का ध्यान रखा जाए कि वह नियंत्रित व्यक्ति की भावनाओं और सम्मान को ठेस पहुंचाने वाली न हो। कभी-कभी तकनीकी दृष्टि से अच्छी नियंत्रण प्रक्रियाएं मानवीय मूल्यों पर उचित ध्यान न दिए जाने के कारण ही असफल हो जाती है।
(8) समझ सकने योग्य (Understandable)- नियंत्रण प्रक्रिया समझ सकने योग्य होनी चाहिए। कौन नियंत्रक है, निष्पादन मापन का क्या तरीका है तथा मानकों का निर्धारण किस आधार पर किया गया है, ये सारी बातें सम्बन्धित व्यक्ति को ज्ञात होनी चाहिए। नियंत्रण रिपोर्ट में अंकित सूचनाएं तथा तथ्य साधारण भाषा में तथा आसान रूप में प्रस्तुत किए जाने चाहिए तभी वह प्रभावपूर्ण होगी।
(9) मितव्ययी (Economical) – नियंत्रण प्रक्रिया अधिक व्ययसाध्य तथा जटिल नहीं होनी चाहिए। यदि उपक्रम का आकार छोटा है तो नियंत्रण प्रणाली भी छोटी रखी जानी चाहिए ताकि नियंत्रण प्रणाली पर होने वाला व्यय सीमाओं में रहे। नियंत्रण प्रणाली को मितव्ययी बनाने के लिए केवल महत्वपूर्ण बिन्दुओं का नियंत्रण किया जाना चाहिए, परन्तु इन बिन्दुओं के नियंत्रण में शुद्धता तथा गुणवत्ता का स्तर ऊंचा रखना चाहिए।
(10) निष्पक्षता (Objectivity)- नियंत्रण प्रक्रिया में नियंत्रकों की निष्क्षमता का बहुत महत्व है। जो भी व्यक्ति अधीनस्थों के परिणामों या निष्पादन (Performance) का भापन करता है, वह निष्पक्ष दृष्टिकोण वाला तथा अधीनस्थों को मान्य व्यक्ति होना चाहिए। यदि निष्पादन मापन में पक्षपात बरता जाता है तो न केवल नियंत्रण ही प्रभावहीन हो जाएगा बल्कि कर्मचारियों के मनोबल व कार्यक्षमता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
नियंत्रण प्रक्रिया का महत्व (IMPORTANCE OF CONTROL PROCESS)
निम्नांकित रूपों में नियंत्रण प्रक्रिया एक उपक्रम के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती हैं :
(1) जोखिम में कमी (Reduction in Risk)- नियंत्रण प्रक्रिया अपनाए जाने से लक्ष्यों को प्राप्त कर पाने को जोखिम कम हो जाती है। नियंत्रण प्रक्रिया के अन्तर्गत निष्पादन पर निरंतर नजर रखी जाती है और जरा भी विचलन होने पर सुधारात्मक कदम उठाए जाते हैं जिससे लक्ष्य प्राप्त करने में अधिक सुनिश्चितता उत्पन्न हो जाती है।
(2) प्रबन्धकीय कमियों का निवारण (Elimination of Managerial Short- comings)- नियंत्रण प्रक्रिया के अन्तर्गत लगभग सभी विभागों के निष्पादन तथा परिणामों का मापन किया जाता है, अतः जहां भी प्रबन्धकीय कमियां होती हैं वे इंगित हो जाती हैं जिनका इसके बाद निवारण किया जाना आसान होता है।
(3) नियोजन में सुधार (Improvement in Planning) – भूतकाल में लागू की नई नियंत्रण प्रक्रिया द्वारा नियंत्रकों तथा प्रबन्धकों को बहुत-सी कठिनाइयों का अनुभव हो जाता है। जिसके आधार पर वे भावी योजनाओं तथा कार्यक्रमों में सुधार करने में सक्षम हो जाते हैं।
(4) समन्वय में सुविधा (Ease in Co-ordination)- उपक्रम में नियंत्रण प्रक्रिया लागू किए जाने पर विभिन्न विभागों तथा उप-विभागों के कार्यों में सम्बन्ध बनाए रखना ही आवश्यक हो जाता है जिससे उपक्रम का सम्पूर्ण समन्वय कार्य आसान हो जाता है।
(5) प्रगति में साधक (Helpful in Progress) – कुल मिलाकर नियंत्रण प्रक्रिया उपक्रम की प्रगति में सहायक होती है क्योंकि नियंत्रण द्वारा व्यक्ति अधिक कार्यक्षम, सावधान तथा कुशल बन जाते हैं जो लक्ष्य के अनुरूप परिणाम प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। इस सबका अच्छा प्रभाव उपक्रम की प्रगति पर पड़ता है।
नियंत्रण प्रक्रिया की सीमाएं या कमियां (LIMITATIONS OR SHORT-COMINGS)
नियंत्रण प्रक्रिया के महत्व के साथ-साथ इसकी कुछ कमजोरियां भी हैं जो इसके प्रभावपूर्ण बनने में बाधा उपस्थित करती हैं:
(1) मापन की कठिनाई (Difficulty of Measurement) – उपक्रम के कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिनका मापन करना सम्भव नहीं होता है; जैसे जन-सम्पर्क विभाग, औद्योगिक सम्बन्ध विभाग तथा वित्त विभाग के कार्य। ऐसी दशा में मूल्यांकन करने में कठिनाई उत्पन्न होती है। इन विभागों पर नियंत्रण करने तथा उनके कार्य का
(2) उत्तरदायित्व निर्धारित करने में कठिनाई (Difficulty in Fixing Accountability)- कुछ ऐसे कार्य होते हैं जो बहुत-से व्यक्तियों द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं और उनके सम्बन्ध में यह निश्चित करना कठिन हो जाता है कि त्रुटि के लिए कौन उत्तरदायी है। ऐसी दशा में नियंत्रण व्यवस्था विभागीय स्तर पर प्रभावहीन हो जाती है।
(3) अधीनस्थों द्वारा विशेष (Opposition by Subordinates)- नियंत्रण में वरिष्ठ अधिकारी अधीनस्थों के कार्य का मापन करता है और अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करता है। यदि कार्य मापन में जरा भी पक्षपात बरता गया (जो मानव प्रकृति के अन्तर्गत सम्भव है) तो अधीनस्थों का मनोबल गिर जाता है और यह कुल मिलाकर उपक्रम के लिए हानिप्रद सिद्ध होता है।
(4) बाह्य शक्तियों को काबू पाने में असमर्थ (Unable to Control External Forces)- नियंत्रण प्रक्रिया संगठन की एक आन्तरिक व्यवस्था है, परन्तु कई बार उपक्रम के कार्य को बाह्य शक्तियां प्रभावित करती हैं; जैसे सरकारी नीति, बाजार दशाएं आदि। इन शक्तियों को नियंत्रण प्रक्रिया द्वारा काबू में नहीं लाया जा सकता और नियंत्रण प्रक्रिया लागू रहने पर भी वे अपना विपरीत प्रभाव उपक्रम पर डाल देती हैं।
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