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नियोजन के क्षेत्र अथवा व्यापकता (scope or pervasiveness of planning)
नियोजन के क्षेत्र- नियोजन एक व्यापक कार्य है अर्थात् एक उपक्रम में सभी स्तरों पर तथा सभी विभागों में नियोजन कार्य किया जाता है। सभी प्रबन्धक प्रबन्ध संचालक से लेकर पर्यवेक्षक तक योजना बनातें हैं यद्यपि योजना का क्षेत्र प्रबन्धक को प्राप्त अधिकारों द्वारा निर्धारित होता है। उदाहरण के लिए, एक सड़क पर कार्यरत मजदूरों का नेता (Gang-boss) या एक कारखाने में बीस मजदूरों का कार्य देखने वाला सुपरवाइजर भी अपने लक्ष्यों पर पहुंचने के लिए योजना बनाता है यद्यपि इसकी योजना महत्व व रणनीति की दृष्टि से सर्वोच्च प्रबन्ध द्वारा बनाई गई योजना से भिन्न होती है।
इस प्रकार एक उपक्रम में उपक्रम (enterprise) के स्तर पर, प्रभागों (division) के स्तर पर, विभागीय (departmental) स्तर पर तथा उपविभागीय (sectional) स्तर पर पृथक्-पृथक् योजना बनाई जाती है यद्यपि प्रत्येक निचले स्तर पर योजना का क्षेत्र सीमित होता चला जाता है। जिस प्रकार एक उपक्रम के सभी स्तरों पर नियोजन कार्य किया जाता है, उसी प्रकार नियोजन कार्य सभी प्रकार के उपक्रमों में किया जाता है चाहे उपक्रम का आकार व प्रकृति कुछ भी हो। लघु, मध्यम तथा वृहत आकार वाले सभी उपक्रमों में नियोजन लाभप्रद पाया गया है। इसी प्रकार चाहे निर्माणी उद्योग हो, चाहे सेवा उद्योग हो, चाहे अस्पताल या शिक्षण संस्थान हो, नियोजन की उपयोगिता सभी के लिए है। यही कारण है कि वृहत् निर्माणी उपक्रमों में तो नियोजन विभाग एक पृथक् स्वतंत्र विभाग के रूप में स्थापित कर दिया जाता है।
नियोजन के उद्देश्य (OBJECTIVES OF PURPOSES OF PLANNING)
एक व्यावसायिक उपक्रम में नियोजन के निम्न उद्देश्य कहे जा सकते हैं:
(1) दिशा निर्धारित करना- नियोजन द्वारा प्रबन्ध एक उपक्रम के भविष्य में झांकने का प्रयास करता है और इस प्रकार वह विवेकपूर्ण तरीके से उपक्रम के लिए भावी दिशा निर्धारित करता है ताकि भावी जोखिमों व अनिश्चितताओं का अनुमान कर उनके समाधान का मार्ग प्रशस्त किया जा सके।
(2) बाह्य वातावरण से सामंजस्य स्थापित करना- नियोजन के अन्तर्गत एक उपक्रम को प्रभावित करने वाले बाह्य घटकों (संगठन तथा संसाधन) का विश्लेषण किया जाता है ताकि दोनों में सामंजस्य स्थापित करके उपक्रम के सम्बन्ध में सर्वोत्तम निर्णय लिए जा सकें।
(3) संसाधनों का विवेकपूर्ण बंटवारा करना – चूंकि प्रत्येक उपक्रम में संसाधन सीमित होते हैं जिनके लिए विभिन्न विभाग दावेदार बनना चाहते हैं। ऐसी दशा में नियोजन का उद्देश्य संसाधनों को इकट्ठा करना तथा उनका विवेकपूर्ण ढंग से वितरण व प्रयोग करना हो जाता है। साथ ही भावी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर इन संसाधनों का विकास करना भी नियोजन का उद्देश्य है।
(4) अन्य प्रबन्धकीय कार्यों में सहायक होना- नियोजन अन्य प्रबन्धकीय कार्यों; जैसे संगठन, भरती, निर्देशन व नियंत्रण को सही ढंग से सम्पन्न करने के लिए एक पूर्व आवश्यकता है।
नियोजन का महत्व (SIGNIFICATION OF PLANNING)
प्रत्येक संस्था के लिए चाहे वह व्यावसायिक हो या गैर-व्यावसायिक, निम्न रूपों में नियोजन का महत्व है:
(1) नियोजन संगठन को प्रभावी बनाता है- नियोजन द्वारा उपक्रम को लक्ष्य प्राप्ति के लिए ऐसा मार्ग सुझाया जाता है जो अन्य मार्गों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित तथा छोटा होता है और जिस पर चलकर लक्ष्य पर पहुंचना आसान हो जाता है। नियोजन के अन्तर्गत उपक्रम द्वारा किए जाने वाले कार्य संयोग (chance) पर आधारित न होकर सोचे-विचारे हुए तथा व्यवस्थित तरीकों पर आधारित होते हैं।
(2) नियोजन द्वारा संस्था के विभिन्न कार्यों में समन्वय स्थापित होता है- जिस प्रकार थल सेना, वायु सेना व नौ सेना में समन्वय के बिना कोई युद्ध नहीं जीता जा सकता उसी प्रकार एक उपक्रम के विभिन्न विभागों-विपणन, उत्पादन, वित्त आदि के कार्यों में समन्वय स्थापित किए बिना लक्ष्य (goal) प्राप्त नहीं किया जा सकता और यह समन्वय सर्वांगीण तथा एकीकृत नियोजन प्रक्रिया द्वारा ही सम्भव होता है।
(3) नियोजन कर्मचारियों की कर्तव्यनिष्ठा को जगाता है- नियोजन संस्था के कर्मचारियों को यह बताता है कि संस्था का लक्ष्य क्या है तथा उस लक्ष्य की प्राप्ति में कर्मचारियों की क्या भूमिका है। इससे कर्मचारियों को सही दिशा-निर्देश मिलता है और उनका ध्यान लक्ष्य पर केन्द्रित किया जा सकता है। इस प्रकार नियोजन उनमें कर्तव्यनिष्ठा का बोध जगाता है और कार्य के लिए अभिप्रेरित करता है। यदि योजना निर्माण में भी कर्मचारियों को भागीदार बनाया गया है तो उन्हें लक्ष्य की ओर बढ़ने में अत्यधिक आत्म संतुष्टि मिलती है।
(4) नियोजन द्वारा समय के साथ चलना सम्भव होता है- आज उपक्रम पर उसके बाह्य वातावरण- सरकारी नीति, टेक्नोलॉजी, प्रतिस्पर्द्धा आदि का विशेष प्रभाव पड़ता है और बाह्य वातावरण में परिवर्तन भी तीव्रता से होते हैं। सरकार में परिवर्तन के साथ नीतियां बदल जाती हैं, दिन प्रतिदिन टेक्नोलॉजी में परिवर्तन होते रहते हैं। ऐसे परिवर्तनशील युग में वही उपक्रम सफलता प्राप्त करता है जिसके प्रबन्धक बदलते हुए वातावरण के अनुसार अपनी नीतियों व कार्यप्रणाली में परिवर्तन ला सकें। यह नियोजन द्वारा ही सम्भव है जिसके अन्तर्गत प्रबन्ध, व्यवसाय जगत में होने वाले भावी परिवर्तनों का विश्लेषण कर व्यवसाय का संचालन व नियंत्रण करता है।
(5) प्रतिस्पर्द्धात्मक शक्ति में वृद्धि होती है- नियोजन एक फर्म को उसकी प्रतिस्पर्द्धा फर्मों की तुलना में अधिक शक्तिशाली बनाता है। नियोजन के अन्तर्गत प्रबन्धकों को भावी प्रतिस्पर्द्धा का पहले से अनुमान लगाना पड़ता है, अतः ऐसा प्रबन्ध अपने उत्पाद और सेवाओं में समय पूर्व सुधार करके दूसरी फर्मों से बाजी मार ले जाता है।
(6) साधनों का सदुपयोग सम्भव हो पाता है- नियोजन के अन्तर्गत भूतकाल के विभिन्न आंकड़ों व सूचनाओं का विश्लेषण करके भविष्य का अनुमान लगाया जाता है, अतः उत्पादन, विक्रय आदि के अनुमान लगभग वास्तविकता के करीब होते हैं जिससे फर्म के भौतिक एवं मानवीय संसाधनों का अधिकतम उपयोग सम्भव होता है और फर्म को उत्पादकता तथा लाभों में वृद्धि होती है।
(7) नियोजन प्रबन्ध के अन्य कार्यों के सम्पादन में योगदान देता है- नियोजन प्रबन्ध के अन्य कार्यों—संगठन, भरती, प्रेरणा, नेतृत्व एवं नियंत्रण के सुचारु रूप से संचालन में सहायक होता है। नियोजन और नियंत्रण तो एक ही सिक्के के दो पहलू (sides) माने जाते हैं। नियोजन के अन्तर्गत बनाए गए बजट आदि द्वारा उपक्रम के कार्यों पर नियंत्रण करना सम्भव हो जाता है। नियोजन कर्मचारियों को दिशा-निर्देश, नेतृत्व व प्रेरणा भी प्रदान करता है।
(8) नियोजन आत्म-विश्वास जगाता है- परिवर्तन समय की मांग है, परन्तु नियोजन के अन्तर्गत परिवर्तनों को समायोजित करना अपेक्षाकृत आसान है क्योंकि नियोजन प्रबन्ध को वह अस्त्र प्रदान करता है जिससे प्रबन्ध भावी आकस्मिकताओं का साहस एवं आत्म-विश्वास के साथ सामना कर सकता है।
(9) नियोजन द्वारा उपक्रम को वित्तीय लाभ भी प्राप्त होता है- इस सम्बन्ध में किए गए विभिन्न अध्ययनों से यह सिद्ध हो चुका है कि प्रभावपूर्ण नियोजन उपक्रम के वित्तीय लाभों में भी वृद्धि करता है। छः भिन्न उद्योगों के 7.5 करोड़ रुपए से अधिक बिक्री वाले उपक्रमों में किए गए सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष निकाला गया कि सभी उद्योगों में नियोजन करने वाली फर्मों के वित्तीय परिणाम, नियोजन न अपनाने वाली फर्मों से उत्तम थे तथा ऐसे उद्योगों में जो तीव्र परिवर्तनों का सामना करते हैं; जैसे औषधि, रसायन तथा मशीनरी में नियोजन वित्तीय परिणामों की दृष्टि से अत्यन्त लाभदायक पाया गया है।
(10) नियोजन लघु उपक्रमों के लिए भी उपयोगी है- नियोजन वृहत् आकार वाले उपक्रमों के लिए तो उपयोगी है ही, परन्तु शोध कार्यों के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि नियोजन लघु उपक्रमों के सुचारु संचालन के लिए भी उपयोगी है। यू.एस.ए. में रॉबिन्सन जूनियर तथा जे. पीयर्स द्वारा किए गए 42 फर्मों के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि निर्माणी तथा सेवा सम्बन्धी उपक्रमों में नियोजन महत्त्वपूर्ण लाभ प्रदान करता है।
नियोजन की समस्याएं अथवा सीमाएं (LIMITATIONS OF PLANNING)
यद्यपि वृहत् और लघु सभी प्रकार के उपक्रमों के लिए नियोजन लाभकारी है फिर भी सभी फर्म नियोजन में विश्वास नहीं करतीं और कुछ प्रबन्धक भी नियोजन कार्य में रुचि नहीं लेते। इसके अग्र कारण कहे जा सकते हैं:
(1) भविष्य की अनिश्चितता- इस बात को सभी मानते हैं कि भविष्य अनिश्चित तथा अनियंत्रित है, अतः भविष्य के बारे में सही अनुमान लगा पाना असम्भव प्रतीत होता है। इसी आधार पर प्रबन्धक नियोजन कार्य को निरर्थक तथा अव्यावहारिक मानते हैं।
(2) शीघ्र परिवर्तन की समस्या – यद्यपि पूर्वानुमान की वैज्ञानिक तकनीकों का प्रयोग करके भविष्य की अनिश्चितता को कुछ कम किया जा सकता है परन्तु वातावरण में जल्दी-जल्दी होने वाले परिवर्तन दीर्घकालीन नियोजन को जटिल बना देते हैं। सरकारी नीतियों, राजनीतिक ढांचे, टेक्नोलॉजी आदि में तेजी से परिवर्तन होते हैं जो उपक्रम की योजना में भी बार-बार परिवर्तन करने के लिए बाध्य करते हैं।
(3) व्ययसाध्य- योजना बनाने के लिए स्टाफ की जरूरत पड़ती है, अनुमान लगाने पर, आंकड़े संग्रहण आदि पर व्यय करना पड़ता है। प्रबन्धकों का भी काफी समय योजना कार्य पर खर्च होता है। इस प्रकार कुछ फर्म नियोजन कार्य को व्ययसाध्य मानती हैं और नहीं अपनाना चाहतीं।
(4) नीरस कार्य- योजना बनाने का कार्य मुख्यतया सोचना तथा कागजी खानापूरी से सम्बन्ध रखता है जबकि प्रबन्धक सक्रिय कार्य करना पसंद करते हैं, अतः उनके लिए नियोजन कार्य नीरस प्रकृति का बन जाता है।
(5) प्रबन्धकों के विश्वास की समस्या – सामान्यतया विद्यमान उपक्रम जिनमें पिछले काफी समय से परम्परागत ढंग से कार्य होता चला आ रहा है, उनके प्रबन्धक भी पुराने विचारों, विश्वास और परम्पराओं के अभ्यस्त होते हैं और ये नियोजन आदि कार्यों को अपव्यय की संज्ञा देते हैं। ऐसे प्रबन्धक परिवर्तन का विरोध करते हैं और वहां नियोजन को अपनाना और सफल बनाना प्रायः कठिन हो जाता है।
(6) नियंत्रण का भय – वास्तव में नियोजन और नियंत्रण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यदि एक फर्म में नियोजन प्रक्रिया अपनायी जाती है तो वहां प्रबन्धकीय उपलब्धियों का मापन करना ही पड़ता है। अतः सामान्यतया प्रबन्धक नहीं चाहते कि दूसरों को यह पता लगे कि या तो उनके द्वारा बनायी गई योजना उत्कृष्ट किस्म की थी या उनकी उपलब्धियां योजना के अनुरूप नहीं रहीं।
(7) कार्य और पुरस्कार में समयान्तर- नियोजन एक, तीन या पांच वर्ष की भावी अवधि के लिए होता है अतः नियोजनकर्ता को नियोजन की सफलता का श्रेय या पुरस्कार तुरंत प्राप्त नहीं हो सकता, अतः प्रबन्धक उन कार्यों को अधिक महत्व देते हैं जिनसे उन्हें तुरंत श्रेय या पुरस्कार प्राप्त होता है।
(8) लोच का अभाव – नियोजन के अन्तर्गत नीतियां व कार्यविधियां निर्धारित कर दी जाती हैं जो धीरे-धीरे प्रबन्धकों की आदतों का अंग बन जाती हैं। इसके उपरांत यदि परिस्थितियों में परिवर्तन होने पर इनमें संशोधन किया जाता है तो कर्मचारी एवं प्रबन्धक इसका विरोध करते हैं इस प्रकार कर्मचारी सम्बन्ध भी प्रभावित होते हैं।
(9) भारी पूंजी विनियोजन- जब कभी किसी परियोजना में किया गया भारी विनियोग परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण लाभप्रद होने के स्थान पर हानिप्रद बन जाता है तो सम्बन्धित प्रबन्धक उस डूबी हुई पूंजी को पुनर्जीवित करने में ही जुटे रहते है और भावी नियोजन पर से अपना ध्यान हटा लेते हैं। इस प्रकार डूबी हुई पूंजी नियोजन में बाधक बन जाती है।
(10) निर्णयन में देरी- नियोजन में समय लगता है जबकि आपातस्थिति तुरंत निर्णय लेने पर जोर देती है। इस प्रकार प्रबन्ध के दृष्टिकोण से नियोजन अव्यावहारिक बन जाता है।
(11) वैयक्तिगत प्रेरणा का ह्रास- यदि उपक्रम या फर्म में केन्द्रीकृत योजना लागू की जाती है तो योजना में मात्र उच्च प्रबन्ध के लोग सम्मिलित होते हैं। ऐसे योजना नीचे के लोगों पर थोपी हुई मानी जाती है जिससे उनकी वैयक्तिक प्रेरणा का ह्रास होता है।
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