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नियोजन में लोच की समस्या (PROBLEM OF FLEXIBILITY IN PLANNING)
नियोजन में लोच की समस्या- चूंकि भविष्य अनिश्चित है, अतः योजना सामान्यतया ठीक उस प्रकार कार्य नहीं करती जैसी कि अपेक्षा की जाती है। अतः कोई भी योजना और विशेषकर रणनीतिक योजना नियमित रूप से पुनरीक्षित तथा संशोधित की जानी चाहिए। ऐसी योजना जिसमें संशोधन न किया जा सके बेकार होती है। परन्तु पुनरीक्षण तथा संशोधन प्रक्रिया शुद्ध एवं समयानुकूल सूचना पर आधारित होनी चाहिए। अधिकांश संगठनों में लेखा प्रणाली भूतकाल के निष्पादन का आकलन करने में प्रयोग की जाती है, परन्तु भविष्य का लक्ष्य निर्धारित करने में आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, टेक्नोलॉजीकल तथा प्रतिस्पर्द्धात्मक प्रवृत्तियों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, कार्यशील महिलाओं की संख्या में वृद्धि, कारों की मांग में वृद्धि उत्पन्न कर सकती है और प्रबन्धक की योजना में संशोधन की जरूरत हो जाती है। अतः प्रत्येक योजना को लोचपूर्ण रखना चाहिए ताकि परिस्थिति कें अनुसार उसमें संशोधन सम्भव हो सके।
वैसे भी नियोजन में लक्ष्य गतिशील बना रहता है। सामान्यतया इससे पहले कि निर्धारित लक्ष्य प्राप्त हो पाए, उसमें संशोधन की आवश्यकता पड़ जाती है और नवीन लक्ष्य निर्धारित कर दिया जाता है। प्रभावी एवं दक्ष प्रबन्ध यह चाहता है कि आवश्यकता होने पर योजना में संशोधन किया जाना चाहिए तथा संगठन के सभी प्रयास संशोधित लक्ष्य की ओर पुनर्निर्देशित कर दिए जाने चाहिए। यहां यह ध्यान रहे कि यह तभी किया जाना चाहिए जब संशोधित या नई योजना संगठन तथा इसके सदस्यों के हितों के लिए बेहतर दिखाई दे। अतः योजना लोचपूर्ण होना आवश्यक है।
नियोजन को प्रभावी बनाने के लिए सुझाव अथवा सिद्धांत (SUGGESTIONS OR PRINCIPLES FOR MAKING PLANNING EFFECTIVE)
नियोजन की उपर्युक्त वर्णित सीमाओं के आधार पर हमें यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि नियोजन व्यर्थ है या नियोजन एक अपव्यय है। वास्तव में, आधुनिक प्रतिस्पर्द्धात्मक युग में नियोजन एक आवश्यकता है और मुख्य बात यह है कि नियोजन कार्य कितने प्रभावपूर्ण तरीके से किया जाना है। नियोजन को प्रभावी बनाने के लिए निम्न सुझावों पर ध्यान दिया जाना चाहिए:
(1) योजना अवधि – नियोजन अल्पकाल के लिए हो या दीर्घकाल के लिए हो, यह सोचना अति आवश्यक है क्योंकि योजना अवधि उपक्रम की प्रकृति और परिस्थितियों पर निर्भर करती है। हवाई जहाज निर्माण वाली कम्पनी को नियोजन अवधि 8-10 वर्ष की रखनी पड़ सकती है क्योंकि इसमें उत्पादन से पूर्व इंजीनियरी व विकास के लिए और उसके बाद वाणिज्यिक स्तर पर उत्पादन के लिए कई वर्ष का समय चाहिए होता है, परन्तु एक जूता निर्माण करने वाली कम्पनी को 2-3 वर्ष की नियोजन अवधि ही पर्याप्त होगी। वास्तव में, यह प्रयास किया जाना चाहिए कि दीर्घकालीन नियोजन अवधि विनियोग परियोजना अवधि से मेल खाए।
(2) दीर्घकालीन व अल्पकालीन नियोजन में समन्वय – नियोजन को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए आवश्यक है कि एक उपक्रम के दीर्घकालीन व अल्पकालीन नियोजन में समन्वय रहे। अल्पकालीन योजना के अन्तर्गत बनाए गए बजट संस्था के दीर्घकालीन उद्देश्यों व रणनीति के अनुरूप रहें। कभी-कभी अदूरदर्शिता पूर्ण नीति के कारण ये योजनाएं समन्वित न रहकर बाधक बन जाती हैं। उदाहरण के लिए, यदि एक छोटी कम्पनी अपनी क्षमता से ज्यादा माल की आपूर्ति करने का आदेश स्वीकार कर लेती है तो उसकी अल्पकालीन योजना के अन्तर्गत संसाधनों की अत्यधिक आवश्यकता उनके दीर्घकालीन नियोजन और विकास पर विपरीत प्रभाव डालेगी।
(3) नियोजन कार्य हेतु उपयुक्त वातावरण बनाना- चूंकि सामान्यतया लोग एक परम्परागत, तरीके से कार्य करने के अभ्यस्त होते हैं, वे नियोजन को पसन्द नहीं करते। अतः आवश्यकता इस बात की है कि सम्पूर्ण उपक्रम में नियोजन के महत्व को प्रसारित किया जाए तथा नियोजन के लिए आवश्यक सभी सुविधाएं जुटाई जाएं। कर्मचारियों द्वारा नियोजन कार्य की, की जाने वाली आलोचनाओं को गौर से सुना जाए और उनकी आपत्तियों का निराकरण करके उनमें नियोजन के प्रति आस्था पैदा की जाए।
(4) नियोजन कार्य में सहभागिता – यद्यपि कुछ लोग नियोजन को सर्वोच्च प्रबन्ध का कार्य मानते हैं परन्तु नियोजन सफलतापूर्वक तभी लागू किया जा सकता हैं जब उसमें मध्य-स्तरीय एवं प्रथम-स्तरीय प्रबन्धक भी सहभागी बनें। विभागीय लक्ष्य व नीतियों के निर्धारण में उनका रचनात्मक सहयोग किया जाए तभी वे नियोजन प्रक्रिया के प्रति वफादार बन सकेंगे।
(5) समुचित संदेशवाहन – प्रायः यह देखने को मिलता है कि समुचित संदेशवाहन के अभाव में नियोजन के अन्तर्गत निर्धारित किए गए लक्ष्यों, उद्देश्यों व नीतियों आदि के सम्बन्ध में अनेक भ्रांतियां उत्पन्न हो जाती हैं जो नियोजन की विफलता का कारण बनती हैं। अतः प्रभावी नियोजन के लिए यह आवश्यक है कि सम्पूर्ण संस्था में संदेशवाहन प्रक्रिया ठीक रूप में कार्य करे। समय-समय पर अधीनस्थ प्रबन्धकों की मीटिंग कर उन्हें नियोजन लक्ष्यों के सम्बन्ध में हुई प्रगति तथा बाधाओं से भी अवगत कराया जाए और उनके सुझाव आमंत्रित किए जाएं।
(6) उद्देश्यों की स्पष्टता- कम्पनी के उद्देश्य स्पष्ट, न्यायोचित तथा प्राप्त किए जाने योग्य होने चाहिए। यदि उद्देश्य अस्पष्ट तथा भ्रमात्मक हैं तो सही एवं प्रभावपूर्ण नियोजन करना सम्भव नहीं होता।
(7) अत्यधिक आशावादी न होना- प्रभावपूर्ण नियोजन के लिए यह आवश्यक है कि नियोजनकर्ता वास्तविकता के धरातल पर रहे, कल्पना लोक में विचरण न करे। भावनाओं से प्रेरित अत्यधिक आशावादिता नियोजन को यथार्थ से दूर ले जाती है।
(8) लोच का सिद्धांत – नियोजन को प्रभावी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि नियोजन लोचपूर्ण हो। नियोजन के अन्तर्गत हो रही प्रगति या उपलब्धियों का निरंतर पुनरीक्षण किया जाना चाहिए और जैसी स्थिति हो उसके अनुरूप उसी समय संशोधित कर दी जानी चाहिए।
(9) नियोजन और वातावरण में सामंजस्य – वर्तमान तथा भावी वातावरण का सही आकलन किया जाए। यदि वातावरण में अधिक अनिश्चितता दिखती हो तो नियोजन करते समय पर्याप्त लोच रखी जाए तथा अल्पकालीन नियोजन पर अधिक ध्यान दिया जाए। दीर्घकालीन योजना को अनुकूलतम अवधि वाली योजनाओं में बांट लिया जाए।
(10) नियोजन क्षमता के अनुरूप होना- नियोजन कार्य के अन्तर्गत एक उपक्रम को सामान्यतया एक पृथक् विभाग ही स्थापित करना पड़ जाता है साथ ही सूचनाएं व आंकड़ों के संग्रहण व विश्लेषण पर भी पर्याप्त व्यय करना होता है। इस प्रकार नियोजन कार्य व्ययसाध्य हो जाता है इसलिए यह आवश्यक है कि नियोजन विभाग की रचना व आकार उपक्रम की आवश्यकतानुसार ही रखा जाए। लघु उपक्रमों में नियोजन कार्य के लिए पूर्ण विभाग की स्थापना न करके इसे किसी अन्य प्रबन्धक के अधीन भी रखा जा सकता है ताकि नियोजन पर आने वाला व्यय उपक्रम की वहन करने की क्षमता के अनुरूप ही रहे।
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