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प्रबन्ध की परिभाषा, कार्य अथवा प्रक्रिया, स्तर, आवश्यकता एवं महत्व

प्रबन्ध की परिभाषा, कार्य अथवा प्रक्रिया, स्तर, आवश्यकता एवं महत्व
प्रबन्ध की परिभाषा, कार्य अथवा प्रक्रिया, स्तर, आवश्यकता एवं महत्व

प्रबन्ध की परिभाषा (Definition of Management)

प्रबन्ध की प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित हैं:

(1) अमेरिकन सोसाइटी ऑफ मैकेनीकल इन्जीनियर्स के अनुसार, “प्रबन्ध मानवीय प्रयासों को तैयार करने, संगठित करने तथा निर्देशित करने की उस कला व विज्ञान का नाम है जो मनुष्य के लाभ के लिए शक्तियों को नियंत्रित करता है तथा प्रकृति दत्त माल का सदुपयोग करता है।”

(इस परिभाषा में प्रबन्ध को कला और विज्ञान दोनों माना गया है तथा मानवीय और भौतिक दोनों ही प्रकार के संसाधनों के सदुपयोग पर जोर दिया गया है। अतः यह परिभाषा अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त व विस्तृत मानी जा सकती है।)

(2) विलियम स्प्रीगल के अनुसार, “प्रबन्ध एक उपक्रम के उस कार्य को कहते हैं जो व्यावसायिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए विभिन्न क्रियाओं के निर्देशन व नियंत्रण से सम्बन्ध रखता है। प्रबन्ध वास्तव में एक प्रशासनिक कार्य है यह मानवीय प्रयासों को सक्रिय निर्देशन प्रदान करता है।”

(यद्यपि यह परिभाषा मानवीय संसाधनों के सदुपयोग के साथ-साथ प्रबन्ध द्वारा अन्य व्यावसायिक क्रियाओं के निर्देशन व नियंत्रण को भी प्रबन्ध के कार्यों में सम्मिलित करके उसे विस्तृत स्वरूप प्रदान करती है तथापि इसमें गैर-व्यावसायिक कार्यों के प्रबन्ध को सम्मिलित न करके परिभाषा को संकुचित कर दिया गया है।)

(3) लुइस ऐलन के अनुसार, “प्रबन्ध वही है जो प्रबन्धक कार्य करता हैं।”

(यह परिभाषा थोड़े शब्दों में प्रबन्ध की विस्तृत परिभाषा है। इसमें प्रबन्धक के सभी कार्यों को प्रबन्ध की संज्ञा दी गई है, परन्तु परिभाषा में स्पष्टता तथा व्याख्या का अभाव है, क्योंकि परिभाषा में प्रबन्धकों के कार्यों का जरा भी उल्लेख नहीं किया गया है। )

(4) हेनरी फेयोल के अनुसार, “प्रबन्ध से आशय पूर्वानुमान लगाना एवं योजना बनाना, आदेश देना, समन्वय करना तथा नियंत्रण करना है। “

(यह परिभाषा प्रबन्ध के समस्त कार्यों पर प्रकाश डालती है तथा यह मात्र व्यवसाय प्रबन्धन तक सीमित न होकर सभी क्षेत्रों पर लागू होती है अतः उपयुक्त है, परन्तु इसमें प्रबन्ध के विज्ञान अथवा कलात्मक पक्ष पर दृष्टिपात नहीं किया गया है।)

(5) न्यूमैन व समर के अनुसार, “प्रबन्धक वह व्यक्ति है जो लक्ष्य पर पहुंचने के लिए लोगों तथा अन्य संसाधनों के साथ मिलकर कार्य सम्पन्न कराता है। वह स्वयं कार्य करने की अपेक्षा दूसरों के कार्य का समन्वय करता है। प्रबन्ध का सम्पूर्ण कार्य संगठन करना ‘योजना बनाना ‘ नेतृत्व प्रदान करना है और नियंत्रण करना है।”

(यह परिभाषा भी प्रबन्ध के सम्पूर्ण कार्यों पर प्रकाश डालती है और प्रबन्धक के कार्य को स्पष्ट करती है, परन्तु इसमें यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि प्रबन्ध विज्ञान है या कला फिर भी यह परिभाषा उपयुक्त मानी जा सकती है। )

(6) जॉर्ज आर. टेरी के अनुसार, “प्रबन्ध एक विशिष्ट प्रक्रिया है, जो नियोजन, संगठन, कार्यान्वयन तथा नियंत्रण से मिलकर बनती है। यह व्यक्तियों तथा संसाधनों के उपयोग द्वारा उद्देश्यों के निर्धारण एवं प्राप्ति हेतु सम्पादित की जाती है।”

(यह परिभाषा प्रबन्ध के अधिकांश कार्यों पर प्रकाश डालती है तथा व्यावसायिक एवं गैर-व्यावसायिक सभी क्षेत्रों में लागू होती है, अतः परिभाषा उपयुक्त है।)

प्रबन्ध के कार्य अथवा प्रक्रिया (function or process of management)

प्रबन्ध के कार्यों को भली-भांति समझने से पूर्व यह आवश्यक प्रतीत होता है कि हम यह जानें कि कौन व्यक्ति प्रबन्धक कहा जाता है ? वास्तव में, एक अर्थ में हममें से प्रत्येक व्यक्ति प्रबन्धक है, क्योंकि वह अपने समय, धन व योग्यताओं का नियोजन, नियंत्रण व निर्देशन करता है ताकि उनका पूर्ण सदुपयोग किया जा सके। इस प्रकार प्रत्येक परिवार में माता-पिता अपने बच्चों तथा घरेलू कार्यों ESTA का प्रबन्ध करते हैं, विद्यार्थी विभिन्न विषयों को पढ़ने के लिए अपने समय का प्रबन्ध करते हैं, प्राचार्य विद्यालयों का प्रबन्ध करते हैं, प्रबन्ध संचालक कम्पनियों का प्रबन्ध करते हैं तथा प्रधानमंत्री एवं मंत्रीगण राष्ट्र का प्रबन्ध करते हैं और इस रूप में ये सभी प्रबन्धक कहे जा सकते हैं।

परन्तु यहां प्रबन्ध के कार्यों में अधिक स्पष्टता लाने के लिए प्रबन्धकीय तथा गैर प्रबन्धकीय कार्यों के मध्य एक रेखा खींचनी होगी। इस दृष्टि से किसी भी फर्म या संगठन के कार्यों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है:

(1) गैर-प्रबन्धकीय या परिचालन कार्य (Operating task)- जिसमें एक व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह किसी अन्य के निर्देशन व नियंत्रण में एक निश्चित कार्य करता है; जैसे पत्र टाइप करना, मशीन चलाना, क्लब में नाचना, अस्पताल में मरीजों को दवा देना, कक्षा में पढ़ाना, आदि। ये प्रबन्धक नहीं कहे जाते।

(2) प्रबन्धकीय कार्य (Managerial task)- जिसमें कोई व्यक्ति अधीनस्थ व्यक्तियों से तथा उनके साथ मिलकर अपने नियंत्रण व निर्देशन के अन्तर्गत कार्य सम्पन्न कराता है; जैसे कॉलेज का प्राचार्य शिक्षण कार्य सम्पन्न कराता है, मुख्य चिकित्सा अधिकारी जिला स्वास्थ्य सेवाओं को सम्पन्न कराता है तथा विक्रय प्रबन्धक वस्तुओं के विक्रय के कार्य को सम्पन्न कराता है। ये प्रबन्धक कहे जाते हैं। वास्तव में, प्रबन्धकीय कार्य गैर-प्रबन्धकीय कार्य से इसी रूप से भिन्न है कि प्रबन्धकीय कार्य में अधीनस्थों के कार्यों के समन्वय में उत्तरदायित्व भी सम्मिलित होता है।

प्रबन्ध के स्तर (Levels of Management)

हम कभी-कभी केवल बड़ी फर्म या कम्पनियों के सर्वोच्च पदासीन अधिकारियों को ही प्रबन्धक कहते हैं, परन्तु यह भ्रमात्मक एवं गलत है। वास्तव में, प्रत्येक प्रकार के संगठन या फर्म में, जो व्यावसायिक है या गैर-व्यावसायिक, बड़ी है या छोटी, विभिन्न स्तरों पर कार्य सम्पन्न कराने वाले सभी लोग प्रबन्धक वर्ग में आते हैं। प्रबन्ध के इन विभिन्न स्तरों को सामान्यतया तीन भागों में बांटा जाता है, जैसा कि चित्र में प्रदर्शित किया गया है:

(1) उच्च प्रबन्ध (Top Management)- इसमें कम्पनी का अध्यक्ष, प्रबन्ध संचालक, संचालक तथा मुख्य प्रबन्धक सम्मिलित किए जाते हैं, जो कम्पनी को दिशा प्रदान करते हैं, कम्पनी के लिए लक्ष्य, उद्देश्य, नीतियां, आदि निर्धारित करते हैं। कम्पनी का उच्च प्रबन्ध ही अंशधारियों के प्रति उत्तरदायी होता है। इसे प्रशासन के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है।

(2) मध्यवर्ती प्रबन्ध (Middle Management) – इसमें विभागीय प्रबन्धक, सहायक प्रबन्धक, संयंत्र प्रबन्धक, क्षेत्रीय विक्रय प्रबन्धक, आदि सम्मिलित किए जाते हैं। इसका कार्य उच्च प्रबन्ध द्वारा निर्धारित उद्देश्यों, लक्ष्यों, रणनीति व नीतियों की व्याख्या करना तथा उन्हें कार्य रूप देना है। उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु पर्यवेक्षकों को उचित मार्गदर्शन देना, अभिप्रेरित करना तथा नेतृत्व प्रदान करना भी इसका कार्य है।

(3) प्रथम श्रेणी प्रबन्ध (First-line Management) – इसके अन्तर्गत मुख्यतया सभी विभागों के पर्यवेक्षक, टीम लीडर, आदि सम्मिलित किए जाते हैं। इसका प्रमुख कार्य दैनिक कार्य-परिचालन में श्रमिकों से कार्य सम्पन्न कराना होता है। यह श्रमिकों के प्रत्यक्ष सम्पर्क में रहते हैं तथा श्रमिकों और मध्यवर्ती प्रबन्ध के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य करते हैं। उत्पादन हेतु मशीन, औजार, कच्चे माल, आदि की व्यवस्था करना, श्रमिकों को कार्यविधि समझाना, उन्हें प्रशिक्षण, देना, उनकी समस्याओं से मध्य एवं उच्च प्रबन्ध को अवगत कराना, दिन-प्रतिदिन के कार्य का नियोजन करना, आदि प्रथम स्तरीय प्रबन्ध के कार्य हैं।

प्रत्येक राष्ट्र में घृहत् आकार वाले निगम स्थापित हो गए हैं जिनका प्रबन्ध पेशेवर प्रबन्धकों द्वारा किया जाता है थद्यपि इन निगमों (corporations) का स्वामित्व दूर-दराज तक फैले अंशधारियों में निहित होता है। अब तक यह माना जाता था कि इन निगमों के प्रबन्धकों का उत्तरदायित्व केवल अंशधारियों तक सीमित है अर्थात् उनका मुख्य ध्येय अधिकतम लाभ अर्जित कर अंशधारियों की संतुष्टि करना है, परन्तु अब यह अवधारणा बदल रही है, क्योंकि ये निगम समाज के अंग हैं, समाज के संसाधनों का प्रयोग करते हैं अतः इन्हें समाज के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए; अर्थात् इन्हें अंशधारियों के अतिरिक्त कर्मचारियों, उपभोक्ताओं, सरकार व समाज के प्रति भी उत्तरदायी होना चाहिए। इन निगमों के प्रबन्धकों को चाहिए कि ये लाभ अर्जित करने के साथ-साथ निम्न रूपों में समाज की भी सेवा करें:

(i) रोजगार के अवसर बढ़ाकर निर्धनता को दूर करना,

(ii) अस्पताल व शिक्षण संस्थाओं की स्थापना कर अशिक्षा एवं बीमारियों को दूर करना,

(iii) प्रदूषण को न्यूनतम कर वातावरण को शुद्ध रखना,

(iv) कर्मचारियों की कार्य दशाओं में सुधार करना,

(v) कर्मचारियों व समाज के गरीब वर्ग के लिए आवास व्यवस्था करना,

(vi) उपभोक्ताओं को उचित मूल्य पर उच्च किस्म का माल उपलब्ध कराना,

(vii) सरकार को उचित कर देकर राष्ट्र उत्थान में योगदान करना आदि।

प्रबन्ध का ध्येय सामाजिक सेवा हो, इसके समर्थन में सामान्यतया अग्रांकित तर्क दिए जाते हैं:

(1) एक निगम या कम्पनी में हित रखने वाले समाज के विभिन्न समूह हैं, अंशधारी उनमें से मात्र एक समूह है, अतः प्रबन्धकों को चाहिए कि ये समाज के सभी वर्ग या समूहों के हितों का ध्यान रखें।

(2) कम्पनी या निगम समाज के भाग हैं और वे समाज के संसाधनों का प्रयोग करते हैं तथा उनका जीवन व विकास सामाजिक रुख पर ही निर्भर करता है, अतः प्रबन्धकों द्वारा समाज सेवा करने में ही सार है।

(3) निगमों को आर्थिक व वाणिज्यिक शक्ति समाज से ही प्राप्त होती है, अतः यह आवश्यक है कि उन पर सामाजिक उत्तरदायित्व भी थोपा जाए अन्यथा निगमों के प्रबन्धक इस शक्ति का दुरुपयोग करने लगते हैं।

(4) निम्न प्रबन्धकों पर सामाजिक उत्तरदायित्व डालकर उनके नेतृत्व गुणों को समाज मान्यता प्रदान करता है। प्रबन्धक समाज सेवा करके उस मान्यता को साकार करते हैं।

(5) निगम-प्रबन्धक यदि स्वेच्छा से सामाजिक सेवा का ध्येय अपना लेते हैं तो वे सरकार या सदन को इस उद्देश्य के लिए कानून बनाने से रोक पाते हैं। यही उनके हित में है।

(6) सामाजिक सेवा का ध्येय, इन निगमों की लोक छवि (public image) को निखारता है। आज भी टाटा उपक्रम सामाजिक उत्तरदायित्व से परिपूर्ण माने जाते हैं।

(7) सामाजिक सेवा-भावना प्रबन्धकों को श्रेष्ठ नागरिक तथा पेशेवर प्रबन्धक के रूप में प्रस्तुत करती है जिससे उनका मनोबल ऊंचा उठता है।

भारत में प्रबन्ध की आवश्यकता एवं महत्व (NEED AND IMPORTANCE OF MANAGEMENT IN INDIA)

भारत एक विकासशील देश है जिसकी अपनी कुछ विशिष्ट समस्याएं हैं जो विकसित
देशों से भिन्न हैं; जैसे अधिक जनसंख्या, निर्धनता, बेरोजगारी, अशिक्षा आदि। अतः भारत में प्रबन्ध की भूमिका इन समस्याओं के निराकरण से जुड़ी है। वैसे भारतीय अर्थ-व्यवस्था के विकास के सन्दर्भ में प्रबन्ध का निम्न रूपों में महत्व दिखाई देता है।

(1) इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए (For the growth of infrastructure) – भारत में इन्फ्रास्ट्रक्चर अर्थात् आधारभूत सुविधाओं; जैसे बिजली, सड़कें, सिंचाई, यातायात व संदेशवाहन के साधनों का अभाव है जो देश के आर्थिक विकास को अवरुद्ध करता है। इन क्षेत्रों में अच्छे प्रबन्धन द्वारा विकास सम्भव है जिससे देश का शेष विकास जुड़ा हुआ है।

(2) ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए (For development of rural areas)- भारत की लगभग दो-तिहाई जनसंख्या अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है अतः कृषि एवं ग्रामीण उद्योगों के विकास की आवश्यकता है। अभी भी प्रबन्ध विशेष कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी सेवाएं देने में कतराते हैं और यही कारण है कि भारत में लघु तथा ग्राम्य उद्योगों का पूर्ण विकास नहीं हो सका है। यदि कुशाग्र प्रबन्ध उपलब्ध हो जाए तो सहकारी क्षेत्र में उद्योगों का विकास कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है।

(3) बेरोजगारी दूर करने के लिए (To remove unemployment) – भारत में जनसंख्या में तीव्र वृद्धि तथा उद्योगों के धीमे विकास ने बेरोजगारी में वृद्धि की है और अभी भी बेरोजगारी तथा अर्द्ध-बेरोजगारों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। ऐसी परिस्थिति में कुशाग्र प्रबन्ध से ही यह अपेक्षा की जा सकती है कि वह उद्योगों का सफल संचालन कर रोजगार के नए अवसर सृजित करें।

(4) भूमण्डलीकरण तथा उदारीकरण का सामना करने के लिए (To face for Golablisation and Liberalisation) – भारत गत दशक में भूमण्डलीकरण तथा उदारीकरण की ओर अग्रसर हुआ है। जिससे उद्योगों में प्रतिस्पर्द्धा तीव्र हो गई है। भारत के उद्योग अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की प्रतिस्पर्द्धा में टिक पाने में कठिनाई का सामना कर रहे हैं। बहुत सारी भारतीय कम्पनी हानि उठाकर बन्द हो रही हैं। ऐसी दशा में ऐसे कुशाग्र प्रबन्ध की आवश्यकता है जिससे अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण का ज्ञान हो तथा वृहत् आकार वाले उपक्रमों का प्रबन्ध कर सके।

(5) संसाधनों के पूर्ण सदुपयोग के लिए (For full utilisation of resources)- भारत में संसाधनों का अभाव नहीं है। देश विभिन्न खनिज पदार्थों से भरा पड़ा है, कृषि उन्नत अवस्था में है, वैज्ञानिक व इंजीनियर्स अत्यधिक संख्या में उपलब्ध हैं, परन्तु पूंजी का अभाव रहा है। अतः देश के संसाधनों के सदुपयोग के लिए ऐसे प्रबन्ध विशेषज्ञों की आवश्यकता है जो श्रम गहन टेक्नोलोजी को आधार बनाकर न केवल खनिजों का विदोहन करें बल्कि विदेशी पूंजी को आकर्षित कर और उसका उचित प्रयोग कर देश के अन्य भौतिक संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग कर सकें।

(6) निर्यात संवर्द्धन के लिए (For export promotion)- भारत के निर्यात विश्व तुलना में निम्न स्तर के हैं। इसके प्रमुख कारण हैं- भारतीय माल के ऊंचे मूल्य तथा अपेक्षाकृत घटिया किस्म। देश के विकास के लिए निर्यातों में तीव्र वृद्धि आवश्यक है जो कुशाग्र प्रबन्ध ही सम्भव बना सकता है। निर्यात प्रोत्साहन के लिए भारतीय प्रबन्धकों को माल की गुणवत्ता तथा लागतों पर ध्यान देना होगा।

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Anjali Yadav

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