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उत्पाद (वस्तु) के जीवन चक्र का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Life- Cycle of a Product)
उत्पाद (वस्तु) के जीवन चक्र का अर्थ- जिस प्रकार मानव जीवन को विभिन्न अवस्थाओं (शैशव, बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था तथा वृद्धावस्था) में बाँटा गया है, उसी प्रकार प्रत्येक वस्तु के जीवन काल को विभिन्न अवस्थाओं में विभक्त किया जा सकता है तथा प्रत्येक वस्तु को उन विभिन्न अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है। ये विभिन्न अवस्थायें ही ‘वस्तु के जीवन चक्र’ के नाम से जानी जाती है।
फिलिप कोटलर के अनुसार “उत्पाद जीवन-चक्र किसी उत्पाद के विक्रय इतिहास की विभिन्न स्थितियों को जानने का प्रयास है।”
आर्क पैटन के शब्दों में- “एक उत्पादन का जीवन-चक्र अनेक बातों में मानवीय जीवन-चक्र के साथ समानता बताता है, उत्पाद का जन्म होता है, आवेगपूर्ण विकास होता है, प्रबल परिपक्वता पर पहुँचता है और फिर पतन की अवस्था को प्राप्त होता है।”
संक्षेप में कहा जा सकता है कि प्रत्येक उत्पाद को अपने जीवन काल में जिन-जिन अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है वे ही उसका जीवन-चक्र कहलाती हैं।
किसी उत्पाद का जीवन-चक्र कितना लम्बा होगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस वस्तु की प्रकृति क्या है ? कुछ वस्तुओं (जैसे- फैशन की वस्तुओं) का जीवन काल बहुत ही छोटा होता है अर्थात् कम समय में ही वे अपने जीवन की सभी अवस्थायें पूरी कर लेती हैं, जबकि इसके विपरीत, कुछ वस्तुओं का जीवन काल बहुत बड़ा होता है, जैसे- मशीनें, दवाइयाँ आदि। जिस प्रकार कुछ मनुष्य अपने जीवन की सभी अवस्थायें नहीं देख पाते और समय से पूर्व ही संसार से विदा होकर चले जाते हैं उसी प्रकार कुछ उत्पाद भी अपने जीवन काल की सम्पूर्ण अवस्थाओं से गुजरे बिना ही बाजार से अलग-अलग हो जाती है।
उत्पाद जीवन-चक्र की विभिन्न अवस्थायें या चरण (Various Stages of the Produce Life-Cycle)
उत्पाद जीवन चक्र की विभिन्न अवस्थाओं को मूल रूप से छः शीर्षकों में अग्रांकित रेखाचित्र की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है-
उत्पाद (वस्तु) जीवन-चक्र की विभिन्न अवस्थाओं का संक्षिप्त विवेचन निम्न प्रकार हैं-
1. प्रस्तुतीकरण (Introduction)- यह वस्तु के जीवन चक्र की प्रथम अवस्था होती है। इस अवस्था में वस्तु को बाजार में प्रविष्ट कराया जाता है, ग्राहकों को वस्तु के सम्बन्ध में जानकारी दी जाती है। इस अवस्था में प्रतिस्पर्धा नहीं होती तथा संवर्धनात्मक कार्यवाही अधिक मात्रा में की जाती है। इस अवस्था में उपभोक्ता वस्तु को खरीदने में हिचकते हैं अतः बिक्री की मात्रा काफी कम रहती है और लाभों की मात्रा बहुत कम या नगण्य होती है। इस कारण जोखिम की मात्रा अधिक होती है। विभिन्न उत्पाद इसी अवस्था में असफल हो जाते हैं और उन्हें अपने जीवन-चक्र के अन्य चरण देखने का अवसर ही नहीं मिल पाता।
2. विकास (Growth)- प्रथम अवस्था को पार करके वस्तु विकास की अवस्था में प्रवेश करती है। इस अवस्था में वस्तु को उपभोक्ता से मान्यता मिल जाती है। अन्य बाजार भागों में प्रवेश करने के लिए प्रयास किये जाते हैं। इस अवस्था में वस्तु का ब्राण्ड लोकप्रिय होने लगता है। और वस्तु की वितरण व्यवस्था मजबूत बनायी जाती है। इस अवस्था में वस्तु के उत्पादन में वृद्धि होने के कारण मितव्ययिता प्राप्त होने लगती है। विपणन की दृष्टि से इस अवस्था में संवर्धन व्यय ऊँचे ही रहते हैं लेकिन बिक्री में वृद्धि के कारण ये व्यय प्रति इकाई कम हो जाते हैं। इस अवस्था में बिक्री तथा लाभों में तेजी से वृद्धि होती है। अधिक लाभों से प्रभावित होकर अन्य उत्पादक भी इस प्रकार की वस्तु उत्पादित करने के लिए प्रेरित होते हैं। विकास की अवस्था में बिक्री में वृद्धि प्रस्तुतीकरण की अवस्था में किये गये प्रयासों का ही परिणाम होता है।
3. परिपक्वता (Maturity)- इस अवस्था में भी विक्रय वृद्धि लगातार होती है परन्तु उसकी दर में कमी आ जाती है। विक्रय वृद्धि की दर में कमी आने का प्रमुख कारण अनेक प्रतिस्पर्धियों का बाजार में प्रवेश कर जाना होता है। इस अवस्था में वस्तु बाजार में अपना स्थान काफी व्यापक बना लेती है और ग्राहक उसे काफी पसन्द करते हैं। इस अवस्था में वस्तु के मूल्य गिरने लगते हैं, संवर्धन व्ययों में वृद्धि होती है और लाभ की मात्रा कम हो जाती है। विपणन की दृष्टि से इस अवस्था में वस्तु के ब्राण्ड की लोकप्रियता को बनाये रखने के लिए प्रयास किये जाते हैं।
4. संतृप्ति (Saturation)- इस अवस्था में वस्तु का विक्रय अपनी उच्चतम सीमा पर पहुँच जाता है और फिर विक्रय में स्थिरता आ जाती है अर्थात् वह अपनी सफलता की चरम सीमा को छू लेती है। यह स्थिति उस समय तक बनी रहती है जब तक कि बाजार में वस्तु के नये स्थानापपन्न नहीं आ जाते। इस अवस्था में कड़ी प्रतियोगिता होती है। संवर्धन पर अधिक व्यय किये जाते हैं। वस्तु की लागतें बढ़ने लगती हैं, मूल्य गिर जाते हैं और लाभ की मात्रा बहुत कम हो जाती है। विपणन की दृष्टि से इस अवस्था में उत्पाद के नये-नये प्रयोग खोजे जाते हैं तथा बाजार विभक्तिकरण के द्वारा बाजार के विस्तार के लिए हर सम्भव प्रयास किये जाते हैं।
5. अवनति (Decline)- इस अवस्था में वस्तु की बिक्री कम होने लगती है क्योंकि अनेक स्थानापन्न वस्तुयें बाजार में अपना स्थान ग्रहण कर लेती हैं। ये स्थानापन्न वस्तुयें वर्तमान उत्पाद से अधिक अच्छी होती है और यहीं कारण है कि ग्राहक अपेक्षाकृत इन स्थानापत्रों को ही अधिक पसन्द करने लगते हैं तथा वर्तमान वस्तु की बिक्री लगातार कम होती चली जाती है और लाभों की मात्रा लगभग समाप्त हो जाती है। इस अवस्था में प्रायः अनेक कम्पनियाँ वस्तु के उत्पादन को बन्द करने का निर्णय ले लेती हैं जिससे साधनों का किसी नयी वस्तु के उत्पादन के लिए उपयोग किया जा सके।
6. अप्रचलन (Obsolescence)- यह ऐसी अवस्था होती है जबकि उत्पाद की बिक्री लगभग समाप्त हो जाती है और लाभ की वस्तुयें नहीं के बराबर रह जाती हैं। यह वह अवस्था होती हैं जबकि अन्य अच्छे स्थानापन्नों के कारण वर्तमान वस्तु का बाजार में कोई स्थान नहीं रह पाता और संवर्धन क्रियाओं का उपभोक्ताओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। ऐसी स्थिति में उत्पाद को उस वस्तु का उत्पादन बन्द कर देना पड़ता है।
उत्पाद (वस्तु) जीवन चक्र को प्रभावित करने वाले घटक या तत्व
उत्पाद जीवन चक्र के विस्तार को प्रभावित करने वाले घटकों के सम्बन्ध में जौयल डीन का यह कथन अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि, उत्पाद जीवन चक्र के विस्तार का, निर्धारण तकनीकी परिवर्तन की गति, बाजार द्वारा स्वीकार किये जाने की गति तथा प्रयोगात्मक प्रवेश की के सुगमता द्वारा किया जाता है। उत्पाद जीवन चक्र को प्रभावित करने वाले कुछ प्रमुख घटकों का विवेचन निम्न प्रकार हैं-
1. तकनीकी परिवर्तन की गति (Speed of Technical Change)- देश में जितनी तेज गति से तकनीकी परिवर्तन होंगे उतनी ही तेज गति से वस्तुओं का जीवन-चक्र छोटा होता जायेगा। इसके विपरीत यदि देश में तकनीकी परिवर्तन धीमी गति से हो रहे हों तो वस्तुओं का जीवन चक्र लम्बा होता जायेगा। भारत में तकनीकी परिवर्तन की गति धीमी है जिस कारण भारत में वस्तुओं का जीवन चक्र अपेक्षाकृत लम्बा है।
2. बाजार स्वीकृति की गति (Speed of Market Acceptance)- बाजार स्वीकृति की गति से आशय ग्राहकों द्वारा वस्तु को स्वीकार करने की गति से है। यदि ग्राहक किसी वस्तु को तेज गति से स्वीकार करते हैं तो वस्तु का जीवन चक्र छोटा होगा; इसके विपरीत यदि ग्राहक वस्तु को धीमी गति से स्वीकार करते हैं तो वस्तु का जीवन-चक्र लम्बा होगा।
3. प्रतिस्पर्धात्मक प्रवेश की सुगमता (Ease of Competitive Entry)- यदि बाजार में नयी-नयी प्रतियोगी उत्पाद तीव्र गति से प्रवेश कर रही हैं तो उत्पाद का जीवन चक्र छोटा होगा और इसके विपरीत यदि बाजार में नयी-नयी प्रतियोगी उत्पाद बहुत देर से बाजार में प्रवेश करती है। तो उत्पादों का जीवन चक्र लम्बा होगा।
4. जोखिम वहन करने की क्षमता (Risk Bearing Capacity)- ऐसे व्यावसायिक उपक्रम जिनकी जोखिम वहन करने की क्षमता अधिक होती है उनकी उत्पादों का जीवन-चक्र लम्बा होता है। इसकी विपरीत स्थिति में उत्पादों का जीवन चक्र छोटा होता है।
5. आर्थिक एवं प्रबन्धकीय शक्तियाँ (Economic and Managerial Forces)- जिन व्यावसायिक उपक्रमों की आर्थिक एवं प्रबन्धकीय शक्तियाँ सुदृढ़ होती हैं उन व्यावसायिक उपक्रमों की उत्पादों का जीवन-चक्र लम्बा होता है। इसकी विपरीत स्थिति में उत्पादों का जीवन-चक्र छोटा होता है।
6. पेटेण्ट द्वारा संरक्षण (Protection by Patent)- जिन उत्पादों के पेटेन्ट को पंजीकृत करा लिया जाता है प्रायः ऐसी उत्पादों का जीवन चक्र उन उत्पादों की अपेक्षा लम्बा होता है जिनके पेटेन्ट का पंयीजन नहीं कराया जाता है।
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