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वैज्ञानिक प्रबन्ध का अर्थ एवं परिभाषा (MEANING AND DEFINITION OF SCIENTIFIC MANAGEMENT)
मूल रूप में वैज्ञानिक प्रबन्ध का अर्थ है प्रबन्ध के रूढ़िवादी तरीकों के स्थान पर तर्कयुक्त आधुनिक तरीकों का उपयोग। इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक अन्वेषण की पद्धति का उपयोग किया जाता है; अर्थात् जिस प्रकार वैज्ञानिक अन्वेषण में प्रयोग एवं परीक्षणों द्वारा तथ्य एकत्रित करके और फिर उनका विश्लेषण करके सिद्धांत प्रतिपादित किए जाते हैं उसी प्रकार प्रबन्ध सम्बन्धी विभिन्न समस्याओं को एकत्रित करके उनके भिन्न-भिन्न पहलुओं का अध्ययन किया जाता है और इस प्रकार प्राप्त तथ्यों के विश्लेषण द्वारा समस्याओं का समाधान किया जाता है । प्रमुख विद्वानों ने वैज्ञानिक प्रबन्ध को निम्न प्रकार परिभाषित किया है:
ड्रकर के अनुसार, वैज्ञानिक प्रबन्ध के मूल में “कार्य का संगठित अध्ययन है, कार्य का सरलतम अवयवों में विभाजन है तथा मजदूर द्वारा सम्पन्न किए जाने वाले कार्य के प्रत्येक अवयव का क्रमबद्ध सुधार है।”
पर्सन के अनुसार, “वैज्ञानिक प्रबन्ध उद्देश्यपूर्ण सामूहिक प्रयत्नों में संगठन एवं क्रियाविधि के उस स्वरूप का परिचात्यक है जो वैज्ञानिक अन्वेषण तथा विश्लेषण की प्रक्रिया द्वारा निर्मित सिद्धांतों अथवा नियमों पर आधारित होती है न कि परम्परा पर या उन नीतियों पर जो आनुभविक व प्रासंगिक रूप से ‘भूल और सुधार’ की विधि द्वारा निर्धारित की जाती है।”
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि “वैज्ञानिक प्रबन्ध, प्रबन्ध का दर्शन है। यह प्रतिष्ठित तथा परम्परागत प्रणालियों की अन्धी स्वीकृति के स्थान पर विश्लेषणात्मक तथा पर्यवेक्षणात्मक प्रणालियों का प्रतिस्थापन है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के भली-भांति विश्लेषण के आधार पर वैज्ञानिक प्रबन्ध की निम्न विशेषताएं इंगित की जा सकती हैं:
(1) कार्य का नियोजन (Work planning)- वैज्ञानिक प्रबन्ध में कार्य योजनाबद्ध तरीके से किया जाता है। कल किए जाने वाले कार्य की योजना आज ही तैयार कर दी जाती है और सभी सम्बन्धित उपकरण, सामग्री एवं श्रम का पूर्ण प्रबन्ध कर लिया जाता है।
(2) उद्देश्यपूर्ण सामूहिक प्रयास (Purposive collective efforts)- वैज्ञानिक प्रबन्ध में किसी भी कार्य को लक्ष्य मानकर उसे पूरा करने के लिए श्रम एवं प्रबन्ध के सामूहिक प्रयत्न किए जाते हैं।
(3) कार्य करने का वैज्ञानिक ढंग (Scientific way of work)– वैज्ञानिक प्रबन्ध के अन्तर्गत कार्य करने का ढंग वैज्ञानिक होता है, परम्परागत नहीं कारखाने में एक मजदूर को क्या, कैसे और कितना काम करना है, वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर तय किया जाता है।
(4) प्रबन्ध सिद्धांतों का प्रतिपादन (Derivation of principles of management)- वैज्ञानिक प्रबन्ध में सिद्धांतों या नियमों, जिनके कि आधार पर कार्य संगठन एवं क्रियाविधि अपनाई जाती है, का प्रतिपादन औद्योगिक प्रबन्ध की समस्याओं के अन्वेषण तथा तथ्यों के सही विश्लेषण के आधार पर किया जाता है किसी तीर या तुक्के के आधार पर नहीं।
(5) मानवीय दृष्टिकोण (Human approach)- यद्यपि उपर्युक्त परिभाषाओं में वैज्ञानिक प्रबन्ध में सन्निहित मानवीय दृष्टिकोण को इंगित नहीं किया गया है, परन्तु यह वैज्ञानिक प्रबन्ध का मूलाधार है। वैज्ञानिक प्रबन्ध का आशय मजदूर पर भार बढ़ाकर अधिक काम कराना नहीं है, बल्कि कार्य को सरल बनाकर, कार्य करने के ढंग और औजारों में आवश्यक सुधार करके मजदूर की उत्पादकता में वृद्धि करना है।
वैज्ञानिक प्रबन्ध की विधि अथवा सिद्धांत (MECHANISM OR PRINCIPLES OF SCIENTIFIC MANAGEMENT)
टेलर तथा उसके सहयोगियों ने प्रबन्ध के जिन आधारभूत तत्वों की व्याख्या की है, वे निम्न हैं:
1. पारस्परिक सहयोग अथवा मानसिक क्रान्ति (Mutual Co-operation or Mental Revolution)- वैज्ञानिक प्रबन्ध की सम्पूर्ण योजना का आधार प्रबन्ध एवं श्रम के बीच पारस्परिक सहयोग की भावना का होना है। यदि इन दोनों में आपसी विश्वास का अभाव है तो वैज्ञानिक प्रबन्ध की योजना निष्फल हो जाएगी। पुरातन काल से यह विचार चला आ रहा है कि पूंजीपति अन्य लोगों को मजदूरी देकर विभिन्न वस्तुओं का निर्माण करा लेता है और उन वस्तुओं के विक्रय द्वारा अपनी सम्पत्तियों में वृद्धि कर लेता है। इस परम्परागत विचार ने वर्ग संघर्ष पैदा किया है और पूंजी तथा श्रम को दो भागों में बांट दिया है। आज भी श्रमिकों और मालिकों के बीच जो विवाद है वह उद्योगों से प्राप्त आधिक्य (surplus) को बांटने का है। पूंजीपति चाहता है कि वह लाभ के रूप में आधिक्य का अधिक भाग प्राप्त कर ले, जबकि श्रमिक चाहते हैं कि उन्हें मजदूरी के रूप में आधिक्य का अधिक भाग प्राप्त हो। टेलर ने इस समस्या के समाधान के लिए मानसिक क्रांति की आवश्यकता पर जोर दिया जिसमें प्रबन्धक तथा मजदूर दोनों ही पक्ष बंटवारे की ओर ध्यान न देकर आधिक्य के आकार को बढ़ाने का प्रयत्न करें तो अन्त में यह आधिक्य इतना विशाल होगा कि दोनों पक्षों को संतोषजनक हिस्सा प्राप्त हो जाएगा।
2. प्रमाणित कार्य का निर्धारण (Setting-up of a Standard Task)- वैज्ञानिक प्रबन्ध का दूसरा तत्व प्रमाणित कार्य का निर्धारण है। प्रमाणित कार्य से आशय है कि औसत मजदूर कार्य करने की उचित दशाओं में एक पारी (shift) में कितना कार्य कर सकता है? इसी के आधार पर प्रत्येक कार्य (job) का प्रमापित समय निर्धारित कर दिया जाता है। वैज्ञानिक प्रबन्ध में कार्य के लिए प्रमापित समय के निर्धारण की निम्न प्रक्रिया अपनाई जाती है:
(i) समय अध्ययन (Time study)– कार्य का प्रमाणित समय निकालने के लिए सामान्यतया एक औसत मजदूर को चुना जाता है। फिर काम को विभिन्न अंशों में बांटकर ‘स्टॉप वाच’ की सहायता से कार्य के प्रत्येक अंश (element) को पूरा करने में मजदूर द्वारा लिया गया समय नोट किया जाता है। यह क्रिया निरंतर की जाती है तभी कार्य का सही समय ज्ञात हो पाता है। एक कार्य के सभी अंशों में लगने वाले समय में मजदूर की निजी आदि के लिए अतिरिक्त समय और जोड़ दिया जाता है और यह योग ही एक विशिष्ट कार्य का प्रमापित समय कहलाता है। यह कार्य विशेषज्ञों द्वारा किया जाना चाहिए तथा समय के अध्ययन करने में श्रमिकों के प्रतिनिधि का भी सहयोग लेना ठीक रहता है।
(ii) गति अध्ययन (Motion study)– प्रमापित समय के लिए समय का अध्ययन करने से पूर्व गति अध्ययन किया जाना चाहिए। इसमें गति विशेषज्ञ द्वारा कारीगरों को किसी निर्दिष्ट कार्य में शरीर के अंगों की अनावश्यक क्रियाओं को करने से रोका जा सकता है और इस प्रकार यह बेकार की गतियों को समाप्त करके श्रमिकों के समय और शक्ति की बचत करता है।
(iii) थकान अध्ययन (Fatigue study)- गति में क्रमिकता उत्पन्न कर लेने के बाद भी निरंतर काम का बोझ मजदूर को थकान उत्पन्न कर देता है और उस क्षण उसे आराम या आसन बदल लेने की आवश्यकता होती है। यदि थकान के बाद आराम न दिया गया तो उससे मजदूर की कार्यक्षमता में ह्रास उत्पन्न हो जाता है। यह आराम का समय भी प्रमापित कार्य के निर्धारण में जोड़ लिया जाना चाहिए।
(iv) प्रेरणात्मक मजदूरी प्रणालियां (Wage incentive systems)– वैज्ञानिक प्रबन्ध के अन्तर्गत मजदूरों के लिए प्रमाणित कार्य का निर्धारण कर देना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि इस प्रमापित कार्य के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु प्रेरणात्मक मजदूरी पद्धति अपनानी चाहिए जिसमें कि मजदूर को कार्य को प्रमापित समय से पूर्व करा कर लेने पर अतिरिक्त प्रेरणा लाभांश प्रदान किया जाता है। इस प्रकार दक्ष मजदूर की औसत प्रति घण्टा मजदूरी निम्न श्रेणी के मजदूर की तुलना में अधिक होती है।
3. श्रमिकों का वैज्ञानिक चुनाव व प्रशिक्षण (Scientific Selection and Training of Workers)- टेलर ने वैज्ञानिक प्रबन्ध को लागू करने में श्रमिकों के वैज्ञानिक चुनाव व प्रशिक्षण पर बहुत जोर दिया था। प्रत्येक श्रमिक प्रत्येक कार्य के लिए उपयुक्त नहीं होता, अतः विभिन्न बुद्धिमत्ता एवं मनोवैज्ञानिक जांच के आधार पर उपयुक्त श्रमिकों का चुनाव किया जाना चाहिए। परम्परागत तरीके से श्रमिकों के चुनाव का कार्य अब फोरमैन सुपरवाइजर का न होकर भर्ती विभाग (recruitment department) का होना चाहिए। वैज्ञानिक ढंग से श्रमिकों का चुनाव कर लेने के उपरान्त उन्हें जिस कार्य के लिए चुना गया है उसमें विशेष प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिए ताकि वह श्रमिक अपने कार्य में पारंगत हो जाए और कार्य को सुचारु रूप से करने में समर्थ हो सके।
4. सामग्री, उपकरणों व उत्पादन मार्ग-निर्धारण का प्रमापीकरण (Standardisation of Materials, Tools and Routing)– वैज्ञानिक प्रबन्ध के अन्तर्गत अच्छे मजदूरों द्वारा प्रमापित कार्य को पूरा करने का लक्ष्य अपूर्ण ही रह जाता है यदि प्रबन्ध सामग्री, उपकरणों व क्रियाविधि के प्रमापीकरण पर ध्यान नहीं देता। फोरमैन या इंजीनियर द्वारा कच्चे माल की किस्म का स्थापित कर दिया जाता है और फिर उसी प्रकार के माल का क्रय व संग्रहण किया जाता है। इससे निर्मित माल की एकरूपता बनी रहती है तथा मजदूरों के कार्य की तुलना करना भी सम्भव होता है। इसी प्रकार मशीनों तथा औजारों का प्रमापीकरण भी होना चाहिए। एक प्रकार की मशीन- तथा औजारों के प्रयोग से मशीनों का मरम्मत व्यय कम आता है। ये बाजार में भी आसानी से प्राप्त की जा सकती हैं तथा मजदूरों के कार्यों की तुलना करना भी सम्भव होता है। सामग्री एवं मशीनों के ‘प्रमापीकरण के साथ-साथ उत्पादन मार्ग (routing) का निर्धारण भी वैज्ञानिक प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण अवयव है। योजना विभाग उत्पादन मार्ग इस प्रकार तय करता है ताकि किसी एक प्रक्रिया या विभाग में कार्य इकट्ठा न होने पाए और अन्तिम निर्मित माल एक गति से प्राप्त होता रहे ताकि निर्मित माल के आदेशों की पूर्ति में व्यवधान न पड़े।
5. प्रशासकीय पुनर्गठन (Administrative Re-organisation)- वैज्ञानिक प्रबन्ध में टेलर ने प्रशासकीय पुनर्गठन पर जोर दिया है। टेलर का कहना है कि वैज्ञानिक प्रबन्ध की दशा में भौतिक कार्य के अलावा लिखत-पढ़त या नियोजन का कार्य बहुत बढ़ जाता है जो दोनों कार्य एक फोरमैन नहीं संभाल सकता। अतः वैज्ञानिक प्रबन्ध में एक पृथक विभाग-नियोजन विभाग स्थापित किया जाता है जो कार्य की भावी रूपरेखा, उत्पादन कार्य का मार्ग आदि तय करता है और चार्ट द्वारा सम्बन्धित अधिकारियों व मजदूरों को इसकी जानकारी प्रदान करता है। उसी नियोजन के आधार पर कार्यकारी फोरमैन या इंजीनियर कार्य को सम्पन्न कराने का प्रयत्न करता है। कार्यकारी विभाग मशीनों की देखरेख, मजदूरों के पास सामग्री व औजारों की उपलब्धता, मजदूरों के कार्य करने की गति पर नियंत्रण आदि कार्यों के लिए उत्तरदायी ठहराया जाता है। वैसे कार्य के सुचारु रूप से संचालन के लिए नियोजन विभाग एवं कार्यकारी विभाग में सामंजस्य बनाए रखना आवश्यक होता है।
वैज्ञानिक प्रबन्ध के लाभ (ADVANTAGES OF SCIENTIFIC MANAGEMENT)
वैज्ञानिक प्रबन्ध उत्पादकों, श्रमिकों, उपभोक्ता तथा समाज सभी के लिए लाभप्रद समझा जाता है। संक्षेप में, वैज्ञानिक प्रबन्ध के निम्न लाभ कहे जा सकते हैं:
(1) उत्पादकता में वृद्धि- वैज्ञानिक प्रबन्ध से श्रमिकों की कार्यक्षमता तथा उत्पादकता में वृद्धि होती है, क्योंकि उन्हें प्रशिक्षण दिया जाता है तथा अधिक कार्य के लिए प्रेरणाएं भी दी जाती हैं। इस प्रकार देश के श्रम संसाधनों का अच्छा उपयोग सम्भव हो पाता है। उत्पादकता में वृद्धि देश की प्रगति में सहायक होती है।
(2) लागतों में कमी- वैज्ञानिक प्रबन्ध मशीनरी तथा श्रम का अच्छा उपयोग सम्भव बनाता है जिससे उत्पादन लागत प्रति इकाई कम हो जाती है।
(3) लाभों में वृद्धि- वैज्ञानिक प्रबन्ध के कारण लागतों में कमी का प्रभाव फर्म के लाभों पर भी पड़ता है। इसके कारण फर्म के लाभों में वृद्धि होती है।
(4) मजदूरी में वृद्धि- वैज्ञानिक प्रबन्ध के अन्तर्गत श्रमिकों की उत्पादकता बढ़ती है परिणामस्वरूप उनको अधिक मजदूरी मिल पाना सम्भव होता है।
(5) मूल्यों में कमी- श्रम उत्पादकता में वृद्धि के कारण वस्तुओं की लागत में कमी आती है जिससे वस्तुओं के मूल्यों में कमी हो जाती है।
(6) जीवन-स्तर में वृद्धि- वैज्ञानिक प्रबन्ध के फलस्वरूप एक तरफ वस्तुओं के मूल्यों में कमी होती है, दूसरी तरफ श्रमिकों तथा उद्योगपतियों की आय में वृद्धि होती है। अतः लोग अधिक वस्तुओं का उपभोग कर पाते हैं जिससे उनके जीवन स्तर में वृद्धि होती है।
(7) निर्यातों में वृद्धि- वस्तु के मूल्यों में कमी होने से भारतीय माल विदेशों में सस्ता पड़ने लगता है जिससे निर्यातों में वृद्धि होना सम्भव होता है।
(8) रोजगार के अवसरों में वृद्धि- वैज्ञानिक प्रबन्ध के कारण माल की लागतों में कमी होने से देश में वस्तुओं की बिक्री तथा विदेशों को निर्यातों में वृद्धि हो जाती है अर्थात् माल की मांग बढ़ती है जिससे नए कारखानों की स्थापना होती है और रोजगार बढ़ता है।
वैज्ञानिक प्रबन्ध की हानियां या विरोध (DISADVANTAGES OR OPPOSITION TO SCIENTIFIC MANAGEMENT)
वैज्ञानिक प्रबन्ध से औद्योगिक उत्पादकता में वृद्धि होती है, मजदूर के कार्यभार एवं थकान में कमी और पारिश्रमिक में वृद्धि होती है तथा मालिक या प्रबन्धकों को अधिक लाभ प्राप्त होने लगता है, फिर भी इस टेलरवाद अर्थात् वैज्ञानिक प्रबन्ध के प्रति मालिक एवं मजदूर दोनों ही उदासीन दिखाई देते हैं- आखिर क्यों ? इस प्रश्न का जवाब मालिकों व मजदूरों द्वारा उठाई गई निम्न आपत्तियों में मिल जाता है:
मालिकों की आपत्तियां (Employer’s Objections)
मालिक या प्रबन्धक वैज्ञानिक प्रबन्ध के विरोध में तीन प्रमुख आपत्तियां उठाते हैं।
(1) व्यय साध्य – मालिकों का विचार है कि वैज्ञानिक प्रबन्ध की प्रणाली बहुत ही व्यय साध्य है क्योंकि इसमें समय एवं गति अध्ययन, मशीन, औजारों आदि का प्रमापीकरण तथा नियोजन विभाग की स्थापना आदि में बहुत व्यय होता है तथा कारखानों में उपरिव्ययों (overheads) में अनावश्यक वृद्धि हो जाती है। अतः अधिकांश मालिक लोग इस पर होने वाले भारी खर्च को देखकर इसके प्रति उदासीनता का रुख अपना लेते हैं।
(2) आकस्मिक परिवर्तन- मालिकों की आपत्ति इस आधार पर भी है कि वैज्ञानिक प्रबन्ध में एक चालू व्यवसाय में बहुत सारे आकस्मिक परिवर्तन करने पड़ते हैं जो व्यवसाय की वर्तमान अवस्था को ही नष्ट कर डालते हैं। आज जब एक उद्योगपति अपने वर्तमान व्यवसाय से परम्परागत प्रबन्ध के अन्तर्गत ही लाभ कमा रहा है तो वह एकदम भारी परिवर्तन को अवश्य ही नापसन्द करेगा चाहे उसका दीर्घकालीन लाभ कितना ही क्यों न हो।
(3) मन्दीकाल में बोझ – नियोजन विभाग की स्थापना से फोरमैन व लिपिकों की संख्या में वृद्धि करनी होती है, जिनकी स्थायी नियुक्ति मन्दीकाल (Depression) में मालिक के लिए एक स्थायी बोझ बन जाती है।
यद्यपि मालिकों की उपर्युक्त आपत्तियां ऊपर से सही प्रतीत होती हैं, परन्तु इसमें दूरदर्शिता का। कोई भी क्रांतिकारी परिवर्तन प्रारम्भ में थोड़ा असह्य होता है, परन्तु उसके दीर्घकालीन अभाव लाभ असीमित होते हैं।
श्रमिकों की आपत्तियां (Worker’s Objections)
श्रमिक और श्रमिक नेता दोनों ने ही वैज्ञानिक प्रबन्ध के लागू किए जाने का निम्नांकित आधार पर विरोध किया है-
(1) अलोकतांत्रिक-वैज्ञानिक प्रबन्ध अलोकतांत्रिक है। इसके अन्तर्गत श्रमिक को मानव नहीं बल्कि मशीन समझा जाता है जिसके शारीरिक अंगों के चलाने-फिराने पर भी प्रबन्धकों का नियंत्रण होता है। इससे श्रमिक का कार्य के प्रति सम्मोहन कम हो जाता है और उसका व्यक्तित्व लगभग नष्ट प्रायः हो जाता है।
(2) कार्यभार में वृद्धि-वैज्ञानिक प्रबन्ध के अन्तर्गत कार्य का प्रमापीकरण एक ढकोसला है। इसके द्वारा मजदूर पर कार्यभार काफी अधिक बढ़ा दिया जाता है।
(3) शोषण को प्रोत्साहन यद्यपि इस प्रबन्ध प्रणाली में मजदूरी देने की प्रेरणात्मक पद्धति अपनाई है, परन्तु उन सबका उद्देश्य मजदूर से अधिक काम लेना है और जितना काम वह अधिक करता है, उस अनुपात में उसे लाभ का भाग प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार यह पद्धति मजदूर के शोषण को प्रोत्साहित करती है।
(4) बेरोजगारी का भय वैज्ञानिक प्रबन्ध में प्रमाणित कार्य का ऊंचा निर्धारण, प्रेरणात्मक मजदूरी प्रणाली द्वारा उत्पादन में वृद्धि आदि ऐसे घटक हैं जो बेरोजगारी को बढ़ावा देते हैं और अन्त में श्रमिकों के हितों को चोट पहुंचाते हैं।
(5) श्रम संघों के विकास में बाधक- वैज्ञानिक प्रबन्ध का सर्वाधिक विरोध श्रम संघों के नेतृत्व द्वारा किया जाता है क्योंकि यह श्रम संघ आंदोलन को मन्द करता है। जब वैज्ञानिक प्रबन्ध के अन्तर्गत श्रमिकों को अधिक मजदूरी तथा कार्य करने की उत्तम दशाएं उपलब्ध हो जाती हैं तो वे सामूहिक सौदेबाजी के आधार पर मजदूरी बढ़वाने के लिए श्रम संघों पर आश्रित नहीं रहते और इस प्रकार श्रम संघों का विकास अवरुद्ध होता है।
श्रमिकों की आपत्तियों का औचित्य (Justification of the Worker’s Objections)
उपर्युक्त आपत्तियों में से कुछ आपत्तियां जैसे वैज्ञानिक प्रबन्ध पर आलोकतांत्रिक होने का आरोप, बेरोजगारी का भय तथा शोषण की सम्भावना यद्यपि कुछ सीमा तक उचित जान पड़ती हैं, परन्तु आपसी सद्भाव तथा कार्य प्रमापीकरण आदि में श्रमिकों के प्रतिनिधित्व द्वारा इन दोषों को दूर किया जा सकता है।
वैज्ञानिक प्रबन्ध के विरोध में प्रकट की गई आपत्तियों में बनावटीपन अधिक हैं, वास्तविकता कम। इस बात की पुष्टि इससे भी होती है कि वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धांतों का प्रयोग करके ही टेलर ने अमेरिका की बेथलहेम स्टील कं. में श्रमिकों की उत्पादकता में चार गुनी तथा मजदूरी में लगभग दो गुनी वृद्धि कर दी थी। जबकि कार्य के घण्टों में कोई वृद्धि नहीं की गई थी। यह अवश्य है कि श्रमिकों की मजदूरी उस अनुपात में नहीं बढ़ी जिस अनुपात में उत्पादकता में वृद्धि हुई। इसका कारण यह रहा कि उत्पादकता वृद्धि का लाभ आंशिक रूप में श्रमिकों को और आंशिक रूप में मालिकों में बांटा गया जो न्यायोचित है।
जहां तक वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धांतों से बेरोजगारी फैलने का डर है, अल्पकाल में थोड़ी बेरोजगारी बढ़ सकती है, परन्तु दीर्घकाल में तो वस्तुएं सस्ती हो जाने के कारण वस्तुओं की मांग बढ़ती है जिससे रोजगार के नए अवसरों में तेजी से वृद्धि होती है। यही कारण है कि आधुनिक औद्योगिक प्रबन्ध में पेशेवर प्रबन्धक वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धांतों का अधिकाधिक प्रयोग करने लगे हैं। यदि उद्योगपतियों ने वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धांतों को सत्यनिष्ठ तरीके से लागू करने दिया तो . मजदूरों की बहुत सारी आपत्तियां स्वतः ही दूर हो जाएंगी तथा वैज्ञानिक प्रबन्ध का लाभ मालिक, मजदूर व समाज सभी को प्राप्त हो सकेगा।
वैज्ञानिक प्रबन्ध का मूल्यांकन (APPRAISAL OF SCIENTIFIC MANAGEMENT)
वैज्ञानिक प्रबन्ध की काफी आलोचनाएं भी की गई हैं, जो निम्न हैं:
प्रथम, वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धांत केवल वर्कशॉप या कारखानों में ही लागू हो सकते हैं, बैंक, बीमा, शिक्षण संस्थान आदि सेवा उद्योगों के लिए ये अनुपयुक्त हैं, क्योंकि इनमें कार्य का मापन सम्भव नहीं हो पाता।
द्वितीय, वैज्ञानिक प्रबन्ध में श्रमिकों के मानवीय पहलू को पूर्णतया नजरन्दाज कर दिया गया है। यह मान लिया गया है कि श्रमिक केवल अधिक मजदूरी के लालच में कार्य करता है और मशीन की भांति उसकी गतियों (motions) को नियंत्रित किया जा सकता है। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। श्रमिक की कार्यकुशलता पर समूह के साथियों, रोजगार सुरक्षा, कार्य से संतुष्टि आदि घटकों का भी प्रभाव पड़ता है।
तृतीय, वैज्ञानिक प्रबन्ध में टेलर द्वारा प्रतिपादित नियोजन एवं कार्यात्मक पर्यवेक्षण के अन्तर्गत श्रमिक को निर्देश देने वाले आठ लोग होते हैं जो आदेश की एकता से नियम के विपरीत हैं और इसीलिए इसकी आलोचना हुई है।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि अनेक कमियों के बाद भी टेलर का वैज्ञानिक प्रबन्ध आधुनिक प्रबन्ध सिद्धांत एवं व्यवहार में महत्वपूर्ण स्थान रखता है और इसीलिए आज भी प्रबन्धक वैज्ञानिक प्रबन्ध की विभिन्न तकनीकों को सुधरे हुए रूप में प्रयोग कर रहे हैं।
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