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अधिगम के अनुक्षेत्र (Domain of Learning)
अधिगम का उद्देश्य अधिगमकर्त्ता के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाना होता है। वास्तव में देखा जाए तो व्यवहार पद अपने अर्थ, कार्यक्षेत्र एवं उपयोग के सन्दर्भ में एक काफी बड़ा सम्प्रत्यय है। इस पर टिप्पणी करते हुए वुडवर्थ ने लिखा है, “जीवन की किसी भी अभिव्यक्ति को क्रिया कहा जा सकता है एवं व्यवहार ऐसी सभी क्रियाओं का ही संयुक्त नाम है।”
According to Woodworth, “Any manifestation of life is activity and behaviour is a collective name of these activities.”
हमारे व्यवहार सम्बन्धी क्रियाओं का दायरा मात्र कर्मेन्द्रियों द्वारा सम्पादित विभिन्न क्रिया-कलापों या ‘चेष्टाओं’ पर ही सीमित नहीं रहता अपितु इसमें मस्तिष्क से सोचने, समझने एवं अन्य बौद्धिक क्रियाओं को सम्पन्न करने तथा हृदय के माध्यम से भावों तथा भावनाओं की अनुभूति करने से सम्बन्धित विविध क्रियाओं का भी समावेश होता है। करने.. सोचने एवं अनुभूति करने सम्बन्धी हमारे व्यवहार के इन तीनों पक्षों की व्यवहार क्रियाओं को ही मन्द व्यवहार के विभिन्न पक्ष या अनुक्षेत्र (Domain) कहा जाता है। अतः अधिगम के अनुक्षेत्रों से अभिप्राय अधिगमकर्त्ता के सम्पूर्ण व्यवहार से सम्बन्धित उन तीनों पक्षों या क्षेत्रों से होता है जिनमें अपेक्षित परिवर्तन लाने की प्रक्रिया किसी न किसी रूप में सभी प्रकार की अधिगम परिस्थितियों में चल रही होती है। इस दृष्टि से अधिगम के अनुक्षेत्रों को निश्चित तौर पर निम्न तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है:
- अधिगम का संज्ञानात्मक अनुक्षेत्र (Cognitive Domain of Learning)
- अधिगम का क्रियात्मक अनुक्षेत्र (Conative Domain of Learning)
- अधिगम का भावात्मक अनुक्षेत्र (Affective Domain of Learning)
अधिगम के इन विभिन्न अनुक्षेत्रों का विवरण निम्नवत् प्रस्तुत है:
1) अधिगम का संज्ञानात्मक अनुक्षेत्र (Cognitive Domain of Learning)- इससे सम्बन्धित अधिगम का उद्देश्य अधिगमकर्ता के संज्ञानात्मक व्यवहार में परिवर्तन लाना होता है। इस व्यवहार के सम्पादन में ज्ञानेन्द्रियों तथा मस्तिष्क की प्रमुख भूमिका होती है। इस प्रकार के व्यवहार परिवर्तन बालक के लिए मानसिक एवं बौद्धिक विकास के लिए आवश्यक माने जाते हैं। इनसे बालकों के शैक्षणिक विकास में महत्वपूर्ण सहायता प्राप्त होती है तथा उसमें अपने आप से तथा अपने वातावरण से समायोजन करने के लिए पर्याप्त क्षमता एवं कुशलता विकसित होती है। अधिगम के इस संज्ञानात्मक अनुक्षेत्र के अन्तर्गत- विचार करना, कल्पना करना, तर्क करना, अनुमान लगाना, विश्लेषण एवं संश्लेषण करना, वर्णन एवं व्याख्या करना, स्मरण करना, आलोचना एवं समालोचना करना आदि का सम्पादन एवं उन्हें अपेक्षित परिवर्तन लाने का कार्य किया जाता है।
2) अधिगम का क्रियात्मक अनुक्षेत्र (Conative Domain of Learning)- इससे सम्बन्धित अधिगम का उद्देश्य अधिगमकर्त्ता के क्रियात्मक या मनोशारीरिक व्यवहार में परिवर्तन लाना होता है। इस व्यवहार के सम्पादन में इन्द्रियों की प्रमुख भूमिका होती है। जिन परिवर्तनों को इस प्रकार के व्यवहार में लाया जाता है उनका उद्देश्य बालक का समुचित गामक (Motor), क्रियात्मक (Conative) एवं शारीरिक विकास करना होता है एवं उसमें ऐसी कुशलताएँ एवं क्षमताएँ विकसित करनी होती है जिससे वह इन्द्रियों द्वारा सम्पादित विभिन्न प्रकार के क्रिया-कलापों के वांछित ढंग से सम्पन्न करने में सिद्धहस्त हो सकें ।
इस प्रकार विभिन्न प्रकार की गामिक, क्रियात्मक तथा मनोशारीरिक व्यवहार क्रियाओं जैसे- चलना, दौड़ना, चढ़ना, उतरना, छलांग लगाना, पकड़ना, धक्का देना, मोड़ना, फेंकना, भार उठाना, छूना, कूदना, नाचना, गाना, खाना-पीना, सिलाई-कढ़ाई करना, खाना बनाना, बुनाई करना, चबाना, देखना, सुनना, सूंघना, चखना, स्पर्श करना, पसीना, सभी प्रकार के यान्त्रिक उपकरणों को काम में लाने से सम्बन्धित कार्य करना तथा लिखना पढ़ना आदि के सम्पादन में उनमें अपसरित परिवर्तन लाकर विभिन्न प्रकार की गामिक, क्रियात्मक एवं मनोशारीरिक क्षमताओं एवं कुशलताओं के विकास का वृहद कार्य अधिगम के क्रियात्मक या मनोशारीरिक अनुक्षेत्र के अन्तर्गत ही आता है।
3) अधिगम का भावात्मक अनुक्षेत्र (Affective Domain of Learning)- इससे सम्बन्धित अधिगम का उद्देश्य अधिगमकर्त्ता के भावात्मक व्यवहार में परिवर्तन लाना होता है। भावात्मक व्यवहार का सम्बन्ध हृदय में उठने वाले भावों तथा भावों की – अनुभूति से होता है। अतः किसी ने ठीक ही कहा है कि “हृदय नहीं वह पत्थर है बहती जिसमें रसधार नहीं।” इस प्रकार भावों एवं रसों की अनुभूति करने के लिए अभिप्रेरित करना एवं संचालित होने की शक्ति एवं सामर्थ्य विकसित करना एक अच्छे अधिगम का प्रमुख उद्देश्य माना जाता है। अधिगम के भावात्मक अनुक्षेत्र से सम्बन्धित व्यवहार क्रियाओं तथा चेष्टाओं के उदाहरणों के रूप में हम दुखी या दुखी होना, क्रोधित होना, हर्षित होना, डरना, सहमना, उदासीन दृष्टिकोण प्रस्तुत करना, त्याग एवं बलिदान की भावनाएँ प्रदर्शित करना, प्रेम, घृणा, क्षोभ, ग्लानि आदि भावों की अनुभूति करना आदि का नाम ले सकते हैं।
इस प्रकार से अधिगम के संज्ञानात्मक, क्रियात्मक एवं भावात्मक अनुक्षेत्र एक प्रकार से मानव व्यवहार के वे तीनों चिरपरिचित अनुक्षेत्र हैं जिनमें औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षण अधिगम अनुभवों द्वारा बालक के व्यवहार में इस प्रकार के वांछित परिवर्तन लाने का प्रयास किया जाता है जिसके माध्यम से बालक के समुचित वैयक्तिक विकास तथा सामाजिक विकास के वांछित उद्देश्यों की पूर्ति का कार्य किया जा सके।
अधिगम की प्रकृति एवं मुख्य विशेषताएँ (Nature and Main Characteristics of Learning)
अधिगम के द्वारा हमारे व्यवहार में जो परिवर्तन होता है वह पूर्णतया अर्जित ही होता है. या यूँ कहें कि यह व्यवहार जन्मजात नहीं होता। अधिगम हमें विरासत में प्राप्त नहीं होता बल्कि वातावरण में निहित कारकों के प्रभाव से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष अनुभव के माध्यम से हमारे द्वारा स्वयं ही अर्जित की जाती है। भाषा जो हम बोलते हैं, कौशल जिनका हम प्रयोग करते हैं एवं रुचियाँ, आदतें और अभिवृत्तियाँ आदि जो हमारे व्यक्तित्व के अंग बरो हुए हैं ये सब अर्जित व्यवहारगत विशेषताएं हैं। अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि किस प्रकार के अर्जित अधिगम व्यवहार की विशेष प्रकृति क्या होती है? तथा उसमें किस प्रकार की विशेषताएँ देखने को मिलती है? इस प्रश्न का बहुत कुछ उत्तर सीखने सम्बन्धी परिभाषाओं एवं उससे सम्बन्धित सामग्री के आधार पर भली-भाँति प्राप्त किया जा सकता है।
योकम एवं सिम्पसन (Yoakam and Simpson) के अनुसार, सीखने की सामान्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
1) सीखना सम्पूर्ण जीवन चलता है (Learning is a Life-long Process) सीखने की प्रक्रिया जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त चलती है।
2) सीखना परिवर्तन है (Learning is Change) – व्यक्ति स्वयं दूसरों के अनुभवों से सीखकर अपने व्यवहार विचारों, इच्छाओं, एवं भावनाओं आदि में परिवर्तन करता है। गिलफोर्ड के अनुसार, “सीखना, व्यवहार के परिणामस्वरूप व्यवहार में कोई परिवर्तन हैं।”
3) सीखना सार्वभौमिक है (Learning is Universal) – सीखने का गुण केवल मनुष्य में ही नहीं पाया जाता है। वस्तुतः संसार के सभी जीवधारी जीव-जन्तु, पशु-पक्षी में भी पाया जाता है।
4) सीखना समायोजन है (Learning is Adjustment) – सीखना, वातावरण से अनुकूलन करने के लिए आवश्यक है। सीखकर ही व्यक्ति, नई परिस्थितियों से अपना अनुकूलन कर सकता है। जब वह अपने व्यवहार को नई परिस्थिति एवं वातावरण के अनुकूल बना लेता है, तभी वह कुछ सीख पाता है। गेट्स एवं अन्य के अनुसार, सीखने का सम्बन्ध स्थिति के क्रमिक परिचय से है।
5) सीखना विकास है (Learning is Growth) – व्यक्ति अपनी दैनिक क्रियाओं और अनुभवों के द्वारा कुछ न कुछ सीखता है। फलस्वरूप, उसका शारीरिक और मानसिक विकास होता है।
6) सीखना नया कार्य करना है (Learning is doing Something New)– वुडवर्थ के अनुसार, सीखना कोई नया कार्य करना है। परन्तु उसमें उसने एक शर्त लगा दी, उसने कहा है कि सीखना, नया कार्य करना तभी है, जब यह कार्य जाएँ और अन्य कार्यों में प्रकट हो। पुनः किया
7) सीखना अनुभवों का संगठन है (Learning is Organisation of Experiences) – सीखना न तो नए अनुभवों की प्राप्ति है और न ही पुराने अनुभवों का योग वरन नये और पुराने अनुभवों का संगठन है। जैसे-जैसे व्यक्ति नए अनुभवों द्वारा नई बात सीखता जाता है, वैसे-वैसे वह अपनी आवश्यकताओं के अनुसार अपने अनुभवों को संगठित करता जाता है।
8) सीखना उद्देश्यपूर्ण होता है (Learning is Purposive)- सीखना उद्देश्यपूर्ण होता है। उद्देश्य जितना ही अधिक प्रबल होता है, सीखने की क्रिया उतनी ही तीव्र होती है। उद्देश्य के अभाव में सीखना असफल होता है।
9) सीखना विवेकपूर्ण होता है (Learning is Rational) – मर्सेल (Mursell) का कथन है कि सीखना, यांत्रिक कार्य नहीं बल्कि विवेकपूर्ण कार्य है। उसी बात को शीघ्रता और सरलता से सीखा जा सकता है, जिसमें बुद्धि या विवेक का प्रयोग किया जाता है। बिना सोचे-समझे किसी बात को सीखने में सफलता नहीं मिलती है।
10) सीखना सक्रिय है (Learning is Active) सक्रिय सीखना ही वास्तविक सीखना है। बालक तभी कुछ सीख सकता है, जब वह स्वयं सीखने की प्रक्रिया में भाग लेता है। यही कारण है कि डॉल्टन विधि, प्रोजेक्ट विधि आदि शिक्षण की प्रगतिशील विधियाँ हैं जो बालक की क्रियाशीलता पर बल देती है।
11) सीखना खोज है (Learning is Discovery) – वास्तविक सीखना किसी बात की खोज करना है। इस प्रकार के सीखने में व्यक्ति विभिन्न प्रकार के प्रयास करके स्वयं एक परिणाम पर पहुँचता है। मर्सेल ने कहा है, सीखना उस बात को खोजने और जानने का कार्य है, जिसे एक व्यक्ति खोजना और जानना चाहता है।
12) सीखना वातावरण की उपज है (Learning is a Product of Environment)- सीखना रिक्तता में न होकर, सदैव उस वातावरण के प्रति प्रतिक्रिया के रूप में होता है, जिसमें व्यक्ति रहता है। बालक का सम्बन्ध जिस प्रकार के वातावरण से होता है, वह वैसी ही बातें सीखता है। यही कारण है कि आजकल इस बात पर बल दिया जाता है कि विद्यालय इतना उपयुक्त और प्रभावशाली वातावरण उपस्थित करें कि बालक अधिक से अधिक अच्छी बातों को सीख सकें।
13) सीखना व्यक्तिगत व सामाजिक दोनों है (Learning is both Individual and Social)— सीखना व्यक्तिगत कार्य तो है ही, परन्तु इससे भी अधिक सामाजिक कार्य है । योकम एवं सिम्प्सन के अनुसार, सीखना सामाजिक है, क्योंकि किसी प्रकार के सामाजिक वातावरण के अभाव में व्यक्ति का सीखना असम्भव है।
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