स्वतंत्रता पश्चात अध्यापक शिक्षा के लिए किए गए प्रयासों का उल्लेख कीजिए।
स्वतन्त्रता के बाद अध्यापक प्रशिक्षण और तत्पश्चात शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय परिवर्तन होने लगे। अनेकानेक शिक्षा सम्बन्धी आयोग गठित हुए और उनके द्वारा सुधार हेतु अनेक ठोस सुझाव भी प्रस्तुत किये गये। उनमें से कुछ को ही हम व्यवहार में ला सके जबकि शेष आज भी अनुपयुक्त रह गये है।
विभिन्न आयोगों के द्वारा दिये गये सुझावों के सन्दर्भ में हम स्वातन्त्र्योत्तरकालीन अध्यापक शिक्षा सम्बन्धी प्रगति के बारे में संक्षेप में चर्चा करने के लिए प्रयास करेंगे।
प्रजातान्त्रिक प्रणाली के प्रारम्भ होने के साथ ही समाज में उनके आर्थिक तथा सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगे। उपनिवेशवादी शिक्षक प्रशिक्षण को अध्यापक शिक्षा के रूप में परिवर्तित करने की आवश्यकता का अनुभव भी सर्वत्र किया जाने लगा।
1947 में ही केन्द्रीय शिक्षा संस्थान दिल्ली तथा 1948 में विश्वभारतीय विश्वविद्यालय में विनय भवन की स्थापना हुई।
1948 में ही डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन प्रशिक्षण के क्षेत्र में भी कई महत्वपूर्ण संस्तुतियों की गयी।
1. समय के साथ प्रशिक्षण महाविद्यालयों को पुनः संरचित (Remodelled) किया जाय। छात्रों के दक्षता प्रदर्शन के मूल्यांकन पर अधिक अधिभार अभ्यास काल में प्रदान किया जाय।
2. अभ्यास के लिए उपयुक्त विद्यालयों का चयन किया जाय।
3. शिक्षण में व्यावहारिक अनुभव वाले वर्ग से ही प्रशिक्षण महाविद्यालय के लिए अधिकांशतः अध्यापकों को चयनित किया जाय।
4. स्थानीय परिस्थिति के अनुरूप शैक्षिक सिद्धान्त के पाठ्यक्रम को परिवर्तित करना मान्य हो।
5. कई वर्षों के शिक्षण अनुभवयुक्त छात्रों को ही एम०एड० पाठ्यक्रम में प्रवेश दिया जाय।
6. अखिल भारतीय स्तर पर अध्यापकों के मूल कार्यों को महत्व दिया जाय हाईस्कूले और इण्टरमीडिएट कक्षाओं के निम्न स्तर में सुधार किया जाय, अल्पवेतनयुक्त अध्यापकों की स्थिति में सुधार हो (उन्हें अच्छा वेतन दिया जाय ताकि प्रथम श्रेणीगत योग्यता वाले उत्तम छात्र शिक्षण के क्षेत्र में आना चाहें और इसे अन्तिम चयन के रूप में न स्वीकार करें) तथा भविष्य में प्रगति के लिए भी अवसर उन्हें प्राप्त हो सके।
7. अवकाश कालावधि में अध्यापकों के लिए पुनश्चर्या चलाने के लिए प्रबन्ध किया जाय और व्याख्यान प्रदर्शनी यात्रा भ्रमण आदि को भी माध्यम के रूप में अपनाया जाय।
1952 में भारत सरकार के द्वारा माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन डॉ० एन० एल मुदालियर की अध्यक्षता में किया गया। 1953 में प्रस्तुत आयोग के प्रतिवेदन में शिक्षण प्रशिक्षण की दशा को सुधारने के लिए महत्वपूर्ण संस्तुतियाँ की गयी।
(क) दो प्रकार के प्रशिक्षण संस्थान हो-एक वह जहाँ उच्चतर माध्यमिक स्तरीय शिक्षा प्राप्त शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण हेतु प्रबन्ध हो और दूसरा वह जहाँ स्नातक स्तरीय अध्यापकों को प्रशिक्षित किया जा सके। प्रशिक्षण की अवधि क्रमशः दो एवं एक वर्षीय हो। एक वर्ष की अवधि को आवश्यकतानुसार दो वर्ष के लिए बढ़ाया भी जा सकेगा।
(ख) शिक्षण व्यवसाय में आने वाले इच्छुक छात्रों को एक या एकाधिक पाठ्येत्तर क्रिया-कलापों में प्रशिक्षण दिये जाने का प्रबन्ध हो।
(ग) छात्र-अध्यापकों से कोई सुल्क न लिया जाय, प्रशिक्षण काल में आर्थिक सहायता दी जाय और उन्हें उपयुक्त आवासीय सुविधा भी प्रदान की जाय।
(घ) प्रशिक्षण महाविद्यालय को अपने कार्य के अंग के रूप में अल्पकालीन गहन पुनश्चर्या पाठ्यक्रम (विशिष्ट विषयों में) कार्यशाला (प्रायोगिक प्रशिक्षण हेतु) और उद्यमगत सम्मेलनों का आयोजन करना चाहिए तथा शिक्षा की विभिन्न शाखाओं में शोधकार्य का संचालन किया जाना चाहिए।
फोर्ड फाउण्डेशन टीम (1954) ने भी संस्तुत किया कि प्रशिक्षण पाठ्यक्रम इस तरह से तैयार किये जायें कि छात्रों को पर्याप्त ढंग से तुरन्त शिक्षण कार्य ग्रहण हेतु तैयार कर सके, अवास्तविक अनुपयुक्त और अव्यावहारिक शिक्षण विधियों को प्रस्तुत न करें, शिक्षण अभ्यास की निरन्तरता को बनाये रखने के लिए उचित निरीक्षण और मार्गदर्शन के साथ खण्ड अभ्यास (Block Practice) के लिए प्रबन्ध हो, प्रदर्शन या प्रयोगशाली विद्यालयों का संचालन प्रशिक्षण महाविद्यालय के द्वारा किया जाय जहाँ अन्य कार्यों के साथ पाठ्यक्रम निर्माण प्रगतिशील शिक्षण विधि आदि के सन्दर्भ में प्रयोग-परीक्षण आदि किये जा सकें। अतः ऐसे विद्यालय में बाह्य नियन्त्रणजन्य इन कार्यों में व्यवधान न हो। कक्षा शिक्षण के अतिरिक्त प्रायोगिक प्रशिक्षण के अन्तर्गत अन्य क्रिया कलापों को भी सम्मिलित किया जाये।
इसी प्रकार डॉ० ई० ए० पीयर्स समिति (Piers Committee 1955) के द्वारा भी कहा गया कि सिद्धान्त के समान ही प्रायोगिक कार्यों को भी अधिभार प्रदान किये जाएँ, परीक्षा के प्रश्न पत्र संख्या में चार ही हों, जैसे- शिक्षा सिद्धान्त और विद्यालय संगठन शिक्षा मनोविज्ञान एवं स्वास्थ्य शिक्षा दो विद्यालयीय विषयों की शिक्षण विधि, भारतीय शिक्षा की आधुनिक समस्याएँ आदि।
इन संस्तुतियों के अनुसार ही शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद नई दिल्ली की स्थापना (1961) हुई और इसके अधीन चार प्रादेशिक शिक्षा महाविद्यालयों की भी स्थापना 1963 में हुई ताकि अध्यापक शिक्षा के क्षेत्र में नवीन कार्यक्रमों का प्रारूपण हो सके, उनका प्रदर्शन किया जा सके तथा पूर्वकालीन विस्तार सेवा विभागों की कमियों को दूर करना सम्भव हो सके। विद्यालयीय शिक्षक तथा शिक्षक प्रशिक्षकों के लिए सेवाकालीन प्रशिक्षण कार्यक्रम तैयार करना भी इन महाविद्यालयों का ही दायित्व माना गया। इस बीच शिक्षा में पुनर्विचार समिति (The Review Committee Education) ने 1960 में संस्तुत किया कि-शिक्षा के परा- स्नातक पाठ्यक्रम में एक विशेषीकरण शैक्षिक अनुसन्धान की विधियाँ तथा लघु शोध प्रबन्ध को स्थान दिया जाय।
उत्तीर्णाक 45 प्रतिशत विशेष योग्यता 65 प्रतिशत सत्रीय कार्य हेतु 20 प्रतिशत अंको का आरक्षण मौलिक परीक्षा का समावेशन एकीकृत बी०एड० तथा एम०एड० पाठ्यक्रम का शुभारम्भ लघु समूह (ट्यूटोरियल) तथा संगोष्ठी, बिना बी०एड० द्विवर्षीय एम०एड० के पाठ्यक्रम में सीधे प्रवेश आदि को सन्निहित किया जाय तया मूलभूत एवं क्रियात्मक दोनों ही प्रकार के शैक्षिक शोधकार्य को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहन छात्रवृत्ति तथा अध्येतावृत्ति आदि प्रदान किये जायें तथा प्रवक्ता प्रवाचक और आचार्यों के लिए न्यूनतम योग्यता आदि भी निर्धारित की जाये।
इसी प्रकार चयनित शैक्षिक योजनाओं पर अध्ययन समूह (Study Team for Selected Educational Schemes) ने 1961 में प्रशिक्षण महाविद्यालयों के अध्यापकों के लिए योग्यता मानदण्ड तथा वेतनमान आदि की संस्तुति की और सम्बन्धित समस्याओं पर विचार किया। मूलतः समन्वयन की कमी, मानकीकरण तथा उदार एवं पम्परागत तथ्यों (Liberal and Pedagogical elements) के मध्य सन्तुलन की कमी आदि को प्रमुख समस्याओं के रूप में देखा गया।
इसके पश्चात 1964-66 की अवधि एक विख्यात आयोग के कार्यकाल की थी जिसके अध्ययक्ष डॉ० डी० एस कोठारी थे। अतः इसे कोठारी आयोग या शिक्षा आयोग के रूप में जाना जाता है। उद्यमगत शिक्षा के क्षेत्र में प्रमुख कमियों का उल्लेख आयोग के द्वारा अपने प्रतिवेदन में किया गया था, जैसे-
प्राथमिक तथा माध्यमिक अध्यापकों के प्रशिक्षण संस्थान विश्वविद्यालय की शैक्षिकं मूलधारा से न तो जुड़ पाते हैं और न ही विद्यालयों के नैमित्तिक समस्याओं से ही उनका सम्पर्क बन पाता है। अतः कई कारों से प्रशिक्षण संस्थानों का गुणवत्ता स्तर कुछ अपवादों को छोड़कर या तो लघुस्तरीय या कमजोर रह जाता है। दक्ष कर्मचारी (स्टाफ) आकर्षित नहीं हो पाते हैं। वर्तमान कालीन आवश्यकता तथा उद्देश्यों पर ध्यान दिये बिना प्रशिक्षण महाविद्यालयों में एक निर्दिष्ट प्रारूप (Traditional and set patterns) तथा कठोर तकनीकों का प्रयोग किया जाता है जो कि यथार्थता और जीवन्तता (Vitality and realism) से दूर होते हैं फलतः वे अधिकांशतः परम्परागत ही बने रहते हैं।
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