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अध्यापक शिक्षा के विकास की प्रारम्भिक अवस्थाएँ
अध्यापक शिक्षा के विकास के ऐतिहासिक कालखण्ड का उल्लेख निम्नलिखित हैं-
(क) प्राचीन काल – ईसा पूर्व 2500 से लेकर ईसा पूर्व 500 तक की विस्तृत दो हजार वर्ष की अवधि को विभिन्न विद्वानों ने प्राचीन तथा मध्यकाल भी कहा है, लेकिन भारतीय ऐतिहासिक काल विभाजन के अनुसार चूँकि हम मध्यकाल के रूप में प्रायः मुस्लिम काल को ही जानते हैं अतः इस अवधि को हम मात्र प्राचीन काल के रूप में ही देखने के लिए प्रयास करेंगे।
इस काल में शिक्षा वैदिक ज्ञान की प्राप्ति से सम्बन्धित होने के साथ ही उस पर समाज के उच्च कुल के लोगों का विशेषकर ब्राह्मण वर्ग का ही अधिकार था। वेदाध्ययन करना ही अध्ययन-अध्यापन का मूल लक्ष्य रहा। ब्रह्म ज्ञान से युक्त व्यक्ति ही ब्राह्मण कहलाने के लिए इस काल में अधिकारी हुआ करते थे। अध्यापक शिक्षा के पक्ष में इस काल में कोई विशेष प्रमाण उपलब्ध न होने के कारण निश्चयपूर्वक कुछ भी कहना सम्भव नहीं है। वर्णाश्रम प्रथा प्रचलित थी और वर्ण कर्मणा स्थापित होते थे। यही कारण है कि गुरु-गृह या गुरुकुल में रहकर अध्ययन करने वालों में से श्रेष्ठ तथा योग्यतम शिष्य के गुरु के द्वारा आगे चलकर शिक्षण कार्य के दायित्व को ग्रहण करने के लिए उपयुक्त ठहराया जाता था। अतः इस काल में यह जरूरी नहीं रहा कि अध्यापक बनने की परम्परा पीढ़ी-दर-पीढ़ी पिता-पुत्र के आधार पर चलती रहे। यह अधिकार गुरु-शिष्य के मध्य निर्धारित होता था और शिष्यों की श्रेष्ठता का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन किया जाता था। शिष्य को भी पुत्र के ही समकक्ष माना जाता था और यदि योग्यतम शिष्य पुत्र के स्थान पर दूसरा कोई होता था तो गुरु का कर्त्तव्य होता था कि वह उस पर विशेष ध्यान देते हुए सम्पूर्ण ज्ञान उसे प्रदान करे। शायद इसी परम्परा के अनुसार ही गुरु द्रोणाचार्य ने अपने पुत्र अश्वत्थामा के स्थान पर योग्यतर शिष्य अर्जुन को श्रेष्ठ धर्नधर बनाने के लिए संकल्प लिया था।
‘इस काल में विद्या गुरुमुखी अर्थात गुरु के मुख से ही प्राप्त होने वाली वस्तु होने के कारण श्रुति के साथ ही स्मृति निर्भर थी और इन दोनों ही क्षमताओं से युक्त शिष्य को हीं गुरु पद के लिए आगे चलकर वरणीय माना जाता था।
मनुसंहिता में वेदाध्यायी और वेदाध्यापक दोनों के लिए बाह्मण होना आवश्यक माना गया और यहीं से मूलतः ब्राह्मण काल प्रारम्भ होता है। वर्ण के स्थान पर जाति का प्रादुर्भाव हुआ और कर्मणा निर्दिष्ट वर्ण, जन्मना निर्दिष्ट जाति में परिवर्तित होने लगा। जातीय एकाधिपत्य फलतः बढ़ने लगा। समाज के उच्च वर्ग का शिक्षा के क्षेत्र में एकाधिकार होने लगा ताकि ज्ञान की शक्ति से वे क्षत्रियों की शस्त्र-शक्ति की समकक्षता कर सकें। वेदाभ्यास तर्क, आलोचना, शास्त्रार्थ आदि समस्त शैक्षिक क्रियाकलाप ब्राह्मण वर्ग के अधीन रहने के कारण ही आगे चलकर कर्मणा शिक्षक के स्थान पर जन्मनाः शिक्षक की भी प्रतिष्ठा हुई। फलतः व्यवसायगत चयन के लिए अवसर क्रमशः सीमित होने लगा। इसके पूर्व तो अनौपचारिक अध्यापक शिक्षा की भी कोई आवश्यकता का अनुभव नहीं किया जाता रहा, क्योंकि अनुकरण और अनुसरण के माध्यम से शिष्य गुरुं बनने के लिए योग्यता का अर्जन किया करते थे। लिखित पाठ्यक्रम तथा व्यवस्थित शिक्षा प्रणाली के न होने के कारण भी ऐसा होना स्वाभाविक ही था।
(ख) बौद्ध काल – लगभग 1700 वर्षों की इस कालावधि में बुद्ध की धार्मिक शिक्षाओं को प्रचारित करने के लिए ज्यों-ज्यों प्रयास किया गया, इस कार्य के लिए योग्य और प्रशिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता का अनुभव किया जाने लगा। प्राचीनकाल में शिक्षाधिकार से वंचित जातियों को भी इस काल में विद्याध्ययन की अनुमति दी जाने लगी। सर्वप्रथम औपचारिक रूप से धार्मिक शिक्षा के लिए ही शिक्षकीय प्रशिक्षण की व्यवस्था इस कालावधि में की गई। नैतिकता और अनुशासनपूर्ण आचरण को अनिवार्य बनाया गया। प्राचीन हिन्दू और सनातन धर्म के स्थान पर इस काल में जातिभेदविहीन समाज की स्थापना को बौद्ध धर्म में अधिक महत्व दिया जाने लगा। इस उदारवादी व्यवस्था में ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य वर्ग के लोगों को भी भिक्षु बनने के लिए योग्य माना जाने लगा। प्रव्रज्या या पब्बजा तथा उपसम्पदा जैसे संस्कारों के मध्यवर्ती काल में विद्याभ्यास (जैसे- उपनयन एवं-दीक्षान्त की मध्यावधि में प्राचीनकाल में शिष्य गुरुगृह में रहकर विद्यार्जन किया करते थे। सम्पूर्ण होने के बाद दो आचार्यों की देखरेख में अध्यापन हेतु प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती थी। वरिष्ठता एवं श्रेष्ठताधार पर आचार्य या उपाध्याय स्तरीय योग्यतार्जन के बाद ही भिक्षुओं को अध्यापन के लिए अधिकार प्राप्त हो पाता था। संघों में वरिष्ठ और श्रेष्ठ छात्र अध्ययन-अध्यापन कार्य में आचार्यों की सहायता किया करते थे जिन्हें पित्थिचार्य (Pitthiacharya) या पित्तुलाचार्य (Pittlacharya) अर्थात सहायक शिक्षक के रूप में देखा जाता था। इसी अग्रशिष्य प्रणाली (Monitorial System). को इस काल में औपचारिक अध्यापक शिक्षा के रूप में सर्वप्रथम स्वीकृति दी गी। सप्तम सदी में इस प्रणाली के प्रयोग के उत्तम उदाहरण पाये जाते हैं। बौद्ध शिक्षा, धर्मज्ञान, नैतिकता, उत्तम आचरण और बौद्ध दर्शन में निष्णात भिक्षुओं को बौद्ध आचार्य पद हेतु तैयार करने के लिए इस प्रणाली का प्रयोग किया जाता था। दो आचार्यों के द्वारा प्रत्येक प्रशिक्षु-भिक्षु को नैतिकता धर्म और अनुसासनात्मक आचरणों पर नियन्त्रण करने की शिक्षा दी जाती थी।
(ग) मध्य इस्लाम काल- 1200ई0 से लेकर 1700ई0 की 500 वर्षीय अवधि के इस कालखण्ड को मूलतः मुस्लिमकालीन शिक्षा व्यवस्था के रूप में देखा जाता है और अध्यापकीय शिक्षा की दिशा में इस काल में विशेष प्रगति के प्रमाण नहीं पाये जाते हैं। इस काल में शिक्षा को जन-साधारण तक पहुँचाने के लिए प्रयास इसलिए किया गया ताकि मकतब और मदरसे जैसी शैक्षिक संस्थाओं के माध्यम से मौलवियों के द्वारा कुरआन का पवित्र धर्मोपदेश उन तक पहुँचाना सम्भव हो सके। अध्यापक शिक्षा की किसी प्रणाली के अस्तित्व के बारे में विशेष प्रमाण इस काल में नहीं मिलने के साथ ही अरबी भाषा के शिक्षण के साथ मदरसों में शिक्षा देने के लिए इस्लाम धर्म के अनुयायियों की नियुक्ति मौलवियों के पद पर की जाती थी। देश में उपयुक्त विद्वान के उपलब्ध न होने पर अरब देशों से भी मौलवियों को बुलाया जाता था जिन्हें समाज में प्रतिष्ठा और पर्याप्त सम्मान प्राप्त होता था। अतः इस काल में –
- औपचारिक तौर पर अध्यापक शिक्षा के लिए विशेष प्रबन्ध नहीं किया गया था और न ही इसे आवश्यक समझा गया था क्योंकि अरब देशों से विद्वानों को बुलाकर मदरसों में नियुक्ति देना अधिक सरल माना जाता था।
- पूर्वकालीन अग्रशिष्य प्रणाली को इस काल में विशेष महत्व नहीं दिया गया, क्योंकि शिक्षा का सीमांकन मात्र धर्म के प्रचार-प्रसार तक ही कर दिया गया।
- मकतब या मुकलिस में स्थानीय अरबी शिक्षित तथा मदरसों के लिए उच्च शिक्षित यां अरब देशों से बुलाये गये मौलवियों की प्रायः नियुक्ति की जाती थी।
- चिकित्सा, साहित्य, कला तथा व्यावहारिक कला, जैसे-संगीत आदि विषयों की शिक्षा को प्रधानता दी जाती थी, लेकिन उपयुक्त शिक्षण संस्थानों का अभाव था।
- शिक्षा इस काल में मूलतः धार्मिक स्वरूप में थी और व्यावहारिक शिक्षा से अधिक महत्व पवित्र कुरआन के उपदेशों के प्रचार-प्रसार को ही दिया जाता था, जिसे धर्माचरण का अंग माना जाता था।
- फिरोज तुगलक (1325ई0) जैसे शासकों के समय से ही मदरसो की स्थापना और संचालन के लिए राज्य की ओर से धनराशि तथा अन्य सुविधाएँ प्रदान की जाती थीं, लेकिन सभी शासक समान रूप से धमरप्रिय न होने के कारण इस अनुदान में पर्याप्त उतार-चढ़ाव देखने को मिलता है। फलतः अध्यापक शिक्षा के लिए कोई ठोस कदम उठाने की सम्भावना सामने नहीं आयी।
- विद्वान के रूप में स्थापित होने के लिए इस काल में अरबी/फारसी का ज्ञान जरूरी माना जाता था। शायद यही कारण है कि इसके सन्दर्भ में ही पढ़े फारसी, बेचे तेल जैसी कहावते प्रचलन में आयी।
इस ऐतिहासिक कालखण्ड में यह स्पष्ट ही है कि औपचारिक दृष्टि से यदि देखा जाय तो अध्यापक शिक्षा के लिए समुचित प्रबन्ध लगभग नगण्य ही था। यद्यपि अग्रशिष्य प्रणाली के बारे में मात्र उल्लेख ही महत्वपूर्ण माना जाता है। मुगलकालीन शासकों के पतन के साथ ही अर्वाचीन या आधुनिक काल का शुभारम्भ होता है। भारतीय समाज में उस समय राजनैतिक आर्थिक एवं सामाजिक सन्दर्भ में काफी उथल-पुथल चल रहा था।
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