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अम्बेडकर के न्याय एवं शांति के सम्बन्ध में विचारों की समीक्षा कीजिए।
सामाजिक न्याय – अम्बेडकर धर्म के नाम पर वितंडाबाद के कटु आलोचक थे। वे नास्तिक नहीं थे वे समाज के लिए धर्म आवश्यक मानते थे किन्तु धर्म के नाम पर समाज का विभाजन किया जाना, व्यक्तियों को छोटा और बड़ा समझना, अलग-अलग व्यक्तियों को अलग-अलग तरह की सुविधायें प्रदान करना और उनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति का निर्धारण करना, यह धर्म का कार्य नहीं हैं। धर्म, व्यक्तियों में भेदभाव उत्पन्न नहीं करता और न वह पक्षपाती हो सकता है। उन्होंने कहा “जो धर्म अपने ही अनुयायियों को कुत्तों और अपराधियों से भी बदतर मानता है और उन पर नारकीय मुसीबतें बरसाता है वह धर्म हो ही नहीं सकता।” वास्तव में वे हिन्दू धर्म को कर्मकाण्ड, सामाजिकता, राजनीति और स्वच्छता पालन की एक व्यवस्था तथा नियमों की एक मिली-जुली खिचड़ी स्वीकार करते थे।
अम्बेडकर ने धर्म के चार लक्षण बताये हैं- (1) धर्म नैतिकता की दृष्टि से प्रत्येक समाज का मान्य सिद्धांत है। (2) धर्म बौद्धिकता पर टिका होना चाहिए जिसे दूसरे शब्दों में विज्ञान कहा जा सकता है। (3) इसके नैतिक नियमों में, स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातत्वभाव का समावेश हो। (4) धर्म को दरिद्रता को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए।
उनका मत था कि हिन्दू जिसे धर्म कहते हैं वह धार्मिक आदशों और निषेधों का पुलिंदा है। उन्होंने हिन्दू धर्म के कुछ अवगुणों की ओर भी भारतीयों का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है-
1. इसमें नैतिक जीवनयापन की स्वतन्त्रता के दरवाजे बन्द रखे गये हैं।
2. इसमें उपदेशों का बाहुल्य है।
3. नियम – विधान पृथक वर्गों के लिए अलग-अलग हैं जिन्हें अन्तिम माना गया है। उन्हें यह कहने में किसी भी प्रकार का संकोच नहीं हुआ कि इस प्राकर के धर्म को समाप्त कर देना चाहिए। यह कार्य कहीं से भी अधार्मिक नहीं है। उन्होंने कहा कि ‘नियम विरुद्ध धर्म’ के स्थान पर ‘सिद्धान्तों का धर्म’ होना कहीं अच्छा है। उन्होंने धर्म के कुछ आवश्यक तत्व भी बताये हैं जो इस प्रकार हैं-
(1) हिन्दुओं का एक सर्वमान्य धर्मग्रन्थ हो। (2) जन्मजात पुरोहितवाद को समाप्त किया जाय। (3) सभी के लिए एवं मुक्त परीक्षाओं के आधार पर पुरोहित का चुनाव किया जाय। (4) पुरोहित के लिए सरकारी प्रमाण पत्र की अनिवार्यता हो। (5) कानून द्वारा पुरोहित की संख्या निश्चित की जाय। (6) पुरोहितों की नैतिकता, विश्वासों एवं पूजाविधि पर सरकार की कड़ी दृष्टि एवं निगरानी रहनी चाहिए।
बड़ौदा और बम्बई के न्यायालयों के कटु अनुभव ने उन्हें यह सोचने के लिए कर दिया कि हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज में अछूतों को न्याय मिलना संभव नहीं है। वे जानते थे कि हिन्दू-धर्म में दया, समानता एवं स्वतन्त्रता को कोई स्थान नहीं है।
इसलिए वे बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुए क्योंकि वहाँ मानवता थी। नैतिक आधार नहीं था और न्याय में भेदभाव नहीं था। उन्होंने 14 अक्टूबर, 1956 को बौद्ध धर्म ग्रहण करने की घोषणा कर दी। वे कहते थे कि छुआछूत की समस्या, वर्ग-द्वेष की समस्या है। वह दो समाजों के मध्य कलह का कारण है- सवर्ण और अछूत। वे जानते थे कि हिन्दू-धर्म में रहकर जाति प्रथा समाप्त करने का प्रयास मीठे जहर को चाटने के समान है। इसलिए उन्होंने हिन्दू-धर्म को त्यागकर बाहर से शक्ति प्राप्त करने के लिए कहा है।
विश्व में चार धर्मगुरू हैं श्रीकृष्ण, बुद्ध, ईसा और मोहम्मद इनमें से उन्हें सबसे अधिक अगर कोई प्रभावित कर सका तो वह गौतम बुद्ध थे, जिन्होंने कहा कि उनके अनुयायी उनका अन्धानुकरण न करें वरन् स्व-विवेक से कार्य करें। बौद्ध धर्म ईश्वर में आस्था नहीं रखता किन्तु उसमें नैतिकता को ही ईश्वर का स्थान प्राप्त है। अम्बेडकर के अनुसार हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म तीन दृष्टियों से एक दूसरे से भिन्न थे- (1) हिन्दू-धर्म आत्मा, परमात्मा और वर्ण-व्यवस्था में आस्था रखता है जबकि बौद्ध धर्म में न आत्मा का अस्तित्व है न परमात्मा का और न ही वर्णाश्रम का (2) बौद्ध धर्म में ऐसी तीन महान विशेषतायें हैं जिनकी बराबरी नहीं की जा सकती। ये हैं-प्रज्ञा, करुणा और समता। (3) बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म की तरह सताये गये और पददलितों के लिए आशा का एक दीप है।
बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने के पश्चात उन्होंने कहा, “मैं आज एक नया जन्म ले रहा हूँ और नर्क से मुक्ति पा रहा हूँ।” उनका गला उस समय रूंध गया था जब उन्होंने यह कहा, “मैं हिन्दू धर्म को त्यागता हूँ।” आप सभी इस पंक्ति से कल्पना कर सकतें हैं कि हिन्दू धर्म और छुआछूत ‘की भावना ने उन्हें कितना कष्ट एवं आधात पहुँचाया था कि वे हिन्दू-धर्म त्यागने के लिए विवश हो गये और उन्होंने सहर्ष बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया। उन्हें यह कहने में संकोच नहीं हुआ, “मैं हिन्दू पैदा तो हुआ परन्तु हिन्दू रहकर मरूंगा नहीं।” इसे उन्होंने पूरा किया।
इस तरह उन्होंने हिन्दू धर्म एवं वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध एक खुला आन्दोलन प्रारम्भ किया और अछूतों को समाज में उचित स्थान तथा सामाजिक न्याय दिलाने के लिए संघर्षरत हो गये। इसके पश्चात सामूहिक धर्म परिवर्तन का आन्दोलन चल पड़ा। 6 दिसम्बर, 1956 को आप नहीं रहे। सम्पूर्ण देश आपकी अचानक मृत्यू के समाचार से स्तब्ध रह गया। लाखों व्यक्ति अंतिम दर्शन के लिए उमड़ पड़े। कहते हैं कि श्मशान घाट पर ही एक लाख से अधिक व्यक्तियों धर्म परिवर्तन किया। ऐसा अद्भुद था डा. अम्बेडकर का व्यक्तित्व ।
डा. अम्बेडकर एक प्रसिद्ध विद्वान, चिन्तक, शिक्षाविद्, राजनीतिज्ञ, प्रभावशाली ने वक्ता, जुझारू एवं साहसी व्यक्तित्व के रूप में जहाँ हमारे समक्ष आते हैं वहीं जड़वादी अन्धविश्वासी मान्यताओं पर आधारित समाज के एक कठोर आलोचक के रूप में भी। वर्ण व्यवस्था और जाति प्रथा जैसी घिनौनी प्रथा की उन्होंने खूब आलोचना की। इन सबका मुख्य कारण यह था कि बचपन से ही उन्होंने सवर्णों के अन्याय और अत्याचार सहे थे। हरिजनों के साथ सवर्णों ने पशु से भी अधिक बुरा व्यवहार किया। शताब्दियों तक उन्हें गुलाम बनाकर उनका शोषण किया। वर्ण-व्यवस्था ने शूदों को आर्थिक एवं सामाजिक सुविधायें समान अवसर नामक अधिकार दिये ही नहीं। इसीलिए अम्बेडकर का यह विचार था कि जो जाति आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़ी, उसे न समाज में कोई स्थान प्राप्त होता है न उसे राजनीति में ही किसी प्रकार की सत्ता, शक्ति और अधिकार प्राप्त हो पाते हैं।
वे जीवन भर असमानता और अन्याय के विरुद्ध अपना आक्रोश व्यक्त करते रहे। दलित और शोषित वर्ग के व्यक्तियों को संगठित करते रहे। उन्हें उनके अधिकारों और सामाजिक न्याय के प्रति उन्होंने सजग बनाया आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना को जन्म दिया। देश के संविधान में हरिजनों को कुछ विशेष सुविधायें दिलाने का सफल प्रयास किया। इसीलिए गाँधीजी उन्हें निडर कहा करते थे। वह यह कहने में भी नहीं हिचके कि राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम से भी महत्वपूर्ण अछूतों की सामाजिक स्वाधीनता है। गांधीजी ने कहा भी था कि उस समय तक स्वराज्य व्यर्थ है जब तक अस्पृश्यता का कलंक हमारे माथे से नहीं हटता।”
डा0 अम्बेडकर ने सदैव अमीरी और गरीबी की एक सामाजिक अन्याय के रूप में व्याख्या की है। उन्होंने कहा, “सवर्णों की पाँचों उगलियाँ बराबर नहीं होतीं।” इस लोकोक्ति की सदैव उन्होंने कटु आलोचना की है। उनका विचार था कि प्रकृति के नियम भले ही समान न हों पर मनुष्य का नियम समानता पर आधारित होना चाहिए। समाज और राज्य का एक शक्तिशाली नियम समता होना चाहिए। जहाँ सामाजिक और आर्थिक विषयों पर न किसी प्रकार का भेदभाव हो, न असमानता हो, न अन्याय की सम्भावना हो और न उनके मध्य उतार-चढ़ाव का कोई जोखिम हो। यही उनका सामाजिक न्याय था।
वे साम्यवाद तथा समाजवाद से भी पूर्णतया सहमत नहीं थे। वे मार्क्स की अर्थव्यवस्था एवं नियमों के प्रति प्रभावित अवश्य थे किन्तु सामाजिक और राजनीतिक सिद्धांतों से उनका मेल नहीं खाता था। इसलिए वे कहते थे कि मैं केवल जनतंत्र को ही मनुष्य के जीने के लायक जीवन-पद्धति स्वीकार करता हूँ क्योंकि यह जनमत पर आधारित होता है जबकि साम्यवादी व्यवस्था हुक्मनामें पर आधारित रहती है। सवर्णों पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कहा, “सवर्णों ने अंग्रेजो से दीर्घकालिक संघर्ष चलाया केवल सत्ता के लिए अन्यथा बरतानिया सरकार भी तो जनतंत्रीय संसद का शासन चला रही थी।” उन्होंने सामाजिक समानता और न्याय स्थापित करने के उद्देश्य से स्वतंत्र भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 द्वारा विभिन्न प्रकार से आम भारतीय नागरिक के समानता के मौलिक अधिकारों को स्थान दिलाया।
अम्बेडकर की दृष्टि में ‘वर्ग संघर्ष से भी महत्वपूर्ण ‘वर्ण संघर्ष” है इस देश में जब तक छुआछूत की भावना, वर्ण-व्यवस्था और जातीय व्यवस्था विद्यमान रहेगी जब तक इस देश का सन्तुलित विकास सम्भव नहीं है। इसलिए आज आवश्यकता है कि देश के सभी वर्गों और सभी जातियों के व्यक्तियों को उन्नति के समान अवसर, बगैर किसी भेदभाव के प्रदान किये जायें। धनी, सम्पन्न और खुशहाल देश वही होता है जिसमें अधिकांश व्यक्तियों की कम से कम आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हो। सवर्णों के अथवा कुछ पूँजीपतियों के मात्र सम्पन्न होने से देश न तो उन्नति कर सकता है और न धनी हो सकता है। इसलिए देश से जातीय भावना, ऊँच-नीच पर आधारित सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक सामाजिक अन्याय को जब तक समाप्त नहीं किया जाता तब तक यह देश आर्थिक-सामाजिक रूप से अपनी रूढ़ियों एवं प्रथाओं का गुलाम ही बना रहेगा।
भीमराव अम्बेडकर के जीवन की यातनाओं ने उन्हें दुःख और कष्ट तो बहुत दिया किन्तु वे जातीय और वर्ण व्यवस्था रूपी आग के दरिया से तप कर निकले। दुःखों ने उन्हें महान व्यक्ति बनाया जो संकीर्ण धर्म और वर्ण व्यवस्था हजारों वर्षों तक हरिजनों का शोषण करती रही उसके विरुद्ध उन्होंने जीवन पर्यन्त संघर्ष किया और जब तक उन्होंने हरिजनों को संविधान में उचित स्थान नहीं दिला लिया तब तक वे शान्ति से नहीं बैठे। डा. अम्बेडकर हरिजन उद्धार और उन्हें संवैधानिक रूप में अधिकार और सुविधाये दिलाने के लिए सदैव याद किये जाते रहेंगे।
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