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आँख, कान व उनसे सम्बन्धित रोग | EYE, FAR AND ITS RELATED DISEASES
नेत्र अथवा आँखें सभी ज्ञानेन्द्रियों में एक विशिष्ट स्थान रखती हैं। नेत्रों के द्वारा हमें वस्तु का ‘दृष्टि ज्ञान’ होता है। दृष्टि वह संवेदन है जिस पर मनुष्य सर्वाधिक निर्भर करता है। नेत्र बड़ी जटिल ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। दृष्टि एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें प्रकाश किरणों के प्रति संवेदिता, स्वरूप, दूरी, रंग, गहनता, आदि सभी प्रत्यक्ष ज्ञान सन्निहित हैं। वस्तुतः इनके महत्त्व को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। नेत्रविहीन व्यक्ति की कठिनाइयों का कहीं अन्त नहीं होता है। यही कारण है कि प्रकृति सृष्टा ने नेत्रों को अत्यधिक सुरक्षित बनाया है और सभी ओर से इनकी सुरक्षा का प्रबन्ध किया है।
नेत्र की रचना (CONSTRUCTION OF EYE)
प्रत्येक नेत्र की रचना गोलिका आकार की है। इस कारण इन्हें अभिगोलक (Eyeball) कहा जाता है।
नेत्र के निम्नांकित सहायक अंग होते हैं-
1. भी (Eyebrow),
2. पलकें (Eyelids),
3. नेत्र पक्ष्म (Eye lashes),
4. नेत्रश्लेष्मला (Conjuctiva),
5. अश्रु उपकरण (Lacrimal apparatus) |
अक्षिगोलक भीतर से खोखले तथा गोलिका आकार के अंग हैं। अक्षिगोलक की भित्तियाँ तीन पटलों से मिलकर बनी हैं। भीतर के खोखले भाग में भी दो भाग होते हैं। आगे वाले भाग को अग्रकक्ष (Anterior chamber) कहते हैं तथा पीछे वाले भाग की ‘पश्च कक्ष’ (Posterior chamber) कहते हैं। अग्रकक्ष’ ‘पश्चकक्ष’ से छोटा होता है। दोनों कक्षों में पारदर्शीय जलीय पदार्थ भरा होता है। अग्रकक्ष के तरल को ‘नेत्रोद’ (Aqueous Humour) कहते हैं। पश्चकक्ष के तरल को ‘नेत्रकाचाभ द्रव’ (Vitrous Humour) कहते हैं। यह द्रव अग्र कक्ष के द्रव से अधिक गाढ़ा होता है। यह द्रव (नेत्रका चाभ) श्याम (Viscous) चिपचिपा तथा जैली के समान वयन का होता है। परन्तु यह पारदर्शी पदार्थ होता है। अक्षिगोलक के भीतर के खाली भाग में इन द्रवों की उपस्थिति से सम्पूर्ण अक्षिगोलक में आकार चारिता तथा दृढ़ता आती है। इन द्रवों में भी नेत्रका चाभ द्रव का दृढ़ता एवं आकार के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। इस द्रव से अक्षिगोलक के पटलों को सहारा मिलता है और वे यथास्थान रहते हैं। दृष्टिपटल (Retina) को यही द्रव सँभाले रहता है। इन दोनों से प्रकाश की किरणों को वर्तित तथा केन्द्रीभूत करने में भी सहायता मिलती है।
सामान्य दृष्टि दोष (COMMON DEFECTS OF VISION)
दृष्टि-पटल में एक विशेष गुण होता है कि किसी वस्तु का जब इस पर प्रतिबिम्ब बनता है, तो उसका प्रभाव अनुबिम्ब (After image) के रूप में आधे सेकण्ड की अवधि तक बना रहता है। इस गुण को दृष्टि स्थापकता (Persistence of Vision) कहते हैं। फलस्वरूप उस अवधि में यदि दृष्टि पटल पर, किसी दूसरी वस्तु का प्रतिबिम्ब पड़ता है तो दोनों वस्तुओं का तारतम्य सा बन जाता है।
अक्षिगोलक का आकार लगभग गोलाकार होता है। परन्तु किन्हीं लोगों में यह कुछ लम्बा (Elongated) सा हो जाता है और किन्हीं में यह चपटाकार हो जाता है। अक्षिगोलक के अधिक लम्बे होने पर लैंस से दृष्टि-पटल तक का अन्तर बढ़ जाता है।
अक्षिगोलक के चपटाकार हो जाने पर दोनों के बीच का अन्तर कम हो जाता है। दोनों असामान्य अवस्थाएँ हैं और दोनों में बिम्ब दृष्टि-पटल पर एवं निश्चित स्थान पर नहीं बनता है क्योंकि प्रकाश किरणें ठीक बिन्दु पर केन्द्रीभूत नहीं होती हैं। दृष्टि-अक्ष (Optic Axis) के छोटे-बड़े होने पर और लैन्स में दोष उत्पन्न हो जाने से, चित्र का दृष्टि-पटल केन्द्रीकरण नहीं हो पाता है। फलतः कई प्रकार के नेत्र-दोष उत्पन्न हो जाते हैं। दृष्टि दोष के दो भेद हैं; यथा—
1. दूर-दृष्टि दोष (Hypermetropia or Long-sightedness) – इस प्रकार के दोष वाले नेत्रों में अक्षिगोलक चपटा सा हो जाता है। अत: लँस तथा दृष्टि-पटल के बीच का अन्तर कम हो जाता है। ऐसी अवस्था में दूर से आयी हुई समानान्तर प्रकाश किरणें दृष्टि-पटल से पीछे केन्द्रीभूत होती हैं। अतः बिम्ब अस्पष्ट हो जाता है। ऐसी स्थिति में लैंस किसी वस्तु से आयी किरणों को इतना नहीं झुका पाता है कि उस वस्तु का चित्र दृष्टि-पटल पर केन्द्रित हो सके। फलतः उस वस्तु का चित्र नेत्र गोलक के पीछे केन्द्रित हो जाता है। इसलिए वस्तु स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ती है।
इस प्रकार के दृष्टि दोष वाले व्यक्ति प्रत्येक वस्तु को स्पष्ट देखने हेतु उसे नेत्र से दूर रखते हैं जिससे उसकी किरणें समानान्तर होकर आँख में प्रवेश कर सकें और लँस उन्हें दृष्टि पटल पर केन्द्रित कर सकें जिससे प्रतिबिम्ब रैटिना पर बने। ऐसे व्यक्ति पुस्तक को दूर करके पढ़ने का प्रयास करते हैं क्योंकि समीप की वस्तु को देखने के लिए नेत्रों पर और भी जोर लगाना पड़ता है। परन्तु दूर स्थित वस्तुओं के लिए नेत्रों की समंजन क्षमता (Accommodation) ठीक होने के कारण दीर्घ-दृष्टि वाली आँखों को दूर की वस्तुओं को देखने में कोई कठिनाई नहीं होती है। इस दोष को दूर-दृष्टि दोष (Hypermetropia) कहते हैं। ऐसी दोषपूर्ण दृष्टि वाले व्यक्ति को दूर-दृष्टिक (Hypernmetropic) कहते हैं।
इस दोष के निदान के लिए यदि किरणों को आँख में प्रवेश करने के पहले ही कुछ झुकाने का उपाय किया जाये, तो इस दोष को दूर किया जा सकता है। कॉनवेक्स लँस (Convex Lens) किरणों को झुका देता है। अतः इस दृष्टि-दीप को दूर करने के लिए उन्नतोदर (Convex lens) के चश्मे का प्रयोग किया जाना चाहिए।
2. निकट दृष्टिता (Myopia or Short Sightedness) अक्षिगोलक के कुछ अधिक लम्बाकार हो जाने से लँस तथा दृष्टिपटल के बीच का अन्तर बढ़ जाता है। अतः प्रकाश की किरणें उचित बिन्दु पर केन्द्रीभूत नहीं होती है। अतः बिम्ब अस्पष्ट बनता है। ऐसी अवस्था में दृष्टि-अक्ष (Optic Zone) सामान्य से कुछ बड़ा हो जाता है और वस्तु से आयी समानान्तर किरणें दृष्टिपटल के कुछ पहले हो केन्द्रित हो जाती हैं। फलतः रेटिना पर बिम्ब धुंधला एवं अस्पष्ट बनता है। वस्तु को आँखों के समीप लाने से तो चित्र कुछ पहले से स्पष्ट बनता है। इस रोग से पीड़ित व्यक्ति किताब को आँखों के समीप लाकर पढ़ता है। वस्तु को नेत्रों के समीप लाने से उससे आई किरणें फैल जाती है, तब उनका केन्द्रीकरण लैस में से होकर दृष्टिपटल पर वन जाता है तथा वस्तु साफ दिखाई देने लगती है। दृष्टि के इस दोष को निकट दृष्टिदोष (Myopia) कहते हैं।
निकट दृष्टिदोष में वस्तु मे आई किरणों को फैला देने का प्रबन्ध किया जाये तो इस दोष को दूर करना सम्भव हो सकता है। अतः इसके लिए नतोदर लँस के चश्मे का प्रयोग किया जाना चाहिए क्योंकि ये लँस किरणों को फैला देते हैं और वस्तु के प्रतिबिम्ब को रेटिना पर केन्द्रीभूत कर देते हैं। इस दोष से पीड़ित आँखों में स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी सामान्य आँख की तुलना में घट जाती है
3. दृष्टि- वैषम्य (Astigmatism) कभी-कभी आँखों के लेंस में विचित्र दोष उत्पन्न हो जाता है जिसके फलस्वरूप निर्गत किरणें दृष्टि पटल पर एक बिन्दु पर केन्द्रीभूत नहीं होती हैं। यह दृष्टि दोष कोर्निया के क्षैतिज तथा ऊर्ध्वाधर तलों में अनियमित चक्रता के कारण उत्पन्न होता है। इस प्रकार के दोष वाली आँखों को समान दूरी पर खींची गई क्षैतिज तथा ऊर्ध्वाधर रेखाएँ समान रूप में स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ती हैं। इस प्रकार जब लँस की चक्रता असम हो जाती है अर्थात् जब वह प्रत्येक दिशा में एक ही व्यास की न हो, तब किसी वस्तु से आई किरणें कुछ तो दृष्टि-पटल पर केन्द्रित हो जाती हैं, परन्तु कुछ उससे आगे और कुछ पीछे भी केन्द्रित हो जाती हैं। फलतः चित्र स्पष्ट नहीं बनता है और बेढंगा सा दिखाई देता है। वस्तु का कुछ भाग स्पष्ट और कुछ धुँधला दिखाई देने लगता है। दृष्टि सम्बन्धी इस रोग को दृष्टिवैषम्य या असम दृष्टि दोष (Astigmatism) कहते हैं। इसके सुधार के लिए संयुक्त लैस (Compound Lens) का चश्मा लगाना लाभप्रद होगा।
कान या कर्ण (EAR)
कर्ण शरीर का एक आवश्यक अंग है। यह श्रवण-सन्तुलनेन्द्रिय है तथा इसी से ध्वनि (Sound) का बोध होता है। हमारे जीवन में ध्वनि का अत्यधिक महत्त्व है। ध्वनि के द्वारा एक व्यक्ति का अन्य व्यक्तियों से एवं सम्बन्ध स्थापित होता है। कर्ण से ध्वनि की संज्ञा का ज्ञान होता है। सुनने की क्रिया के अलावा कान से सन्तुलन की स्थिति का भी बोध होता है। रचना की दृष्टि से कर्ण को तीन प्रमुख भागों-(1) बाह्य कर्ण (Outer Ear) (2) मध्य कर्ण (Middle Ear) तथा (3) अन्त:कर्ण (Inner Ear) में बाँटा जा सकता है। बाह्य कर्ण के दो भाग होते हैं—(1) कर्णाजली और कर्ण पल्लव (Auricle and Pinna) और (2) बाह्य कर्ण-कुहर (External Auditory Meatus) कर्ण के दोनों भाग ध्वनि तरंगों को एकत्रित करने का काम करते हैं। साथ ही ये उन्हें पारेषित करके आगे भी बढ़ाते हैं।
मध्य कर्ण पूर्णतः कपाल के अन्दर होता है। यह एक अनियमित तथा टेढ़े-मेढ़े आकार की गुहा हैं। मध्य कर्ण एक सँकरा आयत रूप बाक्स (Narrow oblong Box) है जिसकी अग्र, पश्च, मध्यवर्ती एवं पारिवक भित्तियाँ तथा छत एवं फर्श होता है। बाह्य कर्ण के दोनों भाग जब ध्वनि तरंगों को एकत्रित करके भीतर भेजते हैं तब ये ध्वनि तरंगें कर्ण-पटल से टकराती हैं तो उसमें प्रकम्पन (Vibration) उत्पन्न होता है जिसे वह मध्य कर्ण की अस्थियों द्वारा अन्त:कर्ण में भेजता है।
अन्तःकर्ण ही श्रवणेन्द्रिय का प्रमुख अंग है। इसी में ध्वनिग्राही अंग (Sound Receptor Organs) स्थित होते हैं। ध्वनिग्राही अंगों के उत्तेजित होने पर आवेग श्रवण तन्त्रिका द्वारा मस्तिष्क में पहुँचाये जाते हैं • जिससे सुनने की संज्ञा का बोध होता है। अन्तःकर्ण की रचना टेढ़ी-मेढ़ी एवं पेचीदा है। कर्ण के इस भाग के बाहर अस्थि निर्मित है और भीतर की रचना झिल्लीकृत है।
कानों के दोष (DISADVANTAGE OF EARS)
कानों के दोष कई प्रकार के होते हैं। कानों का बहरापन पूर्ण या अस्थायी दोनों प्रकार का हो सकता है। सर्दी होने पर अथवा कण्ठ-कर्ण नली में रुकावट आने से अस्थायी बहरापन उत्पन्न हो जाता है।
बहरेपन के कारण- (1) कर्ण-पटल के फट जाने से मनुष्य बहरा हो जाता है।
(2) मध्य कर्ण में घाव हो जाने से मवाद निकलने लगता है। ऐसी स्थिति यदि लम्बे समय तक रहे तो मनुष्य बहरा हो जाता है।
(3) बहिःकर्ण कुहर में मोम जमा हो जाने से बहरापन हो जाता है।
(4) कर्मास्थियों में कम्पन न उत्पन्न होने से भी बहरापन हो जाता है।
(5) मस्तिष्क स्थित श्रवण केन्द्रों में या सम्बन्धित श्रवण तन्त्रिकाओं में विकार आ जाने से भी मनुष्य बहरा हो जाता है।
कान की देखभाल- कान की सुरक्षा के लिए निम्नांकित उपाय करने चाहिए-
(1) कान में कोई तकलीफ होने पर विशेषज्ञ को दिखाना चाहिए।
(2) कान को बाहरी चोट तथा आघात से बचाना चाहिए।
(3) छूत के रोगों के समय कान पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
(4) कान की सफाई चिकित्सक से ही करानी चाहिए।
(5) गले की स्वच्छता पर ध्यान देना चाहिए।
(6) कान में कभी-कभी सरसों का तेल या चिकित्सक द्वारा प्रस्तावित दवाई डालनी चाहिए।
रोग में प्रधानाध्यापक एवं शिक्षक की भूमिका (ROLE OF PRINCIPAL AND TEACHER IN DISEASES)
(1) संक्रामक रोगों का पता चलने पर स्वास्थ्य विभाग को सूचित कर, रोकथाम के लिए टीके लगवाने का प्रबन्ध करना चाहिए।
(2) विद्यालय में स्वास्थ्य तथा रोग सम्बन्धी बातों का निरीक्षण होता रहना चाहिए।
(3) सामान्य रोगों का उपचार विद्यालय चिकित्सालय में कराने की सुविधा प्रदान करनी चाहिए।
(4) प्रधानाध्यापक तथा शिक्षक को समय-समय पर विद्यार्थियों की समस्या को सुनकर उचित परामर्श प्रदान करना चाहिए जिससे उनका शारीरिक, मानसिक एवं संवेगात्मक विकास किया जा सके।
(5) प्रधानाध्यापक को छात्रों को इससे अवगत कराना चाहिए कि रोग से क्या बीमारी हो सकती है। और उसका निवारण किस प्रकार करना चाहिए।
(6) बच्चों के स्वास्थ्य की रिपोर्ट उनके अभिभावकों तथा उनके माता-पिता को भेजनी चाहिए।
(7) विद्यालय में समय-समय पर छात्रों का डॉक्टरी परीक्षण करना चाहिए।
(8) विद्यालय में प्रधानाध्यापक को स्वास्थ्य कार्यक्रम तथा रोगों के प्रति जानकारी को छात्रों को प्रदान करनी चाहिए।
रोग में माता-पिता और विद्यार्थियों की भूमिका (ROLE OF PARENTS AND STUDENTS IN DISEASES)
(1) विद्यालय में विद्यार्थियों को अपने शिक्षकों से विचार-विमर्श करना चाहिए ताकि शिक्षक उन्हें उचित परामर्श दे सके।
(2) माता-पिता को बच्चों के स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहना चाहिए।
(3) विद्यालय में विद्यार्थियों को रोगों के प्रति उचित जानकारी प्राप्त होनी चाहिए ताकि समय आने पर वह किसी की जान बचा सकें।
(4) माता-पिता की रोगों के बारे में जानकारी प्राप्त होनी चाहिए।
(5) माता-पिता को अपने बच्चों का समय-समय पर डॉक्टरी परीक्षण कराना चाहिए। यह अत्यन्त आवश्यक है।
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