किशोरावस्था में भाषा विकास को समझाइए तथा भाषा विकास एवं शिक्षा की विवेचना करें।
किशोरावस्था में भाषा विकास – कोलब्रूस ने लिखा है कि किशोरावस्था को संवेगात्मक विकास का अनोखा काल कहते हैं। इसमें संवेगों का विकास अधिकतम होने से किशोर-किशोरी, कवि, कहानीकार, चित्रकार, नाटककार, अभिनेता, प्रेमी, चिन्तक एवं विचारक सभी बनने की ऊँची उड़ान भरते हैं। इन माध्यमों से उनकी भाषा का विकास बेरोकटोक भी होने लगता है। उसमें ललित, सौन्दर्य, अर्थगांभीर्य सार्थकता और विस्तार पाया जाता है। अतएव भाषा विकास की यह चरम सीमा कही जा सकती है। इस अवस्था में बनाना और बिगाड़ना दोनों संभव हो सकता है। अतएव उचित ध्यान देना चाहिए जिससे किशोर की भाषा योग्यता एवं शक्ति सही मार्ग की ओर उन्मुख होकर अपने लक्ष्य तक सरलता से पहुँच जाये।
चूँकि भाषा का विकास इस अवस्था में सम्प्रत्यात्मक स्तर पर होता है इसलिए किशोर-किशोरियों में कल्पनाशील साहित्य के अध्ययन एवं सृजन की अभिरुचि होती है। इस विशेषता के कारण रोमानी साहित्य की ओर किशोर झुकता है। इससे उसकी भाषा में विविधता आती है। सद्-साहित्य एवं जीवन से सम्बन्धित साहित्य की ओर रुझान होने से भी किशोर में विविध प्रकार के शब्दों की वृद्धि होती है। प्रतीकात्मक शब्दों का प्रयोग भी किशोर करते हैं अतएव स्पष्ट है कि किशोरों में शब्द भण्डार की प्रचुरता एवं विविधता स्वभावतः पाई जाती है। समान एवं विरोधी अर्थ वाले शब्दों की भी जानकारी इस अवस्था में होती है।
किशोरावस्था में भाषा के विकास में आदत एवं बुद्धि का भी प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। आदत एक प्रकार चेतन एवं अचेतन अभ्यास होता है जबकि बुद्धि एक प्रकार सजगता एवं अन्त दृष्टि की ओर संकेत करती है। इस क्षमता के कारण किशोर समस्याओं की परख करता है और उपर्युक्त भाषा का प्रयोग करता है। यदि उपर्युक्त शब्द नहीं मिलते हैं तो वह उनको तोड़-मरोड़ कर नए शब्द गढ़ता है। यहीं पर उसकी बुद्धि, उसकी कल्पना और उसकी आदत या अभ्यास भाषा के विकास में अपना योगदान देते हैं। बुद्धि एवं आदत दोनों से शब्द भण्डार बढ़ता है, भाषा की एक निश्चित शैली का निर्माण होता है, शब्दों के प्रयोग से भाषा में प्रांजलता एवं प्रौढ़ता आती है। यही गुण आगे भी युवकों एवं प्रौढ़ों की भाषा में मिलते हैं। शिक्षा की दृष्टि से वह विश्वविद्यालय स्तर पर होता है जहाँ उसे भाषा के विकास का सर्वसम्पन्न साधन मिलता है।
किशोर एक चिन्तनशील प्राणी होता है अतएव वह अपने चिन्तन को भाषा एवं शब्दों की सहायता से अभिव्यक्त करता है और सशक्त बनाता है। मनोविज्ञानियों ने बताया है कि भाषा के माध्यम से किशोर अपनी अनुपस्थित परिस्थितियों को प्रत्यक्ष करता है। इस प्रकार वह चिन्तन करने में समर्थ होता है। जीवन की विभिन्न परिस्थितियों को शब्दों के द्वारा चित्रित करता है और अपने विचारों को तर्क-वितर्क के साथ उपस्थित करता है। इससे साफ होता है कि शब्द एवं भाषा किशोरावस्था में सार्थक रूप से जीवन की समस्याओं पर विचार विमर्श में सहायक होते हैं और उसके जीवन का मार्ग भी साफ करते हैं। अतएव इनकी महत्ता इस दृष्टिकोण से पाई जाती है।
भाषा का विकास और शिक्षा- भाषा को हमें एक मानसिक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार करना चाहिए तभी हम इसका शैक्षिक महत्व जान सकते हैं। भाषा संकेतों का एक निश्चित स्वरूप है जो बोलकर और लिखकर प्रकट किया जाता है। शिक्षा ज्ञान एवं अनुभव लेने-देने की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। अतएव शिक्षा के लेन-देन में भाषा ही एक मात्र साधन होता है जिससे बड़ी सरलता एवं शुद्धता के साथ ज्ञान अनुभव ग्रहण किए जा सकते हैं।
इसके अलावा शिक्षा वह प्रक्रिया है जो मनुष्य की जन्मजात शक्तियों में सुधार, परिवर्तन एवं परिष्कार करती है। कितनी मात्रा में किस समय, किस प्रकार का यह परिवर्तन एवं परिवर्द्धन हुआ इसकी जाँच एवं इसका प्रकटीकरण भाषा के माध्यम से ही होता है। अगर आज भाषा न होती तो निश्चय ही हम अपनी प्रगति तथा दूसरों की प्रगति को न समझ पाते और जहाँ थे वहीं पड़े रहते। अपने पूर्वजों की कहानी, देश-विदेश की जानकारी एवं उनके बल पर अपना विकास आज भाषा के द्वारा ही सम्भव हो सका है स्पष्टतः भाषा प्रगति की मूल है। अपने देश के सुप्रसिद्ध कवि श्री भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने लिखा है-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को सूल।।
आधुनिक युग में राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय मेला तथा एकीकरण का प्रयत्न भाषा एवं उसके साहित्य के द्वारा किये जाने का प्रयत्न संसार के सभी महान् व्यक्ति कर रहे हैं। इससे दो लाभ हुए हैं-एक ओर तो मानवीय हृदयों का मेल हुआ, दूसरी ओर साहित्य निर्माण भी हुआ है।
ऊपर हमने संकेत किया है भाषा के विकास के कारण ही आज विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति हुई है। विज्ञान, दर्शन, गणित, इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान, शिक्षाशास्त्र के क्षेत्रों में साहित्य का निर्माण करना संभव हुआ है। यदि कोई भी भाषा न होती या उसका विकास न किया जाता, तो निश्चय है कि ऐसे ज्ञान फैल न पाते, मानव असभ्य, अपढ़, अविकसित और पशु के समान ही रहता। पशु और मनुष्य में कोई अन्तर नहीं रहता। अतएव मानव का सच्चा स्वरूप भाषा के विकास के कारण ही हो पाता है। उसके गुण-दोषों का ज्ञान होता है, गुणों का विकास होती है और दोषों का परिष्कार होता है। अतः स्पष्ट है कि शिक्षा का विकास भाषा के विकास के साथ-साथ ही सम्भव होता है और भाषा के विकास का शैक्षिक महत्व अत्यधिक है।
शिक्षा मनुष्य की बुद्धि कल्पना, चिन्तना, तर्कना आदि शक्तियों के विकास में पाई जाती है। इन सभी शक्तियों का सम्बन्ध किसी न किसी रूप में भाषा के विकास से जुड़ा होता है। अतएव शिक्षा के सर्वांगीण विकास के विचार से भाषा का महत्व बहुत होता है। शिक्षा के उद्देश्य एवं पाठ्यक्रम भी भाषा के विकास से प्रभावित होते हैं। पाठ्यक्रम की रचना भाषा के माध्यम से ही होता है। अतएव भाषा के कारण ही शिक्षा की अन्तःवस्तु भी प्राप्त होती है। अब स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा की दृष्टि से भाषा का क्या महत्व होता है।
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