पबज्जा एवं उपसम्पदा संस्कार पर प्रकाश डालिए।
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पबज्जा संस्कार
वैदिक शिक्षा व्यवस्था की भाँति बौद्ध शिक्षा व्यवस्था में भी प्रवेश के समय कुछ निश्चित नियम थे जिनका पालन करना आवश्यक था। प्रवेश की रीति भी निर्धारित थी। प्रवेश की रीति का उल्लेख विनय पिटक में मिलता है। यह रीति पबजा या पबज्जा संस्कार कहलाती थी। विनय पिटक के अनुसार, “जो भी व्यक्ति विहार में प्रवेश पाना चाहता है उसे सर्वप्रथम अपने केश मुँड़वाने चाहिए, उसके बाद उसे पीत वस्त्र धारण करने दो तथा उसे उत्तरीय को इस प्रकार धारण करने दो जिससे उसका एक कन्धा पूरी तरह ढँका रहे, वह भिक्षुकों के चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम करे, और पालथी मार कर भूमि पर बैठ जाये तथा फिर अपने दोनों हाथों को जोड़कर ऊपर उठाये तथा इस प्रकार उच्चारण करें-
।। बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघ शरणं गच्छामि।।
यह क्रिया “शरणत्रयी” कहलाती थी। इस प्रकार वह श्रमण बनकर ही संघ में प्रवेश करता था। यह पूरा संस्कार “पबज्जा” या पबज्जा कहलाता था। इसके उपरान्त ही वह श्रमण कहलाता था। पबज्जा 8वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने पर दी जाती थी। बालक अपना घर और परिवार त्याग कर मठ में रहने लगता था। वैदिक प्रणाली के अनुरूप ही बौद्ध प्रणाली में भी बाल्यकाल से शिक्षा प्रारम्भ उचित माना गया, क्योंकि इसी समय से मानसिक और चारित्रिक विकास को मनचाहा रूप दिया जा सकता है। किन्तु पबज्जा प्राप्त करने के लिए माता-पिता की अनुमति अत्यन्त आवश्यक थी, इस तथ्य का उल्लेख अल्तेकर महोदय ने भी किया है।
शिक्षा प्राप्त करने का अवसर बौद्ध धर्म में प्रत्येक व्यक्ति को था । बौद्ध धर्म जातिभेद में विश्वास नहीं करता था। संघ में प्रवेश करने के उपरान्त भिक्षु श्रमण के लिए संघ की अनुशासन प्रणाली का पालन करना आवश्यक था। उसे पूर्णरूपेण अपने चरित्र और व्यवहार में परिवर्तन करना पड़ता था। संघ के लिए सभी सदस्य समान थे, किन्तु कुछ परिस्थितियों में संघ प्रवेश निषेध था, जैसे कोई भी व्यक्ति अपने अभिभावक या माता-पिता की आज्ञा के बिना संघ में प्रवेश नहीं पाता था। इसके अतिरिक्त वे व्यक्ति भी प्रवेश नहीं पा सकते थे जिनका कोई अंग-भंग हो, जो छूत रोग से पीड़ित हों, जो किसी प्रकार के शारीरिक दोष से पीड़ित हों, जो दासों, अभियुक्तों या राज्य कार्मचारियों की श्रेणियों में आते हों।
श्रमण संघ के नियम का पालन छात्र प्रवेश के बाद ही प्रारम्भ कर देता था। उसे 10 विनय सम्बन्धी नियमों का पालन करना पड़ता था। ये थे-अहिंसा, अस्तेय (चोरी न करना), शुद्धि, सत्य वचन, मादक वस्तुओं का सेवन न करना, वर्जित समय पर भोजन ग्रहण न करना, नृत्य संगीत, आमोद-प्रमोद के साधनों से दूर रहना, शृंगार प्रसाधनों (सुगन्धि, फूल मालादि) का त्याग, कोमल शय्या का त्याग, सोने और चाँदी के दान को ग्रहण न करना। प्रत्येक श्रमण एक उपाध्याय के संरक्षण में रहकर शिक्षा ग्रहण करता था। 12 वर्ष तक अर्थात् जब छात्र 20 वर्ष का होता था, तब तक उसके प्रत्येक कार्य का उत्तरदायित्व गुरु पर ही था। गुरु के लिए वह “सद्विहारक” था, उसे पूरी तरह योग्य और विनयशील बनाना गुरु का कर्त्तव्य था। गुरु, शिष्य के लिए अब भी पितृतुल्य था।
उपसम्पदा
उपसम्पदा बौद्ध शिक्षा व्यवस्था का दूसरा महत्वपूर्ण संस्कार था। जब श्रमण 12 वर्ष तक निरन्तर शिक्षा प्राप्त कर लेता था, तब उसे 20 वर्ष की आयु में भिक्षु के रूप में संघ स्वीकार करता था। वैदिक धर्म में जहाँ 12 वर्ष शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त छात्र ब्रह्मचर्य समाप्त करके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने का अवसर दिया जाता था, उसके प्रतिकूल बौद्ध धर्म में 12 वर्ष तक “नवशिष्य” या “श्रमण” या “सद्विहारक” रहने के उपरान्त उसे भिक्षुक के रूप में ग्रहण किया जाता था। भिक्षुक के लिए नियम कठिन थे। इसका कारण बौद्ध धर्म और वैदिक धर्म का पृथक्-पृथक् दृष्टिकोण जीवन के प्रति था। वैदिक धर्म संसार में रहकर सांसारिक कर्त्तव्यों का पालन करते हुए धर्म का अनुसरण करना उपयुक्त समझता था, जबकि बौद्ध धर्म संसार त्याग में विश्वास करता था। बौद्ध धर्म के अनुसार संसार त्याग से तथा संसार से निर्लिप्त रहकर ही निर्वाण प्राप्ति सम्भव है। उपसम्पदा के उपरान्त ही श्रमण पूरा भिक्षु माना जाता था, उसका गृहस्थ जीवन से कोई सम्पर्क नहीं रहता था। श्रमण 20 वर्ष की अवस्था प्राप्त करने के उपरान्त चीवर और कमण्डलु लेकर संघ के भिक्षुओं के सन्मुख विनयशील होकर बैठता था तथा उपस्थित भिक्षुओं में से किसी एक भिक्षु को अपना उपाध्याय स्वीकार करता था इसके उपरान्त संघ उसे भिक्षुओं की कोटि में गिनने लगता था तथा उसे जीवन पर्यन्त संघ में रहने की अनुमति देना था। यह संस्कार कम-से-कम दस भिक्षुओं की उपस्थिति में होता था। एक भिक्षु श्रमण का उपस्थित भिक्षुओं को परिचय देता था। अन्य भिक्षु, श्रमण से तरह-तरह के प्रश्न पूछते थे। उत्तर सुनने के उपरान्त भिक्षुगण यह निर्णय लेते थे कि प्रार्थी श्रमण भिक्षु बनने का अधिकारी है, या नहीं। कभी-कभी मतान्तर होने पर मतदान द्वारा निर्णय लिया जाता था। बहुमत से स्वीकृत होने पर ही श्रमण को उपसम्पदा दी जाती थी अन्यथा नहीं। इस संस्कार के उपरान्त नये भिक्षु को निम्नलिखित व्रत धारण करने पड़ते थे-
- ब्रह्मचर्य का पालन करना।
- भिक्षापात्र में भिक्षान्न एकत्रित करके भोजन करना।
- वृक्ष के नीचे वास करना।
- माँगे हुए और साधारण वस्त्रों से शरीर ढँकना ।
- औषधि रूप में गौ-मूत्र का सेवन करना नालन्दा जैसे शिक्षा केन्द्रों में प्रवेश के नियम अत्यन्त कठोर था।
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