पाठ्यक्रम निर्माण के प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त (Principles of Curriculum Construction) पाठ्यक्रम किन सिद्धान्तों के आधार पर निर्मित किया जाए, इसके विषय में शिक्षाशास्त्रियों ने विस्तार से विचार किया है। कुछ ने इसके सामाजिक आधार को अधिक महत्व दिया है तो कुछ अन्य ने मनोवैज्ञानिक आधार को अत्यधिक आवश्यक बताया है। नीचे पाठ्यक्रम निर्माण के कुछ प्रमुख सिद्धान्तों की समीक्षा की जा रही है।
(1) बालक की आवश्यकता एवं रुचि का ध्यान (Attention of the Child’s Need and Interest)- पहले विद्वान लोग पाठ्यक्रम का निर्धारण करते समय विषय के तार्किक क्रम को अधिक महत्व देते थे। वे जब विभिन्न स्तरों के लिए पाठ्यक्रम का निर्माण करते थे तो देखते थे कि विषय का विशेष ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह पढ़ाना चाहिए उसके बाद अमुक सामग्री का अध्ययन करना चाहिए। इस प्रकार के पाठ्यक्रम छात्र की क्षमता का ध्यान नहीं रखा जाता था। छात्र किसी बात को सीखने के लिए किसी समय अधिक . जिज्ञासु रहता है। आवश्यकता इस बात की है कि छात्र की इस जिज्ञासा का लाभ उठाया जाए। यह देखा जाए कि बालक अमुक वस्तु में अधिक रुचि लेते है तो उसी के आधार पर पाठ्यक्रम में सामग्री का संकलन किया जाय। बालक की क्षमता, आवश्यकता एवं रुचि का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है। मनोवैज्ञानिक लोग इस सिद्धान्त को सबसे आवश्यक सिद्धान्त मानते हैं।
(2) सामाजिक आवश्यकता का ध्यान (Attention to the Social Need)– बालक की आवश्यकता के साथ-साथ समाज की आवश्यकता का ध्यान रखना भी आवश्यक है। बालक का विकास शून्य में नहीं होता। बालक की क्षमताओं के विकास के लिए एवं उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी समाज का ध्यान रखना आवश्यक होगा। हमारे माध्यमिक विद्यालयों में स्वतन्त्रता से पहले इंग्लैण्ड के इतिहास एवं अंग्रेजों के अध्ययन पर अधिक बल था। समाज की आवश्यकता के कारण ऐसा नहीं था वरन् अंग्रेजी सरकार मशीनरी को चलाने की आवश्यकता की पूर्ति के लिए ऐसा किया जाता था। समाजशास इस सिद्धान्त को अत्यधिक आवश्यक सिद्धान्त मानते हैं।
( 3 ) उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of Utility)- उपर्युक्त दोनों सिद्धान्त की कुंजी के रूप में यह तीसरा सिद्धान्त है। यह बहुत स्पष्ट सिद्धान्त है कि पाठ्यक्रम का निर्धारण करते समय ‘विशेष ज्ञान’ या तार्किक क्रम को आधार न मानकर उपयोगिता को ही आधार मानें। जो कुछ व्यक्ति एवं समाज के लिए उपयोगी है, उसे पाठ्यक्रम में स्थान मिले जो अनुपयोगी है वह कितनी भी महत्वपूर्ण सामग्री क्यों न हो, उसे अलग ही रखा जाए। इस तीसरे सिद्धान्त में हम प्रथम दो सिद्धान्तों की पूर्ण अभिव्यक्ति देखते हैं। नन महोदय इस सिद्धान्त को सबसे उत्तम सिद्धान्त मानते हैं।
( 4 ) रचनात्मक का सिद्धान्त (Principle of Creativity)- प्रत्येक बालक में कुछ-न-कुछ रचनात्मक शक्ति होती है। पाठ्यक्रम को इस प्रकार का बनाना चाहिए कि वह छात्रों को रचनात्मक कार्यों का अवसर प्रदान कर सके। यदि बालक की रचनात्मक शक्ति के प्रकट होने का अवसर नहीं मिलेगा तो उसका व्यक्तित्व पूर्णरूप से विकसित नहीं हो सकेगा। बालक को सृजनात्मक कार्यों की प्रेरणा मिलनी चाहिए और कलात्मक रचना की गुप्त शक्तियों के विकास का अवसर मिलना चाहिए। इस सिद्धान्त का समर्थन सबसे अधिक रेमॉण्ट महोदय ने किया है।
(5) खेल तथा कार्य में समन्वय (Synthesis between Work and Play) – खेल में तात्कालिक आनन्द उद्देश्य होता है जबकि कार्य में सुदूर प्रयोजन निहित होता है। इसीलिए पुराने समय में कहा जाता था कि “खेलते समय खेलो और काम करते समय काम करो।” हम देखते है कि बालक खेल में अत्यधिक आनन्द लेता है। खेल और कार्य एक नहीं हो सकते किन्तु खेल और कार्य सम्बन्धी क्रियाओं में यदि कुछ सम्बन्ध स्थापित हो सके तो इससे व्यक्तित्व का विकास शीघ्र होता है। सीखना एक ऐसा कार्य है जिसमें खेल की क्रियाओं से सहायता मिल सकती है। खेल विधि द्वारा अध्ययन अधिक रुचिकर हो सकता है। खेल की पद्धति से सीखी हुई बात अधिक आनन्ददायी एवं स्थाई हो सकती है। अतः जहाँ तक सम्भव हो, खेल और कार्य में समन्वय स्थापित किया जाए किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि खेल से सम्बन्धित करने के लोभ में कार्य के प्रयोजन को ही भूल जायें। मॉन्तेसरी स्कूल तथा किण्डरगार्टन स्कूल में खेल तथा कार्य में पर्याप्त समन्वय दिखायी पड़ता है। प्रोजेक्ट मेथड तथा एक्टीविटी स्कूल में भी यह समन्वय दिखाई पड़ता है। पाठ्यक्रम में खेल तथा कार्य के अवसर प्रदान किये जायें और सम्भव हो तो दोनों में समन्वय की शिक्षा भी इंगित की जाय।
(6) व्यवहार के आदर्शों की प्राप्ति का सिद्धान्त (Principle of Realisation of Ideals of Behaviour)- मानव जीवन का लक्ष्य है सुन्दर एवं स्वस्थ जीवनयापन करना। स्वस्थ जीवन के लिए स्वस्थ व्यवहार आवश्यक है। स्वस्थ व्यवहार किस प्रकार हो, इसका निर्णय संस्कृति करती है। स्वस्थ व्यवहार के इन प्रतिमानों तक छात्र को पहँचना होता है। पाठ्यक्रम में इस प्रकार की सामग्री का चयन हो कि बालक व्यवहार के आदर्शों का ज्ञान कर सकें। साथ ही, पाठ्यक्रम को इस प्रकार के अवसर भी प्रदान करने चाहिए कि छात्र उन आदर्शों तक पहुँचने का प्रयत्न कर सके।
(7) विकास का सिद्धान्त (Principle of Growth and Development ) – पाठ्यक्रम में विद्यालय के समस्त अनुभव सम्मिलित रहते हैं। विद्यालय समाज की आवश्यकताओं का ध्यान रखता है। पाठ्यक्रम के निर्माण में भी समाज की आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता है। समाज स्थिर नहीं होता। इसका विकास होता रहता है। पाठ्यक्रम को भी स्थिर नहीं होना चाहिए। विकास इनका एक आवश्यक सिद्धान्त है। यथा समय आवश्यकतानुसार परिवर्तन होना चाहए। इसका निर्माण इस प्रकार से किया जाए कि विकास की गुंजाइश बनी रहे। क्रो एण्ड को महोदयों ने विकास के सिद्धान्त का पर्याप्त समर्थन किया है।
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