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प्रचलित पाठ्यचर्या के मुद्दे व समस्याएँ (Issues and Problems of Existing Curriculum)
भारत में सदैव अलग-अलग समय में शिक्षा की पाठ्यचर्या अलग-अलग रही है। वास्तव में यह सामाजिक आवश्यकतानुसार होता है। जब-जब जिस समय जिन आदर्शों की समाज को आवश्यकता रही, वे आदर्श पाठ्यचर्या के रूप में प्रस्तुत किए गए। धीरे-धीरे प्राचीन काल से लेकर वर्तमान समय तक पाठ्यचर्या का स्वरूप पूर्णतः भिन्न हो गया है। वर्तमान में जो प्रचलित पाठ्यचर्या है, वह पूर्णतः असन्तोषजनक है। उसके द्वारा वर्तमान समय की माँग पूर्णरूप से पूरी नहीं हो पा रही है।
परिणामस्वरूप हम बालकों को उत्तम नागरिक नहीं बना पा रहे हैं। पाठ्यचर्या में क्रियाओं, अनुभवों, श्रेष्ठ विचारों, नए विषयों तथा मूल्यों का अभाव देखा जा रहा है। एक सामाजिक प्राणी के रूप में व्यक्ति को जो भी समाज से प्राप्त होता है, वह उसकी अमूल्य निधि है। इसीलिए पाठ्यचर्या भी सामाजिक आधार पर ही बालक को प्राप्त होती है। यह पाठ्यचर्या बालक के भविष्य की नींव होती है, जिस पर वह एक आदर्श एवं सुन्दर जीवन रूपी भवन का निर्माण करता है। स्वामी विवेकानन्द ने पाठ्यचर्या के दो प्रकारों का वर्णन किया हैं-
1) आध्यात्मिक पाठ्यचर्या- धर्म, दर्शन, पुराण, उपनिषद्, वेद की शिक्षा, साधु-संगत, उपदेश एवं कीर्तन आदि को पाठ्यचर्या में स्थान दिया।
2) भौतिक पाठ्यचर्या- स्वामी जी ने भाषा, भूगोल, राजनीति, अर्थशास्त्र, विज्ञान, मनोविज्ञान, कला, व्यावसायिक विषय, कृषि, खेलकूद, व्यायाम और शारीरिक सौष्ठव को भौतिक पाठ्यचर्या में स्थान दिया।
कहने का तात्पर्य यह है कि स्वामी विवेकानन्द के समय उपरोक्त विषयों की पाठ्यचर्या में आवश्यकता थी। समाज में उस समय वैसा ही वातावरण निर्मित था। अतः इस पाठ्यचर्या के विचार उस समय के अनुकूल थे किन्तु वर्तमान में पाठ्यचर्या में परिवर्तन की विशेष आवश्यकता है।
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