प्रधानाध्यापक के प्रशासनिक कौशल (ESSENTIAL ADMINISTRATIVE SKILLS OF HEADMASTER)
शिक्षा प्रशासक के रूप में प्रधानाध्यापक की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। वह समस्त शैक्षिक क्रियाकलापों का नेतृत्व करता है। मायर्स (Robert B. Myers) ने एक अध्ययन द्वारा शैक्षिक नेतृत्व के लिए इन कौशलों की पहचान की है-
1. अन्तर्दृष्टि (Insight).
2. अगुवाई करना (Leadership).
3. सहयोग (Cooperation).
4. मौलिकता (Originality),
5. महत्त्वाकांक्षी (Ambition).
6. कार्यशील (Persistence).
7. संवेगात्मक स्थिरता (Emotional Stability),
8. निर्णय शक्ति (Decision Making),
9. लोकप्रियता (Popularity),
10. सम्प्रेषण कौशल (Communication Skill)
प्रधानाध्यापक के पद की उपयुक्त महत्ता को देखते हुए हमें जातिगत, क्षेत्रगत, दलगत तथा गन्दी राजनीति की भावना से ऊपर उठकर किसी भी विद्यालय में प्रधानाध्यापक की नियुक्ति कराने पर बल देना चाहिए। प्रधानाध्यापक को प्रशासक के रूप में अत्यन्त गम्भीर दायित्व निभाने होते हैं। अतः इस दृष्टि से उसके व्यक्तित्व में निम्नलिखित प्रशासनिक कौशलों का होना आवश्यक समझा गया है-
1. विद्यालय में नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता
विद्यालय के सभी शिक्षक तथा अन्य कर्मचारी एक संगठित समूह के रूप में शैक्षिक कार्य में व्यस्त रहते हैं जिसका नेतृत्व विद्यालय का प्रधानाध्यापक ही किया करता है। प्रधानाध्यापक का यह नेतृत्व तभी सफल माना जाता है जब सभी शिक्षक और कर्मचारी उसकी योग्यता, अनुभव, कार्यकुशलता तथा ज्ञान से प्रभावित होकर उसे सहयोग देने, उसकी सहायता करने, उसके आदेशों का हृदय से स्वागत करने तथा उसकी योजनाओं का मन से स्वागत करने के लिए तत्पर रहते हों। प्रधानाध्यापक को चाहिए कि वह अपने सहयोगियों एवं अनुगामियों की योग्यता, क्षमता तथा अनुभवों का भी स्वागत करे अन्यथा शिक्षक उसे अधिनायक समझकर उसका नेतृत्व स्वीकार करने को तत्पर नहीं होंगे और विद्यालय में आए दिन झगड़े फसाद उठते रहेंगे।
प्रधानाध्यापक का व्यक्तित्व नेतृत्व के गुणों से विभूषित होना आवश्यक है। उसके कुशल नेतृत्व पर विद्यालय का सम्पूर्ण संगठन व संचालन निर्भर रहता है। उसे यह नेतृत्व प्रजातान्त्रिक सिद्धान्तों पर आधारित करके प्रदान करना होता है क्योंकि प्रायः उसके सहयोगी उसी शैक्षणिक योग्यता वाले तथा अनुभवी होते हैं। उसमें सूझ-बूझ, किसी भी मनोदशा का अध्ययन कर सकने की क्षमता, विभिन्न व्यक्तियों की मनोवृत्तियों को समझने की क्षमता होना आवश्यक है। नेतृत्व के गुणों के अन्तर्गत आधुनिक परिस्थितियों में मानवीय गुणों, जैसे—सहानुभूति, प्रेम, सहयोग, आत्म-विश्वास, सामाजिकता, संगठन शक्ति, आदि गुणों का होना आवश्यक समझा गया है।
2. चरित्रवान
सम्पूर्ण विद्यालय की उपयुक्त सक्रियता प्रधानाध्यापक के उदात्त व्यक्तित्व की द्योतक होती है। उसके व्यक्तित्व को उसका चरित्र प्रभावकारी बनाता है जिससे उसे प्रशासक के रूप में स्थान मिलता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि अच्छा चरित्र बनाने हेतु प्रधानाध्यापक को विचारक, दृढ़ इच्छा-शक्ति वाला होने के साथ ही दृढ़संकल्प शक्ति और निर्धारित सिद्धान्तों व आदर्शों का पूर्ण पालन करने वाला भी होना चाहिए। चरित्रवान प्रशासक ही विद्यालय में शिक्षकों तथा शिक्षार्थियों पर अपना अमिट प्रभाव डाल सकता है। प्रधानाध्यापक जो कुछ भी सोचता है, निर्णय लेता है अथवा कार्य करता है उसमें दृढ़ता, निष्पक्षता, सत्यता तथा स्थायित्वता का होना आवश्यक है, अन्यथा वह विद्यालय में स्वस्थ वातावरण सृजन करने में विफल रहेगा। चरित्रवान प्रशासक अपने चारित्रिक तेज से अनेक समस्याओं का निराकरण बगैर किसी कठिनाई से निकाल लेते हैं और सम्पूर्ण वातावरण को शिक्षा के अनुकूल बनाये रखते हैं।
3. सामंजस्यता स्थापित करने की क्षमता
प्रधानाध्यापक को प्रशासक के रूप में शिक्षकों तथा शिक्षार्थियों के साथ स्वयं को शिक्षकों को शिक्षार्थियों के साथ तथा शिक्षकों को पारस्परिक रूप से समायोजित रूप में रखना है, अन्यथा विद्यालय में गन्दी राजनीति प्रसारित हो जायेगी और शिक्षक तथा शिक्षार्थी गुटबन्दी के चक्कर में पड़कर शिक्षा के सही लक्ष्य से हट जायेंगे। उसे सभी के मध्य सामंजस्य बनाये रखने की दृष्टि से तथा शैक्षिक कार्यों की सफलता के लिए अपने व्यवहार तथा आचरण को सहानुभूतिपूर्ण, स्नेहमय, शिष्ट तथा आकर्षक बनाना होगा। उसे चाहिए कि वह विद्यालय के छोटे-से-छोटे तथा बड़े से बड़े सभी कर्मचारियों से व्यक्तिगत सम्पर्क बनाये रखे तथा उसकी व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनों प्रकार की समस्याओं में सक्रिय रुचि ले जिससे वह विद्यालय के हित में उनसे सक्रिय सहयोग प्राप्त कर सके। प्रधानाध्यापक के सहानुभूति एवं प्रेममय व्यवहार से शिक्षकों में समायोजन क्षमता तथा शिक्षार्थियों में अनुशासनबद्ध रहने की आदत विकसित होती है। प्रधानाध्यापक का मैत्रीपूर्ण व्यवहार, सहयोगी स्वभाव, सत्यनिष्ठ व्यवहार तथा उसकी व्यवहार कुशलता सम्पूर्ण वातावरण को समायोजित बनाने में समर्थ होती है जिससे विद्यालय में एकत्व, सरलता एवं शान्ति पनपने लगती है। ऐसे समायोजित विद्यालय कुशल नेतृत्व में प्रगति की ओर उन्मुख होकर नवीन योजनाओं को निर्मित करने, उन्हें क्रियान्वित करने तथा उनमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन अथवा परिमार्जन करने में सफल होते हैं। सहानुभूति और सहयोग के गुण के द्वारा वह विद्यालय को एक परिवार के रूप में ढाल लेता है और फिर परिवार के मुखिया की तरह विद्यालय के कार्यों में एकता, विश्वास तथा निष्ठा बनाते हुए विद्यालय के प्रत्येक अंग में सामंजस्य उत्पन्न करने में समर्थ होता है।
4. लोकतन्त्रीय दृष्टिकोण
प्रशासक को लोकतन्त्रीय दृष्टिकोण वाला होना आवश्यक है। विद्यालय में प्रधानाध्यापक को चाहिए कि वह विद्यालय प्रशासन को प्रजातान्त्रिक सिद्धान्तों मुख्यतः स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृत्व तथा न्यायप्रियता पर आधारित करके चलाए उसे समाज के आदर्शों, उद्देश्यों एवं हितों को ध्यान में रखकर कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार करनी है और उन्हें प्रजातान्त्रिक ढंग से कार्यरूप में परिणत करना है। उसे अपनी सामाजिकता में वृद्धि करना आवश्यक है, तभी वह अभिभावकों तथा समाज के नागरिकों से सम्पर्क स्थापित करके विद्यालय को समाज का लघु रूप प्रदान कर सकता है। उसे समाज की आवश्यकताओं, मूल्यों, मान्यताओं तथा नियमों से पूर्णरूपेण अवगत रहना चाहिए, तभी वह प्रशासक के रूप में विद्यालय तथा समाज दोनों को विकास की ओर ले जाने में समर्थ हो सकेगा। आज की गहन परिस्थितियों में जबकि शिक्षा का भार विभिन्न प्रकार की संस्थाओं पर आ गया है, यह आवश्यक हो जाता है कि विद्यालय और समाज में पारस्परिक निकटता तथा तालमेल बैठाया जाए। विद्यालय प्रशासक इस लक्ष्य की प्राप्ति तभी कर सकता है जबकि वह प्रजातान्त्रिक दृष्टिकोण को लेकर कार्य करे।
5. कुशल प्रशासक
कुशल प्रशासक के लिए प्रशासकीय क्षमता व योग्यता का होना आवश्यक है। प्रशासक का प्रमुख कार्य संचालन करना होता है। इस दृष्टि से प्रशासक में विभिन्न प्रकार की योजनाएँ बनाने, उन्हें क्रियान्वित करने तथा उन्हें संगठित करने की विशेष योग्यता होनी चाहिए। किसी भी कार्य को चलाने हेतु व्यवस्था तथा वित्त की आवश्यकता होती है। प्रशासकों को कार्यों हेतु व्यवस्था बनाये रखने, कार्य को संचालित करने, विभिन्न बातों में समन्वय स्थापित करने तथा वित्तीय व्यवस्था बनाये रखने में दक्ष होना चाहिए। कुशल प्रशासन तभी चल सकता है जब निर्धारित बजट सन्तुलित हो। अतः इस दृष्टि से आय-व्यय के विभिन्न मदों को ध्यान में रखते हुए प्रशासक को बजट तैयार करने में भी निपुण होना चाहिए। उसे कुशल प्रशासक के रूप में एक अच्छा संगठनकर्ता भी होना चाहिए। विद्यालय की आवश्यकताओं, आदर्शों एवं सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर स्वयं के तथा शिक्षकों के मध्य, शिक्षक-शिक्षक के मध्य, शिक्षकों-शिक्षार्थियों के मध्य, शिक्षकों-कर्मचारियों के मध्य, शिक्षकों-अभिभावकों के मध्य मधुर सम्बन्ध बनाये रखने का प्रयास करना चाहिए।
6. दूसरों को प्रेरणा प्रदान करने की क्षमता
प्रधानाध्यापक को स्वयं का व्यक्तित्व इस प्रकार का निर्मित करना चाहिए कि उससे दूसरे व्यक्ति कार्य करने हेतु प्रेरित हो सकें। दूसरों को मार्ग निर्देशन दे सकना आवश्यक परामर्श की क्षमता होना तथा शैक्षिक योजनाओं का क्रियान्वयन इस ढंग से कर सकने की क्षमता होना कि शिक्षक, शिक्षार्थी एवं अन्य कर्मचारी सभी उसमें यथाशक्ति भाग लेने हेतु प्रेरित हो सकें। उसे अपने विषय का ज्ञाता तो होना ही चाहिए, साथ ही अन्य विषयों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। बौद्धिक रूप से अन्य की तुलना में श्रेष्ठ होने पर उसका व्यक्तित्व दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनकर उभरता है। प्रधानाध्यापक को समय-समय पर अपने सहयोगियों, विद्यालय के कर्मचारियों, पालकों तथा विद्यार्थियों को प्रेरित करते रहना चाहिए, जिससे शैक्षिक प्रगति के साथ ही सामाजिक प्रगति हो सके। प्रेरणा शक्ति से ही कोई व्यक्ति, उपलब्ध साधनों, अवसरों तथा स्रोतों का लाभ उठाकर प्रगति की ओर उन्मुख होता है। प्रधानाध्यापक को प्रशासक के रूप में प्रेरणा का स्रोत बनकर न केवल विद्यालय की वरन् सम्पूर्ण समाज की प्रगति करने का प्रयास करना चाहिए।
7. मानवीय सम्बन्ध स्थापित करने की योग्यता
प्रधानाध्यापक में मानवीय सम्बन्ध स्थापित करने की योग्यता का होना परमावश्यक है। यदि वह विद्यालय और समाज के मध्य, शिक्षक एवं पालकों के मध्य, शिक्षक एवं शिक्षार्थी के मध्य, शिक्षक-शिक्षक के मध्य, छात्र-छात्र के मध्य प्रबन्धकों एवं अभिभावकों के मध्य सन्तुलित मानवीय सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाता है तो वह कुशल प्रशासक के रूप में कदापि कार्य नहीं कर सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि प्रधानाध्यापक के व्यक्तित्व में मानवीय सम्बन्ध स्थापित करने वाले गुणों का होना आवश्यक है। वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रधानाध्यापक में मानवीय सम्बन्ध स्थापित करने वाले वे सभी गुण होना आवश्यक है। जो एक सफल प्रशासक के लिए आवश्यक है। मानवीय गुणों के आधार पर ही वह एक कुशल संगठनकर्ता के रूप में भी कार्य कर सकेगा। मानवीय सम्बन्धों के आधार पर कोई भी प्रधानाध्यापक व्यक्तिगत, विद्यालयोन, सामाजिक, शैक्षिक तथा अन्य समस्याओं का समाधान बगैर किसी कठिनाई के कर सकता है। उसे नियमों तथा कानूनों का ज्ञाता भी होना चाहिए जिससे मानवीय सम्बन्धों की स्थापना सभी के हितों में की जा सके।
8. व्यावसायिक निपुणता एवं विद्वता
प्रधानाध्यापक का प्रमुख कार्य विद्यालय की प्रगति करना है। इस दृष्टि से विद्यालय के उद्देश्यों एवं उनकी प्राप्ति के साधनों का निर्धारण करने के लिए माध्यमिक स्तर के विद्यालयों को आवश्यकताओं, आदर्शों, स्थितियों, आदि का ज्ञान प्रधानाध्यापक को होना आवश्यक है। शिक्षा में आए दिन नवीन परिवर्तन हो रहे हैं। शिक्षण की नवीन पद्धतियों का विकास हो रहा है। शिक्षा की नवीन प्रवृत्तियों को अपनाने पर बल दिया जा रहा है। मूल्यांकन को विधियों में भारी परिवर्तन हो रहा है। शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर शैक्षिक आन्दोलन चल रहे हैं। ऐसी स्थिति में प्रधानाध्यापक को स्वयं के अन्दर व्यावसायिक निपुणता उत्पन्न करना आवश्यक है। उसे समूची शिक्षा की प्रक्रिया से अवगत होना चाहिए। इसके लिए उसे मनोविज्ञान का सहारा लेना होगा। मनोविज्ञान एक ऐसा विषय है जो प्रधानाध्यापक में व्यावसायिक निपुणता उत्पन्न कर सकता है। मनोविज्ञान बालकों से अवगत ही नहीं कराता वरन् शिक्षा की परिस्थितियों के अनुकूल उचित शिक्षण विधियों का चयन कराकर विषय-वस्तु को बालकों तक पहुँचाने हेतु मार्ग प्रशस्त भी कराता है। विद्यालय प्रशासन को रीतियों (प्रैक्टिसैज) को अपनाने, पाठ्यक्रम निर्धारण हेतु सिद्धान्तों को अपनाने, उपयुक्त शिक्षण विधियों को विद्यालय में लागू करवाने, आदि में उसे दक्ष होना चाहिए। प्रधानाध्यापक को विद्यालय की सभी समस्याओं, चाहे वे वैयक्तिक हों अथवा सामूहिक, चाहे वे छात्र जीवन से सम्बन्धित हों अथवा शिक्षक के जीवन से, चाहे वे प्रशासनिक हों अथवा सामाजिक, सभी को हल करने का प्रयास करना चाहिए। व्यावसायिक निपुणता के अभाव में वह अपने पद के कर्तव्यों एवं दायित्वों को निभाने में विफल रहेगा।
प्रधानाध्यापक के रूप में वह केवल विद्यालय को नेतृत्व प्रदान नहीं करता वरनू समाज को भी नेतृत्व प्रदान किया करता है। इस दृष्टि से उसमें विद्वता का होना आवश्यक है जिससे उसके व्यक्तित्व का सम्मान केवल शिक्षक वर्ग हो न करके समाज भी कर सके। उसे चाहिए कि प्रशासक के नाते वह विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विभिन्न विषयों को समझने का प्रयास करे जिससे वह सहयोगी शिक्षक वर्गों के कार्यों पर उचित । नियन्त्रण रख सके और उन्हें अनुकूल मार्गदर्शन प्रदान कर सके। प्रधानाध्यापक को कम-से-कम एक या दो क्षेत्रों में इतनी विद्वता तो ग्रहण करनी ही चाहिए कि वह उस क्षेत्र का विशेषज्ञ समझा जाए। प्रशासक के रूप में उसे शैक्षिक प्रगति हेतु सहयोगियों को उपदेश मात्र नहीं देना चाहिए वरन् जिस कार्य को वह करवाना चाहता है उसे स्वयं करके उदाहरण के रूप में दूसरों के सम्मुख प्रस्तुत करना चाहिए जिससे प्रजातान्त्रिक ढंग से दूसरे उसका अनुकरण करके विद्यालय की प्रगति में सहायक सिद्ध हो सकें।
9. अध्यापक को संगठित रख सकने की क्षमता
विद्यालय की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि प्रधानाध्यापक के नेतृत्व में शिक्षक वर्ग किस सीमा तक मिल-जुलकर कार्य कर रहा है ? शिक्षकों में सहयोग की भावना का सृजन करना, उनके हितों को ध्यान में रखना, उन्हें एक गुट के रूप में रखना तथा विद्यालय का एक संगठन के रूप में कार्य करना, आदि का दायित्व प्रधानाध्यापक का ही है। प्रशासनिक दृष्टि से यदि विचार किया आए तो एक प्रश्न उत्पन्न होता है। कि प्रधानाध्यापक को किन-किन उद्देश्यों की पूर्ति करने हेतु शिक्षकों को संगठित रूप में रखना चाहिए। इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि उसे शिक्षकों को निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु मुख्यतः संगठित करना आवश्यक है-
1. विद्यालय के शैक्षिक कार्यक्रमों का निर्धारण करने, उन्हें लागू करने तथा उनमें सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से।
2. शिक्षकों द्वारा अपने उत्तरदायित्वों को निभा सकने के उद्देश्य से विद्यालय में शिक्षकों की नियुक्ति विद्यालय के हितों में ही करवाये जिससे उन्हें उचित उत्तरदायित्व सौंपे जा सकें। शिक्षक अपने उत्तरदायित्वों को तभी कुशलतापूर्वक निभा सकते हैं जब उन्हें एकजुट होकर कार्य करने का वातावरण उपलब्ध हो।
3. पाठ्यक्रमेत्तर क्रियाओं का चयन करने, उन्हें आयोजित तथा सम्पादित करने तथा उनके द्वारा छात्रों को अधिकाधिक उपलब्धियों को प्राप्त करने का अवसर देने के उद्देश्य से।
4. विद्यालय के विभिन्न पाठ्यक्रम सम्बन्धी तथा पाठ्यक्रमेत्तर क्रियाओं से सम्बन्धित बातों में समन्वय स्थापित करने के उद्देश्य से जिससे विद्यालय के सभी छात्र लाभान्वित हो सकें।
5. प्रधानाध्यापक तथा अन्य अध्यापकों के मध्य मधुर सम्बन्ध स्थापित करने की दृष्टि से।
10. अध्यापकों के मध्य कार्य वितरण करने की योग्यता
प्रधान अध्यापक विद्यालय की प्रगति तभी कर सकता है जब वह विद्यालय के सभी कार्यों का वितरण अपने सहयोगियों में उनकी योग्यताओं, रुचियों, आदतों, क्षमताओं, आदि को ध्यान में रखकर करे। शिक्षकों के मध्य कार्य का वितरण वैयक्तिक विभिन्नता के सिद्धान्त को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। कार्य वितरण करते समय सभी अध्यापकों को विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता दे देनी चाहिए जिससे विद्यालय का सम्पूर्ण कार्यक्रम ऐसा बन सके कि विद्यालय के अध्यापक उसे स्व-निर्मित समझकर उसकी सफलता हेतु पूर्ण सहयोग प्रदान कर सकें। प्रधानाध्यापक को उनकी कार्यक्षमता पर विश्वास करके सारा भार उन्हीं पर छोड़ देना चाहिए। यदि कोई शिक्षक अपने दायित्वों को ठीक से नहीं निभा रहा है अथवा किसी परिस्थिति के कारण उसे निभा सकने में असमर्थ है तो प्रधानाध्यापक को चाहिए कि वह उसे कार्य करने हेतु प्रेरित करे अथवा उसके कार्य को पूरा कराने में सक्रिय रूप से भाग ले।
कार्य वितरण करते समय यह ध्यान रखा जाए कि सभी शिक्षकों पर सन्तुलित रूप से कार्यभार रहे। किसी शिक्षक पर कार्यभार अधिक लाद देना और किसी को कम कार्य करने को देना असन्तोष का कारण बनता है। इससे विद्यालय का वातावरण दूषित होने का भय बना रहता है। कार्य वितरण में सन्तुलन बनाये रखने के साथ ही सभी शिक्षकों को समान रूप से सुविधाएँ भी उपलब्ध करानी चाहिए जिससे उन्हें कर्तव्य निभाने में समस्याओं का सामना न करना पड़े। प्रशासक की दृष्टि से प्रधानाध्यापक को चाहिए कि कार्य वितरण के पश्चात् वह शिक्षकों द्वारा किये जाने वाले कार्य का समय-समय पर निरीक्षण करता रहे और उन्हें उचित निर्देशन भी देता रहे। प्रधानाध्यापक को पर्यवेक्षण करते समय उचित सलाह देना आवश्यक है। शिक्षकों के कार्यों का समय-समय पर मूल्यांकन करना भी आवश्यक है जिससे शिक्षक प्रेरित होते रहें और कार्यों को मन लगाकर कर सकें।
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