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प्रबन्धकीय लेखांकन का अर्थ (Meaning of Management Accounting)
प्रबन्ध लेखांकन दो शब्दों प्रबन्ध + लेखांकन से मिलकर बना है। प्रबन्ध की परिभाषा के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के बीच मतभेद है। वस्तुतः प्रबन्ध एक व्यापक शब्द है जो आधुनिक व्यावसायिक एवं औद्योगिक जगत में कई अर्थों में प्रयुक्त होता है। कुछ व्यक्ति संकीर्ण अर्थ लगाते हैं तो कुछ व्यापक । संकीर्ण अर्थ में “प्रबन्ध दूसरे व्यक्तियों से कार्य कराने की युक्ति है।” इसके अनुसार वह व्यक्ति जो दूसरों से कार्य कराता है, प्रबन्धक कहलाता है। विस्तृत अर्थ में “प्रबन्ध एक कला एवं विज्ञान है जो निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विभिन्न मानवीय प्रयासों से सम्बन्ध रखता है।’ दूसरी ओर लेखांकन का तात्पर्य तथ्यों को लिपिबद्ध करना होता है। इस प्रकार प्रबन्ध लेखांकन से तात्पर्य ऐसी लेख पद्धति से है जो प्रबन्धकीय कार्य कुशलता में वृद्धि कर सके। अतः प्रबन्धकीय कार्यकुशलता में वृद्धि करने के लिए लेखांकन का प्रयोग प्रबन्ध-यन्त्र के रूप में किया जता है तो उसे प्रबन्ध लेखांकन कहते हैं। यह बात सत्य है कि प्रबन्धकीय लेखांकन में प्रयुक्त समंक वित्तीय लेखांकन से ही संकलित किये जाते है किन्तु उनके विश्लेषण का उद्देश्य पिछली अवधि की स्थितियों का स्पष्टीकरण करना नहीं होता बल्कि इस प्रकार की सूचना उपलब्ध कराना होता है जिनकी सहायता से वैज्ञानिक एवं ठोस तौर पर निर्णय लिये जा सकें।
संक्षेप में, प्रबन्ध लेखांकन का मुख्य उद्देश्य भावी योजनाओं को प्रोत्साहित कर प्रबन्ध को योजनाओं की ओर सतत् (Continuous) आकर्षित करना है, ताकि अपेक्षित (Expected) तथा वास्तविक (Actual) परिणामों की सतत् तुलना करके प्रबन्धकीय नियन्त्रण को अधिकतम प्रभावशाली बनया जा सके। जिससे प्रबन्धकीय कार्यकुशलता में वांछित वृद्धि हो सके। प्रबन्ध लेखांकन संस्था में आन्तरिक नियन्त्रण एवं सन्तुलन स्थापित करता है, त्रुटियों तथा छल-कपटों को रोकने की व्यवस्था करता है तथा इसमें सुधार लाने के लिये प्रबन्ध को प्रेरित करता है।
प्रबन्धीय लेखाविधि प्रबन्ध के लिए प्रबन्धकीय कार्य में लेखांकन सेवा है। इसके अन्तर्गत लेखा कार्यों का विश्लेषण करके इसे कुशलता से बढ़ाने के लिए उपयोगी बनाया जाता है। इस प्रकार साधारण बोलचाल की भाषा में, कोई भी लेखाविधि जो प्रबन्ध के कार्यों में सहायता हेतु आवश्यक सूचना प्रदन करती है, प्रबन्धकीय लेखांकन कहलती है।
प्रबन्धकीय लेखांकन की परिभाषायें (Definitions of Management Accounting)
प्रबन्धकीय लेखांकन की मुख्य परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-
(1) रॉबर्ट एन. ऐन्थोनी के शब्दों में, “प्रबन्धकीय लेखाविधि का सम्बन्ध लेखा-सूचना से है जो कि प्रबनध के लिए उपयोगी होती है।”
(2) आई.सी.डब्ल्यू, ए, के शब्दों में, “लेखाविधि का कोई भी रूप, जो कि व्यवसाय को अधिक कुशलतापूर्व संचालन योग्य बनाये, प्रबन्धकीय लेखाविधि कहा जाता है।”
(3) आंग्ल-अमरिकी उत्पादकता परिषद् के अनुसार “एक व्यावसायिक संस्था के दिन-प्रतिदिन के संचालन तथा नीति निर्धारण में प्रबन्ध की सहायता हेतु लेखा – सूचनाओं का प्रस्तुतीकरण ही प्रबन्धकीय लेखाविधि है।”
(4) टी.जी. रोज के शब्दों में, “प्रबन्धीय लेखाविधि लेखा सूचना का इस प्रकार अनुकूलन, विश्लेषण, निदान तथा व्याख्या है जिससे प्रबन्ध को सहायता मिलती है।”
(5) जे.बेट्टी के शब्दों में, “प्रबन्ध लेखांकन शब्द का प्रयोग उन लेखांकन विधियों, पद्धतियों व तकनीकों का वर्णन करने के लिए किया जता है। जिन्हें विशिष्ट ज्ञान तथा योग्यतापूर्वक प्रयोग में लाने से प्रबन्धकों को अपने कार्य अर्थात् लाभों के अधिकतम व हानियों को न्यूनतम करने में सहायता मिलती है।”
(6) बॉस्टोक के शब्दों में, “प्रन्धक लेखांकन को प्रबन्ध के उन आँकड़ों – चाहे वे मुद्रा में व्यक्त हों या इकाइयों में, को प्रस्तुत करने की उस कला के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिससे प्रबन्ध को उनके कर्य सम्पादन में सहायता हो सके।”
निष्कर्षः संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि प्रबन्ध लेखांकन में वित्तीय एवं अन्य लेखा-सूचनाओं को ऐसी विधियों तकनीकी व पद्धतियों से विशिष्ट ज्ञान एवं कुशलता के साथ व्यवस्थित एवं प्रस्तुत किया जाता है, ताकि उपलब्ध सूचना प्रबन्ध समस्याओं को समझने व हल करने में पर्याप्त सहायक सिद्ध हो सके।
प्रबन्धकीय लेखांकन की विशेषताएँ (Nature of Characteristics of Management Accounting)
प्रबन्ध लेखांकन की निम्नलिखित विशेषताएँ है-
(1) महत्वपूर्ण निर्णयों में सहायक (Helpful in Important Decisions) – प्रबन्धकीय लेखाविधि व्यवसाय से सम्बन्धित महत्वपूर्ण निर्णयों में सहायक होती है । यह महत्वपूर्ण सूचनाओं को प्रदान करती है जिनके आधार पर निर्णय सुगमता से लिये जा सकते है। इस ख्याल में ऐतिहाससिक आँकड़ों (Data) का भी अध्ययन किया जाता है। इसके अन्तर्गत महत्वपूर्ण निर्णय लेते समय वैकल्पिक निर्णयों के प्रभावों को भी ध्यान में रखा जाता है।
(2) उद्देश्यों की प्राप्ति (Achieving of Objectives) – प्रबन्धकीय लेखाविधि सूचनाओं का इस प्रकार प्रयोग किया जाता है कि संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके। नियोजन करते समय एवं उद्देश्यों को निर्धारित करते समय ऐतिहासिक आँकड़ों का प्रयोग किया जाता है। निर्धारित प्रमाप एवं कार्य की उपलब्धि की तुलना करके विभिन्न विभागों की निष्पादन क्षमता के बारें में जानकारी प्राप्त की जाती है। यदि खास विभाग की निष्पादन क्षमता प्रमापित (Standard) क्षमता से कम साबित हुई तो उसे सुधारने के उपाय किये जा सकते हैं।
(3) कारण एवं प्रभाव विश्लेषण (Cause and Effect analysis) – प्रबन्धकीय लेखाविधि में केवल यह नहीं देखा जाता कि क्या हुआ? बल्कि यह ज्ञात किया जाता है कि परिणाम विशष किन कारणों से प्रभावित है तथा इसमें सुधार किस प्रकार किया जा सकता है? वित्तीय लेखांकन संस्था के लाभ अथवा हानि प्रदर्शित करने तक ही सीमित होता है किनतु प्रबन्धकीय लेखाविधि एक कदम और आगे बढ़ती है अर्थात् यह लाभ अथवा हानि के कारणों एवं प्रभावों को भी स्पष्ट करता है। इसके अन्तर्गत लाभ की तुलना बिक्री, विभिन्न व्ययों, चालू-सम्पत्तियों, देय व्याज, पूँजी इत्यादि के साथ की जाती है।
(4) कार्यक्षमता में वृद्धि (Increase in Efficiency)- वर्तमान युग प्रतियोगिता का युग है। इस युग में किसी भी संस्था को अपना आस्तित्व कायम रखने के लिए उसकी कार्यक्षमता में वृद्धि किया जाना नितान्त आवश्यक हो गया है। प्रबन्धकीय लेखाविधि के प्रयोग से संस्था की कार्यक्षमता को बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए पहले संस्था के लक्ष्य को निधारित किया जाता है। और तब उसे प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। कार्यक्षमता को बढ़ाने के लिए सुधारात्मक उपाय ढूँढे जाते है। कार्य मूल्यांकन के परिणामस्वरूप हर कोई अपने स्तर से लागत कम करने का प्रयास करेगा।
(5) भविष्य से सम्बन्धित होना (Concerned with Future)- प्रबन्धकीय लेखाविधि भविष्य से सम्बन्धित होती है। यह भविष्य का पुर्वानुमान करती है और जब यह भविष्य वर्तमान बनकर हमारे समक्ष आता है तो व्यावसायिक क्रियाओं की उपलब्धियों को आलोचनात्मक जाँच की जाती है अर्थात् इन पूवार्पनुमानों की वास्तविक परिणामों से तुलना की जाती है। इससे प्रबन्ध को प्रभावी नियन्त्रण में सहायता मिलती है। उदरहरणतः बजटरी नियन्त्रण प्रणाली प्रमाप, परिव्यय- प्रणाली आदि सभी पूर्वानुमान के आधार पर तैयार की जाती है।
(6) यह आँकड़े प्रदान करती है, निर्णय नहीं ( It provides Data, Not the Decision)- प्रबन्धकीय लेखाविधि निर्णय के सम्बन्ध में आँकड़े (Data) प्रदान करती हैं, निर्णय नहीं, जिनके आधार पर व्यावसायिक निर्णय सम्भव हो पाते हैं। प्रभावपूर्ण निर्णय के लिए आवश्यक तथ्य जुटाना तथा उनका विश्लेषण व प्रबन्ध के समक्ष प्रतुतीकरण का कार्य लेखापाल द्वारा किया जाता है, वह स्वयं निर्णय नहीं लेता है। वस्तुतः निर्णयन का काम संस्था के प्रबन्धक का होता है।
(7) यह प्रबन्धकीय आवश्यकताओं के प्रति अत्यधिक सचेत है (It is highly sensitive to Management needs)- प्रबन्ध किसी भी संस्था का मस्तिष्क होता है। अतः किसी भी संस्था के सही संचालन हेतु प्रबन्धकीय आवश्यकताओं के प्रति प्रबन्धकीय लेखाविधि अधिक सचेत होती है। वस्तुतः प्रबन्धकीय लेखाविधि प्रबन्ध करने में सहायतार्थ आन्तरिक सूचना प्रणाली है। इसके अनतर्गत विवरणों व प्रतिवेदनों की तैयार व प्रस्तीतकरण सम्बन्धित प्रबन्धकों की आवश्यकता के अनुसार किया जाता है।
(8) चयनात्मक प्रकृति (Selective Nature)- प्रबन्धकीय लेखाविधि चयनात्मक प्रकृति की होती है। इसके अन्तर्गत सर्वश्रेष्ठ योजनाओं (Planning) एवं अत्यधिक लाभप्रद तथा सर्वश्रेष्ठ विकल्पों का विश्लेषण व तुलनात्मक अध्ययन करके चुनाव किया जता है। प्रबन्ध के समक्ष मात्र आवश्यक सूचनाओं का ही संवहन (Communication) किया जता है।
(9) विशेष तकनीक एवं अवधारण का प्रयोग (Use of Special Technique and Concepts)- लेखांकन आँकड़ों को अधिक उपयुक्त बनाने के लिए प्रबन्धकीय लेखाविधि में केवल विशेष तकनीक एवं अवधारणाओं का ही प्रयोग किया जता है । उदाहरणतः इसके अन्तर्गत वित्तीय नियोजन एवं विश्लेषण, प्रमाप लागत, बजटरी कण्ट्रोल लागत एवं नियन्त्रण लेखांकन आदि का ही प्रयोग किया जाता है।
(10) प्रबन्ध लेखांकन में लागत तत्वों की प्रकृति के अध्ययन व विलेषण पर बल(Emphasis is placed on the study and Analysis of the Nature of Elements of Cost)- प्रबन्धकीय लेखाविधि में लागत तत्वों के अध्ययन का विशेष महत्व है। सम्पूर्ण लागत को कई तत्वों; जैसे- स्थायी लागत, परिवर्तनशील लागत, अर्द्धस्थायी लागत इत्यादि में वर्गीकृत किया जाता है। प्रबन्धकीय निर्णय में यह वर्गीकरण महत्वपूर्ण स्थान रखता है।
( 11 ) प्रबन्ध लेखांकन में वित्तीय लेखांकन की भाँति निर्धारित नियमों का पालन नहीं किया जाता है (Like Financial Accounting established rule are not followed in Management Accounting)- प्रबन्ध लेखांकन का कार्य प्रबन्धकीय दक्षता में वृद्धि करना होता है। इसके लिए सामान्य स्वीकृत नियमों से अलग अपना पृथक् नियम बना सकता है तथा सूचनाओं के प्रस्तुतीकरण में अपने अनुभव ज्ञान, तर्क, बुद्धि एवं कल्पना-शक्ति से ऐसी सूचनाएँ सृजित कर सकता है जो प्रबन्धकीय कार्यकुशलता में वृद्धि करें।
प्रबन्धकीय लेखांकन की प्रकृति (Nature of Management Accounting)
प्रबन्धकीय लेखांकन की प्रकृति निम्नलिखित हैं:-
1. एकीकृत पद्धति- प्रबन्धकीय लेखांकन में अनेक विषयों, प्रणालियों, पद्धतियों, प्रविधियों, प्रारूपों व अन्य सम्बन्धित तथ्यों का एकीकरण किया जता है। इसके वित्तीय लेखांकन, लागत लेखांकन, संख्यायिकी, व्यवसाय प्रबंध अकेक्षण, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि विषयों का व्यावहारिक ज्ञान किया जाता है।
2. नियम सुनिश्चित एवं सर्वव्यापी नहीं- प्रबन्धकीय लेखांकन के नियमं कभी भी सुनिश्चित एवं सर्वव्यापी नहीं होते हैं। प्रबन्ध लेखांकन सूचनाओं का प्रस्तुतिकरण एवं विशलेषण सामान्य नियमों से हटकर प्रबन्धकीय उद्देश्यों को ध्यान में रखकर अलग-अलग ढंग से कर सकता है।
3. केवल सामंतकों की प्रस्तुती- प्रबन्धकीय लेखांकन में केवल समंकों के माध्यम से सूचना मिल सकती है जिसका विस्तृत अर्थ में प्रयोग किया जा सकता है, परन्तु इन समंको के आधार पर उचित निर्णय प्रबन्धकों को लेने पड़ते हैं। प्रबन्धकीय लेखांकन तो वस्तुतः निर्णयन के लिए आधार प्रस्तुत करता है।
4. लेखांकन सेवा कार्य- प्रबन्धकीय लेखांकन प्रबन्ध के प्रति एक लेखांकन सेवा कार्य है जिसके अन्तर्गत प्रबन्धकों को संस्था के नीति-निर्धारण एवं विवेकपूर्ण निर्णय लेने हेतु वांछित आवश्यक सूचनाएँ समय पर उपलब्ध कराई जाती हैं जिसका उपयोग प्रबन्धक संस्था के निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए करते हैं।
5. चुनाव पर आधारित- विभिन्न समान प्रकृति एवं विशेषता वाली योजनाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है। जो योजना सर्वाधिक लाभप्रद एवं श्रेष्ठ होती है उसका चुनाव किया जाता है।
6. भविष्य पर ज़ोर- प्रबन्धकीय लेखांकन केवल ऐतिहासिक तथ्यों के संकलन तक सीमित नहीं रहता, बल्कि ‘क्या होना चाहिए’ इस पर प्रकाश डालता है। भविष्य के लिए योजनाएँ बनाई जाती है तथा जब यह भविष्य वर्तमान के रूप में सामने आता है। इसका विश्लेषण किया जता है। बजटरी नियन्त्रण, प्रमाप लागत एवं विचरण – विश्लेषण ऐसी ही योजनाएँ हैं जो भविष्य पर प्रकाश डालती है।
7. लागत तत्वों की प्रकृति पर जोर- प्रबन्धकीय लेखांकन में लागत तत्वों की प्रकृति का विशेष ध्यान रखा जाता है। इसमें लागतों को परिवर्तनशील, स्थिर एवं अर्द्ध-परिवर्तशाली वर्गों में विभाजित किया जाता है। ऐसा करने से प्रबन्धकीय निर्णय करने में सहायता मिलती है। प्रबन्धकीय लेखांकन में इस वर्गीकरण पर आधारित सीमान्त लागत विश्लेषण, प्रत्यक्ष लागत विश्लेषण, लागत लाभ मात्रा विश्लेषण आदि प्राविधियों का प्रयोग किया जाता है। प्रबन्ध लेखांकन की इस विशेषता के आधार पर कहा जाता है कि “प्रबन्ध लेखांकन लागत लेखांकन के प्रबन्धकीय पहलू का ही विस्तार है। “
8. ‘कारण व प्रभाव’ पर जोर- प्रबन्धकीय लेखांकन में ‘कारण एवं उसके प्रभाव’ का विशेष अध्ययन किया जाता है। उदाहरणार्थ, वित्तीय लेखे केवल लाभ की मात्रा बताते हैं जबकि प्रबन्धकीय लेखांकन में ज्ञात किया जाता है कि यह लाभ किन कारणों से हुआ तथा विभिन्न सम्बन्धित मदों से इसका सम्बन्ध ज्ञात कर उसका विशलेषण किया जाता है।
प्रबन्धकीय लेखांकन का क्षेत्र (Nature of Management Accounting)
प्रबन्ध लेखांकन हेतु प्रयुक्त की जाने वाली विधियों को प्रबन्ध लेखांकन के क्षेत्र में सम्मिलित किया जाता है। इसका क्षेत्र के अन्तर्गत निम्नलिखित विषयों का समावेश किया गया है-
1. सामान्य लेखाविधि (General Accounting)- सामान्य लेखाविधि का आशय उस लेखाविधि से है जिसके अनतर्गत व्यवसाय से सम्बन्धित आय-व्यय, स्टॉक, रोकड़ की प्राप्ति एवं भुगतान शामिल है। इसे वित्तीय लेखांकन या ऐतिहासिक लेखांकन (Historical Accounting) भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत दिन-प्रतिदिन के लेखांकन व्यवहार आते हैं जिनकी सहायता से अन्तिम खाते तैयार किये जाते हैं (लाभ हानि खाता व आर्थिक चिट्ठा) । वित्तीय लेखाविधि के माध्यम से तैयार किये गये लेखा विवरण प्रबन्धक लेखांकन का प्रमुख अंग एवं आधारशिला होते हैं। अतः प्रबनधकीय कार्यक्षमता में वृद्धि के लिए एक सुव्यवस्थित लेखाविधि का होना आवश्यक है।
2. लागत लेखाविधि (Cost Accounting)- लागत लेखांकन के अन्तर्गत उन लेखांकन पद्धतियों का सम्मिलित किया जाता है जिनके आधार पर उत्पादन सम्बन्धी वास्तविक व्ययों को विभिन्न वर्गों में लिपिबद्ध किया जाता है। लागत लेखाविधि से विभिन्न उत्पादों की लागत ज्ञात की जाती है। इसमें विभिन्न उपकार्यों (Jobs); विधियों की लागत ज्ञात करने के लिए वित्तीय आँकड़ों का प्रयोग किया जाता है। प्रमाप लागत विधि, सीमान्त लागत विधि, अवसर लागत विधि ये सारे प्रबन्ध को व्यावसयिक नियोजन बनाने में सहायता प्रदान करते हैं।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से लागत लेखांकन की आधारभूत पद्धतियों में कार्य लागत (Job Costing) एवं प्रक्रिया लागत लेखांकन (Process Costing) को ही सम्मिलित किया जाता था किन्तु वर्ममान समय में इस शास्त्र का काफी विकास हुआ है तथा विभिन्न नयी-नयी रीतियाँ प्रतिपादित की गयी हैं। वर्तमान समय में लागत लेखा पद्धति के अनतर्गत प्रमाप लागत लेखांकन (Standard Costing), सीमान्त लागत लेखांकन (Marginal Costing), बजटरी नियन्त्रण (Budgetary Control), निर्णय लेखांकन ( Decision Accounting) इत्यादि को सम्मिलित किया जता है। वस्तुतः जब तक लागत लेखांकन पद्धति की विभिन्न रीतियों का ज्ञान न हो, प्रबन्ध लेखांकन के लिए लेखा-सूचना का लाभप्रद उपयोग सम्भव नहीं है। अतः प्रबन्ध लेखांकन के लिए लागत लेखांकन का ज्ञात होना आवश्यक है।
3. बजटन तथा पूर्वानुमान (Budgeting and Forecasting) – इस कार्य क्षेत्र के अन्तर्गत विभिन्न व्यावसायिक पहलुओं के सम्बन्ध में पूर्वानुान करना एवं विभिन्न विभागों के लिए अलग-अलग बजट बनाना आता है। बजट एक ऐसी तकनीक है जिसमें संस्था की नीतियों व योजनाओं को मौद्रिक मदों के रूप में व्यक्त किया जाता है। बजट बनाकर विभिन्न अधिकारियों के उत्तरदायित्व निर्धारित किये जाते हैं। वास्तविक परिणाम ज्ञात होने की उसकी तुलना बजट में निर्धारित लक्ष्यों से की जाती है। बजट कमेंटी का काम विभिन्न विभागों में समन्वय स्थापित करना होता है। समय-समय पर विभिन्न की दक्षता के सम्बन्ध में प्रतिवेदन तैयार किये जाते है जिससे उनकी
व्यावसायिक कार्यकुशलता की जानकारी होता है। ददूसरी ओर, पूर्वानुमान सांख्यिकीय तथ्यों पर आधारित होता है। इसके अन्तर्गत भूतकालीन व्यापारिक दशाओं का विश्लेषण करके भावी दशाओं का अनुमान लगाने का प्रयास किया जाता है। अतः पूर्वानुमान न्याय है, जबकि बजटिंग संगठनात्मक उद्देश्य इस प्रकार पूर्वानुमान एवं बजटिंग दोनों प्रबन्धकीय लेखांकन के लिए आवश्यक है।
4. लागत नियन्त्रण विधि (Cost Control Procedure)- आज प्रत्येक व्यावसायिक संस्था अपने लाभ की मात्रा बढ़ाने या व्यावसायिक प्रतियोगिता में सफलता प्राप्त करने के लिए कटिबद्ध है जिसके लिए उसे लागत नियन्त्रण पर ध्यान देना ही होता है। इसके अन्तर्गत कार्य पूरा होने पर पूर्व-निर्धारित बजट एवं वास्तविक लागत की तुलना करना आता है। व्यवासायिक क्रियाओं पर नियन्त्रण करने के लिए बजट नियन्त्रण तथा प्रमाप परिव्यय दोनों ही युक्तियों का प्रयोग किया जाता है।
5. निर्णय लेखांकन (Decision Accounting) – किसी भी संस्था में निर्णय लेना प्रबन्धकों का महत्त्वपूर्ण कार्य होता है। निर्णयन का तात्पर्य विभिन्न विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ विकल्प के चुनाव से है। सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चुनाव भी एक महत्वपूर्ण कार्य है जिसके लिए विभिन्न विकल्पों की तुलना करते समय अनिश्चितता के तत्व को न्यूनतम करने के लिए तथ्यों का प्रयोग करना आवश्यक होता है।
वस्तुतः निर्णय लेखांकन, लेखांकन की कोई अलग प्रणाली नहीं है वरन् एक प्रक्रिया है। जिसमें किसी संस्था के प्रबन्ध लाभों को अधिकतम व हानियों को न्यूनतम करने के लिए लेखांकन सूचना का प्रयोग करते है। अनेक महत्वपूर्ण विषयों; जैसे किसी वस्तु का उत्पादन करना या बाहर से निर्मित वस्तुएँ ही खरीदना, पूँजी व्यय करना या न करना, उप-ठेका देने इत्यदि के सम्बन्ध में निर्णय लेने में लेखांकन सूचना से महत्वपूर्ण सहायता मिलती है।
6. नियन्त्रण लेखांकन (Control Accounting)- नियन्त्रण लेखांकन अपने आप में कोई लेखाविधि या प्रणाली नहीं है बल्कि यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें प्रबन्ध विभिन्न स्तर के प्रबन्ध व निरीक्षकों को महत्वपूर्ण सूचना प्रदान करने के लिए तथ्यों के विश्लेषण, निर्वाचन व प्रस्तुतीकरण के द्वारा अपने ज्ञान व प्रतिभा का परिचय दे सकते है। नियन्त्रण लेखांकन से व्यावसायिक गतिविधियों पर नियन्त्रण रखने में काफी मदद मिलती हैं।
7. पुनर्मूल्यांकन लेखांकन (Revaluation Accounting) – पुनर्मूल्यांकन लेखांकन को प्रतिस्थापन्न मूल्य लेखांकन के नाम से भी जाना जाता है।
इस लेखांकन के अन्तर्गत स्थायी सम्पत्तियों का लेखा प्रतिस्थापन मूल्य पर किया जाता है, लागत मूल्य पर नहीं। इस लेखांकन के अन्तर्गत यह विश्वास दिलाने का प्रयास किया जाता है कि संस्था की पूँजी पूर्णतः सुरक्षित है अर्थात् सम्पत्तियों में हुए परिवर्तन का समायोजन किया जाता है तथा इनके प्रभावों को मद्देनजर रखते हुए भी लाभा-हानि खाता तैयार किया जाता है। इस लेखांकन विधि से प्रबन्ध को निर्णय लेने में बहुत हद तक मदद मिलती है।
8. उत्तरदायित्व लेखांकन (Responsibility Accounting)- इस लेखांकन के अन्तर्गत सूचनाओं को इस प्रकार व्यवस्थिति किया जाता है कि सम्बन्धित कर्मचारियों को उनके कार्यों के सम्बन्ध में उत्तरदायी ठहराया जा सके। इस लेखांकन के सम्बन्ध में श्री आर. एम. भण्डारी का कथन इस प्रकार है, “उत्तरदायित्व लेखांकन एक व्यवस्था है जिसमें प्रत्येक स्तर पर उत्तरदायित्व निर्धारण के लिए लागत का इस प्रकार संकलन एवं प्रस्तुतीकरण किया जता है जिससे लेखांकन एवं लागत समंकों का प्रयोग प्रबन्ध द्वारा प्रत्येक स्तर पर कार्य एवं लागत नियन्त्रण के लिए किया जा सकें।”
9. परिमाणात्मक विधियाँ (Quantitative Methods) – वर्तमान समय में परिमाणात्मक विधियों का प्रयोग प्रबन्ध लेखांकन के क्षेत्र में व्यापक स्तर किया जाता है। परिमाणात्मक विधियों के आधार निर्णयन में जोखिम की मात्रा को न्युनतम किया जा सकता है। इसके अन्तर्गत-रेखीय कार्यक्रम (Linear Programing), सह-सम्बन्ध (Correlation), काल-श्रेणी विशलेषण (Time- Series Analysis), प्रमाप विचलन (Standard Deviation), किस्म नियन्त्रण (Quality Control) इत्यादि मुख्य है।
10. अर्थशास्त्र (Economics) – वस्तुतः व्यवसाय व आर्थिक क्रियाओं में घनिष्ठ सम्बन्ध है। बिना आर्थिक क्रियाओं के व्यवसाय की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। प्रबन्धकीय कार्यकुशलता में वृद्धि करने के ख्याल से प्रबन्ध लेखापाल को अर्थशास्त्र का सैद्धान्तिक व व्यावहारिक जानकार होना चाहिए।
11. विकास लेखांकन (Development Accounting) – विकास लेखांकन में लागत को नियन्त्रित करके इसे कम से कम करने का प्रयास किया जाता है। नये उत्पाद, डिजाइन, उत्पादन प्रणाली सम्बन्धी शोध प्रस्तुत किये जाते हैं। इनमें सफलता मिलने पर शोध कार्य को भी विकसित करने का प्रयास किया जाता है। विकास लेखांकन से इस बात पर भी जानकारी होती है कि शोध कार्य से संस्था या सम्बन्धित लोगों का लाभ हुआ या नहीं।
12. लागत और संख्यिकी (Cost and statistics) – आज प्रत्येक क्षेत्र में सांख्यिकी रीतियों का व्यापक ढंग से प्रयोग किया जा रहा है। प्रबन्ध लेखांकन में भी लागत नियन्त्रण के लिए सांख्यिकी रीतियों का प्रयोग होता है अर्थात इसके अन्तर्गत विभिन्न विभागों को पूरक सांख्यिकी एवं विलेषणात्मक सेवाएं प्रदान की जाती है।
13. स्कन्ध नियन्त्रण (Inventory Control)- यहाँ इनवेण्टरी का तात्पर्य सामग्री के स्कन्ध एवं निर्मित/ अर्द्ध-निर्मित माल के स्कन्ध से है। व्यवसाय की सही आय जानने के लिए स्कन्ध नियन्त्रण अत्यन्त आवश्यक होता है। स्कन्ध नियन्त्रण से उत्पादन की लागत नियन्त्रित होती है। प्रबन्ध को चाहिए कि वह रहतिया (Stock) के विभिन्न स्तरों को निर्धारित करें, जैसे- न्यूनतम स्तर (Minimum Level), अधिकतम स्तर (Maximum-Level), पुनः आदेश स्तर (Recordering Level) ताकि रहतिया नियन्त्रित हो सके। रहतिया को नियन्त्रित करने के लिए प्रभावपूर्ण इनवेण्टरी नियन्त्रण आवश्यक है। प्रबन्ध लेखापाल (Management Account) प्रबन्ध पथ-प्रदर्शन करेगा कि सामग्री का क्रय कहाँ, कब और कितना करे। इस प्रकार स्कन्ध नियन्त्रण प्रबन्धकीय निर्णय में मदद प्रदान करता है।
14. ऑफिस सेवा (Officie Service)- कुछ परिस्थितियों में ऑफिस सेवा की व्यवस्था प्रबन्ध लेखापाल के अधीनस्थ ही रहती है। इसके अन्तर्गत सेवाओं का संवहन, डाक, आवश्यक सामान की पूर्ति, डुप्लीकेटिंग इत्यादि आते है । प्रबन्ध लेखापाल कार्यालय में प्रयुक्त होने वाली आवश्यक मशीनों की उपयोगिता के संबन्ध में प्रबन्ध को अवगत कराता है तथा प्रबन्ध आवश्यकतानुसार मशीनों का क्रय कर कार्यालय सेवा को गति प्रदान करता है।
15. समंको का अनुविन्यास ( Interpretation of Data) – प्रबन्धकीय लेखांकन का मुख्य उद्देश्य वित्तीय सूचनाओं का प्रबन्ध के समक्ष इस प्रकार प्रस्तुत करना है, ताकि उन्हें आसानी से समझा जा सके। प्रबन्धकीय लेखापल विभिन्न वित्तीय विवरणों का अनुविन्यास करता है जिससे संस्था की उपार्जन क्षमता की जानकारी होती है। वर्तमान विवरण-पत्रों का भूतकालीन विवरण-पत्र तथा दूसरी संस्थओं के विवरण-पत्रों के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया जाना चाहिए। रिपोर्ट को प्रबन्ध के समझ सरल व बोधगम्य भाषा में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। प्रबन्ध के समक्ष रिपोर्ट के महत्व को भी स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए। समथकों का अनुविन्यास एक महत्वपूर्ण कार्य है। यदि अनुविन्यास का कार्य सही नहीं हो सकता तो लेखापाल द्वारा निकाले गये निष्कर्ष ही गलत हो जायेंगे।
16. कर लेखाविधि (Tax-Accounting)- र्वतमान जटिल कर प्रणाली में कर-नियोजन प्रबन्धकीय लेखांकन का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया है। कर दायित्व की गणना करने के लिए आय विवरण-पत्र तैयार किये जाते है। प्रबन्ध को कर- भारत की सूचना केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार व स्थानीय सत्ता द्वारा प्रदान की जाती हैं। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित कार्य आते हैं- सरकार द्वारा लगाये गये करों के सम्बन्ध में आवश्यक विवरण तैयार करना, इन विवरणों को सम्बन्धित अधिकारियों के समक्ष सही समय पर प्रस्तुत करना और अन्त में कर की रकम का भुगतान सम्मिलित होता है।
17. सूचित करना (Reporting)- प्रबन्ध लेखांकन का आधारभूत उद्देश्य संस्था की ताजी (Latest) स्थिति के सम्बन्ध में प्रबन्ध को अवगत कराना है। इससे प्रबन्ध का निर्णय लेने में मदद मिलती है। विभिन्न विभागों की निष्पादन क्षमता के समबन्ध में भी शीर्षत्व प्रबन्ध (Top management) को सतत् (Continuous) संवहन (Communication) किया जाता है। संवहन की यह प्रक्रिया ग्राफ, डायग्राम, निर्देशांक व अन्य सांख्यिकीय रीतियों द्वारा की जाती है जिससे वस्तु स्थिति को समझने में आसानी होती हैं। संवहन की यह प्रक्रिया मासिक, त्रैमासिक, अर्द्धवार्षिक या वार्षिक हो सकती है। प्रबन्धकीय लेखाविधि में सूचित करने का कार्य दो पक्षों को किया जाता है- पहला, आन्तरिक पक्ष एवं दूसरा, बाह्य पक्ष । यहाँ आन्तरिक पक्ष का तात्पर्य सर्वोच्च प्रबन्ध एवं बाह्य पक्ष का तात्पर्य लेनदारों इत्यादि से है।
18. आन्तरिक अंकेक्षण (Internal Audit) – इसका तात्पर्य आन्तरिक नियन्त्रण को चुस्त बनाने के लिए आन्तरिक स्तर पर ही खातों का अंकेक्षण करने से है। इससे अलग-अलग विभागों के अधिकारियों के कार्य-कलापों की आन्तरिक जाँच की जाती है। अलग-अलग विभागों की निष्पादन क्षमता की जाँच करने के लिए आन्तरिक अंकेक्षण आवश्यक होता है। प्रत्येक विभाग एवं व्यक्तिगत दक्षता व निष्पादन क्षमता की तुलना पूर्व-निर्धारित प्रमाप से की जाती है और इस प्रकार इनकी निष्पादन क्षमता में हुए विचलन (Deviation) की जानकारी सर्वोच्च प्रबन्ध को हो जाती है। आनतरिक अंकेक्षण की सहायता से व्यक्तियों (Individual) की दक्षता (Efficiency) को निर्धारित किया जाता है।
19. सीमान्त लागत लेखांकन (Marginal Costing) – इस प्रविधि के व्ययों को दो विभागों में बाँटा जाता है- (1) स्थायी व्यय तथा (2) परिवर्तनशील व्यय। स्थायी व्यय हैं, जो उत्पादन की मात्रा घटने अथवा बढ़ने से अप्रभावित रहते हैं अर्थात् उनमें परितर्वन नहीं होता। दूसरी ओर परितर्वनशील व्यय वे है जो उत्पादन की मात्रा के साथ-साथ घटते अथवा बढ़ते है। इस विधि के प्रयोग से लाभ-लागत तथा उत्पादन मात्रा का विश्लेषण करके अधिकतम लाभ बिन्दु का निर्धारण किया जा सकता है। अतः अल्पकाल में संस्था की उत्पादन क्षमता का समुचित उपयोग करने में यह विधि अत्यन्त उपयोगी साबित हो सकती है।
प्रबन्धकीय लेखाविधि के उद्देश्य (Objective of Management Accounting)
प्रबन्धकीय लेखाविधि का मुख्य उद्देश्य प्रबन्धकीय कार्यों का निष्पादन दक्षतापूर्वक करने हेतु आवश्यक सूचना प्रदान करना है। प्रबन्धकीय लेखाविधि प्रबन्ध को पूर्वानुमान, नियोजन, संगठन, निर्देशन, समन्वय तथा नियन्त्रण में सहायता प्रदान करती है। इसके प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
1. नियाजन व नीति निर्धारण में सहायक (Helpful in Planning and Formaulating Policy)- पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु क्या करना चाहिए, इसे निश्चित करना नियोजन कहलाता है। दूसरे शब्दों में, भविष्य के सन्दर्भ में पूर्व से ही सोचने की प्रक्रिया को नियोजन कहते है। पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु प्रबन्ध योजना बनानी पड़ती है। इस कार्य में प्रबन्धकीय लेखाविधि से काफी मदद मिलती है। उत्पादन, क्रय विक्रय, पूँजी विनियोग, रोकड़ तथा अन्य आवश्यक तथ्यों के पूर्वानुमान के लिए योजना बनाने हेतु आवश्यक सूचनाओं को प्रदान करना होता है। ये सूचनाएँ व्यवसाय के प्रबन्ध को प्रदान की जाती है। प्रबन्ध लेखापाल भूतकालीन ऑकड़ों के आधार पर विवरण-पत्र बनाते हैं एवं भविष्य का अनुमान लगाते है। वे व्यवसाय के सम्बन्ध में अपने व्यक्तिगत विचार भी प्रबन्ध के समक्ष रखते हैं। जिससे प्रबन्धकों को नियोजन करने एवं नीति-निर्धारण के सम्बन्ध में मदद मिलती है। प्रबन्ध लेखाकार लागत, मूल्य, विक्रय उत्पादन, आय तथा लाभ के परिप्रेक्ष्य में विभिन्न विकल्पों का तुलनात्मक अध्ययन करके सर्वोत्तम विकल्प के चुनाव में प्रबन्ध की सहायता करता है। प्रबन्धकीय निर्णय में प्रबन्धकों को वित्तीय समंक, सीमान्त लागतों, प्रमाप लागतों, बजट व अन्य तकनीकों से पर्याप्त सहायता मिलती है।
2. संगठन में सहायता (Helpful in Organizing) – संगठन का तात्पर्य संस्था के विभिन्न कर्मचारियों को संगठित करने से है। जब तक सभी कर्मचारी संगठित होकर कार्य नहीं करेंगे, संस्था का सही विकास कदापि सम्भव नहीं है। कर्मचारियों को संगठित होने अथवा करने में प्रबनधकीय लेखाविधि महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कर्मचारियों को एकजूट करने एवं कार्य में रूचि जगाने के लिए उनके बीच भारार्पण (Delegation of Authority) के सिद्धान्तों को एकजुट करने एवं कार्य में रुचि जगाने के लिए उनके बीच भारार्पण (Delegation of Authority) के सिद्धान्त को भी लागू किया जाता है। प्रत्येक प्रबन्धक अपनी संस्था को सर्वोत्तम ढंग से संगठित करने का प्रयास करता है। उसके लिए विभिन्न व्यक्तियों के बीच दायित्वों का बँटवारा तथा अधिकार अनतरण (Delegation of Authority) ये दोनों कार्य संगठन के अनतर्गत सम्मिलित किये जाते है । प्रबन्धकीय लेखाविधि बजट तथा लागत के केन्द्रों पर विशेष बल देती है। बजट व लागत केन्दों की सहायता से विभिन्न अधिकारियों/कर्मचारियों के बीच दायित्वों का बँटवारा किया जा सकता है। इसके अलावा विनियोजित पूँजी पर प्रत्याय ( Return) की दर ज्ञात करके बजट व लागत केन्द्रों की प्रभावशीलता या लाभदायता की जाँच की जा सकती है। जाँच के आधार पर आवश्यकतानुसार विभागों में सुधार लाये जा सकते हैं या सम्बन्धित किसी खास अधिकारी को अपने दायित्वों के प्रति सजग होने का अदेश दिया जा सकता है। निरन्तर जाँच की प्रक्रिया लागू होने से कर्मचारीगण स्वयं सजग हो जाते है। इस प्रकार प्रबन्धीय लेखाविधि सुव्यवस्थिति एवं सुदृढ़ संगठन की स्थापना में सहायता प्रदान करती है।
3. कर्मचारियों को अभिप्रेरित करना (Motivating of Employees)- प्रबन्धकीय लेखाविधि का उद्देश्य कर्मचारियों को कार्य के प्रति अभिप्रेरित करना है, इसके लिए प्रभावपूर्ण एवं कुशल नेतृत्व की आवश्यकता होती है। वस्तुतः प्रभावपूर्ण एवं कुशल नेतृत्व तभी सम्भव है जब प्रबन्ध को निरन्तर विभिन्न गतिविधियों की सही-सही सूचना मिलती रहे। इसके लिए प्रबन्ध लेखापाल प्रबन्ध के समक्ष प्रेरणा – योजनाओं एवं अन्य महत्वपूर्ण सुझावों को रखता है। यह सूचनाओं के सृजन व प्रस्तुतीकरण से प्रबन्धकों के ज्ञान में वृद्धि करने का वातावरण तैयार करता है। इस प्रकार वे अभिप्रेरित होकर अपने कार्यों को सर्वोत्तम ढंग से करने का भरपूर प्रयास करेंगे।
4. समन्वय का उद्देश्य (Object of Co-ordination)- किसी भी संस्था का प्रबन्ध विभिन्न क्रियाओं के बीच समन्वय तथा तालमेल स्थापित करने का प्रयास करता है, ताकि सम्बन्धित विभाग अधिक कुशलता के साथ संचालित किये जा सकें। प्रबन्धकीय लेखाविधि प्रबन्ध के समक्ष उन औजारों (Tools) को प्रस्तुत करती है जिनकी सहायता से संस्था के विभिन्न विभागों के कार्य-कलापों में समन्वय स्थापित किया जाना सम्भव हो पाता है। इस समन्वय का कार्य क्रियात्मक बजटिंग की सहायता से किया जाता है। प्रबन्ध लेखापाल समन्वय के सम्बन्ध में मध्यस्थ की भूमिका निभाता है।
5. प्रबन्ध को सूचना देना (Reporting to Management)- यहाँ सूचना का तात्पर्य संस्था के अन्तर्गत कार्यरत कर्मचारियों (प्रबन्धकों तथा कर्मचारियों) तथा संस्था एवं बाहरी व्यक्तियों (ग्राहकों, ऋण-पत्रधारियों, बैकों तथा सरकारी अधिकारियों) के बीच निर्देशों (Orders) एवं सूचनाओं के आदान-प्रदान करने से है। प्रबन्धकीय लेखाविधि का प्रारम्भिक उद्देश्यों प्रबन्ध को ताजी सूचनाओं (Up-to-date Informations) से अवगत कराना है। समय-समय पर व्यवसाय की स्थिति के सम्बन्ध में प्रबन्ध को सूचित करते रहना प्रबन्धकीय लेखाविधि का एक महत्वपूर्ण कार्य है। उच्चस्तरीय प्रबन्ध को विभिन्न विभागों के कार्य निष्पादन के सम्बन्ध की सतत् सूचना प्रदान करना भी प्रबन्धकीय लेखाविधि का उद्देश्य होता है। यदि सूचना सम्प्रेषण का कार्य सही ढंग से नहीं होता तो व्यवसाय की समस्त क्रियाएँ, जैसे- संगठन, समन्वय, नियन्त्रण, नियोजन, नीति- निर्धारण आदि कभी भी समय पर नहीं हो सकती। संस्था के कर्मचारियों को संस्था की प्रगति के समबन्ध में सूचित करने के लिए प्रकृति चित्र, संक्षिप्त लेखे तथा विवरण तैयार किये जा सकते है। इसके लिए सम्बन्धित सूचना को प्रभावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने, व्याख्या करने तथा उचित सन्दर्भ में उसका प्रयोग अति आवश्यक होता है।
6. निर्णयन में सहायक (Helpful in Decision-making) – उच्चस्तरीय प्रबन्ध का एक महत्त्वपूर्ण कार्य संस्था से सम्बन्धित निर्णय लेना होता है। निर्णयन से तात्पर्य विभिन्न विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ विकल्प का चुनाव करने से है। किसी भी संस्था के प्रबन्ध (Management) की विभिन्न मामलों पर निर्णय लेना होता है, ये मामले हैं- पूँजी-व्यय, स्वयं उत्पादन अथवा क्रय किया जाना, मूल्य निर्धारण, विक्रय नीति आदि। इन समस्त समस्याओं के सम्बन्ध में श्रेष्ठाम निर्णय हेतु प्रबन्ध के समक्ष वैकल्पिक योजनाओं की तुलनात्मक स्थिति रखना प्रबन्ध लेखापाल का कार्य है। इसके लिए पूँजी बजटिंग, सीमान्त परिव्ययन, सम-विच्छेद विश्लेषण लाभ मात्रा विश्लेषण, परियोजना- मूल्यांकन, आदि तकनीकों का प्रयोग किया जाता हैं। प्रबन्धयकीय लेखाविधि का उद्देश्य प्रबन्ध को विभिन्न व्यावसायिक मामलों पर निर्णय लेने में सहायता करना । उदाहरणतः श्रमिकों की जगह पर नयी तकनीक की मशीनों को लाने का मामला हो सकता है। इसके लिए प्रबन्ध लेखापाल विभिन्न विकल्पों की रिपोर्ट तैयार करता है जिसके आधार पर प्रबन्ध सही निर्णय लेने में सक्षम हो पाता है।
7. निष्पादानों के नियन्त्रण में सहायक (Helpful in Controlling Performance)- नियन्त्रण का तात्पर्य पूर्व-निर्धारित तथा वास्तविक लक्ष्यों में एकरूपता है या नहीं, इस ख्याल से वास्तविक परिणामों की सतत् (Continuous) जाँच करते रहना तथा दोनों परिणामों में अन्तर होने पर सुधारात्मक कार्य करने से है। प्रबन्ध कार्यों में नियन्त्रण का सर्वोपरि स्थान है। समुचित नियन्त्रण के अभाव में वांछित लक्ष्यों को कदापित प्राप्त नहीं किया जा सकता है। संस्था की विभिन्न गतिविधियों पर नियन्त्रण रखने के लिए प्रबन्धकीय लेखा विधि में अनेक युक्तियों का प्रयोग किया जाता है।
प्रबन्ध लेखांकन बाह्य पक्षों की गतिविधियों के नियन्त्रण में भी पर्याप्त सहायता करता है। प्रबन्ध कार्यों की प्रभावशीलता के विभिन्न पक्षों को अवगत कराने हेतु वार्षिक विवरणों का प्रकाशन किया जाता है। ये सूचनाएँ अंशधारियों, लेनदारों तथा सामान्य जनता के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती है। वस्तुतः प्रबन्धकीय लेखाविधि प्रबन्ध नियन्त्रण की एक सही तरकीब है। बजटरी कण्ट्रोल एवं प्रमाप परिवव्ययन इसी उद्देश्य की पूर्ति करते है। इन तकनीकों की सहायता से ही प्रबन्ध, प्रबन्ध नियन्त्रण में सफल होता है।
8. वित्तीय सूचनाओं के निर्वचन में सहायक (Helpful in Interpretation of Financial Informations) – प्रबन्धकीय लेखाविधि का उद्देश्य विभिन्न विवरणों का निर्वाचन करना एवं उसके बाद प्रबन्ध को सूचित करना होता है, अतः प्रबन्धकीय लेखाविधि का उद्देश्य वित्तीय विवरणों एवं अन्य वित्तीय सूचनाओं को प्रबनध के समक्ष सरल एवं बोधगम्य रूप में प्रस्तुत करना होता है। वस्तुतः लेखांकरन एक तकनीकी विषय है। प्रबन्ध के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह लेखांकन तकनीक की प्रत्येक सूक्ष्मता को समझे। अतः प्रबन्ध लेखापाल लेखाकर्म सूचना को विभिन्न तकनीकों का प्रयोग से विश्लेषित (Analysis) कर प्रबन्ध के समक्ष सरल व बोधगम्य भाषा में प्रस्तुत करता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रबन्ध लेखापाल विभिन्न तुलनात्मक विवरण (Comparative Statement) तैयार करता है। इसके लिए सांख्यिकीय विधियों एवं चार्ट का भी प्रयोग किया जाता है।
9. कर-प्रशासन में सहायता (Helpful in Tax Administration)- इन दिनों व्यवसाय पर सरकारी नियन्त्रण की मात्रा बढ़ती जा रही है। आज व्यवसाय पर कर की समस्या भी एक महत्वपूर्ण समस्या है। इसके सम्बन्ध में प्रबन्धकीय लेखाविधि हर प्रकार की कानूनी आवश्यकताओं पूरा करने में प्रबन्ध की सहायता करती है।
10. कानूनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने में सहायता करना (To Help in Fulfilling Legal Requirements) – वर्तमान व्यवसाय पर सरकारी नियन्त्रण एवं कानूनी आवश्यकताएँ इतनी अधिक हो गयी है कि व्यवसाय के लिए कानूनी अनिवार्यताओं की पूर्ति करना आवश्यक हो गया है। प्रबन्धकीय लेखाविधि इस कार्य में सहायता प्रदान करती है। प्रबन्धकीय लेखाविधि में लेखों, प्रतिवेदेनों आदि के प्रारूप इस प्रकार तैयार किये जाते है, ताकि किसी भी समय कानूनी आवश्यकता को पूर्ण किया जा सके।
प्रबन्धकीय लेखांकन की तकनीकें अथवा पद्धतियाँ (Techniques or methods of Management Accounting)
प्रबन्ध के समक्ष विभिन्न सूचनाओं को प्रस्तुत किया जा सके, इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए विभिन्न तकनीकों (Tecniques) की आवश्यकता पड़ती है जो निम्नलिखित हैं-
1. प्रमाप परिव्ययन (Standard Costing)- प्रमाप परिव्ययन प्रबन्धकीय निर्णयों के लिए एक प्रचलित एवं आवश्यक उपकरण है। किसी भी व्यवसाय की सफलता के लिए आवश्यक है कि उसका उत्पादन पूर्व निर्धारित लक्ष्य के अनुरूप हो । व्यवसाय में उत्पादन पूर्व-निर्धारित लक्ष्य के अनुरूप हुआ या नहीं, इसके लिए एक मापदण्ड की आवश्यकता होती है। प्रमाप लागत इसी मापदण्ड का कार्य करती है। प्रमाप परिवव्ययन परिव्ययों पर नियन्त्रण की एक विशिष्ट तकनीक है। इसके अन्तर्गत परिव्यय प्रमाप पहले ही निश्चित कर दिये जाते है और इसके बाद कार्य सम्पादन के बाद वास्तविक परिव्ययों की इससे तुलना की जाती है। यदि दोनों में प्रतिकूल विवरण पाये जाते है तो इन्हें दूर करने का प्रयास किया जाता है।
2. सीमान्त परिवव्ययन (Marginal Costing) – सीमान्त लागत एक ऐसी लागत होती है जो वस्तु की अतिरिक्त इकाइयाँ निर्मित करने पर उत्पन्न होती है। यदि अतिरिक्त इकाइयों का उत्पादन नहीं किया जाय तो सीमान्त लागत उत्पन्न नहीं होगी। किसी वस्तु के उत्पादन में एक इकाई की वृद्धि करने से लागत में जो वृद्धि होती है, उसे सीमान्त लागत कहते हैं। उदाहरणार्थ, यदि वर्तमान में 100 इकाइयों का उत्पादन किया जा रहा हो। एवं बाद में उत्पादन बढ़ाकर 101 वी इकाई कर दिया जाय तो 101 वीं इकाई की लागत को ही सीमान्त लागत कहेंगे। यह परिव्यय लेखांकन विधि में होने वाले परिवर्तनों से सम्बन्धित है जो कि उत्पादन में परितर्वन के कारण उत्पन्न होते हैं। इस तकनीक के अन्तर्गत उत्पादन लागतों को दो भागों में विभाजित किया गया है।
(1) परिवर्तनशीलं व्यय एवं (2) स्थायी व्यय । परिवर्तनशील व्यय जिसे सीमान्त व्यय भी कहते हैं, से विभागों की लाभदायतकता की जानकारी होती है। व्यवसाय में स्थायी व्यय वे व्यय हैं जो उत्पादन की मात्रा से प्रभावित नहीं होते बल्कि वे स्थायी (Fixed) ही रहते हैं।
3. निर्णय लेखाविधि (Decision Accounting)- किसी व्यवसाय की स्थापना से लेकर उसकी गतिविधयों के सही संचालन तथा उसके विकास को गति प्रदान करने के लिये प्रबन्ध के समक्ष अनेक विकल्प होते हैं। उन विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ व लाभप्रद विकल्प या तरीकों का चुनाव ताकि सभी कार्य न्यूनतम लागत तथा कम से कम समय में सरलतापूर्वक सम्पन्न हो जायें, निर्णयन कहलाता है। निर्णयन की आवश्यकता खास कर उन सभी कार्यों में होती है जहाँ एक से अधिक विकल्प उपलब्ध हो। जहाँ किसी कार्य को एक ही तरह से किया जा सकता है, वहाँ निर्णयन की आवश्यकता नहीं होती है। किसी भी व्यवसायिक संस्था में निर्णयन एक महत्वपूर्ण कार्य होता है। क्योंकि निर्णयन के अन्तर्गत अनेक विकल्पों में से किसी सर्वश्रेष्ठ विकल्प को ढूँढना होता है। जोकि सर्वमान्य तथा सर्वश्रेष्ठ हो, व्यक्ति विशेष के दृष्टिकोण मात्र से ही नहीं। इस लेखाविधि से ‘प्रयोग और भूल’ (Trial and Error) जैसी अवैज्ञानिक पद्धति के दोषों से बचा जा सकता है।
4. नियन्त्रण लेखाविधि (Control Accounting)- नियन्त्रण लेखाविधि अपने आप में से कोई अलग लेखाविधि नहीं है। वस्तुतः बजटरी नियन्त्रण एवं प्रमाप परिवव्ययन इन दोनों तकनीको से ही लागत नियन्त्रण का उद्देश्य पूरा हो जाता है। इसके अन्तर्गत प्रबन्ध लेखापाल (Management Accountant) अपनी वृद्धि, कौशल, कल्पना तथा प्रतिभा से प्रबन्धों को कुछ उपयोगी सूचना प्रदान कर सकते है। ऐसा करने के लिए उन्हें सूचनाओं की व्याख्या, विश्लेषण एवं प्रस्तीतीकरण करना पड़ता है। हाँ, इनके अलावा आन्तरिक व वैधानिक अंकेक्षण को भी नियन्त्रण के लिए प्रयोग किया जा सकता है। कई लेखक उत्तरदायित्व लेखांकन (Responsiblity Accounting) को भी नियन्त्रण कर एक उपयोगी अंग मानते है। इसके अन्तर्गत लागत सूचनाओं को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है, ताकि सम्बन्धित अधिकारी को उसके कार्य के लिए उत्तदायी ठहराया जा सके।
5. बजटरी नियन्त्रण (Budgetary Control)- आधुनिक युग में लागतो को नियन्त्रित करने तथा लाभ की मात्रा को अधिकतम करने के उद्देश्य से बजटरी नियनत्रण का महत्व एक प्रबन्धकीय अस्त्र के रूप में बढ़ता जा रहा है। प्रबन्ध लागतों को कम करने, बर्बादी को रोकने तथा लागत एवं आय में उचित सामंजस्य स्थापित करने में भी तभी सफल हो सकता है जब उत्पादन के भिन्न-भिन्न साधनों को समुचित ढंग से समायोजित किया जाय। यह कार्य तभी सम्भव हो सकता है, जब उत्पादन के भिन्न-भिन्न साधनों के समुचित ढंग से समायोजित किया जाय। यह कार्य तभी सम्भव है, जब व्यावसायिक संस्थाओं के लिए अग्रिम (Advance) रूप से योजनाएँ (Planning) बनायी जायें वास्तविक उपलब्धि की प्रमापित उपलब्धि से तुलना की जाय तथा विवरणों की जाँच की जाय। इस उद्देश्य की पूर्ति में बजटरी नियन्त्रण अत्यन्त सहायक सिद्ध होता है। बजटरी नियन्त्रण एक ऐसी तकनीक है जो एक निश्चित समय पूर्व ही बजट बनाकर विभिन्न कार्यकताओं के उत्तरदायित्व को निश्चित कर देती है। जब कार्य कर दिये जाते हैं तो प्राप्त परिणामों की तुलना बजट के निर्धारित लक्ष्य से की जाती है। इससे संस्था की कार्यकुशलता की जानकारी प्राप्त होती है।
6. वित्तीय विश्लेषण (Financial analysis)- वर्तमान समय में व्यावसायिक संस्थओं के कार्य एवं व्यवहारों का स्वरूप अत्यन्त जटिल तथा व्यापक हो गया है। अतः व्यवसाय की गतिविधियों के विषय में किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए तथा उसके नियम व नियन्त्रण के लिए सहज ज्ञान पर नहीं रहा जा सकता है। इसके लिए वित्तीय विवरणों के विस्तुत विश्लेषण एवं निर्वचन की आवश्यकता होती है।
वित्तीय विश्लेषण द्वारा प्रेषित सूचनाएँ प्रबन्धकों, प्रशासकों तथा ऋणदाताओं को किसी निश्चित निर्णय पर पहुँचाने में सहायक तो होती है, इससे भावी आय अर्जन, ऋण पर ब्याज दे सकने की उपक्रम की क्षमता तथा उचित लाभांश नीति की सम्भावना आदि के बारे में भी जानकारी प्राप्त होती है। वित्तीय विलेषण के अन्तर्गत रोकड़-प्रवाह, कोष-प्रवाह, अनुपात विश्लेष इत्यादि आते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य वित्तीय विवरणों के तथ्यों का वैज्ञानिक रीति से विश्लेषण कर महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकलना है।
7. वित्तीय आयोजन (Financial Planning)- वित्तीय नियोजन संस्था के मूलभूत लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक आधारशिला है। वित्तीय नियोजन के अन्तर्गत व्यवसाय हेतु दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन पूँजी के प्रबन्ध हेतु भावी गतिविधियों की योजना बनाने का कार्य आता है, ताकि भविष्य में किसी प्रकार का वित्तीय संकट नहीं उत्पन्न हो सकें एवं संस्था का कार्य बिना बाधा के चलता रहे। वित्तीय आयोजन का तात्पर्य पूर्व-र्धािरित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु आवश्यक वित्त की व्यवस्था करने से है। इसके अर्न्तगत वित्तीय प्राप्त के स्रोतों को निर्धारित करना, अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन ऋणों की सीमा निर्धारित करना, पूर्वाधिकार एवं समता अंशों की मात्रा निर्धारित करना, व्यवसाय की साख नीति निर्धारित करना इत्यादि आते हैं।
8. पुनर्मूल्यन लेखाविधि (Revaluation Accounting)- मूल्य स्तर में परितर्वन की समस्या के समाधान हेतु ही पुनर्मूल्यांकन विधि का प्रयोग किया जाता है। इस विधि के अन्तर्गत फर्म के खाते पुराने तरीके से ही तैयार किये जाते हैं किन्तु इस विधि से वित्तीय लेखों के मदों को चालू मूल्यों पर दिखाया जाता है, ताकि वित्तीय विवरण संस्था के लिए व्यवसाय का सच्चा चित्र प्रस्तुत कर सके। इसे प्रतिस्थानापन्न लेखाविधि के रूप में भी जाना जाता है। प्रबन्ध का मुख्य उद्देश्य व्यवसाय की पूँजी को सुरक्षित रखना होता है। लाभ की गणना इस प्रकार की जाती है, ताकि पूँजी सुरक्षित रहें। मूल्य-स्तर की वृद्धि की स्थिति में यदि ह्रास की गणना सम्पत्ति की मूल लागत पर की जाती है तो लाभ हानि खाते पर ह्रास का कम प्रभाव पड़ता है जिससे लाभ की मात्रा बढ़ जाती है। यदि इस लाभ का वितरण लाभांश के रूप में कर दिया जाता है तो इसका तात्पर्य है लाभांश के रूप में पूँजी का वितरण। अतः पुनर्मूल्यांकन लेखाविधि का उद्देश्य लेखाविधि की इस कमी को दूर करना है।
9. प्रबन्ध सूचना विधि (Management Information system) – इसका तात्पर्य समय-समय पर प्रबन्ध को कार्य परिणामों के सम्बन्ध में सूचना प्रदान करना है। ऐसे तथ्य जिन्हें प्रकाशित किया जा सकता है इनके लिए प्रतिवेदन, विवरण, चित्रमय प्रदर्शन, बिन्दुरेखीय प्रदर्शन, चार्ट एवं प्रतिगमन रेखाएँ आदि तकनीके प्रयोग में लायी जाती है।
10. कोष प्रवाह विवरण (Fund Flow Statement)- किसी संस्था के दो स्थिति विवरणों के बीच संस्था के कोषों के परिवर्तनों के अध्ययन के लिए बनाया गया विवरण कोष-प्रवाह वितरण कहलाता है। अतः कोष-प्रवाह विवरण दो आर्थिक चिट्ठों या विवरणों के मध्य विभिन्न मदों में हुए परिर्वतनों को बताता है। कोष प्रवाह विवरण से यह जानकारी हो पाती है कि अतिरिक्त कोष की प्राप्ति किन-किन स्रोतों से हुई है तथा उकना कहाँ-कहाँ प्रयोग हुआ है। वित्तीय विश्लेषण, तुलानात्क अध्ययन एवं भावी नियन्त्रण के लिए यह विधि आवश्यक पथ-प्रदर्शन करती है।
11. ऐतिहासिक लागत लेखांकन (Historical Cost Accounting)- ऐतिहासिक लागत लेखांकन का अर्थ लागतों को उनके उदित होने की तिथि से तुरन्त बाद अंकन करने से है। मूल रूप से उपकार्य लागत लेखांकन (Job Costing) तथा प्रक्रिया लागत लेखांकन (Process Costing) है, तथापि इन विधियों का प्रयोग प्रमाप लागत लेखांकन (Standard Costing) का सफलता के लिए अत्यन्त आवश्यक है।
12. रोकड़ प्रवाह वितरण (Cash Flow Statement)- आधुनिक समय में व्यवसाय के प्रबन्धकों को यह जानकारी रखना अति आवश्यक होता है कि रोकड़ कोषों के विभिन्न स्रोत क्या. हैं तथा रोकड़ के इन स्रोतों का व्यवसाय में किस प्रकार उपयोग किया जाता है। यह जानकारी हमें रोकड़ – प्रवाह विवरण से होती है। इस प्रकार रोकड़ प्रवाह विवरण एक विशिष्ट प्रकार का विवरण होता है जो दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, त्रैमासिक, वार्षिक या अन्य किसी निश्चित समय के अन्तर से तैयार किया जा सकता है। यह विवरण किन्हीं दो अवधियों के बीच व्यवसाय के रोकड़ शेष के हुए परिवर्तनों के कारण की व्याख्या करता है।
13. सांख्यिकीय चार्ट तथा ग्राफ टेकनीक (Statistical Charts and Graph Technique) – प्रबन्धकीय लेखांकन के अन्तर्गत अनेक सांख्यिकीय चार्ट तथा ग्राफों का भी प्रयोग किया जाता है। इनके प्रयोगों से एक दृष्टि से मोटे तौर पर समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। विक्रय लाभ चार्ट, विनियोग चार्ट, प्रतीपगमन रेखाएँ (Regressioon Lines ), रेखीय कार्यक्रम (Linear Programming), सांख्यिकीय किस्म नियन्त्रण (Statistical Quality Control) इस प्रकार की तकनीकें हैं।
प्रबन्धकीय लेखाविधि की प्रथाएँ या नियम (Conventions and Rules of Managment)
समय-समय पर परिवर्तन के परिणामस्वरूप उत्पन्न समस्याओं के निराकरण हेतु जो रीतियाँ प्रयोग में लायी जाती है, उन्हें प्रथाएँ कहते हैं। अन्य विषयों की तरह प्रबन्धकीय लेखाविधि के खास नियम या सिद्धान्त नहीं हैं। इसके अन्तर्गत समयानुसार विकसित कुछ परम्पराएँ हैं जो प्रबन्ध की मदद करती हैं, ये प्रथाएँ निम्नलिखित है-
1. उत्तरदायित्व की प्रथा (Conventions of Responsibility) – इस प्रथा के अनुसार संगठन के प्रत्येक स्तर में ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति की जानी चाहिए जो सम्बन्धित कार्य के दायित्व को भली-भाँति समझ सकें। इस सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य यह है कि व्यक्तियों को जहाँ कुछ कार्यों को करने के लिए प्रात्साहित किया जाए। वहीं कुछ कार्यों को न करने के लिए प्रेरित किया जाए। वस्तुतः इस प्रथा के अन्तर्गत उत्तरदायी व्यक्ति को ढूंढा जा सकता है। इस प्रथा के अन्तर्गत केवल यही नहीं पता चलता है कि संस्था में क्या हो रहा है बल्कि यह भी पता चलता है कि उसके लिए कौन व्यक्ति उत्तरदायी है।
2. प्रबन्ध का अपवाद प्रथा (Exception Convention of Managment)- इस प्रथा के अनुसार प्रबन्ध को अपना ध्यान केवल महत्वपूर्ण मामलों पर केन्द्रित करना चाहिए और जो मामले साधारण हों, उन्हें नियन्त्रित मान लिया जाता है। वे क्रियाएँ जो साधारण रूप में गत वर्ष की तरह योजनानुसार संचालित हो रही हों, पर विशेष ध्यान देने की जरूरत नहीं होती है। वस्तुतः प्रबन्धकों के समक्ष न्यूनतम सूचनाएँ इस प्रकार प्रस्तुत की जानी चाहिए, ताकि सभी महत्वपूर्ण सूचनाएँ उनके सामने आ जायें, साथ ही उन्हें पढ़ने व समझने में कम समय लगे तथा आवश्यक कार्यवाही हेतु उनके पास कुछ समय बचा रहे।
3. मुख्य क्षेत्र की प्रथा (Conventions of the Key Areas) – इस प्रथा के अन्तर्गत कुछ ऐसे मुख्य संचालन क्षेत्र होते है जिनकी सफलता या असफलता पर पूरे व्यवसाय की सफलता या असफलता निर्भर करती है। लेखांकन सूचना प्रणाली ऐसी होनी चाहिए, ताकि इन मुख्य क्षेत्रों के सम्बन्ध में सूचना शीघ्र प्राप्त की जा सके। व्यावसायिक क्रियाओं का नियन्त्रण इस ढंग से होना चाहिए, ताकि इन क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिया जा सके। उदाहरण के लिए, कुल कर्मचारियों का कुछ ही प्रतिशत औद्योगिक सम्बन्धों को खराब कर देता है, वस्तुओं के गुणों में कुछ ही प्रतिशत की कमी अधिकांश ग्राहकों को असन्तुष्ट कर देती है, इन्हीं कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर नियन्त्रण करके प्रबन्ध व्यवसाय की सीमाओं का निराकरण कर सकता है।
4. लोचनीयता की परम्परा (Convention of Flexibility)- लेखांकन सूचनाएँ, अभिलेख, प्रतिवेदन, विवरण आदि की अभिकल्पना व्यवसाय अथवा समस्या विशेष की आवश्यकताओं के अनुरूप होनी चाहिए। दूसरे शब्दों में लेखांकन पद्धति में लोचनीयता होनी चाहिए। जब किसी विशेष समस्या का समाधान निकलना हो तो लेखांकन पद्धति समंक उपलब्ध कराने योग्य होनी चाहिए। इसके लिए दोहरी लेखे प्रविष्टि प्रणाली का भी प्रयोग किया जा सकता है। लेखांकन तथा क्रियात्मक शोध सिद्धान्तों के बीच सामंजस्य स्थापित किया जाना चाहिए। आवश्यकतानुसार लेखांकन सूचना को रूपान्तरित कर प्रयोग में लाना चाहिए।
5. पुनर्मूल्यांकन लेखांकन की प्रथा (Convention of Revalution Accounting)
सही अर्थ में पूँजी को अक्षुण्य (Infact) रखकर भी लाभ अर्जित करना चाहिए। अतः अत्यधिक मुद्रा स्फीति के समय पुनर्मूल्यन लेखाविधि के सिद्धान्तों का प्रयोग किया जाना चाहिए। दूसरों शब्दों में, परिवर्तन की स्थिति में मुद्रा मूल्यों का समायोजन करके ही लाभ की गणना की जाना चाहिए, किन्तु अभी इस प्रणाली को सामान्य स्वीकृति प्राप्त नहीं हुई है किन्तु वर्तमान के मूल्य वृद्धि को ध्यान में रखते हुए अधिकांश लेखापाल इस विचारधारा की ओर सोचने लगें है।
6. व्यक्तिगत सम्पर्क की परम्परा (Convention of Personal Contact)- विभागीय प्रबन्धकों, फोरमैनों व अन्य के साथ व्यक्तिगत सम्पर्क को प्रतिवेदनों और विवरणों से प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता। इसका अर्थ यह हुआ कि व्यक्तिगत सम्पर्क नियोजन, समन्वय, अभिप्रेरणा तथा संवहन की क्रिया में सुधार लाता है जिससे लागत नियन्त्रण का उद्देश्य पूरा होता है। अतः उत्पादन, विक्रय एवं अन्य कार्यात्मक कर्मचारियों से समितियाँ आदि के अतिरिक्त अन्य तरीकों से व्यक्तिगत सम्पर्क आवश्यक है।
7. दूरदर्शिता की परम्परा (Conventions of Looking Approach) – प्रबन्ध लेखांकन से सम्बन्धित समस्याओं का पूर्वानुमान कर उन्हें रोकने का प्रयास किया जाना चाहिए। इसके लिए भविष्य की ओर दृष्टि रखने की प्रवृत्ति होनी चाहिए तथा वास्तविक लागतों का उपयोग केवल प्राप्त उपलब्धियों के माप के लिए ही किया जाना चाहिए। इससे बजटरी नियनत्रण एवं प्रमाप लागत की महत्ता झलकती है।
8. नियन्त्रणीय एवं अनियन्त्रणीय लागतों की परम्परा (Convention of Controllable and Uncontroolable Costs)- उत्तदायित्व का निर्धारण करते समय अनियन्त्रणीय लागतों तथा नियन्त्रणीय लागतों में अन्तर स्पष्ट किया जाना चाहिए। ऐसा करने से किसी विभाग अथवा केन्द्र की कुशलता या अकुशलता का माप सम्भव हो पाता हैं क्योंकि अनियन्त्रणीय लागतों में कमी करना सम्भव नहीं होता है। इस उद्देश्य से उत्तदायित्व लेखांकन पद्धति का उपयोग किया जा सकता है।
9. उपरिव्ययों के अनुभाजन की परम्परा (Convention of Approtionment of Overheads)- इस परम्परा के अनुसार उपरिव्ययों का अनुभाजन लागत केन्द्रों के आधार पर किया जाता है तथा उत्पादों पर प्राप्त लाभ के आधार पर वसूली की जाती है। इसके लिए ऐसी पद्धति का चुनाव किया जाना चाहिए जो उपरिव्ययों की निष्पक्षतापूवर्क वस्तुली से वांछित परिणाम दे सके।
10. एकीकरण की परम्परा (Convention of Integration)- इस परम्परा के अनुसार समस्त प्रबन्ध लेखांकन सूचनाओं का एकीकरण किया जाता है। ऐसा करने से उपलब्ध तथ्यों का भरपूर लाभ उठाया जा सकता है तथा लेखांकन सेवा न्यूनतम लागत पर उपलब्ध करायी जा सकती है।
11. उपयुक्त साधन की परम्परा (Convention of Appropriate Means)- लेखांकन सूचनाओं के संकलन, अभिलेखन और प्रस्तुतीकरण में सर्वाधिक उपयुक्त विषयों का चुनाव किया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि जहाँ तक सम्भव हो, यान्त्रिीकरण को अपनाया जाय किन्तु यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक व्यवसाय में कम्पूटर (Computer) का प्रयोग किया जाय। चयनित मशीनें ऐसी होनी चाहिए जिन्हें मितव्ययियतापूर्वक लगाया जा सके तथा जिनके व्यावसायिक समस्याओं का हल निकाला जा सकें।
12. पूँजी पर प्रत्यायय दर की परम्परा (Convention of Return on Investment) – व्यवसाय की कुशलता तथा साधनों के प्रभावी प्रयोग का माप ‘प्रयुक्त पूँजी पर प्रत्याय’ के आधार पर किया जाना चाहिए। इसके लिए प्रयुक्त पूँजी की गणना वर्तमान प्रतिस्थापन मूल्यों पर की जानी चाहिए।
13. उपयोगिता की परम्परा (Convention of Utility)- इस परम्परा के अनुसार प्रबन्ध लेखांकन की किसी भी विधि का प्रयोग तभी तक किया जाना चाहिए जब तक उससे व्यवसाय के उद्देश्यों की पूर्ति होती है। इसका अर्थ यह भी कि प्रबन्ध लेखांकन की कोई भी पद्धति स्थायी नहीं होती है, समयानुसार पद्धति में बदलाव की आवश्यकता होती है। यदि पद्धति से व्यवासाय की आवश्यकाओं की पूर्ति नहीं हो रही हो तो उससे चिपके रहना उपयुक्त नहीं होता है।
14. स्त्रोतों पर नियन्त्रण लेखांकन की परम्परा (Convention of Control at Source Accounting)- विभिन्न लागतों को उनके उदय होने के बिन्दुओं पर ही नियन्त्रित किया जाना चाहिए अर्थात् जब किसी वस्तु या सेवा के उत्पादन पर कोई व्ययय किया जाता है, उसी समय पर नियन्त्रण करना उपयुक्त होता है। ऐसा करने के लिए विभागीय परिपालन विवरणों एवं लागत लेखांकन पद्धति का लागू किया जाना आवश्यक है। इसे उद्गम स्थान पर नियन्त्रण लेखांकन के नाम से भी जाना जाता है।
15. साधनों के उपयोग की परम्परा (Convention of Utilization of Resources) – इस परम्परा के अनुसार प्रबन्ध लेखापाल को यह देखना चाहिए कि संस्था के साधनों का अधिकतम कुशलता से प्रयोग करने का प्रयास किया जा रहा है या नहीं।
प्रबन्धकीय लेखांकन का क्रामिक विकास (Evolution of Management Accounting)
किसी संस्था के कुशल प्रबन्धन के लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन, शोध, विस्तार, उत्पादन-सुधार, उत्पाद-विविधता एवं बाजार के विस्तार आदि अनेक तथ्यों पर ध्यान देना तथा उनके सम्बन्ध में सुनिश्चित योजनाएँ बनाना अति आवश्यक हो गया है। ये तथ्य तथा इनके सम्बन्धित समस्याओं ने यह सिद्ध कर दिया है कि वित्तीय लेखांकन अपने परम्परागत रूप में प्रबन्धकीय कुशलता में वृद्धि नहीं कर सकता। वस्तुतः द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वित्तीय लेखांकन के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती रही है। गला काट प्रतियोगिता के कारण औद्योगिक एवं व्यावसायिक संस्थाओं के जीवित रहने के लिए प्रबन्धकीय कुशलता में वृद्धि करना अत्यन्त आवश्यक हो गया है। यह निर्विवाद सत्य है कि न्यूनतम लागत पर ही अधिकतम लाभ का उपार्जन सम्भव है। अधिकतम लाभ, न्युनतम लागत सामाजिक हित व राष्ट्रीय विकास में सहायोग आदि उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये यह नितान्त आवश्यक हो गया है कि प्रबन्ध को प्रत्येक क्रिया का सम्पादन वैज्ञानिक तरीके से एवं सही समय पर किया जाय। वैज्ञानिक एवं विवेकपूर्ण ढंग से समस्याओं के निराकरण सम्पादन वैज्ञानिक तरीके से एवं सही समय पर किया जाय। वैज्ञानिक एवं विवेकपूर्ण ढंग से समस्याओं के निराकरण हेतु यह भी आवश्यक है कि नित्य प्रति घटित होने वाली घटनाओं की सूचना सम्बन्धित व्यक्तियों को शीघ्र दे दी जाये।
वास्तव में, आज उपलब्ध भौतिक एवं मानवीय साधनों का संयोजन एवं उनका उपयोग योजनाबद्ध रूप में आवश्यक हो गया है। कोई भी प्रबन्ध तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक कि वह भौतिक व मानवीय साधनों के बीच समन्वय (Co-ordination) स्थापित नहीं कर लें। एक सुनिश्चित योजना का निर्माण समस्त क्रियाओं का संगठन, उनमें समन्वय तथा उन पर नियन्त्रण आदि की सफलता सूचनाओं के संवहन तथा आँकड़ों की उपलब्धता पर निर्भर करती हैं। आज की प्रबन्ध व्यवस्थाओं में सूचनाओं का सतत् (Continuous) प्रवाह अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि इन्हीं सूचनओं के आधार पर प्रबन्धक आवश्यक निर्णय ले सकते हैं तथा साधनों के उचित प्रयोग एवं उन पर नियन्त्रण करने सम्बन्धी योजनाओं के निर्माण में सफल हो सकते है। इन्हीं परिस्थितियों ने वित्तीय लेखांकन के स्वरूप में क्रान्तिकारी परितर्वन पर बल दिया है और जिसके परिणामस्वरूप ही प्रबन्धीय लेखाविधि का जन्म हुआ है।
प्रारम्भ में लेखाविधि का कार्य क्षेत्र लेन देन के अभिलेखन तथा लाभ-हानि व आर्थिक चिट्ठा तैयार करने तक सीमित था। हालंकि, ये सूचनाएँ भी कम महत्वपूर्ण नहीं होती है किन्तु भावी क्रियाओं के सम्बन्ध में नियोजन करना एवं वर्तमान क्रियाओं को निर्देशित और नियन्त्रित करने में इनसे कोई सहायता नहीं मिलती है। समय व परिस्थिति के अनुसार लेखापालों का दृष्टिकोण विस्तृत होने लगा और आज लेखाविधि में भूतकालीन घटनाओं के साथ-साथ वर्तमान एवं भावी घटनाओं को भी शामिल किया जाने लगा। वास्तव में, लेखा विधि व्यवसाय के प्रबन्ध में एक सक्रिय भागीदार बन गयी है।
वर्तमान समय में जब विचार प्रवाह एवं जन-जीवन का ढंग तीव्र होता जा रहा है, तकनीकी विकास हो रहा है, आर्थिक एवं सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन हो रहे हैं, कोई भी व्यवसायी अपने व्यवसाय के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने के लिए वर्षों तक प्रतीक्षा नहीं करता रहेगा। वह अपनी नीतियों के प्रभावों के विषय में यथाशीघ्र जानकारी प्राप्त कर लेना चाहेगा, ताकि विशेष विशेष परिस्थितियों में आर्थिक शक्तियों से पराजित होने से पूर्व ही उन पर निर्णय ले सके। दूसरे शब्दों में, जब लेखाविधि प्रबन्ध की आवश्यकताओं के लिए सभी सूचना प्रदान करने की क्रिया ग्रहण कर लेती है तो उसे प्रबन्धकीय लेखाविधि कहते हैं। वस्तुतः यह पुराने औजार का नया प्रयोग मात्र है।
प्रबन्धकीय लेखाविधि का विचार जेम्स एच. हिल्स के प्रयत्नों से सन् 1950 में उदित उनके अनुसार “लेखा समंकों के सही व प्रभावशाली प्रयोग द्वारा ही प्रबन्धक व्यवसाय के हुआ। संचालन व स्थिति के सम्बन्ध में पूर्ण विवरण ज्ञात कर सकता है और उन पर अधिकतम नियन्त्रण कर सकता है।” प्रभाणनुसार प्रबन्धकीय लेखाविधि शब्द का प्रयोग सबसे पहले आंग्ला-अमेरिकी उत्पादकता परिषद् तत्वाधान में अमेरिका के भ्रमण पर आई हुई लेखापालों की ब्रिटिश टीम ने किया।
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