School Management & Hygiene

प्रभावपूर्ण विद्यालय प्रबन्ध के सिद्धान्त (Principles of Effective School Management)

प्रभावपूर्ण विद्यालय प्रबन्ध के सिद्धान्त (Principles of Effective School Management)
प्रभावपूर्ण विद्यालय प्रबन्ध के सिद्धान्त (Principles of Effective School Management)

प्रभावपूर्ण विद्यालय प्रबन्ध के सिद्धान्त (Principles of Effective School Management)

ये निम्न प्रकार हैं-

1. आधारभूत प्रदर्शन।

2. प्रजातान्त्रिक प्रबन्ध

3. आँकड़ों का वैज्ञानिक संग्रहण।

4. पाठ्यक्रम को छात्र के विकास का साधन मानना।

5. अध्यापक वर्ग के व्यक्तित्व के प्रति आदर।

6. समन्वय स्थापित करना।

7. अध्यापकों का विद्यालय के उत्तरदायित्व में सहयोग लेना।

8. विद्यालय सामग्री का दक्षतापूर्ण उपयोग।

9. वित्त का न्याययुक्त उपयोग।

10. लक्ष्य निर्धारण तथा योजना।

11. आवधिक निरीक्षण

12. लचीलापन।

13. अध्यापकों की व्यावसायिक उन्नति ।

14. आशावादी सिद्धान्त।

15. छात्रों की प्रशासन में साथ लेना।”

1. आधारभूत दर्शन- विद्यालय के प्रत्येक कर्मचारी वर्ग को शिक्षा एवं विद्यालय के उद्देश्य स्पष्ट हों। यह उचित ही कहा गया है कि “सत्र के आरम्भ में ही प्रत्येक को यह स्पष्ट कर दिया जाये जिससे कोई भी सन्देह में न रहे कि विद्यालय क्या करना चाहता है या क्या प्राप्त करना चाहता है।”

2. प्रजातान्त्रिक प्रबन्ध- एक दक्षतापूर्ण प्रबन्ध को प्रजातान्त्रिक प्रबन्ध के सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिए जैसी कि चर्चा की गई है।

3. आँकड़ों का वैज्ञानिक संग्रहण- इसका यह आशय है कि विद्यालय वृत्त (रिकॉर्ड) को उचित ढंग से रखा जाये और उन्हें हर प्रकार पूर्ण और शुद्ध होना चाहिए। इस दिशा में कोई कमी सारे संगठन की योजना को उलट सकती है। प्रबन्धक को, जो कि विद्यालय का प्रधान है, विद्यालय प्रबन्ध के इस पक्ष पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

4. पाठ्यक्रम को छात्र के विकास का साधन मानना- छात्र विभिन्न प्रकार की रुचि, योग्यता और सुझाव प्रदर्शित करते हैं, अत: पाठ्यक्रम भी विविध एवं लोचदार होना चाहिए।

5. अध्यापक वर्ग के व्यक्तित्व के प्रति आदर- अध्यापक वर्ग के व्यक्तित्व का आदर किया जाना चाहिए। अत्यधिक अनुरूपता अध्यापक वर्ग का यन्त्रीकरण कर देती है तथा पहल शक्ति, उत्साह और प्रयोग करने जैसी आवश्यक विकासशील शक्तियों को हानि पहुँचाती है।

6. समन्वय- कार्यक्रम का नियोजन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि सभी कर्मचारी एक समन्वित अंग की तरह कार्य करें।

7. उत्तरदायित्वों में सहभागिता होना- अध्यापक वर्ग का पूर्ण सहयोग एवं सहायता प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि विद्यालय का प्रधान नीतियों के निर्माण एवं उनके परिचालन हेतु अध्यापक वर्ग को भी उसमें सम्मिलित करे।

8. विद्यालय सामग्री का दक्षतापूर्ण उपयोग– विद्यालय व्यवस्था क्या है ? विद्यालय सामग्री से हमारा आशय भवन, अध्यापक एवं छात्रों से है। विद्यालय के अध्यापक वर्ग के कार्य विभाजन का बँटवारा अध्यापकों की योग्यता और अनुभव के आधार पर किया जाये। एक अच्छी समय-सारणी, प्रधानाध्यापक को विद्यालय भवन का उत्तम उपयोग करने में सहायक होगी।

9. वित्त का न्याययुक्त उपयोग– विद्यालय अधिकारियों के हाथ में विद्यालय वित्त ट्रस्ट के रूप में है. धन का अपव्यय ही अनेक समस्याओं का कारण हो सकता है, विशेष रूप से बाल-निधि का जो कि छात्रों में अनुशासनहोनता उत्पन्न कर सकता है। अतः यह बहुत आवश्यक है कि बाल-निधि को छात्रों के ही हित में व्यय किया जाय।

10. लक्ष्य निर्धारण तथा योजना- सत्रानुसार कार्यक्रम निश्चित कर लेना चाहिए। सम्पूर्ण वर्ष का पाठ्यक्रम उचित भागों में बाँटा जाना चाहिए।

11. आवधिक निरीक्षण- आवधिक एवं मासिक निरीक्षण करते रहना चाहिए जिससे छात्रों एवं अध्यापकों की उन्नति का ज्ञान हो सके तथा नीतियों को सफलता पर सोच-विचार किया जाये।

12. लचीलापन- इस बात पर बल दिया जाना चाहिए कि प्रबन्ध साधन है न कि साध्य, इसे साध्य के ऊपर अधिकार नहीं करना चाहिए। साध्य तो बालक के व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास है। पाठ्यक्रम, अध्यापन-विधि, परीक्षा, समय-सारणी, वास्तव में विद्यालय प्रबन्ध का प्रत्येक पक्ष इस साध्य के लिए लगा है। अत: यह उचित है कि प्रबन्ध को लचीला रखा जाये। एच. जी. स्टीड (H. G. Stead) ने ठीक ही कहा है कि प्रबन्ध को तरल होना चाहिए, अध्यापकों को अपनी अध्यापन-विधि का प्रयोग करने का अधिकार होना चाहिए। इसी प्रकार छात्रों को भी अनेक नियम एवं बन्धनों के रूपों को मानने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। ठीक ही कहा गया है कि स्व-अनुशासन डण्डे से प्राप्त नहीं किया जा सकता, इसे केवल प्रेम और सहानुभूति से प्राप्त किया जा सकता है।

इसी प्रकार, मासिक परीक्षाओं को भी सब कुछ नहीं समझ लेना चाहिए। ये केवल पूर्व वांछित साध्य के लिए साधन मात्र हैं। विद्यालय प्रबन्ध जो कि प्रत्येक पक्ष छात्रों, अध्यापकों और प्रधानाध्यापक का सेवक है. उसे स्वामी का स्थान प्राप्त नहीं होना चाहिए।

13. अध्यापकों की व्यावसायिक उन्नति- ऐसे मार्ग एवं साधनों की खोज की जानी चाहिए जिससे अध्यापक वर्ग को व्यावसायिक उन्नति हो ।

14. आशावादी सिद्धान्त- सम्पूर्ण प्रवन्ध की भावना मूलतः आशावादी होनी चाहिए।

15. छात्रों का भाग लेना- विद्यालय कार्यक्रमों में विद्यार्थियों का भाग लेना भी आवश्यक है।

विद्यालय प्रबन्ध के तत्त्व (ELEMENTS OF SCHOOL MANAGEMENT)

बी. सीयर्स (B. Sears) ने अपनी पुस्तक ‘दी नेचर ऑफ दी एडमिनिस्ट्रेटिव प्रोसेस’ (The Nature of the Administrative Process) में शिक्षा की प्रशासनिक प्रक्रिया के लिए पाँच क्रियाओं को आवश्यक माना है। वे इस प्रकार हैं-

1. नियोजन (Planning). 2. संगठन (Organization), 3. निर्देशन (Direction), 4. समन्वय (Co-ordination), 5. नियन्त्रण (Control)

हेगमन ने उपर्युक्त घटकों में नायकत्व (Leadership) ध्येय, आदि को जोड़ा है। अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ स्कूल एडमिनिस्ट्रेटर्स द्वारा प्रकाशित Yearbook’ में शिक्षा की प्रशासनिक प्रक्रिया में निम्नलिखित कार्यकलापों को अति महत्त्वपूर्ण माना है-

1. नियोजन (Planning) 2. प्रावधान करना (Allocation), 3. उत्प्रेरण (Stimulation of Motivation), 4. समन्वय (Co-ordination), 5. मूल्यांकन (Evaluation) |

विभिन्न विचारकों द्वारा बताये गये कार्यकलापों को संश्लेषित और विश्लेषित करने पर शिक्षा की प्रशासनिक प्रक्रिया में निम्नलिखित कार्यों को सम्मिलित किया जा सकता है-

1. निर्णय (Decision making), 2. नियोजन (Planning) 3. संगठन करना (Organizing), 4. सम्प्रेषण (Communication) 5. निर्देशन करना (Directing) 6. समन्वयन (Co-ordination), 7. रिपोर्ट तैयार करना (Reporting), 8 बजट बनाना (Budgeting) 9. मूल्यांकन (Evaluation) |

(1) निर्णयन (Decision making)—सभी संगठनों में किसी कार्य के सम्पादन या क्रिया के आयोजन के सम्बन्ध में निर्णय करना होता है। इन्हीं निर्णयों के आधार पर संगठन में विभिन्न क्रियाकलापों व गतिविधियों का संचालन होता है। विद्यालय प्रशासन में प्रशासक को नित्यप्रति ऐसे निर्णय लेने होते हैं जो रुटीन टाइप के होते हैं। इन निर्णयों को लेने में उसे अधिक सोचना नहीं पड़ता है क्योंकि ये निर्णय पिछले निर्णयों या पिछली नीतियों या निर्धारित नियमों पर आधारित होते हैं। परन्तु प्रशासक स्वस्थ एवं वस्तुनिष्ठ निर्णय लेने के लिए निर्णयन की प्रक्रिया में निम्न पदों को अपनाना चाहिए-

1. उद्देश्य व लक्ष्यों का स्पष्ट ज्ञान।।

2. समस्या जिस पर निर्णय लिया जाना है, से सम्बन्धित सूचनाएँ, मत, विचार, आदि का संकलन।

3. संकलित तथ्यों, आँकड़ों तथा सूचनाओं को विश्लेषित करना, समझना तथा निर्णय लेना।

4. विश्लेषण तथा निर्णयन के आधार पर उपलब्ध विकल्पों का चयन करना ।

5. सभी उपलब्ध विकल्पों का उद्देश्यों की पूर्ति के दृष्टिकोण से मूल्यांकन करना

6. उस विकल्प का चयन करना जो अधिक निश्चित ढंग से उद्देश्यों या लक्ष्यों की प्राप्ति में अर्थपूर्ण हो सकता है।

(2) नियोजन (Planning)-नियोजन का सामान्य अर्थ किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किये जाने वाले कार्य, उनको कार्य प्रणाली और सहयोगी व्यक्तियों एवं परिस्थितियों तथा सहायक सामग्री व वस्तुओं की एक सारगर्भित रूपरेखा बनाना है। इस प्रकार की रूपरेखा निर्धारित किये बिना कोई भी कार्य पूर्णतः सफल नहीं हो सकता है। यदि किसी प्रकार का पूर्व निर्धारण नहीं किया जायेगा तो लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही भटक जाने की सम्भावना अधिक रहेगी। शैक्षिक नियोजन- एक प्रगतिशील प्रक्रिया है। इसमें न केवल वर्तमान का ध्यान रखना होता है, वरन् भविष्य को भी दृष्टिगत रखना पड़ता है। योजना बनाने में अतीत के निर्देशों एवं अनुभवों से भी लाभ उठाना अनिवार्य है और व्यक्ति एवं समाज या समुदाय अथवा संस्था-विशेष की आवश्यकताओं, सिद्धान्तों, आदर्शों तथा उसके साधनों, आदि को भी ध्यान में रखना पड़ेगा।

नियोजन करते समय कुछ ऐसी विचारणीय बातें हैं जिन्हें हम भुला नहीं सकते यथा-

1. हमारे समक्ष नियोजन का लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए अर्थात् जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए योजना बनाई जाए वह लक्ष्य पूर्णतः स्पष्ट एवं निश्चित हो।

2. उद्देश्य निर्धारण के उपरान्त उसकी पूर्ति के लिए किये जाने वाले कार्यों की विस्तृत सूची बना लेनी चाहिए।

3. इसके साथ ही यह भी निश्चित करना चाहिए कि ये विविध कार्य किन प्रणालियों एवं प्रविधियों द्वारा सम्पन्न किये जा सकते हैं।

4. इन प्रविधियों के निर्धारण के उपरान्त उसके कार्यान्वयन में सहायक सामग्री का चयन एवं वर्गीकरण किया जाना चाहिए।

योग्य प्रशासक को नियोजन करते समय ऊपर वर्णित विभिन्न बातों का समुचित समायोजन करना चाहिए। इतना सब कर लेने के उपरान्त योजना और उसके कार्य के मूल्यांकन या परिणाम पर भी विचार कर लेना आवश्यक है। यदि परिणाम लक्ष्य से न्यून या उसके विपरीत प्रतीत हो अथवा किन्हीं अप्रत्याशित विभिन्न परिस्थितियों के कारण योजना में बाद में कोई परिवर्तन करना आवश्यक प्रतीत हो, तो योजना में इतना लचीलापन अवश्य रखना चाहिए कि उसमें संशोधन, परिवर्तन अथवा परिवर्द्धन किया जा सके।

नियोजन करते समय यह तथ्य भी नहीं भुलाया जाना चाहिए कि योजना का आधार लोकतन्त्रीय हो, जिसके अनुसार उसके निर्माण के समय सहयोगियों को स्वतन्त्रतापूर्वक अपने मौलिक विचारों को अभिव्यक्त करने का अवसर मिले।

इलियट तथा मोसीय ने विद्यालय योजना के निर्माण में निम्नलिखित बातों पर ध्यान देने के लिए बल दिया है.-

1. विद्यालय की शैक्षिक आवश्यकताओं व उपलब्ध संसाधनों के सन्दर्भ में उद्देश्यों का निर्धारण।

2. समुदाय विशेष में विद्यालय से अपेक्षाएँ तथा शिक्षा की आवश्यकता।

3. विद्यालय के विशिष्ट कार्यक्रमों तथा गतिविधियों का निर्धारण

4. निर्धारित कार्यक्रमों की प्राप्ति हेतु कार्य इकाइयों का निर्माण जिससे लक्ष्यों की प्राप्ति हो सके।

5. सम्पूर्ण विमर्शित योजना को व्यवहार में लाना।

6. सतत् रूप से किये जाने वाले व्यवहारों तथा कार्यों का मूल्यांकन

7. उपर्युक्त के आधार पर पुनः नियोजन की सम्भावनाओं को ध्यान में रखना।

(3) संगठन (Organization)—प्रशासन में संगठन मूलभूत कार्य है। जे. बी. सीयर्स का कथन है- यह कार्य करने की एक मशीन है जिसका निर्माण व्यक्तियों, वस्तुओं, धारणाओं, प्रतीकों, स्वरूपों, नियमों सिद्धान्तों के द्वारा या प्रायः इन सबके संयोग से हो सकता है। मशीन स्वतः ही कार्य कर सकती है या इसका संचालन मानवीय निर्णय एवं इच्छा के द्वारा किया जा सकता है। संगठन के अन्तर्गत दो प्रकार की अवस्थाएँ निहित हैं- मानवीय तथा भौतिक मानवीय तत्त्वों का संगठन कक्षाओं, समितियों, शिक्षक वर्ग, अन्य कर्मचारियों के वर्गों में किया जा सकता है। भौतिक तत्वों के अन्तर्गत भवन, फर्नीचर, पुस्तकालय एवं अन्य शैक्षिक सामग्री, आदि की सुव्यवस्था पर ध्यान दिया जाता है। इन दोनों तत्त्वों के अतिरिक्त विचारों, सिद्धान्तों एवं धारणाओं से भी विद्यालय पद्धतियाँ, पाठ्यक्रम, समय तालिका, आदि प्रभावित होती हैं। इस प्रकार संगठन द्वारा विभिन्न तत्त्वों को इस प्रकार व्यवस्थित किया जाता है जिससे सम्पूर्ण कार्यक्रम को उद्देश्य की प्राप्ति हेतु सरलता से क्रियान्वित किया जा सके।

संगठन के स्वरूप दो प्रकार के होते हैं—प्रथम औपचारिक, द्वितीय-अनौपचारिक औपचारिक संगठन में कार्यकर्ता, सहायक, पर्यवेक्षक, अधिकारी, आदि व्यक्तियों का एक पदानुक्रम होता है। वे अपने कार्य तथा दायित्व के आधार पर वरिष्ठ या अधीनस्थ की श्रेणी में विभक्त रहते हैं। इनमें संगठनात्मक सम्बन्ध रहते हैं। इनमें सम्बन्ध बनाये रखने के लिए आदेशों तथा सूचनाओं के आदान-प्रदान की संचार व्यवस्था रहती है।

अनौपचारिक संगठन में व्यक्तियों के बीच अधिकार या कार्य के आधार पर सम्बन्ध नहीं होते हैं। इनके बीच सम्बन्धों का स्वरूप व्यक्तिगत व व्यक्तित्व के आधार पर होता है। ये सम्बन्ध रुचि, कार्य, अभिवृत्ति, विचार, विश्वास और मान्यताओं के आधार पर बनते हैं। चेस्टर बरनार्ड के अनुसार, “प्रत्येक औपचारिक संगठन में अनौपचारिक संगठन व्याप्त रहता है। प्रथम (औपचारिक) उसकी व्यवस्था तथा सततता के लिए और द्वितीय (अनौपचारिक) उसकी जीवन शक्ति के लिए आवश्यक होता है।”

(4) सम्प्रेषण (Communication)– सम्प्रेषण वह व्यवस्था है जिसमें आदेश, सूचनाएँ, विचार, प्रश्न, आदि एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुँचाये जाते हैं। औपचारिक संगठन में इसका एक निश्चित स्वरूप होता है। संगठन में दायित्व व पदों का जो क्रम होता है उसके अनुसार ही सम्प्रेषण की प्रक्रिया कार्य करती है। शाला में सम्प्रेषण त्रिध्रुवीय होता है-1. ऊपर से नीचे की ओर, 2. समानान्तर तथा 3. नीचे से ऊपर की ओर प्रथम में सन्देश, सूचनाएँ, आदेश, आदि उच्च अधिकारियों द्वारा अधीनस्थों तक प्रसारित किये जाते हैं। द्वितीय में शिक्षक-शिक्षक, कर्मचारी-कर्मचारी समान स्तर पर रहते हुए विचारों को प्रसारित करते हैं। तृतीय में शिक्षकों से प्राचार्य की ओर प्रेषित किये जाने वाले सन्देश, विचार, मत, सुझाव, आदि आते हैं। अतः सम्प्रेषण वह साधन है जिसमें संस्था या संगठन संगठित होता है।

(5) निर्देशन करना (Direction)–निर्देशन के अर्थ को स्पष्ट करते हुए जे. बी. सीयर्स ने लिखा है – “प्रशासन में निर्देशन वह अंग है जो निर्णय को प्रभावित करते हैं, कार्य करने के लिए सूचना देता तथा इस बात का भी संकेत देता है कि कार्य को किस प्रकार करना है और इसको कब प्रारम्भ एवं समाप्त करना है।” प्रशासन में मार्गदर्शन या नेतृत्व ही आधार है। सफल नेतृत्व या पथ-प्रदर्शन के अभाव में सम्पूर्ण योजना एवं संगठन व्यर्थ हो जाता है। निर्देशन के अन्तर्गत तीन बातें महत्त्व की हैं–निर्णय करना, उन निर्णयों को घोषित करना तथा निर्णयों को व्यवहार में लाना। इस प्रकार निर्देशन सरल कार्य नहीं है। इसके लिए प्रशासक में उच्च स्तर की योग्यता, ज्ञान, नेतृत्व शक्ति, दूरदर्शिता, अनुभव, विवेक, आदि गुणों का होना परमावश्यक है। सफल संचालन के लिए मानवीय सम्बन्ध स्थापित करने की क्षमता का होना बहुत आवश्यक है। यदि नेता में इस गुण का अभाव है तो वह अपनी योजना का संचालन सफलतापूर्वक नहीं कर सकता है।

एक कुशल नेता को अपने साथियों के परामर्श से ही किसी विषय पर निर्णय लेना चाहिए। वह अपने विचारों को इनके सम्मुख ऐसे ढंग से प्रस्तुत करे जिससे कि उसके साथी उन विचारों को दूसरे के विचार न मानकर अपने विचार समझें। इस प्रकार के पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करना ही संचालन की सफलता है।

(6) समन्वय स्थापित करना (Coordination) प्रत्येक संगठन में दो प्रकार के संसाधन जुड़े होते हैं— भौतिक संसाधन तथा मानवीय संसाधन भौतिक संसाधनों में भवन, उपकरण, साज-सज्जा, आदि आते हैं। मानवीय संसाधनों में प्राचार्य एवं अन्य अधिकारी, शिक्षक, कर्मचारी, छात्र, आदि आते हैं। प्रशासन का सबसे बड़ा कार्य यह है कि इन संसाधनों की शक्तियों का इस प्रकार न्यायोचित, सार्थक तथा मितव्ययितापूर्ण प्रयोग करे जिससे संगठन के निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति हो सके। इसके लिए प्रशासन इनके मध्य आश्रितता और अन्तर्सम्बन्ध स्थापित करे। इन संसाधनों के उचित समन्वय से प्रशासन श्रम एवं शक्ति दोनों के अपव्यय एवं पारस्परिक संघर्ष को रोकता है।

(7) रिपोर्ट तैयार करना (Reporting)– शिक्षा प्रशासन की प्रक्रिया में रिपोर्ट तैयार करने का भी अपना महत्त्व है। शिक्षा प्रशासन को संगठन के सम्पूर्ण कार्य का अवलोकन करके उसके सम्बन्ध में रिपोर्ट तैयार करनी चाहिए।

(8) बजट बनाना (Budgeting)– बजट बनाने के अर्थ को स्पष्ट करते हुए डॉ. आर. सी. शर्मा ने लिखा है कि शैक्षिक आवश्यकताओं की सूची बनाना तथा उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कार्यक्रम तैयार करना और इन कार्यक्रमों को वित्तीय पदों में अनुवादित करना ही बजट बनाना (Budgeting) कहलाता है।

(9) मूल्यांकन (Evaluation) मूल्यांकन भी प्रशासन की प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। कोई भी कार्य तब तक पूर्ण नहीं माना जा सकता है जब तक उसके परिणामों का उचित प्रकार से मूल्यांकन न कर लिया गया हो। मूल्यांकन द्वारा हमें इस बात का ज्ञान होता है कि हमने निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति किस सीमा तक की है। इसके द्वारा हम यह भी जान लेते हैं कि अमुक कार्य में क्या दोष है और किन कारणों से हम उसमें अभीष्ट सफलता प्राप्त नहीं कर सके। मूल्यांकन के आधार पर हम अपने आगे के उद्देश्यों एवं विधियों का निर्धारण कर सकते हैं। प्रशासन एक गतिशील प्रक्रिया है। इसलिए इसमें निरन्तर प्रगति होनी चाहिए। प्रगति के लिए हमें अपने कार्य का समय-समय पर मूल्यांकन करना अत्यन्त आवश्यक है। इसके अभाव में हम अपने संगठन या संस्था को सर्वोत्तम स्वरूप प्रदान नहीं कर सकते हैं।

सारांश रूप में कहा जा सकता है कि शिक्षा प्रशासन में शिक्षा प्रक्रिया की समुचित व्यवस्था करना निहित है। इसके संचालन के लिए प्रशासक को प्रशासन प्रक्रिया के विभिन्न स्तरों पर ध्यान देना परमावश्यक है। यदि वह शिक्षा प्रशासन की प्रक्रिया के इन स्तरों पर समुचित ध्यान नहीं देगा तो वह प्रशासन में सफलता प्राप्त करने में असमर्थ रहेगा। साथ ही शिक्षा प्रशासन की सफलता उसके नेतृत्व तथा निरीक्षण में दक्षता, आदि गुणों पर भी निर्भर करती है। चाहे उसकी योजना कितनी ही अच्छी क्यों न हो, जब तक वह उसको कार्यान्वित करने में अपने सफल नेतृत्व का परिचय नहीं देगा और उसका समय-समय पर निरीक्षण नहीं करेगा तब तक वह सफल नहीं हो सकेगी।

IMPORTANT LINK

Disclaimer

Disclaimer: Target Notes does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: targetnotes1@gmail.com

About the author

Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

Leave a Comment