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बाल्यावस्था की मुख्य विशेषताएँ
शैशवावस्था के बाद बाल्यावस्था का आरम्भ होता है। यह अवस्था बालक के व्यक्तित्व के निर्माण की होती है। बालक में इस अवस्था में विभिन्न आदतों, व्यवहारों, रुचि एवं इच्छाओं के प्रतिरूपों का निर्माण होता है। ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन के अनुसार “शैक्षिक दृष्टिकोण से जीवन चक्र में बाल्यावस्था से अधिक कोई महत्वपूर्ण अवस्था नहीं हैं। जो शिक्षक इस अवस्था के बालकों को शिक्षा देते हैं, उन्हें बालकों की, उनकी आधारभूत आवश्यकताओं की, उनकी समस्याओं एवं उनकी परिस्थितियों की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए जो उनके व्यवहार को रूपान्तरित और परिवर्तित करती है।”
बाल्यावस्था की मुख्य विशेषताएं
1. शारीरिक व मानसिक स्थिरता – 6 या 7 वर्ष की आयु के बाद बालक के शारीरिक और मानसिक विकास में स्थिरता आ जाती है। यह स्थिरता उसकी शारीरिक व मानसिक शक्तियों को दृढ़ता प्रदान करती है, फलस्वरूप उसका मस्तिष्क परिपक्व-सा और वह स्वयं वयस्क-सा जान पड़ता है। इसलिए, रॉस ने बाल्यावस्था को “मिथ्या-परिपक्वता” का काल बताते हुए लिखा है- “शारीरिक और मानसिक स्थिरता बाल्यावस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है।”
बाल्यावस्था के विकास का महत्व अत्यधिक है। इस अवस्था में विकास का अध्ययन अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों को प्रकट करता है। कैरल के अनुसार “बालक के शारीरिक विकास और उसके सामान्य व्यवहार का सह-सम्बन्ध इतना महत्वपूर्ण होता है कि यदि हम समझना चाहें कि भिन्न-भिन्न बालकों में क्या समानताएं हैं, क्या भिन्नताएं हैं, आयु-वृद्धि के साथ व्यक्ति में क्या परिवर्तन होते हैं तो हमें बालक के शारीरिक विकास का अध्ययन करना होगा।”
2. मानसिक योग्यताओं में वृद्धि- बाल्यावस्था में बालक की मानसिक योग्यताओं में निरन्तर वृद्धि होती है। उसकी संवेदना और प्रत्यक्षीकरण की शक्तियों में वृद्धि होती है। वह विभिन्न बातों के बारे में तर्क और विचार करने लगता है। वह साधारण बातों पर अधिक देर तक अपने ध्यान को केन्द्रित कर सकता है। उसमें अपने पूर्व-अनुभवों को स्मरण करने की योग्यता उत्पन्न हो जाती है।
3. जिज्ञासा की प्रबलता- बालक की जिज्ञासा विशेष रूप से प्रबल होती है। वह जिन वस्तुओं के सम्पर्क में आता है, उनके बारे में प्रश्न पूछ कर हर तरह की जानकारी प्राप्त करना चाहता है। उसके ये प्रश्न शैशवावस्था के साधारण प्रश्नों से भिन्न होते हैं। अब वह शिशु के समान यह नहीं पूछता है- “वह क्या है?’ इसके विपरीत, वह पूछता है- “यह ऐसे क्यों है? ‘यह ऐसे कैसे हुआ है?
4. वास्तविक जगत् से सम्बन्ध- इस अवस्था में बालक, शैशवावस्था के काल्पनिक जगत् का परित्याग करके वास्तविक जगत् में प्रवेश करता है। वह उसकी प्रत्येक वस्तु से आकर्षित होकर उसका ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। स्ट्रंग के शब्दों में- “बालक अपने को अति विशाल संसार में पाता है और उसके बारे में जल्दी से जल्दी जानकारी प्राप्त करना चाहता है।”
5. रचनात्मक कार्यों में आनन्द- बालक को रचनात्मक कार्यों में विशेष आनन्द आता है। वह साधारणतः घर से बाहर किसी प्रकार का कार्य करना चाहता है, जैसे बगीचे में काम करना या औजारों से लकड़ी की वस्तुएं बनाना। उसके विपरीत बालिका घर में ही कोई न कोई कार्य करना चाहती है, जैसे सींना, पिरोना या कढ़ाई करना।
6. सामाजिक गुणों का विकास- बालक, विद्यालय के छात्रों और अपने समूह के सदस्यों के साथ पर्याप्त समय व्यतीत करता है। अतः उसमें अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है, जैसे सहयोग, सद्भावना, सहनशीलता, आज्ञाकारिता आदि।
7. नैतिक गुणों का विकास- इस अवस्था के आरम्भ में ही बालक में नैतिक गुणों का विकास होने लगता है। स्ट्रेंग के मतानुसार “छः, सात और आठ वर्ष के बालकों में अच्छे- बुरे के ज्ञान का एवं न्यायपूर्ण व्यवहार, ईमानदारी और सामाजिक मूल्यों की भावना का विकास होने लगता है।”
8. बहिर्मुखी व्यक्तित्व का विकास- शैशवावस्था में बालक का व्यक्तित्व अन्तर्मुखी होता है, क्योंकि वह एकान्तप्रिय और केवल अपने में रुचि लेने वाला होता है। इसके विपरीत, बाल्यावस्था में उसका व्यक्तित्व बहिर्मुखी हो जाता है, क्योंकि बाह्य जगत् में उसकी रुचि उत्पन्न हो जाती है। अतः अन्य वस्तुओं और कार्यों का अधिक से अधिक परिचय प्राप्त करना चाहता है।
9. संवेगों का दमन व प्रदर्शन- बालक अपने संवेगों पर अधिकार रखना एवं अच्छी और बुरी भावनाओं में अन्तर करना जान जाता है। वह उन भावनाओं का दमन करता है, जिनको उसके माता-पिता और बड़े लोग पसन्द नहीं करते हैं, जैसे-काम-सम्बन्धी भावनाएं।
10. संग्रह करने की प्रवृत्ति- बाल्यावस्था में बालकों और बालिकाओं में संग्रह करने की प्रवृत्ति बहुत ज्यादा पायी जाती है। बालक विशेष रूप से कांच की गोलियों, टिकटों, मशीनों के भागों और पत्थर के टुकड़ों का संचय करते हैं। बालिकाओं में चित्रों, खिलौना, गुड़ियों और कपड़ों के टुकड़ों का संग्रह करने की प्रवृत्ति पायी जाती है।
11. निरुद्देश्य भ्रमण की प्रवृत्ति- बालक में बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति बहुत अधिक होती है। मनोवैज्ञानिक बर्ट ने अपने अध्ययनों के आधार परं बताया है कि लगभग 9 वर्ष के बालकों में आवारा घूमने, बिना छुट्टी लिए विद्यालय से भागने और आलस्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने की आदतें सामान्य रूप से पायी जाती हैं।
12. काम-प्रवृत्ति की न्यूनता- बालक में काम-प्रवृत्ति की न्यूनता होती है। वह अपना अधिकांश समय मिलने-जुलने, खेलने-कूदने और पढ़ने लिखने में व्यतीत करता है। अतः वह बहुत की कम अवसरों पर अपनी काम-प्रवृत्ति का प्रदर्शन कर पाता है।
13. सामूहिक प्रवृत्ति की प्रबलता- बालक में सामूहिक प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। वह अपना अधिक से अधिक समय दूसरे बालकों के साथ व्यतीत करने का प्रयास करता है। रॉस के अनुसार-“बालक प्रायः अनिवार्य रूप से किसी न किसी समूह का सदस्य हो जाता है, जो अच्छे खेल खेलने और ऐसे कार्य करने के लिए नियमित रूप से एकत्र होता है, जिनके बारे में बड़ी आयु के लोगों को कुछ भी नहीं बताया जाता है।”
14. सामूहिक खेलों में रुचि- बालक को सामूहिक खेलों में अत्यधिक रुचि होती है। वह 6 या 7 वर्ष की आयु में छोटे समूहों में और बहुत काफी समय तक खेलता है। खेल के समय बालिकाओं की अपेक्षा बालकों में झगड़े अधिक होते हैं। 11 या 12 वर्ष की आयु में बालक दलीय खेलों में भाग लेने लगता है। स्ट्रेंग का विचार है- “ऐसा शायद ही कोई खेल हो, जिसे दस वर्ष के बालक न खेलते हों।”
15. रुचियों में परिवर्तन- बालक की रुचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। वे स्थायी रूप धारण न करके वातावरण में परिवर्तन के साथ परिवर्तित होती रहती हैं। कोल एवं ब्रूस ने लिखा है-“6 से 12 वर्ष की अवधि की एक अपूर्व विशेषता है मानसिक रुचियों में स्पष्ट परिवर्तन।”
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