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योग-शिक्षा | YOGA-SHIKSHA
योग दर्शन का अर्थ एवं परिभाषा (MEANING AND DEFINITION OF YOGA DARSHAN)
योग दर्शन भारत की अपनी विशेषता है। इस दर्शन की सबसे बड़ी देन योग प्रक्रिया को वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक रूप प्रदान करना है। वेद, ब्राह्मण और उपनिषदों में योग प्रक्रिया का विशिष्ट वर्णन है। जैन और बौद्ध साहित्यों में भी योग प्रक्रिया का विवेचन किया गया है। उमा स्वामी ने तत्वार्य सूत्र और हेमचन्द्र ने योग सूत्र में योग पर स्वतन्त्र रूप से विचार किया है। तन्त्रों में भी योग का स्थान है। गोरखनाथ का नाथ सम्प्रदाय भी योग प्रक्रिया पर आधारित हैं। इनका हठयोग भारत की भूमि पर खूब पनपा था। आज भी भारत में इस सम्प्रदाय के अनुयायी विद्यमान हैं। हठयोग की तरह भारत में मन्त्र योग और लय योग भी कभी बड़े प्रसिद्ध रहे हैं। ज्ञान योग, कर्मयोग और भक्ति योग तो भारतीय धर्म-दर्शन की आत्मा हैं। परन्तु योग को एक स्वतन्त्र दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय महर्षि पतंजलि (ई. पू. द्वितीय शताब्दी) को है। उनका योग सूत्र योग दर्शन का सर्वप्रथम प्रामाणिक ग्रन्थ है। अधिकांश विद्वान् महर्षि पतंजलि को ही योग दर्शन का प्रतिपादक मानते हैं। उनका योग दर्शन राज योग के नाम से जाना जाता है। आज जब हम योग दर्शन की बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य पतंजलि के राज योग से ही होता है।
पतंजलि के योग सूत्र का सर्वप्रथम प्रामाणिक भाष्य व्यास भाष्य (तृतीय शताब्दी) है। परन्तु यह भाष्य स्वयं में बहुत गूढ़ है। अत: इसके अर्थ को स्पष्ट करने के लिए वाचस्पति मिश्र ने ‘तत्त्व वैशारदी’ और विज्ञान भिक्षु ने योग वर्तिका की रचना की। आधुनिक काल में स्वामी विवेकानन्द ने पतंजलि के योग सूत्र पर राजयोग की रचना कर इस क्षेत्र में विशेष योगदान दिया है।
योग का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-समाधि। पतंजलि के अनुसार योग का अर्थ है- चित्त वृत्तियों का निरोध। चित्त से उनका अभिप्राय सांख्य के अन्तःकरण (मन, बुद्धि, अहंकार) से है और चित्तवृत्तियों के निरोध से तात्पर्य चित्तवृत्तियों को सांसारिक भोग से हटाकर ईश्वर की ओर लगाने से है। इस प्रकार योग का अर्थ है आत्मा परमात्मा का योग।
अतः योग शब्द बहुत ही व्यापक है। इसकी उत्पत्ति संस्कृत के युज धातु से हुआ है। योगशास्त्र के अनुसार ‘प्राणापान नाद बिन्दु जीवात्म परमात्मनोः’ अर्थात् प्राण और अपान को मिलाना, रज और वीर्य को मिलाना, चन्द्र औल सूर्य को मिलाना, शीतलता और तेजस्विता को मिलाना तथा जीवात्मा और परमात्मा को मिलाना ही योग है।
महर्षि पतंजलि ने योग को चित्तवृत्तियों का निरोध करने वाला बताया है.–‘योगश्चिन्त वृत्ति निरोध’ अर्थात् मनुष्य का चित्त बहुत चंचल होता है अत: योग में चित्तवृत्तियों का एकाग्र करना होता है। मन को अन्य विषयों से निवृत्ति देकर मात्र ध्येय में समाहित करना चित्तवृत्ति का निरोध करना है। धीरे-धीरे अभ्यास से मन विषयों से हटता जाता है और स्थिर हो जाता है। योगी या साधक की यही मानसिक स्थिरावस्था समाधि तक ले जाती है।.
योग में बहुत शक्ति बताई है। इस सम्बन्ध में महर्षि घेरण्ड ने अपनी पुस्तक घेरण्ड संहिता में स्पष्ट किया है—माया के समान कोई पाप नहीं, योग के समान कोई बल नहीं, ज्ञान के समान कोई बन्धु नहीं और अहंकार के समान कोई शत्रु नहीं।
नास्ति माया समं पापं नास्ति योगात्परम बलम् ।
नास्ति ज्ञानान्तरों बन्धुनाहंकात्परो रिपुः ॥
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में योग को इस प्रकार परिभाषित किया है-
योगः कर्मसु कौशलम अर्थात् अपने कार्य में कुशलता ही योग है। यहाँ कर्म महत्त्वपूर्ण है क्योंकि कर्म में कुशलता तभी प्राप्त होती है जब मनुष्य का मन, शरीर चित्त एकाग्र हो जाए। अतः जीवात्मा और परमात्मा के एकीकरण का नाम ही योग है।
योग वशिष्ठ के अनुसार- संसार रूपी सागर से पार होने की विधि को ही योग कहते हैं।
डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार- योग वह प्राचीन पथ है जो व्यक्ति को अँधेरे से प्रकाश की ओर लाता है।
अतः स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि मन, शरीर और चित्तवृत्तियों को एकाग्र करके परमात्मा में जोड़ना योग है। इस प्रकार प्रत्येक परिस्थिति में समभाव रहना योग है। इस प्रकार योग वह शक्ति है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने आपको शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, नैतिक, आध्यात्मिक दृष्टि से इस प्रकार सबल और पुष्ट बनाता है कि वह स्वयं ही परमात्मस्वरूप हो जाता है। योग के अन्तर्गत विविध शारीरिक आसन प्राणायाम बन्ध मुद्राएँ सिद्धि क्रिया तथा ध्यान मुद्राएँ सम्मिलित हैं जो असीम दैवीय शक्ति उत्पन्न करती हैं। योगाभ्यास के विविध प्रकारों में आसन सम्बन्धी शारीरिक क्रियाएँ महत्त्वपूर्ण हैं।
योग के प्रकार (TYPES OF YOGA)
योग एक जीवन विज्ञान है। आर्य ऋषियों द्वारा इसका प्रत्यक्ष अन्वेषण किया गया। समस्त साधनाएँ आर्य ऋषियों के आविष्कार हैं। संसार में मनुष्यों के गुण, कर्म, सदाचार आदि सभी भिन्न-भिन्न होती हैं। इसलिए साधनाओं की प्रक्रिया भी भिन्न-भिन्न होती है। सामान्यत: साधनाओं को आर्य ऋषियों ने 4 भागों में बाँटा है, जो योग के प्रकार कहे जाते हैं-
(1) मन्त्रयोग-सहभक्ति योग
(2) हठ योग
(3) राज योग
(4) कुण्डलिनी योग या लय योग।
योग शिक्षा के लिए आवश्यक बातें
पतंजलि के अनुसार योग का अर्थ है-चित्तवृत्तियों को निरोध। इसके लिए उन्होंने अष्टांग योग मार्ग ( यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि) का समर्थन किया है। पतंजलि के अनुसार यम का अर्थ है-मन, वचन और कर्म का संयम इसके लिए पतंजलि ने सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य व्रत के पालन को आवश्यक बताया है। पतंजलि के अनुसार नियम भी पाँच हैं-शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और प्राणिधान। उनका स्पष्ट मत है कि जब तक मनुष्य प्राणिधान (ईश्वर में विश्वास और श्रद्धा) नहीं रखता तब तक वह योग साधन मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकता। आसन से तात्पर्य शरीर की ऐसी स्थिति से होता है जिसमें बहुत देर तक थकान न हो, जिसमें बहुत देर तक चिन्तन-मनन किया जा सके और प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की क्रियाएँ की जा सके। योगशास्त्र में प्राणायाम का बड़ा महत्त्व है। प्राणायाम का अर्थ है श्वसन क्रिया पर नियन्त्रण इसके तीन अंग होते हैं पूरक (श्वास को अन्दर खींचना), कुम्भक (श्वास को अन्दर रोके रखना) और रेचक (श्वास को धीरे-धीरे बाहर निकालना)।
प्राणायाम द्वारा शरीर स्वस्थ मन निर्मल और हृदय स्वच्छ होता है तथा मनुष्य में प्राणशक्ति का संवर्द्धन होता है। योग क्रिया का अगला पद है प्रत्याहार प्रत्याहार का अर्थ होता है इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर मन के अधीन करना। प्रत्याहार से आगे की क्रिया का नाम है-धारणा धारणा में मनुष्य अपने चित्त को किसी अभीष्ट विषय पर केन्द्रित करता है। ध्यान की स्थिति धारणा और समाधि के बीच में आती है। ध्यान का अर्थ है-चित्त को अभीष्ट विषय पर लम्बे समय तक केन्द्रित करना समाधि योगानुशासक की अन्तिम स्थिति है। इस स्थिति में ध्यान क्रिया और ध्यान का विषय दोनों समाप्त हो जाते हैं, ज्ञेय और जाता का अन्तर समाप्त हो जाता है। मनुष्य परमानन्द की अनुभूति करता है। पतंजलि का स्पष्ट मत है कि बिना सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य व्रत तथा शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और प्राणिधान नियमों का पालन करे बिना कोई व्यक्ति योग साधना नहीं कर सकता। अतः योग साधक को इन्हें अपने आचरण का अंग बनाना चाहिए। यह आचार मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार के विकास के लिए आवश्यक हैं।
अतः योग में प्रवृत्त होने से पूर्व स्वकेन्द्रीकरण (Self-Concentration) अर्थात् स्वयं की चित्तवृत्तियों को विभिन्न कार्यों से हटाकर अपनी चेतना में विलीन करना आवश्यक है। इसके साथ ही चंचलता कम करके स्थिरता (Stability) को बढ़ावा देना, प्रकृति के अधिक नजदीक रहना अर्थात् प्राकृतिक जीवन पद्धति अपनाना, उपयोगी साहित्य का पठन और पाठन करना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त योग गुरु का निर्देशन पथ्यापथ्य का ध्यान, गोपनीयता और योगाभ्यास के लिए उपयुक्त स्थान का चयन करना आवश्यक है।
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