लेखांकन प्रथाएं क्या है?
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लेखांकन प्रथाएं (Accounting Conventions)
लेखांकन के कुछ विद्वान लेखांकन प्रथाओं को भी लेखांकन सिद्धान्तों में शामिल करते हैं। लेखांकन प्रथाएँ लेखांकन सम्बन्धी रीति-रिवाज या चली आ रही परम्पराओं को प्रदर्शित करती हैं। लेखांकन प्रथाएँ इतनी महत्वपूर्ण हैं कि बिना इनके लेखांकन सम्भव नहीं। यह दुःख का विषय है कि अभी लेखांकन प्रथाओं की ओर ध्यान नहीं दिया गया है। अमेरिका में इस सम्बन्ध में काफी शोध हुए हैं और लेखांकन प्रथाओं को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। लेखांकन प्रथाओं में निम्नांकित महत्वपूर्ण हैं :
(1) रूढ़िवादिता की प्रथा (Convention of Conservation)— लेखांकन में रूढ़िवादिता का आशय उन प्रथाओं से है जिनके अन्तर्गत भविष्य में होने वाली हानियों को शामिल कर लिया जाता है; पर लाभों को नही । जैसे— अन्तिम रहतिया को लागत मूल्य या बाजार मूल्य जो भी कम हो, पर मूल्यांकित किया जाता है; ख्याति को अपलिखित करना, अप्राप्य एवं संदिग्ध ऋणों का संचय करना एवं सम्पत्तियों का हासित मूल्य पर लेखा करना, लेनदारों की कटौती के लिए कोई व्यवस्था न करना, विनियोगों के मूल्यों में परिवर्तनों के लिए प्रबन्ध करना आदि ।
इस प्रथा का प्रभाव— रूढ़िवादिता प्रथा से लाभ कम होते हैं और सम्पत्तियों को चिट्ठे में कम मूल्य पर और दायित्वों को अधिक मूल्य पर दिखाया जाता है। अतः इसका प्रभाव लाभ-हानि खाते एवं चिट्ठे पर पड़ता है।
इस सिद्धान्त का प्रयोग— अनिश्चितता की दशा में किया जाता है; जैसे सम्पत्तियों का जीवन काल, आयों की प्राप्ति, अप्राप्य ऋणों का होना, अनुमानित दायित्व, सम्पत्ति का जीवन-काल समाप्त होने पर मिलने वाली आय आदि ।
प्रयोग में सतर्कता- रूढ़िवादिता प्रथा का प्रयोग सतर्कता के साथ किया जाना चाहिए क्योंकि यदि भावी हानियों के लिए संचय करने में सतर्कता न बरती गयी तो ‘गुप्त संचय’ होने की सम्भावना हो सकती है और इस सिद्धान्त की अवहेलना होती है कि “लेखांकन का उद्देश्य सही सूचनाएँ देना है, छिपाना नहीं।”
(2) पूर्ण प्रकट करने की प्रथा (Convention of Full Discloser ) — लेखांकन रखने का उद्देश्य बेकार हो जाता है जहाँ यह प्रथा नहीं अपनायी जाती हैं क्योंकि इस प्रथा के अन्तर्गत लेखापालक सभी आवश्यक सूचनाएँ लेखांकन में प्रकट करते हैं कुछ भी छिपाते नहीं हैं। प्रकटीकरण करना ही लेखांकन का प्रमुख आधार है। लेखों की पूर्णता तभी होती है जब सभी आवश्यक तथ्य पूर्ण रूप से प्रकट किए जाएँ।
प्रकटीकरण के रूप- (i) रीति-रिवाज द्वारा यह लेखांकन परम्परा चली आयी है कि सभी तथ्य प्रकट किए जाने चाहिएं और कोई सौदा हो तो उसे अवश्य लिखा जाना चाहिए तथा अन्तिम खाते इस प्रकार के हों कि वे पूर्ण रूप से सभी वांछित सूचनाएँ प्रकट करते हों ।
भारतीय कहावत है : “पहले लिख और पीछे दे, भूल-चूक कागज से ले।” इसका आशय यह नहीं कि सौदा होने से पहले ही लिख लिया जाए वरन् कोई भी सौदा हो उसे लेखांकन द्वारा प्रकट अवश्य किया जाना चाहिए। यह कहावत प्रकटीकरण पर आधारित है। (ii) कानून द्वारा प्रकटीकरण अनिवार्य भी है। भारत में कम्पनी को अपनी स्थिति प्रकट करनी पड़ती है। (iii) दूरदर्शिता के आधार पर अन्तिम खातों के बाद कुछ टिप्पणियाँ दी जाती हैं जो कि ऐसे तथ्यों से सम्बन्धित होती हैं जिनका लाभ-हानि खाते और चिट्ठे में वर्णन नहीं होता है।
इस प्रथा का प्रभाव – प्रकटीकरण के कारण निम्नांकित को वह एन सूचनाएँ मिल जाती हैं जिनकी कि उन्हें आवश्यकता है- (अ) व्यवसाय के स्वामी, (ब) विनियोजक, (स) भावी विनियोजक, (द) ऋणपत्रधारी, (य) लेनदार, (र) भावी ऋणपत्रधारी, (ल) भावी लेनदार, (व) सरकार आदि ।
पूर्ण प्रकटीकरण की प्रथा का सम्बन्ध सत्यता से भी है। यदि सत्यता को ध्यान में रखकर पूर्ण प्रकटीकरण किया जाता है तो इससे लेखांकन के उद्देश्य की पूर्ति होती है।
(3) एकरूपता की प्रथा (Convention of Consistency) – लेखांकन में एकरूपता की प्रथा का आशय यह है कि वर्ष प्रति वर्ष लेखांकन की विधियाँ एवं सिद्धान्तों में कोई परिवर्तन नहीं किया जाना चाहिए। एकरूपता का आशय यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि चाहे जैसी भी परिस्थितियाँ आ जाएं नियमों एवं सिद्धान्तों आदि में कोई भी परिवर्तन नहीं किए जाएंगे। यदि आवश्यकता हो तो लेखांकन में सुधार के लिए नए नियम या परिवर्तित नियम अपनाए जा सकते हैं।
एकरूपता के प्रकार
कोहलर ने एकरूपता के निम्नांकित तीन प्रकार प्रकट किए हैं। :
- समान्तर एकरूपता
- सीधी या खंड़ी एकरूपता
- अन्य पक्षीय एकरूपता
(i) समान्तर एकरूपता — व्यवसाय की एक अवधि की कार्यक्षमता की तुलना दूसरी अवधि की कार्यक्षमता) से करने के लिए जो विधियाँ अपनायी जाती हैं वही विधियाँ अन्य वर्षों में भी उसी व्यवस्था की कार्यक्षमता की तुलना करने के लिए अपनायी जाएं तभी निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। इस प्रकार की एकरूपता को समान्तर एकरूपता (Horizontal Consistency) कहा जाता है।
(ii) सीधी या खड़ी एकरूपता— जब एक तिथि पर दो या दो से अधिक वित्तीय विवरण- पत्र बनाए जाते हैं और उनके बनाने में कुछ निर्धारित नियमों का प्रयोग किया जाता है जो कि दोनों में लागू होते हैं तो इसे सीधी या खड़ी एकरूपता (Vertical Consistency) कहा जाता है; जैसे ह्रास की गणना जिस नियम से एक वित्तीय विवरण के लिए की जाए उसी नियम से दूसरे वित्तीय विवरण के लिए भी की जानी चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि लाभ-हानि खाते के लिए हास एक विधि से दिखाया जाए और चिट्ठे में दिखाया जाने वाला हास दूसरी विधि से दिखाया जाए।
(iii) अन्य पक्षीय एकरूपता- एक ही उद्योग में एक कम्पनी की तुलना दूसरी कम्पनी से करने के लिए जो विधियाँ एक बार अपनायी जाएं वे ही विधियाँ दूसरी बार तुलना करने के लिए भी अपनायी जानी चाहिएं। ये विधियाँ लेखांकन से सम्बन्धित होनी चाहिएं, तभी इन्हें लेखांकन में एकरूपता कहा जाता है।
इस प्रथा का प्रभाव — (i) लेखांकन में एकरूपता होने के कारण एक अवधि के लेखों की तुलना दूसरी अवधि के लेखों से की जा सकती है। (ii) उद्योग की प्रगति या अवनति का ज्ञान भली भाँति किया जा सकता है। (iii) एक ही उद्योग में विभिन्न विभागों की कार्यक्षमता की तुलना की जा सकती है। (iv) व्यावसायिक स्थिति का सही ज्ञान होना। ह्रास की पद्धतियां प्रति वर्ष बदलने से चिट्ठे में प्रदर्शित की गयी सम्पत्ति का सही ज्ञान नहीं होता है। इसके विपरीत, जब हास की एक ही पद्धति प्रति वर्ष अपनायी जाती है तो सम्पत्ति का सही ज्ञान प्राप्त होता है।
(4) महत्वपूर्णता की प्रथा (Convention of Materiality) – लेखांकन में सदैव महत्वपूर्ण तथ्य अन्तिम खाते बनाते समय प्रकट किए जाते हैं और छोटी-छोटी बातें, जिनका कोई महत्व नहीं होता, प्रकट नहीं की जाती हैं। कौन-सी सूचनाएँ महत्वपूर्ण हैं और कौन-सी सूचनाएँ महत्वपूर्ण नहीं है, यह निर्णय करन लेखापालक के लिए अत्यन्त कठिन है। एक सूचना एक पक्ष के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हो सकती है और दूसरे पक्ष के दृष्टिकोण को ध्यान में रखें जिनके लिए यह सूचनाएँ दी जा रही हैं। जो सूचनाएँ बिल्कुल महत्वपूर्ण नहीं होती है, उन्हें दूसरी सूचनाओं के साथ या तो शामिल कर लिया जाता है या छोड़ दिया जाता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि एक सूचना एक अवधि के लिए महत्वपूर्ण होती है और दूसरी अवधि के लिए महत्वपूर्ण नहीं होती है। अतः लेखापालक को इस सम्बन्ध में अत्यन्त सतर्क रहना चाहिए।
इस प्रथा का प्रभाव — जब वित्तीय विवरणों में महत्वपूर्ण सूचनाओं का निर्धारित उद्देश्यों को ध्यान में रखकर उल्लेख किया जाता है तब सम्बन्धित पक्षों को कम समय में और अच्छा ज्ञान व्यवसाय के बारे मे लेखांकन के आधार पर हो जाता है।
(5) शुद्धता की प्रथा (Convention of Accuracy) – लेखांकन में जो सूचनाएँ दी जाएं उनमें शुद्धता एवं सत्यता होनी चाहिए जितनी सही (accurate) सूचना दी जाती है उतनी ही यह अधिक प्रभावशाली होती है।
लेखापालकों को सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि जो भी सूचनाएं व लेखांकन द्वारा दें उनमें उस प्रकार की शुद्धता होनी चाहिए जिस प्रकार की शुद्धता लेखांकन के उद्देश्य को ध्यान में रखकर तथा लेखांकन की गरिमा के आधार पर वांछनीय है। प्राचीन काल से यह परम्परा चली आयी है कि ‘सत्यमेव जयते’ अर्थात् सत्य की विजय होती है। लेखांकन में शुद्धता एवं सत्यता का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है।
इस प्रथा का प्रभाव- जब लेखांकन में शुद्धता एवं सत्यता होती है तो यह लेखे विश्वसनीय माने जाते हैं और उस उद्देश्य की पूर्ति करते हैं जिसके लिए वे रखे गए हैं।
(6) ऐतिहासिक लेखा प्रथा (Historical Record Convention) – जैसे ही यह निर्णय कर लिया जाता है कि व्यवसाय का पृथक अस्तित्व है वैसे ही सम्भवतः यह आवश्यक हो जाता है कि इस व्यावसायिक इकाई से सम्बन्धित सभी सौदों का लेखा किया जाए। यह सभी को विदित है कि लेखांकन के अन्तर्गत उन्हीं सौदों के सम्बन्ध में लेखे किए जाते हैं जो कि हो चुके हैं और उन सौदों के बारे में कोई लेखा नहीं किया जाता जो कि भविष्य में होने वाले हैं। कोहने समिति के अनुसार चिट्ठा एक ऐतिहासिक विवरण पत्र है। कोहेने समिति की इस विचारधारा से भी प्रकट होता है कि लेखांकन ऐतिहासिक लेखा है।
इस प्रथा का प्रभाव यदि व्यवसाय से सम्बन्धित लेखे रखे जाएं तो इनके आधार पर लेखापालक द्वारा व्यवसाय की प्रगति एवं कार्यक्षमता ज्ञात करने के लिए आवश्यक विवरण-पत्र तैयार किए जा सकते हैं।
(7) मुद्रा सम्बन्धी प्रथा (Monetary Convention) – व्यावसायिक सौदों के लेखांकन के लिए मुद्रा की इकाई का प्रयोग किया जाता है। यद्यपि यह सच है कि लेखांकन के कुछ ऐसे लेखे परिणाम से सम्बन्धित होते हैं; जैसे रहतिया, परन्तु फिर भी लेखांकन में सभी खातों में राशि के खाने में मुद्रा लिखी जाती है। जिस उपयोगिता को मुद्रा में प्रकट नहीं किया जा सकता वह लेखांकन की परिधि के बाहर होती है। यदि मुद्रा चलन से हटा ली जाए तो वर्तमान लेखांकन प्रथा समाप्त हो जाएगी।
इस प्रथा का प्रभाव— चूँकि व्यवसाय पूँजी से प्रारम्भ किया जाता है और यह पूँजी अधिकतर मुद्रा में होती है तथा क्रय-विकय, आय-व्यय आदि सभी बहुधा मुद्रा में होते हैं अतः मुद्रा में किए गए लेखों के आधार पर यह ज्ञात किया जा सकता है कि व्यवसाय में कितनी आय हुई है और कितने व्यय हुए हैं तथा व्यवसाय की वित्तीय स्थिति मुद्रा में क्या है ?
(8) लेखांकन समीकरण प्रथा (Accounting Equation Convention) – इस अवधारणा के अनुसार प्रत्येक व्यावसायिक लेन-देन के दो पहलू अथवा दो पक्ष होते हैं-डेबिट पक्ष और क्रेडिट पक्ष । प्रत्येक लेन-देन का इन दोनों पक्षों पर समान प्रभाव पड़ता है, इसीलिए इन दोनों पक्षों का योग सदैव समान रहता है अतः इस समानता को दर्शाने हेतु लेखा-विधि में भी समीकरणों का प्रयोग किया जाता है।
यदि हम प्रत्येक व्यवहार के प्रभाव को सीधे चिट्ठे पर दर्शाएं तो यह पाया जाएगा कि चिट्ठे के दोनों पक्ष-सम्पत्ति पक्ष तथा दायित्व पक्षका योग सदैव समान रहता है अर्थात् एक व्यवसाय की कुल सम्पत्तियाँ सदैव ही उस व्यवसाय के कुल दायित्वों के बराबर होंगी। यह समानता किसी भी नए व्यवहार के कारण समाप्त नहीं होगी।
(9) कार्य के चालू रहने की प्रथा (Continuity of Activity Convention) – जब कोई व्यवसाय प्रारम्भ किया जाता है तो सभी की यह मान्यता रहती है कि व्यवसाय का दिवाला नहीं निकलेगा वरन् यह चालू रहेगा। व्यवसाय का भविष्य में अनिश्चित काल तक चालू रहना एक लेखांकन प्रथा है। चूंकि व्यवसाय की सही स्थिति का ज्ञान तब तक प्राप्त नहीं किया जा सकता जब तक कि यह बन्द न हो जाए। अतः प्रति वर्ष इसके सम्बन्ध में वित्तीय विवरण तैयार किए जाते हैं। विट्ठे के बारे में यह कहा जाता है कि यह एक निश्चित तिथि पर व्यापार की स्थिति प्रकट करता है। इसमें स्थायी सम्पत्तियों को बाजार मूल्य पर न दिखाकर पुस्तकीय मूल्य में से ह्रास घटाकर दिखाया जाता है, अतः यह एक ऐतिहासिक लेखा है। लेखापालकों का यह दृष्टिकोण है कि व्यवसाय लगातार बहुत समय तक चलता रहेगा, अत: वित्तीय और लेखांकन नीतियाँ इस प्रकार की होनी चाहिए कि व्यवसाय के चालू रहने में अधिक सहायता मिले।
इस प्रथा का प्रभाव इस प्रथा के आधार पर लाभ-हानि खाते से लाभ या हानि तथा चिट्टे से वित्तीय दशा ज्ञात करने में सहायता मिलती है। एक बार क्रय की गयी सम्पत्तियों को बहुत वर्षों के चिट्ठे में आवश्यकतानुसार हास काटकर दिखाया जाता है, यह इसी प्रथा के कारण है। इसी प्रकार अदत्त व्ययों एवं पूर्वदन व्ययों का लेखा भी इसी प्रथा के आधार पर किया जाता है।
(10) लेखांकन अवधि प्रथा (Accounting Period Convention) व्यापार के जीवन को विभिन्न अध्यायों में बांटा जाता है, इनमें से प्रत्येक अध्याय को अवधि कहा गया है। प्रत्येक लेखांकन अवधि के अनुसार चिट्ठा और लाभ-हानि खाता बनाया जाता है। साधारणतया लेखांकन की अवधि एक वर्ष की होती है. परन्तु आवश्यकतानुसार यह अवधि छोटी हो सकती है। चूँकि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती हुई सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है और यह चक्कर एक वर्ष में पूरा होता है इसी आधार पर लेखांकन अवधि को भी एक वर्ष माना गया है। ऑस्ट्रेलिया में लगभग प्रत्येक व्यवसाय की लेखांकन अवधि 30 जून को समाप्त होती हैं, क्योंकि वहाँ पर हर वर्ष 30 जून को समाप्त माना जाता है। भारत में आयकर के दृष्टिकोण से अब प्रायः सभी दशाओं में वित्तीय वर्ष 31 मार्च को समाप्त किया जाता है।
इस प्रथा का प्रभाव — (i) लेखांकन की सबसे प्रमुख समस्या पूँजीगत मदों को जायगत मदों से अलग करना है । आयगत मद एक ऐसी मद है जो कि लेखांकन की एक अवधि के लिए होती है; जैसे वेतन, मजदूरों आदि का लेखा लाभ-हानि खाते में प्रत्येक वर्ष किया जाता है जबकि पूँजी व्यय बहुत वर्षों के लिए किए जाते हैं। अतः लेखांकन अवधि प्रथा इस सम्बन्ध में अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
(ii)लेखांकन की अवधि निर्धारित होने से व्यवसाय का इस अवधि का लाभ या हानि ज्ञात किया जा सकता है।
(iii) इस अवधि को वित्तीय स्थिति ज्ञात की जा सकती है। एक अवधि के लाभ या हानि तथा वित्तीय स्थिति की तुलना दूसरी अवधि से की जा सकती है।
(11) कानून की मान्यता प्रथा (Recognition of Law Convention ) — लेखांकन विधि के लिए आवश्यक है कि जो भी लेखे किए जाएं वे किसी भी कानून की व्यवस्था का उल्लंघन न करते हों। लेखांकन करते समय कानूनी व्यवस्था का सदैव ध्यान रखा जाता है। कम्पनियों के लेखे कम्पनी अधिनियम, 1956 को व्यवस्थाओं के अनुसार होने चाहिएं। बैंकिंग कम्पनी के लेखे बैंकिंग रेग्यूलेशन अधिनियम, 1949 के अनुसार होने चाहिएं। इसी प्रकार भारत में बहुत-से अधिनियम बहुत-से व्यवसायों के लिए हैं। यदि इनमें लेखांकन सम्बन्धी व्यवस्थाएं आ जाएं तो इनका पालन किया जाता है।
इस प्रथा का प्रभाव – लेखे ठीक ढंग से एवं उचित प्रकार से रखे जाते हैं और उनमें कोई ऐसी अनियमितताएँ या कपट नहीं हो सकते जिनसे सम्बन्धित पक्षकारों को क्षति पहुँचे क्योंकि लेखांकन से सम्बन्धित विधान बनाते समय उन तमाम व्यवस्थाओं को ध्यान में रखा जाता है जिनमें गड़बड़ी की सम्भावना हो सकती है।
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