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विकास के विभिन्न सिद्धान्त | various theories of development in Hindi

विकास के विभिन्न सिद्धान्त | various theories of development in Hindi
विकास के विभिन्न सिद्धान्त | various theories of development in Hindi
विकास के विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन कीजिये। 

मानव के विकास की प्रक्रिया उसके गर्भ में आने से ही प्रारम्भ हो जाती है तथा जन्म के पश्चात् जीवन पर्यन्त किसी-न-किसी रूप में चलती रहती है। जब मानव शिशु विकास की एक अवस्था से दूसरी अवस्था या स्थिति में प्रवेश करता है जब उसमें अनेक परिवर्तन दिखलाई पड़ते हैं। ये परिवर्तन कुछ निश्चित सिद्धान्तों के अनुसार होते हैं, जिन्हें विकास के सिद्धान्त कहा जाता है। मनोवैज्ञानिकों ने विकास के अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है जिनमें निस्न प्रमुख हैं-

1. निरन्तर विकास का सिद्धान्त (Principles of Continuous Development) – विकास की प्रक्रिया निरन्तर अविराम गति से चलती रहती है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक मानव शिशु पूर्ण परिपक्व नहीं हो जाता है। किन्तु यह गति कभी तीव्र तथा कभी धीमी होती है। उदाहरणार्थ जन्म के पश्चात् प्रथम तीन वर्षों तक बालक के विकास की प्रक्रिया बहुत तीव्र होती है तथा उसके पश्चात् कुछ वर्षों तक इसकी गति धीमी हो जाती है परन्तु यह रुकती नहीं है।

2. विकास की विभिन्न गति का सिद्धान्त (Principle of Different speed) – विभिन्न प्राणियों के विकास की गति तो भिन्न-भिन्न होती ही है किन्तु एक ही प्रजाति के प्राणियों के विकास की गति में भी भिन्नता होती है। उदाहरणार्थ कुछ बालक अपनी आयु के दूसरे बालकों की अपेक्षा मानसिक दृष्टि से अधिक परिपक्व होते हैं।

3. विकास का अनुक्रम का सिद्धान्त (Principle of Developmental sequence) – इस सिद्धान्त के अनुसार बालक के सभी प्रकार के विकास का एक निश्चित क्रम होता है। उदाहरण के लिए-शारीरिक एवं गामक विकास के अन्तर्गत बालक पहले घिसटना एवं बैठना प्रारम्भ करता है तत्पश्चात् कुछ दिनों बाद खड़ा होने लगता है। इसी प्रकार मानसिक विकास के अन्तर्गत पहले एक या दो अक्षर वाले शब्द जैसे ‘पा’, ‘बा’, ‘मम’ आदि बोलना शुरु करता है तथा कुछ और बड़ा होने पर शब्द एवं वाक्य बोलने लगता है।

4. विकास की दिशा का सिद्धान्त (Principle of Direction)- बालक का विकास एक दिशा में होता है। यह दिशा सिर से पैर की ओर होती है। जन्म के प्रथम सप्ताह में मानव शिशु केवल अपने सिर को हिला-डुला पाता है। तीन महीने की अवस्था होने पर वह अपनी आंखों की गति पर नियंत्रण रखने लगता है। 6 माह की उम्र पर वह अपने हाथों की गति हो नियंत्रित करने लगता है तथा लगभग एक वर्ष की उम्र में वह बैठने और घिसटकर आगे बढ़ने लगता है। एक वर्ष की अवस्था पार करने पर उसके पैरों में खड़ा होने की शक्ति आ जाती है तथा वह चलने लगता है। इस प्रकार विकास सिर से पैर की दिशा में होता है।

5. एकीकरण का सिद्धान्त (Principle of Integration) – बालक के विभिन्न अंगों के विकास में समन्वय अथवा एकीकरण होता है। उदाहरणार्थ- मानव शिशु पहले पूरे हाथ को हिलाता है उसके बाद उंगलियों को चलाता है तथा कुछ दिनों बाद हाथ एवं उंगलियों को एक साथ हिलाने और चलाने लगता है। इसी प्रकार शारीरिक एवं मानसिक विकास में भी समन्वय होता है। एक प्रकार के विकास से दूसरे प्रकार का विकास जुड़ा होता है।

6. पारस्परिक सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Relationship)- बालक के विकास के विभिन्न पक्षों अथवा आयामों में पारस्परिक सम्बन्ध होता है। उदाहरणार्थ- शारीरिक विकास के साथ-साथ बालक की रुचियों, व्यवहार एवं मानसिक क्षमताओं में भी परिवर्तन होता है अर्थात् शारीरिक विकास के साथ-साथ मानसिक एवं संवेगात्मक विकास भी होता रहता है। इसके अतिरिक्त शरीर के विभिन्न अंगों के विकास की गति में भिन्नता होने पर भी उनमें आपस में सम्बन्ध होता है तथा वे एक दूसरे को प्रभावित भी करते हैं। इस प्रकार विकास के विभिन्न पहलू एक दूसरे से सम्बन्धित होते हैं।

7. समान प्रतिमान का सिद्धान्त (Principle of Uniform Pattern)- प्राणी जगत में प्रत्येक प्रजाति का विकास एक निश्चित एवं पूर्व-निर्धारित ढंग से होता है अर्थात् उस प्रजाति के सभी सदस्यों का विकास समान प्रतिमान में होता है। इसीलिए मनुष्य का जन्म चाहे भारत में या अमेरिका में या ब्रिटेन में हुआ हो उसका विकास का क्रम एक जैसा होता है। इस सिद्धान्त को हरलॉक ने इस प्रकार स्पष्ट किया है-“प्रत्येक जाति चाहे वह पशुजाति हो या मानव जाति अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है।”

8. व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Individual Difference)- यद्यपि मानव विकास का एक समान प्रतिमान होता है किन्तु वंशानुक्रम एवं वातावरण की भिन्नता के कारण प्रत्येक व्यक्ति के विकास में कुछ भिन्नता भी होती है। जिस प्रकार कोई भी दो व्यक्ति पूर्णरूपेण एक समान नहीं हो सकते हैं उसी तरह दो अलग-अलग व्यक्तियों का विकास भी पूर्णरूपेण एक तरह नहीं होता है। इसके अतिरिक्त बालकों और बालिकाओं के विकास में भी भिन्नता होती है।

उदाहरणार्थ- बालिकाओं का शारीरिक विकास बालकों के शारीरिक विकास से बहुत अधिक भिन्न होता है।

9. परिपक्वता एवं तत्परता का सिद्धान्त (Principle of Maturity and Readiness)- इस सिद्धान्त के अनुसार विकास का सीधा सम्बन्ध शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता से है। जब व्यक्ति अपनी आन्तरिक शक्तियों एवं वातावरण के प्रति कुशलतापूर्वक प्रतिक्रिया करने लगता है तब उसे कई प्रकार की विशिष्ट क्रियाओं को करने में सक्षम अथवा परिपक्व माना जाने लगता है। उदाहरणार्थ-एक वर्ष के शिशु से हम पूरे वाक्य बोलने एवं दौड़ने की क्रिया नहीं सम्पन्न करा सकते क्योंकि वह इसके लिए परिपक्व एवं तत्पर नहीं होता है। किन्तु 2-3 वर्ष की अवस्था पूरी करने पर वह इन क्रियाओं को करने में सक्षम होता है क्योंकि उसमें इसके लिए आवश्यक शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता आ जाती है तथा वह इन्हें करने हेतु तत्पर होता है।

10. मूल प्रवृत्ति का सिद्धान्त (Principle of Instincts) – प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैक्डूगल के अनुसार प्राणी का विकास उसकी मूल प्रवृत्तियों के आधार पर होता है। उदाहरणार्थ- स्त्रियों में मातृत्व की मूल प्रवृत्ति होती है अतः उनका विकास इस मूल प्रवृत्ति के आधार पर ही होता है। प्रत्येक व्यक्ति में काम (Sex) की मूल प्रवृत्ति होती है जिसके आधार पर कामुकता की भावना का विकास होता है। इस प्रकार मनुष्य के प्रत्येक कार्य एवं व्यवहार का आधार उसमें निहित मूल प्रवृत्तियां होती हैं।

11. सहज क्रिया का सिद्धान्त (Principle of Reflex Action) – मूल प्रवृत्तियों के समान ही सहज क्रियाएं भी जन्मजात एवं प्रकृतिजन्य होती हैं। ये क्रियाएं एक प्रकार के प्रजातीय गुण हैं जो व्यक्ति के जैविक उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। पलक झपकना, छींक आना, तेज प्रकाश होने पर आंखों का स्वतः बन्द हो जाना आदि सहज क्रियाएं हैं। ये क्रियाएं व्यक्ति की आत्मरक्षा करती हैं तथा अनजाने ही स्वतः सम्पन्न हो जाती हैं। ये सहज क्रियाएं व्यक्ति के विकास की ओर संकेत करती हैं। दूसरे शब्दों में विकास हेतु इन क्रियाओं का होना आवश्यक होता है।

12. सामान्य एवं विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धान्त (Principle of General and Specific Responses) – इस सिद्धान्त के अनुसार बालक का विकास सामान्य से विशिष्ट की ओर होता है। इसका तात्पर्य यह है कि बालक विशिष्ट प्रतिक्रियाओं को करने से पूर्व सामान्य प्रतिक्रियाएं करता है। उदाहरणार्थ- प्रारम्भ में मानव शिशु पूरे हाथ को उठाता या हिलाता है तत्पश्चात् उंगलियों को चलाता है। इसी प्रकार प्रारम्भ में वह केवल उत्तेजना का अनुभव करता है तथा बाद में संवेगों की अभिव्यक्त करने लगता है। भाषा विकास भी प्रारम्भ में रोने एवं निरर्थक शब्दों से शुरू होता है तथा बाद में वाक्यों को बोलने लगता है।

में हरलॉक ने इस सिद्धान्त को इस प्रकार प्रस्तुत किया है- ‘विकास की सभी अवस्थाओं बालक की प्रतिक्रियाएं विशिष्ट बनने से पूर्व सामान्य प्रकार की होती हैं।’

13. वंशानुक्रम एवं वातावरण की अन्तःक्रिया का सिद्धान्त (Principle of Interaction of Heredity and Environment) – इस सिद्धान्त के अनुसार, व्यक्ति वंशानुक्रम एवं वातावरण की अन्तःक्रिया का परिणाम होता है। बालक के विकास में इन दोनों का योगदान होता है। उच्चकोटि के वंशानुक्रम अर्थात् जन्मजात शक्तियों को लेकर उत्पन्न होने पर भी यदि उपयुक्त वातावरण नहीं मिल पाता है तब बालक का समुचित विकास नहीं हो पाता है। इसी प्रकार निस्न जन्मजात शक्तियों वाले बालक को बहुत अच्छा वातावरण मिलने पर भी उसका सही विकास नहीं हो पाता है। इस प्रकार मानव के विकास में वंशानुक्रम एवं वातावरण दोनों का योगदान होता है।

स्किनर ने इस सिद्धान्त को इस प्रकार व्यक्त किया है-“यह सिद्ध किया जा चुका है कि वंशानुक्रम उन सीमाओं को निश्चित करता है जिनके आगे बालक का विकास नहीं किया जा सकता है। इसी प्रकार यह भी प्रमाणित किया जा चुका है कि जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में दूषित वातावरण, कुपोषण अथवा गम्भीर रोग जन्मजात योग्यताओं को कुंठित या निर्बल कर सकते  हैं।”

14. मस्तकोधमुखी सिद्धान्त (Cephaulocandal Theory) – मनोवैज्ञानिकों द्वारा विकास की दिशा के सिद्धान्त को दो प्रकार से अभिव्यक्त किया गया है-

  1. (क) मस्तकोधमुखी सिद्धान्त तथा
  2. (ख) निकट दूर का सिद्धान्त

मस्तकोधमुखी सिद्धान्त के अनुसार शारीरिक ढांचे का विकास सिर से पैर की ओर होता है अर्थात् सबसे पहले सिर प्रौढ़ होता है उसके पश्चात् आंख, हाथ तथा अन्य मध्यवर्ती अंग और सबसे अन्त में पैरों को परिपक्वता या प्रौढ़ावस्था प्राप्त होती है।

15. निकट-दूर सिद्धान्त (Proximodigital Theory) – निकट दूर के सिद्धान्त को ‘केन्द्र से परिधि की ओर’ का सिद्धान्त भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार आन्तरिक शारीरिक अंगों की क्रिया क्षमता का विकास केन्द्र से परिधि की ओर होता है। स्नायुमण्डल को केन्द्र माना जाता है। सबसे पहले स्नायुमण्डल का विकास होता है। इसके पश्चात् स्नायुमण्डल के निकट के अंगों का विकास होता है। इसीलिए सबसे पहले हृदय पूर्ण कार्यक्षमता प्राप्त करता है तथा बाद में उससे निकटतम दूरी वाले अंगों को पूर्ण कार्यक्षमता प्राप्त हो पाती है। इस प्रकार केन्द्र अर्थात् स्नायुमण्डल से जो अंग जितनी अधिक दूर होता है उसका विकास उतनी ही अधिक देर में होता है।

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Anjali Yadav

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