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विद्यालय संगठन के सिद्धान्त (PRINCIPLES OF SCHOOL ORGANIZATION)
शिक्षा के उद्देश्यों की अधिकतम प्राप्ति हेतु संगठन का कुछ सुविचारित सिद्धान्तों पर आधारित होना परमावश्यक है। अनेक विद्वानों ने विद्यालय संगठन के विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। उनमें से कुछ प्रमुख एवं मूलभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
(1) बाल केन्द्रित (Child Centred) विद्यालय का मुख्य उद्देश्य बालक का सर्वोन्मुखी विकास करना है। इस दृष्टि से संगठन बाल केन्द्रित होना चाहिए। यह संगठन ऐसा हो जिसके द्वारा बालकों की विभिन्न योग्यताओं, अभिरुचियों, शक्तियों, संवेगों एवं मूल प्रवृत्तियों को स्वस्थ दिशा में विकसित किया जा सके। संगठन द्वारा विद्यालय में ऐसा वातावरण उत्पन्न किया जाना चाहिए जिसमें बालक शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं चारित्रिक गुणों को सरलता से प्राप्त कर सकें। विद्यालय की विभिन्न क्रियाओं को उनके विकास की प्रकृति एवं गति, उनकी वैयक्तिक विभिन्नताओं, उनके पूर्व अनुभवों तथा उनके सामाजिक एवं आर्थिक स्तर को दृष्टिगत रखकर व्यवस्थित किया जाना चाहिए। ऐसा करके प्रत्येक बालक को अपना सर्वोत्तम विकास करने के लिए उपयुक्त सुविधाएँ प्रदान की जा सकेंगी।
(2) समाज केन्द्रित (Society Centred)–संगठन बाल केन्द्रित होने के साथ-साथ समाज केन्द्रित भी होना चाहिए, क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य बालकों को समाज का एक सक्रिय, उपयोगी एवं कुशल सदस्य बनाना है। संगठन में बालकों की विकास सम्बन्धी क्रियाओं के आयोजन के साथ-साथ समाज की प्रगति हेतु उचित व्यवस्था का होना भी परमावश्यक है। संगठन के द्वारा समाज में गत्यात्मक उद्देश्य को भी अभिव्यक्त किया जाना चाहिए, जिससे समाज भावी प्रगति की ओर अग्रसर हो सके। अतः विद्यालय संगठन बालक की विकासात्मक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए भी समाज के आदर्शों, आकांक्षाओं, आवश्यकताओं, मूल्यों, संस्कृति, आदि पर आधारित होना चाहिए। उदाहरणार्थ-
भारत एक कृषि प्रधान देश है, परन्तु वह फिर भी अपने देश की खाद्य सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूर्ण करने में असफल रहा है। अनाज के अधिक उत्पादन के लिए कृषि को वैज्ञानिक तथा तकनीकी आधार देना आवश्यक हो गया। इसलिए विद्यालय में कृषि की आधुनिक विधियों के शिक्षण पर बल दिया जा रहा है।
आधुनिक माँग के अनुसार देश का औद्योगीकरण भी करना परमावश्यक है। इस दृष्टि से विद्यालयों में आज विज्ञान, प्रौद्योगिकी (Technology), इंजीनियरिंग, आदि विषयों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जा रहा है।
आधुनिक माँग के अनुसार आज शिक्षा को व्यवसाय या पेशा केन्द्रित (Job-oriented) बनाने पर बल दिया जा रहा है जिससे शिक्षित बेरोजगारी को समाप्त किया जा सके।
(3) लोकतन्त्रीय सिद्धान्त (Democratic Principle) जनतन्त्र की सफलता हमारे विद्यालयों पर हो निर्भर हैं। ये विद्यालय ही हैं जो जनतन्त्र के स्तम्भों अर्थात् भावी नागरिकों का निर्माण करते हैं। बालकों में आदर्श नागरिकों के गुणों का विकास विद्यालय की व्यवस्था, क्रिया-कलाप एवं परम्पराओं के माध्यम से किया जाता है। इसलिए यह आवश्यक है कि विद्यालय का संगठन लोकन्त्रीय सिद्धान्तों एवं प्रक्रियाओं के अनुसार हो।
लोकतन्त्रीय सिद्धान्तों के अनुसार संगठन एवं प्रशासन करते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है-
1. वैयक्तिक भेदों को ध्यान में रखकर विद्यालय में विभिन्न क्रियाओं की व्यवस्था की जाए।
2. अवसर की समानता प्रदान करने के लिए व्यवस्था की जाए।
3. बालक की स्वतन्त्रता को स्वीकार किया जाए। दूसरे शब्दों में छात्रों को स्वतन्त्रता प्रदान की जाए।
4. शिक्षकों को व्यावसायिक स्वतन्त्रता का उपयोग करने के लिए अवसर प्रदान किये जाएँ।
5. विद्यालयों में पाठ्यचर्या तथा शिक्षण विधियों को लचीले सिद्धान्त के अनुकूल व्यवस्थित किया जाए।
6. विद्यालयीय संगठन एवं प्रशासन विकेन्द्रीकरण के सिद्धान्त पर आधारित किया जाए।
7. विद्यालय की सम्पूर्ण व्यवस्था को सहयोग के सिद्धान्त पर आधारित किया जाए।
(4) उपलब्ध साधनों के अधिकतम उपभोग का सिद्धान्त (Principle of Maximum Utilization of Available Sources)— जैसाकि हम देख चुके हैं अभीष्ट शैक्षिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विद्यालय संगठन के अन्तर्गत उपलब्ध साधनों का सर्वोत्तम उपयोग होना चाहिए। इस दृष्टि से संगठन द्वारा विभिन्न मानवीय एवं भौतिक तत्वों में अधिक-से-अधिक सामंजस्य स्थापित किया जाना चाहिए जिससे इनका सर्वोत्तम उपयोग करके शक्ति, समय एवं धन का अधिकतम सदुपयोग हो सके। शिक्षकों की नियुक्ति तथा विद्यालय में प्रयुक्त होने वाली समस्त सामग्री शिक्षण विधियाँ, पाठ्यक्रम, पाठ्यक्रम-सहगामी क्रियाएँ पाठ्य पुस्तकें व अन्य साज-सज्जा बालक तथा समाज की आवश्यकताओं व सामर्थ्य को ध्यान में रखकर निर्धारित की जाएँ, अन्यथा उनका अपव्यय होगा तथा संगठन से पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं हो पायेगा।
(5) लोच का सिद्धान्त (Principle of Flexibility)– मानव प्रकृति एवं समाज तथा उसको आवश्यकताएँ परिवर्तनशील हैं। जब विद्यालय का लक्ष्य बालक एवं समाज का उचित दिशाओं में विकास करना है तो इनकी बदलती हुई आवश्यकताओं के अनुकूल विद्यालय संगठन में समय-समय पर परिवर्तन होना भी नितान्त आवश्यक है। अत: विद्यालय संगठन में लोच अथवा परिवर्तनशीलता का गुण होना चाहिए। यदि संगठन में दृढ़ता एवं एकरूपता आ गई तो यह बालक एवं स्थानीय समाज की माँगों एवं आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ रहेगा।
संगठन एवं प्रशासन में भेद (DIFFERENCE BETWEEN ORGANIZATION AND ADMINISTRATION)
बहुधा लोग संगठन तथा प्रशासन का एक ही अर्थ लगाते हैं। वस्तुतः ऐसा नहीं है, जैसा कि हम ऊपर देख्न चुके हैं, संगठन एक विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के लिए साधन रूपी ढाँचा अथवा संरचना है और विद्यालय के प्रशासकीय पक्ष में मुख्यतः उनका संचालन एवं परिचालन निहित है। उत्तम संगठन अभीष्ट उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सम्भावना ही उत्पन्न करता है, परन्तु प्रशासन द्वारा उसकी प्राप्ति का क्रमिक रूप से प्रयास किया जाता है। जैसी जिस समय आवश्यकता होती है, उसी के अनुसार संगठन में परिवर्तन करके उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रशासनिक कार्य किया जाता है। इसी कारण यह कहा जाता है कि विद्यालय के प्रधान को एक उत्तम प्रशासक होने के साथ-साथ उत्तम संगठनकर्ता भी होना चाहिए, क्योंकि घटिया संगठन से उत्तम प्रशासक के सभी प्रयास निरर्थक हो जाएँगे।
संगठन की अपेक्षा प्रशासन का कार्य क्षेत्र अधिक व्यापक है। विद्यालय प्रशासक वस्तुत: संगठनात्मक एवं प्रशासकीय दोनों ही पक्षों के लिए उत्तरदायी है। विद्यालय संगठन एक संरचना है, जिसको निर्मित एवं संचालित करना प्रशासक का महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है। अमरीका के प्रसिद्ध विद्वान् गुलिक (Gulick) ने प्रशासकों के कार्य का अध्ययन करके सिद्ध किया है कि उनके कार्यों में संगठन एवं प्रशासन सम्बन्धी कार्य निहित हैं। उनके अध्ययन के परिणामों के आधार पर एक प्रशासक के प्रमुख कार्य–विद्यालय व्यवस्था का नियोजन, संगठन, समन्वय एवं संचालन माने गये हैं। अत: उसे प्रशासकीय कार्यों के साथ-साथ संगठनात्मक कार्य; जैसे—शिक्षकों की नियुक्ति, विद्यालय के लिए आवश्यक साज-सज्जा एवं धन का प्रबन्ध, आदि भी करने होते हैं। प्रशासक की कुशलता इसमें है कि वह विद्यालय में भौतिक एवं मानवीय तत्त्वों का समन्वय एवं संचालन इस प्रकार से करे कि अभीष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति सरलता से हो सके। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संगठन एवं प्रशासन घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित ही नहीं, वरन् अन्योन्याश्रित हैं।
अन्त में हम आर्थर बी. मोहमेन के शब्दों में कह सकते हैं, “शिक्षा को योजनाओं की संरचना, प्रक्रियाओं, कार्यकर्ताओं, सामग्री, विद्यालय भवन तथा वित्त के एक निश्चित संगठन के माध्यम से कार्य करना चाहिए। कार्य का स्तर सदैव उन कार्यकर्ताओं के गुणों, कुशलताओं तथा आदर्शों पर निर्भर रहता है, जो अपने दृष्टिकोण एवं दैनिक प्रयासों से शिक्षा की सम्पूर्ण सामग्री में जीवन का संचार करते हैं।”
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