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शिक्षण की विभिन्न अवस्थाएँ एवं कार्य | Various stages and tasks of teaching in Hindi

शिक्षण की विभिन्न अवस्थाएँ एवं कार्य | Various stages and tasks of teaching in Hindi
शिक्षण की विभिन्न अवस्थाएँ एवं कार्य | Various stages and tasks of teaching in Hindi

शिक्षण की विभिन्न अवस्थाएँ एवं कार्य

शिक्षण एक व्यापक और जटिल प्रक्रिया होने के कारण इससे सम्बन्धित अवस्थाएँ तथा कार्य भी बहुविध हैं। शिक्षण की विभिन्न अवस्थाओं के उद्देश्य अलग-अलग है। इन्हीं उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयास शिक्षण की प्रक्रिया के माध्यम से किया जाता है। अतः यदि शिक्षण की अवस्थाओं के सन्दर्भ में कार्यों को स्पष्ट करने के लिए प्रयास किया जाता है तो उचित ही होगा। जैक्सन महोदय के अनुसार शिक्षण की तीन प्रमुख अवस्थाएँ होती हैं।

अवस्था i शिक्षण-पूर्व अवस्था या प्रस्तुति की अवस्था,

अवस्था ii शिक्षणकालीन या अन्तर्क्रियात्मक अवस्था तथा

अवस्था iii शिक्षणोपरान्त अवस्था

यह वर्गीकरण मूलतः शिक्षण प्रक्रिया में निहित क्रियाओं के आधार पर ही किया गया है। शिक्षण की प्रथम अवस्था शिक्षण के पहले प्रस्तुति से सम्बन्धित होने के कारण इसमें पूर्व तैयारी पर बल दिया जाता है अर्थात इस अवस्था में शिक्षण के उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है, विषय-वस्तु का विश्लेषण तथा पुनः संश्लेषण करते हुए शिक्षण बिन्दुओं का निर्धारण कर लिया जाता है, अधिगमकर्ताओं के प्रविष्टि व्यवहार को ध्यान में रखते हुए शिक्षण युक्ति प्रविधि तकनीक, साधन आदि का चयन तथा निर्धारण किया जाता है और उचित पाठ्य-सामग्रियों का अवलोकन करते हुए प्रकरण तथा इकाई के विस्तार आदि भी सुनिश्चित करने के लिए प्रयास किया जाता है।

इस आधार पर कहा जा सकता है कि शिक्षण पूर्व अवस्था में शिक्षण का कार्य मूलतः विश्लेषणात्मक तथा निर्णय ग्रहण से सम्बन्धित होता है। विश्लेषणात्मक कार्य के अन्तर्गत –

(क) पाठ्य-वस्तु तथा सामग्री का विश्लेषण करना,

(ख) अधिगम सम्बन्धी परिस्थितियों का विश्लेषण करना,

(ग) प्रविष्टि व्यवहार का आकलन और विश्लेषण करना,

(घ) वैयक्तिक विभिन्नता के आधार पर कार्य-विश्लेषण करना तथा

(ङ) अनुकूल शिक्षण युक्ति विधि तकनीक प्रतिमान आदि का चयन तथा विश्लेषण करना आदि कार्य सम्मिलित किये जा सकते हैं।

इसी प्रकार निर्णय ग्रहण से सम्बन्धित कार्य के अन्तर्गत निम्नलिखित को सम्मिलित किया जा सकता है।

(क) शिक्षण उद्देश्यों का निर्धारण करना,

(ख) पाठ्य-वस्तु के विन्यास का क्रम सुनिश्चित करना,

(ग) उपयुक्त तथा अनुकूलतम शिक्षण विधि, तकनीक, युक्ति सामग्री आदि का चयन तथा निर्धारण करना।

(घ) प्रयोग हेतु आवश्यक शिक्षण कौशलों का निर्धारण करना,

(ङ) अधिगम प्रतिफल के निर्धारण हेतु मूल्यांकन तकनीक आदि का निर्धारण करना आदि।

शिक्षण की द्वितीय अवस्था ही वास्तविक अध्यापन की होती है जिस अवधि में छात्र- शिक्षक अन्तर्क्रिया के माध्यम से अधिगम को विकसित करने के लिए प्रयास करते हैं। निर्धारित अधिगम तथ्य, व्यवहार तथा अनुभवों को सम्प्रेषित करने के लिए उनका तार्किक क्रम से प्रस्तुतीकरण के लिए प्रयास करना जरूरी हो जाता है, जिन्हें छात्र क्रिया-प्रतिक्रिया के माध्यम से विचारों के विनिमय के माध्यम से तथा अस्पष्ट बिन्दुओं के बारे में पुनः स्पष्टीकरण की प्राप्ति के माध्यम से ग्रहण करने के लिए प्रयास करते हैं। अतः इस अवस्था से सम्बन्धित शिक्षण प्रमुख कार्यों को पुनः ग्रहण करने के लिए प्रयास करते हैं। अतः इस अवस्था से सम्बन्धित शिक्षण के प्रमुख कार्यों को पुनः दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है, जैसे- अन्तर्क्रियात्मक कार्य तथा निदानात्मक कार्य।

(क) अन्तर्क्रियात्मक कार्य – इस समूह के अन्तर्गत छात्र-अध्यापकीय क्रिया- प्रतिक्रियात्मक सभी कार्य निहित होते हैं जैसे-उद्दीपन को प्रस्तुत करना, प्रतिक्रिया या अनुक्रिया हेतु प्रेरणा तथा पुनर्बलन का प्रयोग करना अधिगम अनुभवों तथा व्यवहारों की संरचना तथा प्रस्तुतीकरण अधिगम अनुक्रिया के परिप्रेक्ष्य में प्रतिपुष्टि प्रदान करना सफल अधिगम या प्रतिफल का दृढ़ीकरण करना आदि।

(ख) निदानात्मक कार्य – के अन्तर्गत अधिगम काल में होने वाली कठिनाइयों तथा त्रुटियों का निरन्तर प्रतिस्थापन के लिए प्रयास करने से सम्बन्धित कार्यों या क्रिया-कलापों को समाहित किया जाता है, जैसे-अधिगमकर्त्ताओं की आवश्यकताओं का आकलन उनकी रुचि आग्रह अभिवृत्ति आदि के सन्दर्भ में करना, शीघ्र तथा मन्द अधिगमकर्त्ताओं तथा उनकी अधिगम सम्बन्धी कठिनाई या त्रुटियों का आकलन करना, अधिगम प्रतिफल में वृद्धि हेतु निदानात्मक प्रणाली का निर्धारण करना, अधिगम कठिनाई के बिन्दु तथा कारणों की पहचान करना, जैसे- गणित में दशमलव बिन्दु के स्थान को निर्धारित करने में कठिनाई जब छात्र गुणन या विभाजन की संक्रिया को कर रहे होते हैं आदि। निदानात्मक प्रयत्न इस वर्ग में प्रमुख कार्य होता है ताकि अधिगम काठिन्य या वृटि का निवारण करना सम्भव हो सके।

शिक्षण की तृतीय अबस्था में अध्यापक के द्वारा अधिगम उपलब्धि या प्रतिफल के स्तर तथा गुणवत्ता का आकलन करने के लिए प्रयास करना आवश्यक हो जाता है ताकि यह ज्ञात हो सके कि पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति शिक्षणोपरान्त हो पाई है अथवा नहीं। अतः इस अवस्था में दो प्रमुख कार्य-वर्ग निर्दिष्ट किये जा सकते हैं, जैसे- मूल्यांकन कार्य तथा सुधारात्मक कार्य।

(क) मूल्यांकन कार्य – इसके अन्तर्गत मूल्यांकन के लिए उपयुक्त उपकरण या साधनों का चयन तथा निर्धारण करना (शाब्दिक, व्यावहारिक, क्रियात्मक या अशाब्दिक आदि) वैध, विश्वसनीय तथा वस्तुनिष्ठ माध्यम का प्रयोग सुनिश्चित करना, अधिगमकर्त्ताओं का उत्साहवर्धन हेतु पुनर्बलन (शाब्दिक या अशाब्दिक) का प्रयोग करना, मूल्यांकन के उपरान्त प्रतिफल के बारे मैं उपयुक्त प्रतिपुष्टि (सकारात्मक या नकारात्मक) प्रदान करना आदि को समाहित किया जा सकता है।

(ख) उपचारात्मक कार्य- इसी प्रकार सुधारात्मक या उपचारात्मक वर्ग के अन्तर्गत अधिगम सम्बन्धी कमियों को दूर करते हुए प्रतिफल में सुधार हेतु प्रयत्न किया जाता है। अतः इस वर्ग में अपेक्षित एवं यथार्थ व्यवहारगत परिवर्तन/उपलब्धि में विभेद या भिन्नताओं का आकलन करना, शिक्षण तथा तत्सम्बन्धी व्यूह रचनाओं की प्रभावकारिता का आकलन करते हुए उनमें परिवर्तन करना, सुधारात्मक योजना का रूपायण करना, कठिनाई तथा त्रुटियों के निराकरण के लिए प्रयत्न करना, पुनर्मूल्यांकन करना तथा अनुकूल प्रतिपुष्टि प्रदान करना आदि कार्य प्रमुख रूप से निहित होते हैं।

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Anjali Yadav

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