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संगठन प्रक्रिया की सामान्य त्रुटियों का वर्णन कीजिए।
प्रायः उचित सावधानी के बाद भी संगठन में कुछ दोष आ जाते हैं जो संगठन की कार्यक्षमता को विपरीत रूप से प्रभावित करते हैं। इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं।
(1) दोषपूर्ण संगठन स्तर – प्रायः संगठन के स्तर निरीक्षण एवं नियंत्रण की दृष्टि से संतुलित नहीं होते जिससे अधिकारों का प्रतिनिधायन उचित नहीं हो पाता और निर्णयन उचित अधिकारियों द्वारा नहीं हो पाता।
(2) आदेश की अनावश्यक लम्बी श्रृंखला – प्रायः आदेश की अनावश्यक लम्बी श्रृंखला हो जाती है जिससे उच्चाधिकारियों के नेतृत्व परामर्श एवं निरीक्षण का प्रभाव कम हो जाता है। नियंत्रण ढीला एवं संदेशवाहन में विलम्ब होता है।
(3) कायोका दोषपूर्ण आवंटन- कभी-कभी कार्य का बंटवारा बिना उचित कार्य विश्लेषण, कर्मचारियों की शिक्षा कार्यकुशलता एवं अनुभव एवं बिना पद एवं विभाग की आवश्यकता को ध्यान में रखकर दोषपूर्णरूप से कर दिया जाता है, जिससे कार्य की सम्पन्नता में कठिनाई एवं देरी होती है तथा अधिकारियों को परेशानी होती है।
(4) अधिकार एवं दायित्वों के संतुलन में कमी- कभी-कभी अधिकार प्रतिनिधायन के समय अधिकार एवं दायित्वों के संतुलन का तथ्य भुला दिया जाता हैं, फलस्वरूप कुछ अधिकारी अपने अधिकारों का उचित दायित्व के अभाव में दुरुपयोग करते हैं और कुछ अधिकारी उचित अधिकारी के अभाव में अनावश्यक रूप से उत्तरदायित्व के शिकार हो जाते हैं।
(5) दोहरी अधीनस्थता – कभी-कभी एक अधीनस्थ दो अधिकारियों की अधीनस्थता में रख दिया जाता है, फलस्वरूप उसकी स्थिति तब बड़ी दयनीय होती है, जब दो अधिकारी परस्पर विरोधी आदेश देते हैं और कभी-कभी इस स्थिति का लाभ उठाकर अधीनस्थ अपने दायित्व से बच निकलता है।
(6) स्टाफ के परामर्श का निरादर- कभी-कभी संगठन में स्टाफ अधिकारी परामर्श एवं सहायता के लिए रखे जाते हैं। लेकिन व्यवहार में रेखाधिकारी उनक परामर्श का निरादर या उपेक्षा कर देते हैं और कभी-कभी स्टाफ अधिकारी अपनी स्टाफ स्थिति को भूलकर रेखाधिकारी के समान अधिकार प्रयोग करने का प्रयत्न करने लगते हैं।
(7) सम्बन्धों की स्पष्टता का अभाव- कभी-कभी आपसी सम्बन्धों की स्पष्टता की कमी होती है। अधिकारी क्षेत्र और दायित्वों का स्पष्ट उल्लेख नहीं होता। कार्यक्षेत्रों की सीमाएं अस्पष्ट होती हैं। ऐसी स्थिति में प्रायः आपसी झगड़े मनमुटाव, दायित्वों का खिसकाव, कार्यों की सम्पन्नता में बाधा, आदि समस्याएं संगठन में दृष्टिगोचर होती है।
(8) प्रतिनिधायन का सीमित होना- कभी-कभी मुख्याधिकारी अपने अधिकारों का प्रतिनिधायन अधीनस्थों में पर्याप्त रूप से नहीं करता, फलस्वरूप वह कार्य-भार से दबा रहता है, और प्रबन्ध की मुख्य और नीति सम्बन्धी समस्याओं पर विचार नहीं कर पाता और दूसरी ओर अधीनस्थ अधिकारों के भाव में कार्य को उचित रूप से सम्पन्न नहीं कर पाते, निर्णयन में विलम्ब होता है और निर्णय भी अच्छे नहीं हो पाते।
(9) मुख्याधिकारी का उत्तराधिकारी नियुक्त न करना- संगठन में मुख्याधिकारी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। अतः हर संगठन में मुख्याधिकारी की अनुपस्थिति में उसके स्थान पर कार्यवाहक मुख्याधिकारी की नियुक्ति भी होनी चाहिए। कभी-कभी मुख्याधिकारी के उत्तराधिकारी के अभाव में संगठन से परेशानी उत्पन्न हो जाती है।
(10) समन्वय एवं नियंत्रण का अभाव- प्रायः अधिकारों के प्रतिनिधायन, विभागीयकरण एवं कार्यों के आवंटन के समय नियंत्रण एवं समन्वय का ध्यान नहीं रखा जाता, फलस्वरूप संगठन में नियंत्रण और समन्वय का अभाव रहता है।
(11) अनौपचारिक वर्गों एवं औपचारिक अधिकारियों में सामंजस्य का अभाव- यद्यपि अनौपचारिक वर्गों का औपचारिक संगठन में स्पष्ट रूप से कोई स्थान नहीं होता फिर भी इस बात से मान नहीं किया जा सकता कि अनौपचारिक वर्गों का प्रभाव संगठन में पड़ता है। अगर अनौपचारिक वर्गों को सही रूप में समझा जाए और उनका प्रयोग किया जाए तो संगठन अधिक सहयोगी एवं सक्षम बन जाता है।
(12) संगठन नियमावली एवं रेखाचित्रों के संशोधन का अभाव – समय-समय पर संगठन के स्वरूप उद्देश्यों, नीतियों, विभागों, अधिकारों, दायित्वों, स्तरों एवं पदों में परिवर्तन होता रहता है। इनका समावेश यथाशीघ्र संगठन रेखाचित्रों एवं नियमावली में नहीं हो पाता, जिसके फलस्वरूप संगठन में अनेकों भ्रांतियां उत्पन्न होती हैं।
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