स्थानीय प्रशासन का अर्थ एवं विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
स्थानीय स्वराज्य या स्वशासन (Local Administration) – स्थानीय शासन की मुख्य विशेषता स्थानीय क्षेत्रों का प्रशासन स्थानीय क्षेत्र के निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा चलाये जाने से है। इन्हे संविधान द्वारा पारित अधिनियमों के आधार पर चयनित किया जाता है। ये संस्थाएं अधिनियम द्वारा प्रदाय शक्तियों का उपयोग करती है तथा इस क्षेत्र में एक विकेवसम्मत स्वायत्तता का प्रयोग करती है।
स्थानीय प्रशासन का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Local Administration)
स्थानीय प्रशासन से अभिप्राय स्थानीय स्तर के उन संस्थओं से है, जो जनता द्वारा चुनी जाती है तथा जिन्हे राष्ट्रीय या प्रान्तीय सरकार के नियन्त्रण में रहते हुए भी स्थानीय प्रशासन के मामलों में अधिकार और दायित्व प्राप्त होते हैं। स्थानीय प्रशासन अपने सीमित क्षेत्र में प्राप्त अधिकारों का प्रयोग करता है। इन निकायों की सीमित सम्प्रभुत्तता होती है। बलवन्त राम मेहता के अनुसार- “स्थानीय प्रशासन केन्द्रीय सरकार (या संघ राज्य में) राज्य सरकार के अधिनियम द्वारा निर्मित एक ऐसी शासकीय इकाई है, जिसमें नगर या ग्राम जैसे एक क्षेत्र की जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं जो अपने अधिकारों की सीमाओं के भीतर प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग लोक-कल्याण के लिए करते है। “
गिलक्राइस्ट का मानना है कि, “स्थानीय संस्थाएँ अधीनस्थ संस्थाएँ हैं, लेकिन एक सीमित क्षेत्र में इन्हें कार्य करने की स्वतन्त्रता होती हैं।
गोल्डिंग के अनुसार- “स्थानीय प्रशासन की सरलतम परिभाषा यही है कि यह एक बस्ती के लोगों द्वारा अपने मामलों का स्वयं प्रबन्ध है।
स्थानीय प्रशासन की विशेषताएँ (Features of Local Administration)
स्थानीय प्रशासन की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
(i) इसकी प्राकृति संविधिक होता है अर्थात् राज्य विधान मंडल के अधिनियम द्वारा इनके संगठन व कार्यक्षेत्र का निर्धारण होता है।
(ii) अधिनियम द्वारा प्रदत्त कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत इन्हें स्वतन्त्रता प्राप्त होती है।
(iii) इन संस्थाओं का सांविधानिक आधार होता है। 73 वें व 74वें संविधान संशोधन के माध्यम से संवैधानिक दर्जा प्रदान कर दिया गया है।
(iv) 73वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में 11वीं अनुसूची व 74वें संशोधन द्वारा 12वीं अनुसूची जोड़कर क्रमशः पंचायती राज संस्थाओं व नगरीय संस्थाओं प्रावधान किया गया है।
(v) भारत में स्थानीय स्वशासन की ये संस्थाएँ राज्य सूची का विपक्ष होने के कारण राज्य सरकारों द्वारा निर्देशित, पर्यवेक्षित व नियन्त्रित की जाती है।
(vi) स्थानीय प्रशासन संस्थाएँ दो प्रकार की हैं- ग्रामीण स्थानीय तथा नगरीय स्थानीय प्रशासन दोनों ही प्रकार की स्थानीय प्रशासन संस्थाओं पर पृथक-पृथक प्रशासनिक विभागों का नियंत्रण रहता है। ग्रामीण स्थानीय प्रशासन की संस्थाएँ जहाँ राज्य में सामुदायिक विकास और पंचायती राज्य विभाग द्वारा नियन्त्रित होती है, वहाँ नगरीय संस्थाओं का नियंत्रण राज्य सरकार के नगरीय स्वायत्त विभाग द्वारा किया जाता है।
(vii) अपने क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत निवासियों पर कर लगाकर इन्हें वित्त एकत्र करने का भी अधिकार होता है।
(viii) इन संस्थाओं को राजनीतिक हस्तक्षेप का भी सामना करता पड़ता है। इन संस्थाओं के दैनिक काम-काज में राज्य सरकार उचित-अनुचित हस्तक्षेप करती रहती है।
(ix) इन संस्थाओं का निर्वायन वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है।
(x) 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश-भर में संस्थाओं का कार्य- काल उनकी पहली मीटिंग की तिथि से, यदि वे निर्धारित समय से पूर्व भंग नही कर दी जाती है तो 5 वर्ष निर्धारित किया गया है और इससे अधिक नही। प्रत्येक स्थानीय संस्था के चुनाव उनके लिए निर्धारित 5 वर्ष की अवधि समाप्त होने के पूर्व ही सम्पन्न कराये जायेंगे और यदि संस्था को भंग किया जाता है, तो भंग किये जाने के पश्चात् यदि उस स्थानीय संस्था का निर्धारित कार्यकाल पूर्ण होने से 6 माह से कम अवधि रह गयी है, तो चुनाव कराये जाने आवश्यक नही होगे ।
(xi) भारतीय संविधान के 73वें तथा 74वें संविधान संसोधन द्वारा इन संस्थाओं में आरक्षण का प्रावधान है जो निम्नलिखित है-
(i) नगरीय तथा पंचायती राज संस्थाओं में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए आरक्षित की जाने वाली सीटों की संख्या उस क्षेत्र में उन वर्गो की जनसंख्या के अनुपात में निश्चित की जायेगी तथा सीटों के आरक्षण की इस प्रक्रिया का बारी-बारी से आवर्तन (Rotation) पंचायत क्षेत्र की सभी सीटों पर किया जाता रहेगा। इन वर्गो के लिए उपरोक्त विधि से आरक्षित की गयी कुल सीटों में से कम-से-कम एक तिहाई स्थान अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के लिए आरक्षित किये जायेंगे ।
(ii) संविधान-संशोधन अधिनियम द्वारा यह प्रावधान भी किया गया है कि राज्य विधान- मंडल, समस्त स्थानीय प्रशासन संस्थाओं में पिछड़े वर्गों के लिए भी आरक्षण का प्रावधान अधिनियम बनाकर कर सकेंगे।
(iii) प्रत्येक स्थानीय संस्था के चुनावों में महिलाओं के लिए स्थानों का आरक्षण भी किया गया है। इससे सम्बन्धित प्रावधान में कहा गया है कि अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों सहित प्रत्येक पंचायती राज संस्था में कम-से- कम तिहाई स्थानों को महिलाओं के लिए आरक्षित किया जायेगा और इस प्रकार आरक्षित किये गये स्थानों का आवंटन बारी-बारी से किया जाता रहेगा।
(iv) यह प्रावधान भी किया गया है कि स्थानीय प्रशासन संस्थाओं के अध्यक्षों या सभापतियों के पद भी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व महिलाओं के लिए, राज्य विधान- मण्डल अधिनियम बनाकर प्रक्रिया निर्धारित करते हुए आरक्षित कर सकेंगे। इस उपबन्ध में यह स्पष्ट किया गया है इन संस्थाओं में अध्यक्ष या सभापति के पदों के लिए आरक्षित किये गये स्थान उस राज्य में इन वर्गो की जनसंख्या के अनुपात में होने चाहिए। इसी प्रकार महिलाओं के लिए भी सभापति या अध्यक्ष के एक-तिहाई पद आरक्षित करने का प्रावधान किया गया है। इस प्रकार के आरक्षण के आवर्तन (Rotation) का निर्देश भी संविधान संसोधन में निहित है।
रॉब्सन के अनुसार- “स्थानीय प्रशासन में एक ऐसे प्रादेशिक, प्रभुत्वहीन समुदाय की धारणा निहित होती हैं जिसके पास अपने मामलों का नियमन करने का विधिक अधिकार तथा आवश्यक संगठन हुआ करता है। इसके लिए एक ऐसी सत्ता का होना आवश्यक है जो बाह्य नियन्त्रण से मुक्त रहकर काम कर सके और यह भी जरूरी है कि स्थानीय समुदाय का अपने मामलों के प्रशासन में साझा हो।
स्पष्ट है कि स्थानीय प्रशासन राष्ट्रीय विकास की प्रथम सीढ़ी होती है। इन संस्थाओं के विकास के द्वारा ग्रामीण भारत की समस्या को सुलझाया जा सकता है।
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