स्वतंत्रतात्मक निर्देशन विधि तथा सत्तावादी निर्देशन विधि का वर्णन कीजिए।
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स्वतंत्रात्मक निर्देशन विधि (Free Rein Technique)
स्वतंत्रात्मक या निर्बाधात्मक निर्देशन विधि अधीनस्थों को प्रोत्साहित करती है, और उन्हें अपने स्वतंत्र-विचार, प्रेरणा, परिश्रम, चातुर्य एवं उत्तरदायित्व स्वेच्छा से संस्था के लिए अर्पित करने को प्रेरित करती है। इसमें कर्मचारी स्वतंत्रता का अनुभव करते हैं। अधिकारी का हस्तक्षेप बहुत कम होता है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है, कि प्रबन्धक निरीक्षण का अपना अधिकार समाप्त कर देता है या कर्मचारियों को भटकने या अपना मार्ग स्वयं खोजने के लिए बिल्कुल स्वतंत्र छोड़ देता है। इस विधि को अपनाने वाला अधिकारी पहले यह भली भांति सुनिश्चित कर लेता है कि उसके अधीनस्थ उद्देश्यों, नीतियों कर्तव्यों, एवं अधिकार क्षेत्रों को ठीक प्रकार समझते हैं अथवा नहीं, और स्वयं निर्णय लेने के लिए के लिए पूर्णरूप से अवगत और सुयोग्य हैं अथवा नहीं। इसके बाद वह कार्यों का बंटवारा एक सामान्य ढंग से, बिना पूर्ण विवरण बताए हुए, कर देता है कि उनको कैसे कार्य सम्पन्न करना है। क्योंकि इस विधि में विस्तृत कार्यविधि एवं कार्य के प्रारम्भ करने की मूल जिम्मेदारी अधीनस्थ की ही रहती है। अतः निर्देशक अधिकारी के लिए यह भी सुनिश्चित कर लेना आवश्यक है कि जिनके सम्बन्ध में वह यह विधि अपना रहा है वे अधीनस्थ विश्वास-भाजक, उत्तरदायित्व के साथ कार्य करने वाले, कार्य करने के इच्छुक एवं सुयोग्य भी हैं। प्रायः यह निर्देशन विधि तभी अपनाई जाती है जब अधीनस्थों में ऊंचे स्तर की चतुरता, कार्य करने की तीव्र प्रेरणा, उत्तरदायित्व की भावना, लगभग उसी स्तर की होती है जितनी कि अधिकारी की स्वयं में होती है।
इस प्रकार की निर्देशन विधि में योग्य कर्मचारियों को गर्व एवं कार्य-संतोष प्राप्त होता है। वह अपने स्वतंत्र विचार प्रेषित करने का अहसास पाते हैं और कार्य को अधिक निष्ठा और उत्तरदायित्व से सम्पन्न करने का भरसक प्रयत्न करते हैं। उनमें आत्म-विश्वास पनपता है और उनमें प्रबन्ध की क्षमता एवं अनुभव की वृद्धि होती है। इसका एक प्रमुख दोष यह है कि अधिकारी एवं अधीनस्थ के दृष्टिकोणों में अन्तर हो सकता है, लेकिन फिर अधिकारी को इससे उत्पन्न खतरे को उठाने के लिएतत्पर रहना चाहिए और अधीनस्थ को निरन्तर अपनी त्रुटियों को सुधारने एवं उनसे सीखने का अवसर प्रदान करते रहना चाहिए। अधिकारी को अपना दृष्टिकोण समय-समय पर उसको प्रदर्शित करते रहना चाहिए, लेकिन उसकी आलोचना इस सीमा तक नहीं करनी चाहिए कि वह अपमानित महसूस करे, या हतोत्साहित हो जाए। इसके लिए अधिकारी को बहुत आत्म-संयम एवं धैर्य की आवश्यकता होती है।
सत्तावादी निर्देशन विधि (Autocratic Technique)
सत्तावादी निर्देशन विधि में अधीनस्थों को स्वतन्तता एवं स्वेच्छा से कार्य करने का अवसर प्रदान नहीं किया जाता, बल्कि प्रबन्धक कार्य-निष्पादन हेतु प्रत्यक्ष, स्पष्ट एवं सुनिश्चित आज्ञा देता है और क्या और कैसे सम्पन्न होता है, इसके लिए विस्तृत निर्देश देता है। ऐसा प्रबन्धक अधिकारों का प्रतिनिधायन बहुत सीमित मात्रा में करता है और सारे अधिकारों को अपने ही हाथों में केन्द्रित रखता है। वह आदेशों और विस्तृत निर्देशों में ही विश्वास रखता है, और निकट निरीक्षण करता रहता है। ऐसे प्रबन्धकों का दृष्टिकोण यह होता है कि अधीनस्थ को भुगतान सोचने के लिए नहीं किया जाता बल्कि उनसे केवल आदेश और निर्देश पालने की ही आशा की जाती है। ऐसे प्रबन्धक इस धारणा से ग्रसित होते हैं कि सम्भवतः वे ही सर्वोत्तम नियोजन एवं निर्णयन के लिए सक्षम हैं और उनके अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति उचित निर्णय लेने की स्थिति में नहीं है। सत्तावादी प्रबन्धक हमेशा ही आवश्यक रूप से अपने अधीनस्थों का अविश्वास नहीं करता है, बल्कि वह यह अनुभव करता है कि शायद बिना विस्तृत निर्देशों के अधीनस्थ ढंग से कार्य सम्पन्न नहीं कर पायेंगे।
इस प्रकार की निर्देशन विधि के परिणाम आत्मघाती होते हैं। अधीनस्थ कार्य में रूचि लेना बन्द कर देते हैं। स्वयं कुछ सोचने के स्थान पर अधिकारी के निर्देश की प्रतीक्षा करना प्रारम्भ कर देते हैं और पूर्णरूप से उसी पर निर्भर रहने लगते हैं। प्रायः कर्मचारी अधिकारी की हां में हां मिलाते हैं, उसकी आज्ञा पालन करते हैं एवं चुपचाप रहते हैं। लेकिन कार्य में रूचि, लगन, चेतना या चातुर्य के प्रदर्शन करने का प्रयास नहीं करते। बहुत से अधीनस्थ तो इस घुटन के वातावरण को छोड़कर चले भी जाते हैं। इस विधि में भावी अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण का कोई अवसर नहीं रहता। सत्तावादी निर्देशन विधि की मूलभूत अभिवृत्ति अवांछित होते हुए भी, इसके पक्ष में कुछ शक्तिशाली बातें कही जाती हैं। सत्तावादी निर्देशन से निर्णय एवं समाधान तुरन्त प्राप्त हो जाते हैं। स्पष्ट और विस्तृत निर्देश सभी प्रकार की भ्रान्तियों, कुण्ठाओं और अनिश्चितताओं को दूर कर सुनिश्चित मार्गदर्शन करने में समर्थ होता है। कभी-कभी अधीनस्थ की शत्रुता एवं आक्रमण का सबसे अच्छा उत्तर अधिकतर का प्रदर्शन ही होता है। यह विधि अनुशासन के बनाए रखने में बहुत सहायक होती है, और विशेषरूप से अनुशासनहीन परिस्थितियों को नियंत्रण करने में तो बहुत ही उपयोगी सिद्ध होती है। इसके अतिरिक्त अनुभवहीन अधीनस्थों के मार्गदर्शन के लिए भरी यह विधि बहुत प्रभावपूर्ण होती है।
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