इस्लाम युग की शिक्षा व्यवस्था का वर्णन कीजिए। अथवा मुस्लिम शिक्षा के उद्देश्यों एवं विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
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मुस्लिम शिक्षा या इस्लामिक शिक्षा (Muslim or Islamic Education)
भारतीय इतिहास का मध्य युग मुस्लिम युग के नाम से जाना जाता है। मुस्लिम शासकों ने शिक्षा को नवीन रूप प्रदान किया।
डॉ० एफ० ए० केई ने लिखा है, “मुस्लिम शिक्षा एक विदेशी प्रणाली थी जिसका भारत में प्रचलन किया गया और जो ब्राह्मणीय शिक्षा से अति अल्प सम्बन्ध रखकर अपने नवीन भूमि में विकसित हुई ।”
मुस्लिम शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श (Objectives and Ideals of Muslim Education)
भारत पर मुसलमानों ने कई शताब्दी तक शासन किया परन्तु इस सम्पूर्ण अवधि में उनकी स्थिति अपनी तथा अपने राज्य की सुरक्षा हेतु सशस्त्र सैनिकों की सी थी- सिक्वेरा । इस स्थिति में उनका ध्यान पूरी तरह से शिक्षा पर केन्द्रित न हो पाना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। टी० एन० सिक्वरा ने लिखा है- “भारत की मुस्लिम विजय इस्लामी शिक्षा के इस अन्धकार युग की समकालीन थी जबकि विद्यालयों ने संस्कृति के अपने विस्तृत आदर्शों को खो दिया था।” इतना होते हुए भी यह स्वीकार किया जायेगा कि मुस्लिम शासन में शिक्षा की नवीन प्रणाली का सूत्रपात हुआ। जिन मुस्लिम शासकों ने भारत पर शासन किया उनमें से कुछ उदार तथा सहिष्णु थे और कुछ अनुदार एवं असहिष्णु। उदाहरण के लिए अलाउद्दीन, फिरोज तुगलक और कट्टर एवं अनुदार थे जिनका लक्ष्य हिन्दुओं की शिक्षा एवं संस्कृति को नष्ट करके मुस्लिम शिक्षा एवं संस्कृति का प्रसार था। इसके विपरीत अल्तमश, मुहम्मद तुगलक, अकबर और शाहजहाँ आदि कुछ ऐसे भी मुस्लिम शासक हुए जिन्होंने शिक्षा के प्रति विशेष रुचि प्रकट की और उसे संरक्षण प्रदान कर उसके विस्तार में महान योगदान दिया। शिक्षा के प्रति मुस्लिम शासकों के इन विरोधी दृष्टिकोणों के फलस्वरूप सम्पूर्ण मुस्लिम युग में शिक्षा के उद्देश्यों एवं आदर्शों में समरूपता के दर्शन नहीं होते। इतना होने पर भी इस्लाम धर्म के सच्चे बन्दे होने के फलस्वरूप मुस्लिम शासकों ने शिक्षा के कुछ ऐसे उद्देश्य एवं आदर्श निर्धारित किए जिनमें निश्चित रूप से एकरूपता थी। यहाँ हम मुस्लिम शिक्षा के उद्देश्यों एवं आदर्शों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं-
(1) ज्ञान का प्रसार- मुस्लिम शिक्षा का प्रथम उद्देश्य इस्लाम धर्म के अनुयायियों में ज्ञान का प्रसार था। मोहम्मद साहब ने ज्ञान को अमृत बताया था और यह कहते थे कि ज्ञान ही निजात अर्थात् मुक्ति का साधन है। ज्ञान के प्रकाश से आलोकित होकर ही व्यक्ति धर्म एवं अधर्म, कर्त्तव्य एवं अकर्त्तव्य में अन्तर कर सकता है। अपने अनुयायियों को मोहम्मद साहब ने उपदेश दिया था- “दान में धन देने की अपेक्षा अपने बच्चों को शिक्षा देना कहीं अधिक अच्छा है। छात्रों के कलम की स्याही शहीदों के खून से भी अधिक पवित्र है।”
मोहम्मद साहब के इस उपदेश को कार्य रूप में परिणित करना मुस्लिम शासकों ने अपना कर्तव्य समझा।
(2) इस्लाम धर्म का प्रसार- मुस्लिम शिक्षा का दूसरा प्रमुख उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रसार था। मुस्लिम धर्म का विस्तार अपना परम कर्त्तव्य मानते थे। उनका कहना था कि काफिरों से इस्लाम धर्म अंगीकार करवाने वाला मुसलमान गाजी होता है। इस विश्वास से प्रेरित होकर अनेक मुस्लिम शासकों ने विभिन्न विधियों का प्रयोग करके भारत में इस्लाम धर्म के प्रसार का प्रयास किया।
इन विधियों में एक विधि थी- शिक्षा द्वारा व्यक्तियों को इस्लाम के सिद्धान्तों से अवगत कराना। इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु विभिन्न स्थानों पर मकतबों और मदरसों की स्थापना की गयी। इनमें धार्मिक शिक्षा का प्रमुख स्थान था। मकतबों में कुरान की आयतों को कण्ठस्थ करना अनिवार्य था। मदरसों के अन्तर्गत दर्शन, साहित्य एवं इतिहास की शिक्षा धार्मिक सिद्धान्तों के आधार पर दी जाती थी।
डॉ० यूसुफ हुसैन का मत है- “मुस्लिम शिक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्ति धर्म की पृष्ठभूमि में बोलते एवं विचार करते थे।”
(3) मुस्लिम संस्कृति का प्रसार- मुस्लिम शिक्षा का एक अन्य प्रमुख उद्देश्य मुस्लिम संस्कृति का प्रसार था। मुसलमान भारत में अन्य देशों से आये थे अतएव उनके और हिन्दुओं की संस्कृति में पर्याप्त विषमता थी। इस विषमता की समाप्ति हेतु मुसलमानों ने शिक्षा को माध्यम बनाया। उनकी यह मान्यता थी कि वे शिक्षा के माध्यम से भारतवासियों को अपनी भाषा, आचार-विचार, सामाजिक नियमों से प्रभावित करके अपने धर्म का अवलम्बी बना सकेंगे।
(4) धार्मिकता का समावेश – मुस्लिम शिक्षा का अन्य उद्देश्य धार्मिकता का समावेश था। मजूमदार, राय, चौधरी और दत्त ने लिखा है- “भारत में मुस्लिम राज्य, धर्म राज्य था, जिसका अस्तित्व सिद्धान्त रूप में धर्म की आवश्यकताओं के फलस्वरूप उचित था।”
धर्म की आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु मुसलमानों में धार्मिकता की भावना को समाविष्ट करना आवश्यक था। इसी के फलस्वरूप मकतबों और मदरसों को साधारणतया मस्जिदों से सम्बद्ध किया जाता था जहाँ सामूहिक नमाज एक सामान्य बात थी। मकतबों और मदरसों में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों को इस धार्मिक वातावरण द्वारा धार्मिकता की शिक्षा दी जाती थी। साथ ही उन्हें जीवन में धर्म के महत्त्व एवं गौरव से भी परिचित कराया जाता था।
(5) नैतिकता पर विशेष बल- मुस्लिम शिक्षा का एक अन्य उद्देश्य व्यक्तियों में इस्लाम के सिद्धान्तों के अनुसार विशिष्ट नैतिकता का समावेश था। इस्लामी शिक्षा में नैतिकता पर भी विशेष बल दिया गया था क्योंकि इस्लाम धर्म का उद्देश्य एक विशेष प्रकार की नैतिकता का विकास करना था। स्वयं हजरत मोहम्मद ने न केवल ईमानदारी की शिक्षा दी बल्कि वह स्वयं भी बाल्यावस्था से ईमानदारी लिए प्रसिद्ध थे। उन्हें ‘अमीन’ की उपाधि भी दी गयी। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि मुसलमानों का नैतिक दृष्टिकोण हिन्दुओं की अपेक्षा भिन्न था।
(6) चरित्र-निर्माण- मुस्लिम शिक्षा का उद्देश्य चरित्र का निर्माण करना था। इसमें कोई संदेह नहीं कि मुहम्मद साहब ने एक सुधारक का कार्य किया तथा मानव मात्र के सुधार के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण शिक्षायें भी दी हैं। इसीलिए शिक्षा को व्यक्ति के नैतिक व भौतिक उन्नति का साधन माना है और उनकी दृष्टि में चरित्र निर्माण के बल पर ही मनुष्य अपना विकास कर सकता हैं।
(7) सांसारिक ऐश्वर्य की प्राप्ति- मुस्लिम शिक्षा का उद्देश्य सांसारिक ऐश्वर्य की प्राप्ति भी थी। यह शिक्षा व्यक्तियों को सांसारिक ऐश्वर्य प्राप्त करने के योग्य बनाती थी। इस्लाम में पुनर्जन्म का कोई स्थान नहीं है। यह धर्म पारलौकिक जीवन की चर्चा केवल इहलौकिक जीवन का उल्लेख करता है, फलस्वरूप मुसलमानों का विश्वास था कि उनका जीवन केवल सांसारिक ही है तथा इसमें सभी प्रकार के सुखों एवं ऐश्वर्य का उपभोग करना चाहिए।
मुसलमानों की इस आकांक्षा की पूर्ति हेतु मुस्लिम शासकों ने राज्य के निम्न पदों से लेकर उच्चतम पदों तक सुशिक्षित व्यक्तियों की नियुक्ति की। इसकी पुष्टि करते हुए जाफर ने लिखा है- “ज्ञान का अत्यधिक सम्मान किया जाता था और विद्वान मनुष्यों के लिए सम्पूर्ण देश में प्रेम और सम्मान था। राज्य ने भी उनको प्रत्येक सम्भव विधि से प्रोत्साहित किया। न्यायाधीशों, कानूनवेत्ताओं और धर्माधिकारियों का इसी वर्ग के मनुष्यों में से चुनाव किया जाता था।” इस स्थिति में यह स्वाभाविक था कि इन पदों की प्राप्ति हेतु न केवल मुसलमान बल्कि हिन्दू भी मुस्लिम शिक्षा ग्रहण करने हेतु उत्साहित हुए।
(8) राजनीतिक उद्देश्य- इस्लामी शिक्षा का राजनीतिक उद्देश्य भी था। मुस्लिम शासकों को हमेशा इस बात का भय बना रहता था कि कहीं हिन्दू जनता उनका विरोध न करे। अतः उनके लिए ऐसी राजनीतिक अवस्था उत्पन्न करना आवश्यक हो गया था जिसके द्वारा उनका शासन स्थायी रूप से चल सके। मुगल सम्राट अकबर का शिक्षा सम्बन्धी यही दृष्टिकोण था।
(9) मुस्लिम श्रेष्ठता की स्थापना- मुस्लिम शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य हिन्दू सभ्यता एवं संस्कृति को प्रभावित करके भारत में मुस्लिम श्रेष्ठता को सुदृढ़ आधार पर स्थापित करना था। मुस्लिम शासक यह भलीभाँति जानते थे कि शिक्षा ही वह साधन है जिसके द्वारा हिन्दुओं के विचारों एवं दृष्टिकोण में परिवर्तन करके उन्हें भारत में मुस्लिम शासन का स्थिर स्तम्भ बनाया जा सकता है। अतएव शिक्षा के माध्यम से हिन्दुओं के मस्तिष्क में मुस्लिम आदर्शों एवं सिद्धान्तों को समाविष्ट करने का पूरा-पूरा उपयोग किया गया।
मुगल सम्राटों से पहले मुस्लिम शासकों की शिक्षा की कोई निश्चित नीति नहीं थीं। वे व्यक्तिगत रुचियों एवं आवश्यकताओं के अनुसार समय-समय पर शिक्षा के उद्देश्यों में थोड़ा परिवर्तन करते रहे परन्तु अधिकतर मुस्लिम युग में शिक्षा के उपर्युक्त उद्देश्य ही थे।
मध्यकालीन शिक्षा के गुण अथवा विशेषताएँ (Qualities or Features of Medieval Education)
इस शिक्षा प्रणाली के निम्न गुण एवं विशेषताएँ थीं-
(1) निःशुल्क शिक्षा (Free Education) – मुस्लिम काल में शिक्षा शुल्क नहीं लिया जाता था। शिक्षा संस्थाओं का सारा व्यय, अमीर तथा राजा, महाराजा उठाया करते थे। कुछ संस्थाओं को आर्थिक व्यवस्था सामाजिक समितियों द्वारा की जाती थी।
(2) शिक्षा की अनिवार्यता (Compulsory Education) – मुसलमान बालकों के लिए, शिक्षा ग्रहण करना अनिवार्य था। इस्लाम धर्म में शिक्षा प्राप्त करने को एक धार्मिक कर्त्तव्य माना गया है। कुरान शरीफ में कहा गया है कि जो व्यक्ति ज्ञान ग्रहण करता है उसी को अल्लाह की इनायत हासिल होती है। अमीर अली (Amir Ali) ने ‘Spirit of Islam’ में कुरान शरीफ के इन्हीं विचारों का वर्णन किया है।
(3) धार्मिक और सांसारिक शिक्षा को समान महत्त्व (Equal Importance to Religious and Material Education)- मुस्लिम शिक्षा की विशेषता यह थी कि इसमें धार्मिक तथा लौकिक शिक्षा दोनों को बराबर महत्त्व दिया गया था। चूँकि मुस्लिम शिक्षा का उद्देश्य धर्म प्रचार करना था, इसलिए प्रत्येक शासक ने इसकी ओर ध्यान दिया। दूसरी ओर पुनर्जन्म में विश्वास न करने के कारण शिक्षा का वर्तमान जीवन में ही उपभोग की भावना शासकों तथा विद्यार्थियों में रही, इस कारण लौकिक साहित्य की भी पर्याप्त उन्नति हुई।
(4) साहित्य तथा इतिहास का विकास (Progress of Literature and History) – मुस्लिम शासकों के दरबारों में विद्वानों को आश्रय दिया जाता था, इसलिए इस काल में साहित्य के निर्माण में सहायता मिली। मुगलों के समय में उस समय के इतिहास को लिखने के लिए प्रोत्साहन दिया गया। इस कारण मुस्लिम काल में इतिहास तथा साहित्य का विकास हुआ। अनेक प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों की रचना हुई। इस कारण से हिन्दी साहित्य का विकास हुआ। जायसी का पद्मावत्, बिहारी की सतसई, शिवराज भूषण, रामचरितमानस की रचना इसी काल में हुई थी। ‘आइने अकबरी’, ‘बाबरनामा’, ‘हुमायूँनामा’ आदि ऐतिहासिक ग्रन्थ इसी काल की देन हैं। जियाउद्दीन बर्नी, अबुल फजल और बदायूँनी इसी काल के इतिहासकार थे।
(5) व्यावहारिकता (Practicability) शिक्षा केवल शिक्षा के लिए न होकर ‘जीवन के लिए’ थी। इस काल में शिक्षा का उद्देश्य भावी जीवन को सुखी तथा समृद्धिशाली बनाना था। पाठ्यक्रम में जीवनोपयोगी विषयों को पढ़ाया जाता था। इस तरह उस काल की शिक्षा व्यावहारिक थी।
(6) शिक्षण संस्थाओं का व्यवस्थित स्वरूप (Established form of Educational Institutions) इस काल में शिक्षा का स्वरूप व्यवस्थित होने लगा था जिससे प्राथमिक शिक्षा के बाद उच्च शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था हो गई थी। मकतबों से शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थी मदरसों में प्रवेश पाते थे। इस काल में अनेक व्यवस्थित मकतब तथा मदरसे विकसित हो चुके थे।
(7) आदर्श गुरु-शिष्य सम्बन्ध (Ideal Teacher-Taught Relation) वैदिक तथा बौद्धकाल की भाँति इस काल में भी गुरु-शिष्य सम्बन्ध मधुर थे। विद्यार्थी अपने अध्यापक की आज्ञा का पालन तथा आदर करता था। अध्यापक भी विद्यार्थियों से पुत्रवत् स्नेह करते थे परन्तु प्राचीनकाल के सम्बन्धों जैसी श्रेष्ठता अब नहीं रह गई थी।
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