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पिछड़े बालक किसे कहते हैं ? पिछड़े बालकों के प्रकार एंव पिछड़े हुए बालकों की शिक्षा

पिछड़े बालक किसे कहते हैं ? पिछड़े बालकों के प्रकार एंव पिछड़े हुए बालकों की शिक्षा
पिछड़े बालक किसे कहते हैं ? पिछड़े बालकों के प्रकार एंव पिछड़े हुए बालकों की शिक्षा

पिछड़े बालक किसे कहते हैं ? पिछड़े बालकों के प्रकारों को बताइए। इन बालकों की शिक्षा व्यवस्था किस प्रकार होनी चाहिए ? वर्णन कीजिए।

पिछड़े बालक (Backward Children)

पिछड़े हुए बालक-बालिकाएँ वे होते हैं जो किसी तथ्य को बार-बार समझाने पर भी नहीं समझ पाते अथवा औसत बकों की भाँति कार्य नहीं कर पाते। सिरिलबर्ट ने पिछड़े बालक की परिभाषा देते हुए लिखा है- “एक पिछड़ा बालक वह है जो अपने विद्यालय जीवन के मध्यकाल (लगभग साढ़े दस वर्ष की आयु) में अपनी कक्षा से नीचे की कक्षा का कार्य नहीं कर सकता जो कि उसकी आयु के लिए सामान्य कार्य है।”

शॉनेल का मत है- “पिछड़ा छात्र वह है जो अपने आयु के अन्य बालकों की अपेक्षा उल्लेखनीय शैक्षिक न्यूनता प्रदर्शित करता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि पिछड़ा बालक अपनी आयु के सामान्य बालकों से पढ़ने-लिखने में पीछे रहता है। बुद्धि-लब्धि के आधार पर सामान्य बुद्धि-लब्धि अर्थात् 70 बुद्धि-लब्धि के बालकों को पिछड़ा हुआ कहा जाता है। बहुत से मनोवैज्ञानिक 65 से कम बुद्धि-लब्धि वाले बालकों को पिछड़ा हुआ मानते हैं।

पिछड़े बालकों के प्रकार (Kinds of Backward Children)

पिछड़े हुए बालक अनेक प्रकार के होते हैं। यहाँ इनका उल्लेख किया जा रहा है-

(1) शारीरिक दोष के फलस्वरूप पिछड़े हुए बालक- इस तरह के बालक वे होते हैं जिनकी ज्ञानेन्द्रियाँ ठीक से कार्य नहीं करतीं, यथा बहरापन अथवा ऊंचा सुनना, हकलाना, तुतलाना तथा आँख की कमजोरी आदि पिछड़ेपन के कारण होते हैं।

(2) मानसिक दृष्टि से पिछड़े हुए बालक- इस तरह के बालकों की बुद्धि-लब्धि 60 से कम होती है। मानसिक दृष्टि से पिछड़े हुए बालक भी तीन तरह के होते हैं मन्द, मूढ़ और जड़ बुद्धि ।

(3) संवेगात्मक दृष्टि से पिछड़े हुए बालक- इस तरह के बालकों के अन्तर्गत वे बालक आते हैं जिन्हें माता-पिता, अभिभावकों और शिक्षकों से स्नेह एवं सहानुभूति नहीं प्राप्त होती और उन्हें सब ओर से तिरस्कार ही मिलता है। इसके फलस्वरूप उनमें चिन्ता, तनाव, निराशा तथा उदासीनता आदि के भाव परिलक्षित होते हैं तथा उनका मन पढ़ाई-लिखाई में नहीं लगता।

(4) शिक्षा के अभाव में पिछड़े हुए बालक- इस तरह के बालक सामान्य बुद्धि के होते हुए भी किन्हीं कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते। असुविधा अथवा अभाव के फलस्वरूप अथवा ध्यान न दिये जाने के कारण वे पढ़ने-लिखने में पीछे रह जाते हैं।

(5) वातावरण और परिस्थितियों के फलस्वरूप पिछड़े बालक-कुछ बालक परिवार के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक वातावरण के ठीक न होने के फलस्वरूप पिछड़ जा हैं।

पिछड़े हुए बालकों की शिक्षा (Education of Backward Children)

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि पिछड़ेपन का कारण परिवार, विद्यालय, शारीरिक दोष, मानसिक और संवेगात्मक विकास में कमी आदि होते हैं। इन्हें दूर करने के लिए बालक की शिक्षा की व्यवस्था करने में परिवार, विद्यालय एवं समाज का सहयोग अत्यन्त आवश्यक है। एक शिक्षा मनोवैज्ञानिक ने लिखा है- “शिक्षकों, अभिभावकों, समाज-सेवकों और विद्यालय चिकित्सकों से मिलकर यह कार्य करना चाहिए जिससे कि पिछड़ेपन के कारणों की खोज की जा सके और उन बालकों हेतु उचित उपचारों का प्रयोग किया जा सके।” पिछड़े बालकों के उपचार और शिक्षा के सम्बन्ध में निम्न बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए-

(1) शारीरिक दोषों का उपचार- जो बालक शारीरिक दोषों और रोगों से युक्त होते हैं उनके रोगों के उपचार की व्यवस्था की जानी चाहिए। यदि किसी बालक को कम दिखाई अथवा सुनाई देता है तो उसे कक्षा में आगे बैठाना चाहिए।

(2) आर्थिक सहायता- निर्धन परिवार के बच्चों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए उन्हें निःशुल्क शिक्षा देने के साथ ही उनके लिए छात्रवृत्ति आदि की भी व्यवस्था की जानी चाहिए।

(3) वातावरण- बालकों के पारिवारिक वातावरण का सुधार करने के लिए परिवार के सदस्यों का सहयोग आवश्यक है। इसके हेतु विद्यालय और परिवार में सहयोग स्थापित किया जाना चाहिए।

(4) सन्तुलित दृष्टिकोण- पिछड़े हुए बालकों के प्रति माता-पिता, अभिभावकों और शिक्षकों का सन्तुलित दृष्टिकोण भी उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

(5) विशेष पाठ्यक्रम- पिछड़े हुए बालकों हेतु विशेष पाठ्यक्रम का भी निर्माण किया जा सकता है जिसमें निर्धारित विषय सरल और उनकी रुचि के अनुसार हो। पाठ्यक्रम अधिक से अधिक लचीला होना चाहिए और वातावरण के लिए उपयोगी, जीवन से सम्बन्धित और व्यावसायिक उद्देश्यों की पूर्ति करने वाला होना चाहिए।

(6) विशेष शिक्षण पद्धतियों का प्रयोग- पिछड़े हुए बालकों की शिक्षा के हेतु विशेष शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाना चाहिए। सरल और रुचिकर शिक्षण विधियाँ अपनाई जानी चाहिए। शिक्षण में विभिन्न सहायक सामग्रियों का प्रयोग ठीक से किया जाना चाहिए। पढ़ाने की गति धीमी होनी चाहिए, शारीरिक क्रियाओं और प्रयोगात्मक कार्यों पर अधिक बल दिया जाना चाहिए, तथा करके सीखने पर विशेष बल दिया जाना चाहिए। मौखिक शिक्षण विधि का कम-से-कम प्रयोग किया जाना चाहिए। अर्जित ज्ञान का निरन्तर अभ्यास कराना चाहिए, नैतिक शिक्षा पर बल दिया जाना चाहिए और समय-समय पर भौगोलिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक स्थानों पर भ्रमण के लिए ले जाया जाना चाहिए।

(7) विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना- इस तरह के बालकों के लिए विशिष्ट विद्यालयों की स्थापना भी की जा सकती है जहाँ वे सामान्य बालकों से अलग कक्षा में अध्ययन कर सकें। इन छात्रों की कक्षाएँ श्रेणीरहित होनी चाहिए जिससे वे अपनी रुचि के अनुसार शिक्षा प्राप्त कर सकें।

(8) योग्य अध्यापकों की नियुक्ति- इस तरह के बालकों के सुधार हेतु योग्य और कुशल अध्यापकों की विशेष आवश्यकता है। अध्यापक प्रशिक्षित होने चाहिए और उन्हें ऐसे बालकों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए तथा उनसे निरन्तर सम्पर्क बनाये रहना चाहिए।

(9) व्यक्तिगत ध्यान- पिछड़े हुए बालकों को उनकी वैयक्तिक भिन्नता को ध्यान में रखते हुए शिक्षा दी जानी चाहिए। इसके हेतु कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या कम होनी चाहिए। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि माता-पिता, शिक्षक, समाज और सरकार के सहयोग से पिछड़े हुए बालकों की समस्या को सुलझाया जा सकता है।

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Anjali Yadav

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