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भारतीय शिक्षा में प्राच्य-पाश्चात्य विवाद क्या था ? इस विवाद का अन्त कब और कैसे हुआ?

भारतीय शिक्षा में प्राच्य-पाश्चात्य विवाद क्या था ? इस विवाद का अन्त कब और कैसे हुआ?
भारतीय शिक्षा में प्राच्य-पाश्चात्य विवाद क्या था ? इस विवाद का अन्त कब और कैसे हुआ?

1813 ई0 से 1833 ई0 तक शिक्षा के क्षेत्र में किन प्रमुख विषयों पर विवाद हुए उनका संक्षेप में वर्णन कीजिए। अथवा भारतीय शिक्षा में प्राच्य-पाश्चात्य विवाद क्या था ? इस विवाद का अन्त कब और कैसे हुआ? विवेचना कीजिए।

प्राच्य – पाश्चात्य विवाद (Oriental-Occidenal Controversy )

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के “आज्ञा-पत्र” का प्रति बीस वर्ष में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट द्वारा. पुनरावर्तन किया जाता था। 1813 ई० में यह “आज्ञापत्र” पार्लियामेण्ट के समक्ष पुनरावर्तन के लिए रखा गया। चार्ल्स ग्राण्ट और विल्बर फोर्स आदि के विचारों के समर्थक इस आज्ञा-पत्र में एक धारा जुड़वाना चाहते थे, परन्तु उनके विरोधी ऐसा नहीं चाहते थे। अन्ततोगत्वा आज्ञा-पत्र में इस धारा को जोड़कर भारत में शिक्षा का दायित्व ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अपने हाथों में ले लिया। आज्ञा-पत्र की धारा 43 में उल्लेख किया गया कि, “साहित्य के पुनरुद्धार और समुन्नति के लिए भारतीय विद्वानों को प्रोत्साहित करने के लिए और भारत के ब्रिटिश प्रदेशों के निवासियों में विद्वानों के ज्ञान का प्रसार और विकास करने के लिए प्रति वर्ष कम-से-कम एक लाख रुपये की धनराशि पृथक रखी जायेगी और व्यय की जायेगी।”

1813 ई० के चार्टर की इस धारा का भारतीय शिक्षा के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। चार्ल्स ग्राण्ट और विल्बर- फोर्स लगभग 20 वर्ष पहले इस धारा को जुड़वाना चाहते थे परन्तु ऐसा नहीं हो सका था। इस धारा के फलस्वरूप ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत की शिक्षा के लिए उत्तरदायी हो गयी। इसने भारत में अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली का सूत्रपात करके भारतीय शिक्षा को एक नवीन दिशा प्रदान । नूर उल्लाह और नायक का मत है, “1813 ई० के आज्ञा-पत्र ने भारतीय शिक्षा के इतिहास को एक नई दिशा में मोड़ा।”

1813 ई० के ‘आज्ञा पत्र’ की धारा-43 ने भारतीयों की शिक्षा का दायित्व कम्पनी को सौंप दिया था तथा यह आदेश दिया कि भारतीयों की शिक्षा पर प्रति वर्ष एक लाख रुपये की धनराशि व्यय की जाय परन्तु उक्त धारा में यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि यह धनराशि किस तरह की शिक्षा पर व्यय की जाय, प्राच्य शिक्षा पर अथवा पाश्चात्य शिक्षा पर। फलस्वरूप इस प्रश्न को लेकर कम्पनी के कर्मचारियों में विवाद उत्पन्न हो गया। इस विवाद को ही ‘प्राच्य-पाश्चात्य विवाद’ की संज्ञा दी जाती है। विवाद में भाग लेने वाले दो प्रमुख दल प्राच्यवादी और पाश्चात्यवादी थे।

प्राच्य – पाश्चात्य विवाद का मुख्य कारण (Various Reason of Oriental Occidental Controversy)

विवाद का प्रमुख कारण 1813 ई० के ‘आज्ञापत्र’ की 43वीं धारा में प्रयुक्त किए गए दो शब्द थे- ‘साहित्य’ तथा ‘भारतीय विद्वान’। प्राच्यवादियों और पाश्चात्यवादियों ने इन शब्दों की व्याख्या अपने-अपने ढंग से की। इस व्याख्या को स्पष्ट करते हुए डॉ० श्रीधर मुखोपाध्याय ने लिखा है, ‘प्राच्यवादियों का कहना था कि इस धारा के ‘साहित्य’ शब्द के अन्तर्गत आते हैं केवल ‘अरबी और संस्कृत साहित्य’ और भारतीय विद्वान का अर्थ है- इन दोनों भाषाओं में से किसी भी एक भाषा का भारतीय विद्वान। पाश्चात्यवादियों का मत था इन दोनों शब्दों का अर्थ इतना संकीर्ण नहीं है। ‘साहित्य’ में अंग्रेजी का भी विशेष स्थान है।’

प्राच्यवादी- प्राच्यवादी दल में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के पुराने एवं अनुभवी कर्मचारी थे। इनमें से प्रमुख थे वारेन हेस्टिग्स और जॉन एथन डंकन जिन्होंने ‘कलकत्ता मदरसा’ और ‘बनारस संस्कृत कॉलेज’ की स्थापना की थी। उन्होंने प्राच्यवादियों की नीति का पक्ष लिया। लार्ड मिण्टो भी इसी विचार का था। इस नीति को बंगाल की ‘लोक शिक्षा समिति’ (General Council of Public Institution) के अधिकतर सदस्यों का समर्थन प्राप्त था। इन सदस्यों में समिति के मंत्री एच० एच० विल्सन तथा बंगाल के शिक्षा सचिव प्रिन्सेप उल्लेखनीय हैं।

ईस्ट इंडिया कम्पनी के ये सभी कर्मचारी तथा अन्य पोषक उच्चकोटि के कूटनीतिज्ञ थे। उनकी यह मान्यता थी कि भारतवासियों को विभाजित करके उन पर शासन किया जा सकता है। वे इस देशवासियों को अरबी, फारसी और संस्कृत पर आधारित शिक्षा प्रदान करके विभिन्न धर्मों एवं जातियों के लोगों को विभाजित रखना चाहते थे। विल्सन इस बात का विरोधी था कि भारतीय अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त करके उसके देश के लोगों से समानता करने का दावा करें। प्रिन्सेप का विचार था कि भारतीयों में अंग्रेजी भाषा और साहित्य पर एकाधिकार करने की क्षमता नहीं है यदि वे इस तरह की क्षमता प्राप्त कर लेंगे तो वे खुलकर अंग्रेजी शासन का विरोध करेंगे।

प्राच्यवादियों ने भारतीयों को अंग्रेजी शिक्षा दिए जाने के विपक्ष में तीन तर्क प्रस्तुत किए। पहला तर्क यह था कि भारत में पाश्चात्य ज्ञान एवं विज्ञान का प्रसार करने से इस देश की प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति का लोप हो जायेगा। दूसरा, तर्क यह था कि भारत में अंग्रेजी शिक्षा को प्रोत्साहन देने से भारतीय साहित्य नष्ट हो जाएगा जिसके अन्तर्गत अनेक युगों का ज्ञान संचित है। तीसरे तर्क के सम्बन्ध में टी० एन० सिक्वेरा ने लिखा है, ‘जब भारतीयों की अपनी स्वयं की एक प्राचीन और भव्य संस्कृति है, तब उनको अन्य देश की भाषा और साहित्य का ज्ञान प्राप्त करने के लिए बाध्य करना दोषपूर्ण नीति है।’

प्राच्यवादियों ने उपर्युक्त तर्क प्रस्तुत करके इस बात पर बल दिया है कि भारतीयों की प्राचीन शिक्षा, साहित्य एवं संस्कृति को सुरक्षित रखना आवश्यक है फलस्वरूप उन्होंने ऐसी शिक्षा प्रणाली लागू करने पर जोर दिया जो पाश्चात्य ज्ञान का कदापि प्रसार न करे।

पाश्चात्यवादी- पाश्चात्यवादी दल के अन्तर्गत कम्पनी के नवयुवक कर्मचारी एवं मिशनरी थे जो सम्पूर्ण देश में यत्र-तत्र बिखरे हुए थे। इस दल का न तो कोई संगठित स्वरूप था और न कोई उसका नेता फिर भी इन्होंने प्राच्यवादियों की नीति का डटकर विरोध किया। उनका यह विचार था कि प्राच्य शिक्षा प्रणाली मरणासन्न हो चुकी है और इसे पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि अरबी, फारसी और संस्कृत के साहित्यों में पुरातन और निरर्थक बातों के अलावा किसी तरह का उपयोगी ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि भारतीयों का मानसिक विकास करने के लिए उन्हें अंग्रेजी के माध्यम से पाश्चात्य ज्ञान और विज्ञानों से अवगत कराया जाना अत्यन्त आवश्यक है। यहाँ इस तथ्य का उल्लेख कर देना आवश्यक होगा कि पाश्चात्यवादियों ने भारतीयों के यूरोपीय ज्ञान और विज्ञानों के प्रसार का समर्थन किसी निस्वार्थ भावना से प्रेरित होकर नहीं किया था बल्कि अपने हित की भावना से प्रेरित होकर किया था। उन्हें अपने व्यापारिक और प्रशासनिक कार्यालयों हेतु अंग्रेजी शिक्षित बाबू वर्ग की आवश्यकता थी और उन्हें यह बात असह्य थी उनके देशवासी इंग्लैण्ड से आकर इस निम्न वर्ग में सम्मिलित हों अतएव उन्होंने यह विवेकपूर्ण माना कि भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार करके ‘बाबू वर्ग’ का निर्माण किया जाय।

प्राच्यवादियों और पाश्चात्यवादियों का यह विवाद 1843 ई० तक चलता रहा। अन्त में जनवरी 1835 ई० में ‘लोकशिक्षा समिति’ के मंत्री ने दोनों दलों के वक्तव्यों का भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिंक के प्रमुख निर्णयार्थ प्रस्तुत किया।

विवाद का अन्त, 1839 (End of the Controversy, 1839)

बैंटिंक की ‘विज्ञप्ति’ यद्यपि सरकार की शिक्षा नीति को निश्चित दिशा प्रदान करने की थी परन्तु वह ‘प्राच्य – पाश्चात्य विवाद’ का अन्त नहीं कर सकी। उसके प्रकाशन के 13 दिन बाद लार्ड विलियम बैंटिंक स्वदेश वापस लौट गया और उसके प्रस्थान करते ही प्राच्यवादियों ने फिर अपना आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। बैंटिक के बाद लार्ड ऑकलैंड ने भारत के गवर्नर जनरल का पद ग्रहण किया। उसने ‘प्राच्य पाश्चात्य विवाद’ को अत्यन्त गम्भीर रूप में पाया और चार वर्ष तक इस विवाद के कारणों का अत्यन्त सतर्कतापूर्वक अध्ययन किया। अपने अध्ययन के परिणामस्वरूप ऑकलैंड इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि विवाद का मूल कारण यह है कि सरकार द्वारा प्राच्य शिक्षा पर कम धन व्यय किया जा रहा है।

ऑकलैण्ड की यह मान्यता थी कि यदि प्राच्य शिक्षा पर कुछ और धन व्यय कर दिया जाय तो प्राच्यवादी अपना आन्दोलन स्थगित कर देंगे। इसी विश्वास के आधार पर उसने 24 नवम्बर, 1839 ई० को अपना “विवरण पत्र” प्रकाशित किया जिसमें निम्न विचार व्यक्त किए गए थे-

  1. देशी विद्यालयों को पहले की भाँति चलने दिया जाना चाहिए। उनको उतनी ही आर्थिक सहायता दी जाय जितनी अब तक दी जाती रही है।
  2. प्राच्य विद्यालयों को पहले आर्थिक सहायता दी जाय बाद में अंग्रेजी विद्यालयों को सहायता प्रदान की जाय।
  3. देशी विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों में से एक चौथाई को छात्रवृत्तियाँ दी जायँ।
  4. योग्य अध्यापकों को आर्थिक सहायता तथा अधिक वेतन उनको अपने कार्य की ओर खींचा जाय।
  5. निश्चित, धनराशि में लाभदायक पुस्तकों का मुद्रण तथा प्रकाशन किया जाय।
  6. देशी विद्यालय जब विषयों के शिक्षण कार्य को ठीक से करने में समर्थ हो जायें तो वे अंग्रेजी की कक्षाएँ भी चला सकते हैं।

“विवरण-पत्र के अनुसार उसने प्राच्यवादियों को प्रतिवर्ष 31 हजार रुपये की अतिरिक्त धनराशि देने की घोषणा की। उसकी इस घोषणा से प्राच्यवादी प्रसन्न हो गये। फलस्वरूप, लम्बे समय से चला आने वाला विवाद समाप्त हुआ। डॉ० एल० एन० मुकर्जी ने लिखा है- “लार्ड ऑकलैण्ड को इस बात का अभिमान था कि उसने 31 हजार रुपये प्रतिवर्ष की मामूली रकम अधिक व्यय करके, उत्तेजित विवाद का अन्त कर दिया।”

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Anjali Yadav

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